अनुनाद

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श्रीकांत दुबे की चार नई कविताएं

श्रीकांत दुबे

कविता और कहानी के प्रदेश में श्रीकान्त दुबे हमारे ख़ूब जाने-पहचाने प्रतिभावान युवासाथी हैं । मेरी श्रीकांत से एक छोटी-सी मुलाक़ात बनारस में हुई थी…..2005 में….. चंदन पांडे, मयंक और हमारे बुज़ुर्गवार वाचस्‍पति जी के साथ। चन्‍दन और श्रीकान्‍त की उस उम्र की आंखों में जो चमक थी, वो अब उनके रचना-संसार के साथ सबके सामने है। आज अनुनाद पर श्रीकान्‍त की चार कविताएं लगाते हुए वह बहुत आत्‍मीय अपना-सा एक अहसास और भी गाढ़ा लग रहा है। किसी को निजी लग सकता है ऐसा कहना पर यह उतना निजी नहीं….साहित्‍य में सारा निजी अंतत: प्रकाशित होते जाने वाली चीज़ है। निजता की अभिव्‍यक्ति हमें और हमारे लिखे को विश्‍वसनीय बना देती है…. अगर वह अपने परकोटों से बाहर के संसार में छलांग लगा पाए तो – ठीक यही काम श्रीकान्‍त की यहां प्रकाशित कविताएं भी कर रही हैं। निजता यदि सच्‍ची और अर्थवान है तो वह समाज और राजनीति में अतिक्रमित हो जाती है, उन्‍हें भी अपने भीतर लाती है। ऐसे अतिक्रमण को बख़ूबी सम्‍भव करती हुई श्रीकान्‍त की इन कविताओं में देखा जा सकता है कि इनके गहरे मर्म हमारे विकट और क्षुब्‍ध सामाजिक एकान्‍त से आते हैं … हमें झकझोरते और जगाते हैं। 


मैं श्रीकान्‍त का अनुनाद पर स्‍वागत करता हूं और इन कविताओं के लिए शुक्रिया भी कहता हूं।   
*** 

सल्‍वादोर डाली : गूगल इमेज से साभार

याददाश्त
याददाश्त में बचपन की किसी रात देखे
सपने के दृश्य ताजा होते हैं जिसमें दशकों पहले के विदेश गए चाचा वापस लौटकर घर के
दरवाजे पर टहलते रहते हैं। पिता याददाश्त में पैरों से घायल होते हैं और पुरानी साइकिल
की जंग खाई फ्रेम पर कुल्हाड़ी बांध हर सुबह जाते हैं काम पर।
याददाश्त के एक धुंधले चित्र में
बहन हसरत से देखती है मुहबोले भाई की तस्वीर यूं खुलती है बात कि बहन की मौत और विनायक
भइया का गायब हो जाना एक दूजे से जुड़ी चीजें थीं।
याददाश्त में बीमार दादी दवा के जिक्र, डाक्‍टर की अनुपस्थिति और वातावरण में छाए बुखार के रंग
के बीच खत्म होती हैं धीरे धीरे। याददाश्त में मां की हथेली उंगलियों पर तौलिया उलझाए
खपरैल के किनारे की ओर उठी होती है
, तौलिए की गीली कोरों से बूंदे टपकती
रहती हैं और दृश्य में मां के मुह से एक तिरछा कटा दांत झांकता रहता है बाहर।
याददाश्त के घर के मुंडेर के पीछे
से श्रीफल के पत्ते दिन ब दिन गहरे-घने-हरे होते हैं और दादा के चेहरे की असली बनावट
चमड़ी की झुर्रियों और सांवली झाइयों पर चमकते सफे़द बालों के बीच लगातार ग़ायब होती
जाती है।
याददाश्त में एक रात पूरी दुनिया
में बारिश होती है और लकड़ी और मिट्टी की उलझन से बने छत से टपकती रहतीं हैं बारिश
की अनंत बूंदें।
याददाश्त के एलबम में चुपचाप घटित
होती एक तस्वीर में दोनो ओर की झाड़ों से अपनी आधी चौड़ाई में ढॅंकी सड़क का रंग तेज
धूप के चटक पीले रंग का होता है और उस पर विपरीत दिशा से आती लड़की अपने पहले चुम्बन
के बाद लगाती है बेतहाशा एक दिशा की लम्बी दौड़।
***  
घर

