अनुनाद

हिन्दी साहित्य, समाज एवं संस्कृति की ऑनलाइन त्रैमासिक पत्रिका

दिविक रमेश की कविताएं

वरिष्‍ठ साहित्‍यकार दिविक रमेश से हमें अनुनाद के लिए उनकी ये कविताएं प्राप्‍त हुई हैं, जिनमें समसामयिकता और उसकी अभिव्‍यक्ति के विविध रूप और हस्‍तक्षेप हैं। अनुनाद उनका स्‍वागत करते हुए इस रचनात्‍मक सहयोग के लिए आभार व्‍यक्‍त करता है। 
इस पोस्‍ट की पहली कविता के साथ अनुनाद दामिनी को अत्‍यन्‍त शोकपूर्ण श्रद्धांजलि भी अर्पित करता है- यह घटना एक सामूहिक शर्मिन्‍दगी है।


पूजना
चाहता हूं किसी अवतार की तरह
(दिल्ली
में क्रूरतम बलात्कार की शिकार दामिनी के पक्ष में २१-१२-२०१२ को उमड़े जन सैलाब को
देखकर)
भीड़ भी तो
नहीं कह सकता इसे!
माना, न ये लाद कर लाए गए हैं ट्रकों पर
और न ही आए
हैं ये रेलगाड़ियों पर होकर काबिज ।
इनके हाथों
में ढर्रेदार झंडे भी तो नहीं हैं
जिन्हें
देखने के आदी हैं हम। खासकर जन्तर-मन्तर और इंडिया गॆट पर।
छुट भैया
नेता तक लापता हैं दूर दूर तक
कैसी भीड़ है
यह जहां भाषण से अधिक लावा उमड़ रहा है हर ओर से!
पुलिस का
बंदोबस्त ज़रूर वैसा ही है जैसा होता आया है अक्सर।
भर ज़रूर
गया है पूरा राजपथ जन सैलाब से
तबदील हो
गया हो जैसे जनपथ में
शायद जन सैलाब
ही कहना ठीक रहेगा इसे।
दौड़ो दौड़ो
कविताओ
,
कर लो दर्ज इसे
कहीं खिसका
न दिया जाए
हर क्षण
इतिहास रच रहा यह दृश्य।
जितना
सोचता हूं उतनी ही पड़ रही हैं माथे पर चिन्ता की रेखाएं
उतनी ही
अधूरी पड़ रही हैं संज्ञाएं
शायद
स्वयंभू जन सैलाब कहना उचित हो अधिक।
क्या नहीं
लग रहा कि जैसे निकल आई हों हाथों में लिए मशालें
जुलूस
निकालती तमाम कविताएं
चांद का मुह टेढ़ा है” की
और फैल गई
हों सड़क से संसद तक
जो धूमिल
ही पड़ी थी अब तक।
देखो देखो
ठिठुरते
कोहरे से कैसे निकल आईं हैं ये पंक्तियां
तनी, चमकती–
दोस्तो एक बार
सिर्फ एक
बार
शुरुआत
जनपथ से भी
कर देखो
राजपथ
खुद सुधर
जाएगा।
सोच रहा
हूं
संविधान की
किस धारा में बांध कर देखूं इसे
इस चंगुलों
से मुक्त स्वयंभू जन सैलाब को!
कैसा सैलाब
है यह
जहां मानो
दूर दूर तक लग गया हो कर्फ्यू धर्म की दुकानों पर
जहां मानो
रसातल में भी नहीं जगह
सिर
खुजलाने तक का नहीं अवसर जहां मानो जातियों को राहत में!
कैसा सैलाब
है यह
जिसकी
प्रतीक्षा में जाने कब से खप रही थीं भयभीत
, दुबकी बेऔक़ात कर
दी गईं
सिसकियों
की आंखें
लटक आई थीं
जो बुझी लालटेनों सी अपने कोटरों पर।
क्या वही
तो नहीं है यह
जिसकी
प्रतीक्षा में सूख कर दरकने लगी थी उम्मीदों की पृथ्वी
क्या वही
तो नहीं है यह
जिसक
प्रतीक्षा में खड़ा होता गया था
क्या फर्क पड़ता हैजैसे उदास मुहावरों का
साम्राज्य!
क्या वही
तो नहीं है यह
जिसकी
प्रतीक्षा में कविताएं तक छिपने लगी थीं शंकाओं और प्रश्नों के आवरणों में।
पा रही हों
राजनीतियां!
शायद वही है
यह
लॊटने लगी है
मेरी आस्थाओं की लाशों में सांसें।
अगर वही है
यह
तो मैं
पूजना चाहता हूं इसे किसी अवतार की तरह।
***

माँ गाँव में है
                   
चाहता था
आ बसे माँ भी
यहाँ, इस शहर में।

पर माँ चाहती थी
आए गाँव भी थोड़ा साथ में
जो न शहर को मंजूर था न मुझे ही।

न आ सका गाँव
न आ सकी माँ ही
शहर में।

और गाँव
मैं क्या करता जाकर!

