भोपालवासी कवि-कहानीकार और संगीतज्ञ वन्दना शुक्ल की कविताएं समकालीन स्त्री मुहावरे से बाहर निकलने/होने की जिद से भरी नहीं, बल्कि उसके भीतर अलग स्वर में बोलती कविताएं हैं। उनकी चिन्ताओं का दायरा सीमित नहीं है। वे विमर्श के बंधन को तोड़ती हैं। उनकी कविता का ये प्रश्न स्त्री-संसार और उसके गिर्द विमर्श रचने वालों के आगे एक मंद्र-गम्भीर किंतु अनेक हलचलों वाले आलाप की तरह उपस्थित होता है- क्यूँ वैश्विक कलाएं,साहित्य,त्रासदियाँ / घूम फिरकर / टिका लेते हैं सिर औरत के कंधे पर ही ?
अनुनाद पर ये वन्दना शुक्ल की कविताओं की दूसरी प्रस्तुति है। अनुनाद कवि के प्रति आश्वस्त है और शुक्रगुज़ार भी।
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गूगल इमेज से साभार |
औरत और पृथ्वी
पृथ्वी के गोल होने के साक्ष्य
और भी बहुतेरे हैं
जुगराफिया सबूतों के अलावा
बाइबल के सत्य (?)और
गेलीलियो /कोपर्निकस के विवादों
और वैचारिक टकराहटों से परे भी
असत्य सत्य पर शास्वत सत्य के
वुजूद से इतर
वुजूद से इतर
अतीत के धुंधले अंधेरों में
कुछ प्रश्न-चिन्ह आज भी खड़े हैं
सलीबों की मानिंद
ठुकी हुई हैं कीलें
हर काल की हथेली पर
अपने तमाम ज्ञानों,
आदर्शों ,और
आदर्शों ,और
उपलब्धियों को झोली में भरे
औरत
पृथ्वी के चक्र के साथ
अंततः
उसी बिंदु पर आकर मिलती हैं
दुनिया की सबसे पहली औरत से
शिकायत करती है हर युग की
विकास और आधुनिकता के
हज़ारों दम्भों के बावजूद
जो अंतत छलता रहा है
उसके वुजूद को ही
पूछती हैं वो उससे
फिर
क्यूँ दुनिया के नक़्शे में
छाई हुई है औरत ही
और
क्यूँ वैश्विक कलाएं ,साहित्य ,त्रासदियाँ
घूम फिरकर
टिका लेते हैं सिर औरत के कंधे पर ही ?
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चक्र
चाहने और होने
मृगतृष्णा और सच्चाई
ज़िंदगी और मौत के बीच
ना जाने कितने विवशताओं लंबी
सड़क होती है जिसके
एक ओर तमाम सपनों को गठरी लिए
खड़े रहते हैं हम किसी
उम्मीद के
कच्चे रास्ते पर
पार जाने का एक
सतत इंतज़ार आँखों में भरे
और पाते हैं कि अनियंत्रित ट्रेफिक
में
में
ले उड़ा है कोई हमारी
गठरी ना जाने कब
शायद नियति …?
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अदृश्य
प्रेम को नहीं चाहिए
अपने होने के बीच
कोई कविता ,शब्द
रंग , गीत या
दृश्य
दृश्य
मौन प्रतीक्षा की
प्रेम एक अदृश्य ज़रूरत है
एक नीली पारदर्शी नदी
बहती रहती है जो चुपचाप
कोमल विरलता में
आत्मा से आत्मा तक
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अफ़सोस
पिता रिटायरमेंट के बाद का
ख़ालीपन भरते अख़बार से पर
माँ को राजनीति में गहरी रुचि थी |
पिता पढ़ते जनसंघ की
रणनीतियाँ ,योजनाएं ,घोषणाएं
अख़बार में और माँ
ख़बरों में टटोलतीं कांग्रेस की
उपलब्धियां,
उपलब्धियां,
समृद्ध इतिहास और देश का विकास
जनसंघ की ख़बरों के ऊपर अक्सर वो
काटतीं पालक मेथी सरसों की भाजी
पिता का बेहद ख़याल रखने वाली
सभ्य सुसंकृत माँ और सीधे सादे
पिता के बीच
पिता के बीच
अपनी अपनी पार्टियों को लेकर छिड़
जाती
जाती
गर्मागर्म और गंभीर बहसें अक्सर
विरोधी पार्टियों पर
महंगाई,भ्रष्टाचार,अपराध आतंक के
आरोप-प्रत्यारोप
कभी-कभी
दो-तीन दिन तक अबोला हो जाता उनमें
एक दिन ना रहे पिता, ना रहीं माँ
आज भी होता है कभी-कभी अफ़सोस
क्यूँ गंवाए उन्होंने
अबोले में वो दिन
अपनी सीमित और अमोल ज़िंदगी के
बेज़ा ,निरर्थक अंतहीन बहसों में