अस्वीकार
की अनन्य
-गिरिराज
किराडू
देवी प्रसाद मिश्र |
इंद्र,
आप यहाँ से जाएँ
तो
पानी बरसे
मारूत,
आप यहाँ से कूच करें
तो
हवा चले
बृहस्पति,
आप यहाँ से हटें
तो
बुद्धि कुछ काम करना शुरू करे
अदिति,
आप यहाँ से चलें
तो
कुछ ढंग की संततियां जन्म लें
रूद्र
आप यहाँ से दफा हों
तो
कुछ क्रोध आना शुरू हो
देवियो-देवताओ,
हम आपसे
जो
कुछ कह रहे हैं
प्रार्थना
के शिल्प में नहीं
(प्रार्थना
के शिल्प में नहीं, देवी प्रसाद मिश्र)
मन
में ‘प्रार्थना’ के कई संस्मरण हैं.
और
अधिकांश स्त्रियों के हैं या बचपन के.
मैंने
किसी पुरुष को कोई अविस्मरणीय प्रार्थना करते नहीं देखा, अब तक तो नहीं.
मेरी
नानी ने ऐसा जीवन जिया जिसमें वह जितना
संवाद हम सब से करती थी उससे अधिक पितरों और मृतकों से – अब जबकि वह खुद दिवंगत है
मुझे उससे बात करने का कोई तरीका मालूम नहीं. जब उसके हिसाब से कुछ भी कुछ गलत हो
जाता वह तुरंत, मंच पर स्वगत की तरह, किसी से बात करने लगती और उस वक्त उसके चेहरे
पर जो भाव होता वह बाद में मुझे एक पराये मन्दिर में एक लड़की के चेहरे पर भी देखना
था. माँ निश्शब्द प्रार्थना करती है और अक्सर उसे सुसमाचार या उसके संकेत सपने में
दिखते हैं. नानी और माँ को मैं फ्रायडियन श्रेणियों में समझने की कोशिश भी करता
रहा हूँ और उत्तर भारतीय परिवारों की अर्थ/कामना-दमन प्रणालियों के सन्दर्भ से भी
लेकिन ठीक प्रार्थना के क्षण उनके चेहरे पर देखा हुआ जीवंत तादात्मय
(“रामकृष्ण परमहंस क्षण” ?) मेरे लिए रश्क का बायस रहा है. जब बचपन में
यह सब देखा था तो एक तरह से मन पर छप जाने वाले दृश्य थे – पूरी तरह से अपनी
गिरफ्त में ले लेने वाले. बाद के बरसों में उनके तार्किकीकरण की कोशिशें उन चेहरों
पर पढ़ी इबारत से टकराती रहीं.
लेकिन
प्रार्थना के संकेतक केवल मिस्टिक ही नहीं थे, ‘कॉमिक’ भी थे. घर के ७ लड़कों में
से दो बचपन में ‘पौटी’ ठीक से आ जाये इसके लिए भी बाबा रामदेव का जाप करते थे.
क्यूंकि दोनों की माताएं ‘नीले घोड़े के असवार, रानी नैतल के भरतार’ राम-सा-पीर की
ज़बरदस्त भक्त थीं.
लेकिन
पौटी के लिए प्रार्थना करते उन बालकों के चेहरे पर जो सिंसियरिटी और तादात्मय होता
था वह उस कॉमिक इफेक्ट को कम-से-कम तब हमारे लिए मिस्टिक जैसा ही बना देता था.
‘प्रार्थना’
के इन गंभीर, ‘पवित्र’, मिस्टिक-कॉमिक संकेतों की छाया में खुद भी कई बार
प्रार्थना की थी — अँधेरी गलियों से गुजरते हुए ख़ासकर लेकिन अपना प्रार्थना करना
कभी प्रार्थना करने की तरह अंकित नहीं हुआ. वह ‘आपदा प्रबंधन’ जैसा कुछ रहा मन
में. अपने को कुछ करते हुए कैसे देखा जाता है, अपने से थोड़ा दूर जाकर, यह काम अब
तक तमीज़ से आया नहीं है – कविता लिखने की लगातार कोशिशों के बावजूद; उन दिनों तो कैसे हो पाता.
प्रार्थना
करना भी गलत हो सकता है भला?