पर देखता हूँ
कुछ गाँव तो आज भी ज़रूर है
देह के किसी भीतरी भाग में
इधर उधर छिटका, थोड़ा थोड़ा चिपका।

माँ आती
बिना किए घोषणा
तो थोड़ा बहुत ही सही
गाँव तो आता ही न
शहर में।

पर कैसे आता वह खुला खुला दालान, आंगन
जहाँ बैठ चारपाई पर
माँ बतियाती है
भीत के उस ओर खड़ी चाची से, बहुओं
से।

करवाती है मालिश
पड़ोस की रामवती से।
सुस्ता लेती हैं जहाँ
धूप का सबसे खूबसूरत रूप ओढ़कर
किसी लोक गीत की ओट में।

आने को तो
कहाँ आ पाती हैं वे चर्चाएँ भी
जिनमें आज भी मौजूद हैं खेत, पैर,
कुएँ और धान्ने।

बावजूद कट जाने के कालोनियाँ
खड़ी हैं जो कतार में अगले चुनाव की
नियमित होने को।

और वे तमाम पेड़ भी
जिनके पास
आज भी इतिहास है
अपनी छायाओं के।

***

दैत्य ने कहा
  
दैत्य ने कहा मैं घोषणा करता हूं
कि आज से सब स्वतंत्र हैं
कि सब ले सकते हैं आज से
भुनते हुए गोश्त की लाजवाब महक।

सब ख़ुश हुए क्योंकि सब को ख़ुश होना चाहिए था।
कितना उदार है दैत्य

दैत्य ने कहा
तकाजा है नैतिकता का कि नहीं भूनने चाहिए हमें दूसरों के शरीर
वह भी महज भुनते हुए गोश्त की महक के लिए।

सबने स्वीकार किया।
कितना महान है दैत्य

दैत्य ने कहा
खुद को जलाकर खुद की महक लेना
कहीं बेहतर कहीं पवित्र होता है महक के लिए।

सबने माना और झोंक दिया आग में खुद को।
कितना इंसान है दैत्य

दैत्य ने कहा
तुम्हें गर्व होना चाहिए खुद की कुर्बानियों पर

सब और और भुनने लगे मारे गर्व के।
कितना भगवान है दैत्य

दैत्य ने कहा
पर इस बार खुद से
कितना लाजवाब होगा इन मूर्खों का महकता गोश्त
आज दावत होगी दैत्यों की।