हर शाम में घर जरूरी होता था।

दिन के तीसरे पहर में शुरू हो जाती
थी अचानक घनघोर बारिश और छुट्टी के वक्त के चार बजे को दिन के दायरे से घसीटती हुई
पहुंचाने लगती थी रात की शुरूआत के छः या सात बजे तक स्कूल की दीवारों पर सटने लगते
थे अजनबी अंधेरे और रात किन्हीं अनजान शैतानों की तरह घेरने लग जाती थी हर ओर से तभी
डेढ़ कोस की दूर यानी घर की ओर से उठता था एक हहाका लगातार घुसता जाता था सीने में
चक्रवात जैसे हहाके में मिले होते थे बारिश और अंधेरे के गंध और तस्वीरें पर उसमें
छोटे घर में एक से दूसरे कोने तक डोलती मां की उपस्थिति सबसे अधिक होती थी और बारिशें
और अंधेरे डरावने तो जरूर
, लेकिन खूबसूरत भी लगा करते थे जैसे
कभी न टूटने की आश्‍वस्ति से भरे पिंजरे के पीछे कोई गुर्राता बाघ।

स्कूल से सबसे बाद में जाता था चपरासी
कोदई प्रसाद जो जाने से पहले हर एक कमरे के हरेक कोने की छानबीन कर खोज ही लेता था
कोई न कोई पेंसिल
, रबर,
चांद,
परकार, कोई कलम या चंद कोरे पन्ने अपने बच्चों के लिए और बारिश
वाली ऐसी हरेक शाम में एक निर्धारित कोने में उसे मिल ही जाता था मैं भी। मेरा कोदई
प्रसाद को मिल जाना मेरे सीने के भीतर के हहाके को खत्म तो नहीं
, लेकिन कुछ कमअसर जरूर कर देता था वह चुपचाप उठा लेता था
मुझे जैसे वह किसी मास्टर के कहने पर चुपचाप उठा लिया करता था कोई कुर्सी
, कोई स्टूल फिर एक छोटे कमरे वाले दफ्तर में चेहरे पर उगी
हल्की सिकन के साथ वो एक भारी सा मेज। उसकी साइकिल सीधे स्टैंड पर खड़ी रहती थी जिसका
कैरियर वर्षों तक टूटा ही रहा था और इसके आधार पर यह भी कह सकता हूं कि वह वर्षों पहले
से टूटा रहा होगा
, कोदई प्रसाद उस टूटे कैरियर के दो
जुड़े सिरों पर टिका देता था मेरे पैर और मैं उसके कंधे पर अपने हाथ रख खड़े खड़े करने
लगता था रात की सवारी। कभी कभार चांद वाली होने के बावजूद बादलों के असर में वे रातें
गहन अंधेरी हुआ करती थीं लेकिन कोदई प्रसाद फिर भी नहीं भूलता था कीचड़ से भरी मिट्टी
की कच्ची सडक से गुजरती
, कम कीचड़ वाली पतली लीकें। शायद उसकी
साइकिल के पास भी थीं आंखें जिनके देख पाने के लिए रौशनी कोई जरूरी चीज नहीं थी।

मैं फिर से घिर आया हूं एक वैसी ही
शाम में कोई न कोई रात अब भी आने वाली है
,
दशकों की दूरी पर छूट आए घर की ओर
से फिर से उठा है हहाका
, लेकिन उस घर तक पहुंचने का कोई रास्ता
नहीं है कहीं और टूटे कैरियर की साइकिल वाले कोदई प्रसाद भी।
***

चेहरा
बचपन के चेहरे में बुढ़ापे का चेहरा
तने में फूल की तरह छुपा रहता है।
मौसम,
तबीयत और हवाओं के बदलने की हमें
आदत रहती है लेकिन परिन्दे हमेशा एक से दिखते हैं। जवानी में रंग होते हैं इंद्रधनुष
के जो आसमान की सतह में उगते और गुम हो जाते हैं। चमड़ी पर उम्र भर एक जिद्दी सॅंवलाई
दर्ज रहती
, है हथेली और एड़ियां बदस्तूर दिखती हैं लाल
बढ़ने या खर्च होने के बीच बीतती
रहती हैं ख़ुशियां और दर्द और थकान दवा की गोलियों से रखे जाते हैं दूर।
इस दौरान जब बेटी किसी की प्रेमिका
और पत्नी बन चुकी होती है नर्म त्वचा और सीधी रही हड्डियों के बीच भरने लगती है कोई
रिक्ति।
काली आंखों के उपर जब चमकने लगती
हैं सफेद लकीरें और सामने होती है एक तस्वीर…
बचपन का चेहरा एक शाश्वत भ्रम होता
है।
***