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देवी
प्रसाद मिश्र की काव्योक्ति ‘प्रार्थना के
शिल्प में नहीं’ जिस कविता का शीर्षक है, उसे हिंदी कविता की मुख्यधारा द्वारा
मिथक/पुराण के आख्यान के (जो प्रभावी रूप से ‘इतिहास’ भी रहा है इस गल्पप्रेमी
समाज में), ‘परंपरा’ के दृढ अस्वीकार और अवज्ञा की प्रभावी कविता की तरह पढ़ा गया
है. और कहीं न कहीं हिंदी साहित्य के ‘देवताओं’ और उनकी सत्ता के अस्वीकार और
अवज्ञा की तरह भी हिंदी के ‘इनसाइडर्स’ के मानस में रही है यह कविता (हालाँकि यह अहसास
गहराता जा रहा है कि कम-से-कम हिंदी कविता के संसार में केवल ‘इनसाइडर्स’ ही तो
नहीं रह गये हैं?). मानो यह कविता हिंदी साहित्य के ‘इन्द्रों’, ‘मरुतों’ आदि से
भी कहती है कि ‘आप यहाँ से दफा हों तो कुछ ढंग की कविता जन्म ले’. यह दिलचस्प है
कि इस कविता को, कम-से-कम मेरी जानकारी में, हिंदी दलित साहित्य द्वारा कभी अपने
हक में नहीं पढ़ा गया.
लेकिन
यह इस कविता का ज्ञात इतिहास है; इसके समान्तर वह प्राइवेट पृष्ठभूमि है बचपन की जिसके सम्मुख एक संकट की तरह आन खड़ी हुई थी यह
कविता.
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प्रार्थना
करने, करने के अंदाज़ में कुछ कहने में क्या गलत हो सकता है? यह ‘स्मृतियों’ से
मिली उलझन थी जो सहसा मेरे नास्तिक हो जाने, वी.पी.सिंह का अनुयायी हो जाने, सी.पी.एम.
के लोकसभा उम्मीदवार कामरेड श्योपत का ‘माइनर’ कार्यकर्ता हो जाने और चौदह बरस का
हो जाने की प्रक्रियाओं में एकदम हिंसक, हार्मोनल तरीके से छिन्न भिन्न कर दी गयी.
प्रार्थना करने वाले दकियानूस हो गये (‘बुर्जुआ’ नहीं, बीकानेर के परकोटे के भीतर
के चुनावी लाल मुहावरे में इस पदावली की कोई ज़रूरत नहीं थी) और शौचालय में बैठकर
रोटी का कौर तोड़ने से अपने ‘स्वतन्त्र’ आत्म का अहसास होने लगा – इससे बिल्कुल
अनजान कि उसी समय देवी प्रसाद मिश्र की यह कविता लिखी जा रही थी, पुरस्कृत हो रही
थी, हलचलें पैदा कर रही थी.
शायद
१९९३ में मैंने इसे पहली बार पढ़ा होगा, छपने के चारेक साल बाद. तब तक कामरेड
श्योपत कामरेड कहने भर के थे यह ज़ाहिर हो चुका था, वी.पी.सिंह को लेकर अपना लगाव
आसपास के सख्त ब्राह्मण माहौल में ज़ाहिर करना खतरे से खाली नहीं रह गया था, और मैं
‘माइनर’ से ‘वोटर’ हो गया था. इन चार बरसों में एकाध गुप्त प्रार्थनाएं, अपने से
छुपाकर, एक लड़की के लिए, वी.पी. के लिए और अपने को अनिष्ट से बचाने के लिए किसी
अनाम के नाम की गयीं.
इस
कविता ने प्रार्थना के अर्थों को बदल दिया. ‘दकियानूसी’ के साथ-साथ प्रार्थना ‘शक्ति’ द्वारा चिन्हित एक
क्रिया है, ‘वर्चस्व’ द्वारा चिन्हित एक सम्बन्ध है और यह ‘कर्ता’ से अधिक कर्म के
लक्ष्य द्वारा परिभाषित एक कर्म है यह जितना साफ़ साफ़ इस कविता से पता चला था उतना
‘क्रांतिकारी’ होने की किशोर कोशिशों से ना कभी पता चलना था ना चला.
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क्या
यह कविता सचमुच ‘परंपरा’ से कोई वास्तविक प्रस्थान करती है? यह सवाल बाद के सालों
में मन में आया. ‘परंपरा’ जो अब बहुत समस्यामूलक चीज़ वैसे भी लगती है, उससे एकदम
रेडिकल प्रस्थान कैसे होता है? क्या उसके ‘पुनराविष्कार’ से? यह ‘पुनराविष्कार’
वाला तरीका परंपरा के वर्चस्व को प्रछन्न ढंग से कायम रखने की कवायद तो नहीं होता?