दैत्य हंसता रहा हंसता रहा

***

आकाश से
झरता लावा
राजनीति
नहीं छोड़ती
अपनी
माँ-बहिन को भी
जैसे रही है
कहावत
कि नहीं
छोड़ते कई
अपने बाप
को भी ।
ताज्‍़जुब है
नदी की बाढ़
की तरह
मान लिया
जाता है सब जायज
और रह लिया
जाता है शान्त ।
थोड़ा-बहुत
हाहाकार भी
बह लेता है
बाढ़ ही में
यह कैसी
कवायद है
कि आकाश से
झरता रहता है लावा
और न फर्क
पड़ता है
उगलती हुई
पसीने की आग को
औरर न फर्क
पड़ता है
राजनीति के
गलियारों में
क़ैद पड़ी
ढंडी आहों को ।
यह कैसी
स्वीकृति है
कि स्वीकृत
होने लगती है नपुंसकता
एक समय
विशेष में
खस्सी कर
दिए गए एक खास प्रधानमंत्री की ।
कि स्वीकृत
होने लगती हैं
सत्ता
विरोधियों की शिखण्डी हरकतें भी ।
मोडे-संन्यासियों
के इस देश में
दिशाएं
मजबूर हैं
नाचने को
वारांगनाओं सी
और धुत्त
बस पीट रहे
हैं तालियाँ- वाम भी अवाम भी ।
कहावत है
हमाम में
होते हैं सब नंगे-
अपने भी
पराए भी ।
अब चरम पर है
निरर्थकता
समुद्रों
की
,
नदियों की
जाने
क्यों चाह
रहा है मन
कि उम्मीद
बची
पोखरों में, तालाबों में
और एकान्त
पड़ी नहरों में
झरनों में
जाने क्यों
दिख रही है
लौ-सी जलती
हिमालय की
बर्फों में ।
डर है
कहीं
अध्यात्म तो नहीं हो रहा हूं मैं !
हो भी जाऊं
अध्यात्म
एक बार अगर
जाग जाएं पत्ते वृक्षों के ।
जाग जाएं
अगर निरपेक्ष पड़ी वनस्पतियाँ ।
जाग उठे
अगर बांसों में सुप्त नाद ।
अगर जगा
सके भरोसा अस्पताल अपनी राहों में
जख्मी हवाओं
का ।
रहे बाकी
***
आवाज आग भी
तो हो सकती है
देखे हैं मैंने
तालियों के
जंगल और बियाबान भी।
बहुत ख़ामोश
होते हैं तालियों के बियाबान
और बहुत
नीचे आ जाया करते हैं
तालियों की
गड़गड़ाहट से आसमान।
कठिन कहां
होता है
बहुत आसान
होता है
समझ लेना
अर्थ तालियों की
मुखरित या ख़ामोश
होती आवाज़ का।
पर देखा है
मैंने एक ऎसा भी हलका
जहां कठिन
होता था
आवाज़ का
अर्थ लगाना।
वह हलका था
मेरी मां की हथेलियों का
या उन
हथेलियों का
जो आज भी फैलाती
हैं रोटियां
हथेलियों
की थाप से।
हथेलियों
के बीच रख लोई
थपथपाती थी
मां
और रोटी
आकार
हथेलियों
की आवाज में ।
बहुत गहरी
होती है आवाज थाप की।
कभी कम
होती है
कभी ज़्यादा
पर खामोश
नहीं होती।
खामोश होती
थी तो मां
या वे
लेती थी
जो देती हैं
आकार आज भी रोटियों को
हथेलियों
की थाप से।
निगाह जब, बस रोटी पर हो
तो कहां
समझ पाता है कोई अर्थ
थाप का
कम या
ज्यादा आवाज का।
उपेक्षित
रह जाती है आवाज
जैसे
उपेक्षित रह जाती थी मां
या वे सब
जो देती हैं
आकार आज भी रोटियों को
हथेलियों
की थाप से।
पा लेती हैं
आवाज आकार लेती रोटियां
पर कहां
पाती है आवाज
वे आंखें
जो फैलती हैं
साथ-साथ
लोई से
बदलती हुई रोटी में
और रचती हैं
एक लय
हथेलियों और
तवे में
,
तवे और आग
में
,
और फिर आग और
तवे में
तवे और
थाली में।
क्यों लगता
है
आवाज आग
भले ही वह
चूल्हे ही
की क्यों न हो
,
खामोश ।
भी तो हो
सकती है
***

उनका दर्द-मेरी जुबान

हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी
शायद वह आतंकवादी भी नहीं है
जो भून डालता है महज भूनने के लिए
जिसके पास है भी कोई समझ या दॄष्टि –
संदेह ही बना रहता है ।

हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी
शायद यह है
कि हमारे ही सामने, हमारे ही मुहल्लों
में

हमारी ही समझ की छतों के नीचे
हमारे दर्दों को भी हमारा नहीं रहने दिया जाता ।
बस छीन लिया जात है हमसे –
न कोई कीमत, न कोई मुआवजा !

कैसी त्रासदी है न
होते ही उनका
हमारा दर्द हमें ही पहचानने से इंकार कर देता है –
ओपरा ओपरा होकर  आंखें चुराता है

बड़े घर के कुत्तों-सा लगता है घूमने बड़ी बड़ी गाड़ियों में ।
कहां-कहां तक पहुंच नहीं हो जाती –
क्या इमारतें और क्या बड़े-बड़े होटल ।
कुर्सी मेज़ों पर खाने उड़ाता है ।

कोई कान तक नहीं देता था जिनकी और
अब देखिए औकात उनकी –
कितना बड़ा अभिनेता हो गया है –
निकल निकल भोंपुओं से
कैसा रंग जमाता है ।
उसके दर्दीले ठुमकों पर
पूरी दुनिया नागिन सी झूमती है ।

हमारा दर्द
जो हमें भिखारी तक बना देता था
पहुंचते ही मंचों पर
हमें दाता की मुद्रा में ला देता है ।
और कवच ओढ़े हमारे दर्दों के वे
(जिनके नाम लेने तक में  खतरा
है हमें )

हमारी त्रासदी के देवता बन बॆठते हैं ।
और हम ?
हमें तो पता ही नहीं चलता
कब क्या हो जाते हैं हम ।

हां, गाहे-बगाहे
जाने क्यों लगता है लगने
कि उनके भोंपू ही नहीं अन्दोलन भी
लादे अपने कंधों पर
उन्हें ही ढोते हैं ।
ढ़ोते हैं जैसे ढोते रहे हैं अपनी मजबूरियां
अपनी भूख और प्यास भी
और डरों में लिपटा अपना गुस्सा भी ।

क्या नहीं है यह भी हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी ?

हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी तो यह भी है
कि ताक़त है हममें
पर जीते हैं ताक़त की मुद्रा में ।
हममें युद्ध है
पर जीते हैं युद्ध की मुद्रा में ।

हममें
गुस्सा है
पर
जीते हैं गुस्से की मुद्रा में ।
हम
फेंक सकते हैं उखाड़ कर
पर
जीते हैं उखाड़ फेंकने की मुद्रा में ।
हममें
समझ है
पर
जीते हैं समझ की मुद्रा में ।

हमारे
समय की सबसे बड़ी त्रासदी शायद यह भी है
कि
हम महज बहस करते हैं
और
वे उलझाए रखते हैं हमें बहसों में जिन्हें वे आश्वासन कहते हैं
हमारे
मरने का इंतज़ार करते हैं
और
एक दिन हम सचमुच मर जाते हैं –
यानि
उनके धैर्य पर अपने अधैर्य को कुर्बान कर देते हैं
जबकि
इच्छा उन्हीं की होती है ऎसी
, पर अदृश्य ।

वे
महज मुद्रा में होते हैं बहस की
, कहां समझ 
पाते हैं !

हार-गिर
कर
समझ
पाते हैं तो बस इतना ही –
क्या जाता है अपने बाप का
जो होता है
होते रहने दीजिए ।

तो
फिर बनते रहिए बेवकूफ
क्या
जाता है अपने बाप का भी ।
***
याद आई
पृथ्वी
मैं उठा और
उठता चला गया
जैसे कि
तूफान !
जा लगा उस
सीने से
बेहद करीबी
अपने सीने से
जो था ही
नहीं
,
कहीं
मेरे वज़ूद
सा ।
मैं शान्त
हुआ और खो गया
हालांकि था
ही क्या खोने को पर खो गया
ठीक बहला
दिए गए किसी बच्चे की ज़िद सा ।
मैंने देखा
आकाश मुझमें डूब गया था
पूरा का
पूरा ।
मैं मारता
रहा हाथ-पांव
लेता रहा
आकाश हिलोरे ।
मैं उठा और
चढ़ बॆठा आकाश के कंधों पर ।
मुझे सांस
मिली
जैसे आकाश
मेरा पिता हो ।
मैंने याद
किया
बहुत याद
किया पृथ्वी को
जो गायब थी
मेरे पैरों से ।
यूं मिली
ही कब थी वह ।
मैंने याद
किया
महज याद
करने के लिए
और लूटता
रहा सुख औपचारिकता का
और सताता
रहा याद को
,
रुलाता रहा ।
कितना शैतान
था न मॆं !
बहुत प्यार
से देखा मुझे याद ने
लाड उमड़
आया था उसका
उसने मुझे
छुआ ।
सामने वाले
वृक्ष पर बॆठी
मेरी
दिवंगत माँ
जाने कब से
निहार रही थी
यह किस्सा
नहीं जानता
मैं कब
चटका और अपने से दूर हो गया
और बहुत
करीब
अपने पास आ
गया ।
जाने क्या
गुनगुनाता रहा देर तक
बैठा
अपनी टाट
बिछी पृथ्वी की गोद में ।
तुम कहाँ
हो पृथ्वी
कहाँ किस
टहनी पर अटकी हो
वृक्ष की !
आओ और मेरे
पांवों को
ज़मीन दो ओ
माँ ।
***
मैं कोई
फ़रिश्ता तो नहीं था
पत्र भी
एक समय के
बाद
शव-से नज़र
आने लगें तो क्या करें
?
क्या करें
जब पत्र भी
शव की
सड़ांध से
फेंकने
लगें बदबू
?
क्या करें
जब उघाड़ने
लगें पत्र भी
कुछ सड़
चुकों की
सड़ी
मानसिकताएं
?
क्या करें
जब दम तोड़
दें विवश
भले ही
खूबसूरत
असुरक्षित
प्रतीक्षाएं
,
पत्रों की
और वह भी
सूखती, पपड़ाती उत्सुकताओं की ज़मीन पर
खाली खाली?
मसलन
अनुत्तरित
पत्र जब
(भले ही वे
लिखे हों संपादकों
, आलोचकों को)
जमा बैठें
अगर अपनी सतहों पर
कुछ सड़े
हुए अहंकार
कुछ सड़ी हुई
उपेक्षाओं की मार
,
कुछ
दुराग्रह
,
कुछ प्रचलित भ्रष्टाचार
तो क्या
करें
?
क्या करता
कौन सहता है
एक समय के बाद
शवों को
घरों में
?
चढ़ाना तो
पड़ता है
मां-पिता
को भी चिता पर!
मॆं कॊई
फ़रिश्ता तो नहीं था न
?
***
हमारा
कबूतर
रह तो बहुत
दिनों से रहा है कबूतर
लॉफ्ट के
एक कोने में
हमारे घर
की ।
और
उसका
परिवार भी
जब-तब
फड़फड़ा लेता है पंख ।
और संगीत
कुछ देर
थमा रह जाता है
गुसलख़ाने
में
अटका
खिड़की के
आस-पास ।
उस दिन
बतिया रहा था कबूतर
घर के बाहर
पार के पेड़
पर
किसी कबूतर
से ।
मैंने सुना
और ध्यान
से सुना
कह रहा था
चलते समय-
आना कभी
हमारे घर” ।
सुन कर
मुझे अच्छा लगा था
और मान
लीजिए चाहे बाकी सब गप्प
पर
पहली बार
लगा था
कबूतर
हमारा है
और घर
कबूतर का भी ।
***