अन्ठानबे को बीते…..
(यह कविता वर्ष 2008 में लिखी गई थी)
अन्ठानबे का पूरा वर्ष अन्ठानबे के
वर्ष के खत्म होने के रोमांचक इंतजार से भरा था इसमें शामिल थीं सदियों से अधूरी पड़ी
चीजों की अनगिन अपेक्षाएं जिनके साथ नई सदी की शुरुआत से अपने जितनी पुरानी तमाम उम्मीदें
जुड़ी हुई थीं। अन्ठानबे के वर्ष के अन्त से इक्कीसवीं सदी की दूरी सिर्फ निन्यानबे
के एक वर्ष की थी इक्कीसवीं सदी की शुरुआत निन्यानबे के अन्त के इतना करीब थी कि इक्कीसवीं
सदी को निन्यानबे के वर्ष से अलगाया नहीं जा सकता था इस तरह इक्कीसवीं सदी की शुरुआत
के इन्तजार के ठीक पहले निन्यानबे के बर्ष के अन्त का इन्तजार चिपका हुआ था और वहां तक पहुंचने का रास्ता अन्ठानबे के वर्ष से होकर ही जाता था लिहाजा छियानबे और सत्तानबे
के वर्षों में भी नई सदी की शुरूआत तक तक पहुंचने के लिए सबसे ज्‍़यादा इंतजार अन्ठानबे
के वर्ष के आने और जाने का रहा।
जिसकी पैदाइश का वर्ष अट्ठासी का
वर्ष था अन्ठानबे में उसकी उम्र दहाई का सफर पूरा लेने वाली थी दहाई की उम्र पूरा करने
का उत्साह नई सदी की शुरुआत के रोमांच की तुलना में इतना कम था कि दहाई की उम्र पूरा
करने का वर्ष उसके जीवन का उतना यादगार वर्ष नहीं हो सका। निन्यानबे के वर्ष की शुरूआत
से घटती नई सदी की दूरी के शून्य होने के बीच की सारी घटनाओं को इक्कीसवीं सदी की शुरूआत
से कुछ दिन पहले की घटना के रूप में याद कर लेना आसान था यह आसानी नई सदी की शुरूआत
के कुछ वर्षों बाद तक भी बरकरार रही लेकिन इस तरह हुई नई सदी की शुरूआत के भीतर बीती
सदी का अन्त चुपचाप कहीं गुम हो गया था।
नई सदी की शुरूआत के उत्साह के चुकते
जाने के साथ बीती सदी में हासिल उपलब्धियों की गिनती शुरू हो गई और नई सदी के उपर कम
से कम उसके कई गुना से ज्यादा की अपेक्षाएं लाद दी गईं जोर शोर से एक हाल की बीती सदी
का इतिहास लिखा जाने लगा और कुछ फनकार जो बीती सदी के वर्षों में मशहूर होकर अपना असर
नई सदी में भी बदस्तूर जारी रखने वाले थे उन्हें सिर्फ बीती सदी का बड़ा फनकार मानने
का अन्याय भी हुआ।
इस चिर प्रतीक्षित नई सदी की शुरूआत
ने बीती सदी के साथ जुड़ी उसकी पिछली सदी को बीती सदी से हमेशा के लिए अलग भी कर दिया
नतीजतन गुजरी सदी के ठीक पहले की सदी के अन्तिम वर्षों में पैदा हुए कुछ लोग जो बीती
सदी की सौ वर्षों की लम्बी उम्र पार कर इस नई सदी तक चले आए थे खुद को अपनी आखिरी सीमा
के बाहर ला दिए जाने जैसा महसूस करने लगे और इस शुरूआती सदी के कुछेक वर्षों में ही
ऐसे लोगों की भारी तादात चुपचाप समय के भीतर खामोश हो गई।
नई सदी की शुरूआत के साथ ऐसे बहुत
लोगों ने ऐसी बहुत सी चीजें शुरू कर दीं जिनके आरम्भ के बारे में वे बीती सदी के आखिर
के कई वर्षों में सोचते रहे थे।
अब जो कुछ भी घटित हो रहा है  वह सदियों के संक्रमण के उहापोह से बाहर है और हर
चीज अब नई सदी के बीच की चीज है बीती सदी के भीतर पैदा हुए लोग अपने द्वारा नई सदी
के देखे जाने के रोमांच को पार कर अब पूरी तरह से नई सदी में शामिल हो चुके हैं अट्ठासी
के वर्ष में पैदा होने वाले की उम्र ने इस वर्ष दूसरी दहाई में प्रवेश ले लिया और नई
सदी के आरम्भ के रोमांच से बाहर होने के कारण दूसरी दहाई में प्रवेश का वर्ष उसके लिए
स्वतंत्र रूप से यादगार वर्ष भी बन सका।
*** 
यह अनुनाद की 585वीं पोस्‍ट है

0 thoughts on “श्रीकांत दुबे की चार नई कविताएं”

  1. यह देखकर अच्छा लगा कि अपनी ब्यस्त दिनचर्या मे से कुछ समय निकालकर लिख लेते हो……इन कविताओ को पढते हुए लग रहा था कि ललित निबन्ध पढ रहा हू…….

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