क्या बिना अधिक मूल्यनिष्ठ कोई विकल्प प्रस्तावित किये ‘परंपरा’ की तोड़फोड़ या उसके
सम्पूर्ण अस्वीकार से भी कुछ हो पता है? बहुत सारा ‘अवां गार्द’ क्या इसी संकट का
सामना करने से बचता नहीं रहा है? या ऐसा हो सकता है कि यह प्रक्रिया किसी रिले रेस
की तरह हो कुछ प्रयत्न तोड़फोड़ के हों और आगे बैटन विकल्प बनाने वालों के पास चला
जाए?
देवी
प्रसाद मिश्र की यह कविता जिस ‘हिन्दू’ ‘परंपरा’ के बरक्स अपने को लोकेट करती है,
खुद उस ‘परंपरा’ के भीतर/बाहर अस्वीकार के स्वर पहले भी थे, लेकिन हिंदी कविता में
उस ख़ास मरहले पर ऐसी तीक्ष्णता से नहीं. देवी प्रसाद की यह कविता १९८९ में
प्रकाशित हुई थी और ठीक उस समय और उसके बाद के ‘हिन्दू समाज’ में इस कविता को कैसे
पढ़ा गया होता? ‘परंपरा’ की जो सोशल
इंजीनियरिंग उस समय (१९८४-१९९२) हुई उसमें यह कविता कुफ्र मान ली गयी होती लेकिन क्या कवि उस सोशल इंजीनियरिंग को भांप पा रहा था? कविता
देवताओं को रफा दफा कर रही थी और समाज एक अपूर्व धार्मिक उन्माद की गिरफ्त में आ
रहा था. और
कई चीज़ों की तरह प्रार्थना के शिल्प को भी
‘हिन्दू दब्बूपन’ मानने वाला यह उन्माद ललकार पर टिका था. प्रार्थना के शिल्प को
अस्वीकार करने वाले दो एकदम विपरीत मुहावरों की यह ऐतिहासिक सम-क्षणिकता भी इस
कविता को और यादगार बनाती गयी है मेरे लिए.
5
अशोक
वाजपेयी की अनथक कोशिशों के बावजूद हिंदी कविता में प्रार्थना का, प्रार्थना के ईश्वर-निरपेक्ष,
सेक्यूलर, कन्फेशनल संस्करण का भी पुनर्वास नहीं हो पाया है – उनकी मौजूदगी हिंदी
में इतनी जटिल है कि उनके कई कामों के बारे में बाद में ही कभी बात हो पायेगी.
6
प्रार्थना,
कवियों के हाथ में, अस्वीकार की अनन्य है – उसके शिल्प में भी दृढ अस्वीकार संभव
है.
***
देवी प्रसाद मिश्र पर क्या कहें ….. उन्हे तो बस पढ़ें और ताक़त हासिल करें . बार बार पढं और हर बार पहले से ज़्यादा ताक़त .
गिरिराज द्वारा लिखा जा रहा यह स्तंभ अपने कविता चयन के साथ ही उन पर किए जा रहे उनके भाष्य के कारण महत्वपूर्ण बनता जा रहा है. तीनों ही किश्तों के लिए किया गया कविता चुनाव आज के समय में जरूरी लगता है. कविता में स्वीकार व अस्वीकार दोनों परिस्थियों में उदात्तता क्या होती है और वह मनुष्य होने की किस ऊँचाई से आती है यह यहाँ बखूबी महसूस होता है. इन कविताओं पर उनका भाष्य कविता के परिप्रेक्ष्य के नए आयाम खोलता है और समझ के दायरे में नया जोड़ता है. किसी कविता पर डिसकोर्स को कैसे उसके पर्सनल टच को सामने लाकर समझा जाए और फिर किस तरह उसे जनरलाइज किया जाए यह यहाँ बहुत खूबसूरती के साथ सामने आता है.
शुक्रिया प्रमोद.बहुत अच्छा लगा कि तुमने ध्यान से पढ़ा.
इस पूरे टेक्स्ट में कवि के निजी मैं की स्वतंत्र आवाजाही अच्छी लगी . एक समय कितनी यह कविता लेखक में भी रची बसी हुई थी का सुन्दर स्मरण .