अनुनाद

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मनोज कुमार झा की कविताएं

मनोज कुमार झा से कविताओं के लिए अनुनाद ने अनुरोध किया था और दो महीने का इन्‍तज़ार भी। अनुनाद पर अप्रकाशित होने की शर्त और झंझट नहीं है। हमारा मानना है कि अच्‍छी कविताएं कितनी भी बार – कितनी भी जगहों पर छापी जाएं, कम है। मनोज की यहां दी जा रही कविताएं उनकी सूचना के अनुसार पब्लिक एजेंडा में छपी हैं, जो फिलहाल उत्‍तर भारत और हिंदी पट्टी में एक अल्‍पज्ञात पत्रिका ही है। इस तरह इन कविताओं का यहां पुनर्प्रकाशन हमारे अधिकांश पाठकों के लिए एक तरह से प्रथम-प्रकाशन ही है, न होता तो भी युवा जीवन के संघर्ष को एक नया मर्म और स्‍वर देती ये कविताएं बार-बार छापी और पढ़ी जानेवाली कविताएं हैं। इन कविताओं के लिए अनुनाद की ओर से कवि को शुक्रिया। 
***
मनोज कुमार झा
  
समर्पण     
हाँ मुझे दुःख है
आइये यहाँ छूइये मेरी आँख के नीचे
मैं उसकी धरम का न था तो जाहिर है
कि जात का भी नहीं।
तेइस साल का साथ था हमारा
हम एक ही दुकान से ब्रेड चुराते
थे
भुट्टा बेचने वाली बुढि़या ब्रेड
गरमा देती थी
और शोरबा देता था टैक्सी स्टैंड के
पास पूरी बनाने वाला।
मैं किताब चुराते पकड़ाया तो उसने मेरे पागल
होने का ऐसा दिली अभिनय किया कि
मेरे पागल होने के कमज़ोर अभिनय को
बचा ले गया।
अब उसके दोनों पाँव कट गए
और मैं मनुष्यता की एक बहुत छोटी
बात कहता हूँ -दुःख है
फिर भी आपको शक है
तो लीजिए मैं समर्पित करता हूँ अक्षरों
से सींचा गया यह टुकड़ा
उसको जो करे हस्ताक्षर तो प्रमाणित
हो यथार्थ
*** 
जल-ऋण     
दौड़ता आया
ताकता पानी के निशान
नल पड़ा मझप्यास अधकटे वृक्ष के पास
टोटी में मुँह लगाता कि घड़ा दिखा
भरा आकंठ
घड़ा ही सौंप दिया देह को
तब आँख खुली और दिखी वह स्त्री सद्यःस्नात
हँसते बोली घर से क्यों निकल जाते
हो पानी के बगैर
मैं प्रणाम करता उसे मगर लौट आया
अकबकाया
ऋण न चुका पाने का हहास
साथ दौड़ता पीछे।
*** 
जब ठग पक जाता है       
जो ठग क्या उसे भी कभी अफ़सोस अपने
शिकारों के लिए
शुरू में रहता है, कभी कभी तो श्रद्धा भी-माँ ने कहा था
फिर पक जाता है घड़ा और नहीं रखता
मतलब
जल के स्वाद से ।
***
एक रात अकेला       
अड़सठवें साल की एक रात अचानक सोचते
हो
कितना पड़ गया हूँ अकेला
बुझे मन से बल्ब जलाते हो और प्रकाश
में भीग जाते हो
निकालते हो तह किए ख़तूत अलमारी से
और भीगते हो अक्षरों के सुवास में
बल्ब बुझाते हो अंधेरे से भीगते
हो
लौट जाते हो बिस्तर पर ठीक करते हो
देह
और रजाई की गर्मी से भीगते हो
और फिर सोचते हो इतनी चीज़ें हैं तुम्हें
भिगोने को उत्सुक और ख़ुश होते हो
तभी हहरती है देह उस फटे पर्दे वाली
खिड़की के पास
कि बाहर हहा रहे मेघ
और यहाँ भीतर एक पत्ता उतार रहा हरा
केंचुल।
***

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