नहीं है अभी अनशन पर खुशियां

बहुत महंगा है और दकियानूसी भी
पर खेलना चाहिए खेल पृथ्वी पृथ्वी भी
कभी कभार ही सही,
किसी न किसी अन्तराल पर ।
हिला देना चाहिए पूरी पृथ्वी को कनस्तर सा,
खेल खेल में ।

और कर देना चाहिए सब कुछ गड्ड मड्ड हिला हिला कर कुछ ऎसे
कि खो जाए तमाम निजी रिश्ते, सीमांत,
दिशाएं और वह सब

जो चिपकाए रख हमें, हमें नहीं होने
देता अपने से बाहर ।

लगता है या लगने लगा है या फिर लगने लग जाएगा
कि कई बार बेहतर होता है कूड़ेदान भी हमसे (और शैली है महज हमसे‘)
कम से कम सामूहिक तो होती है सड़ांध कूड़ेदान की ।
हम तो जीते चले जाते हैं अपनी अपनी संड़ांध में
और लड़ ही नहीं युद्ध तक कर सकते हैं
अपनी अपनी सड़ांध की सुरक्षा में ।

क्या होगा उन खुशबुओं की फसलों का
और क्या होगा उनका जो जुटे हैं उन्हें सींचने में,
लहलहाने में ।

ख़ैर है कि अभी अनशन पर नहीं बैठी हैं ये फसलें खुशबुओं की
कि इनके पास न पता है जन्तर मन्तर का और न ही पार्लियामेंट स्ट्रीट
का ।
 

गनीमत है अभी ।
बहुत तीखा होता हे सामूहिक खुशबुओं का सैलाब और तेज़ तर्रार भी
फाड़ सकता हे जो नासापुटों तक को ।

डराती नहीं खुशबुएं सड़ांध-सी
पर डरती भी नहीं ।
आ गईं अगर लुटाने पर
तो नहीं रह पाएगा अछूता एक भी कोना खुशबुओं से ।
उनके पास और है भी क्या सिवा खुशबुएं लुटाने के !

बहुत कठिन होगा करना युद्ध खुशबुओं से
बहुत कठिन होगा अगर आ गईं मोरचे पर खुशबुएं ।

खुशबुएं हमें हम से बाहर लाती हैं ।
खुशबुएं हमसे ब्रह्माण्ड सजाती हैं ।
खुशबुएं हमें ब्रह्माण्ड बनाती हैं ।
खुशबुएं महज खुशबू होती हैं ।
खुशबुएं हमें पृथ्वी पृथ्वी का ख़तरनाक खेल खिलाती हैं
और किसी न किसी अन्तराल पर
हमें एकसार करती हैं । हिलाती हैं ।

गनीमत है कि अभी अनशन से दूर हैं हमारी खुशबुएं ।

***
दिविक रमेश
जन्म:
गाँव किराड़ी (दिल्ली)
,
28 अगस्त 1946
प्रमुख
प्रकाशित रचनाएं:
कविता-संग्रह:
रास्ते के बीच
,
खुली आँखों में आकाश, हल्दी-चावल और अन्य
कविताएं
, छोटा
सा
हस्तक्षेप
,
फूल तब भी खिला होता, गेहूं घर आया है,
वह भी आदमी तो होता है, बाँचो
लिखी इबारत,(अग्रेजी में अनूदित: फ़ेदर, इग्निस शॆटर्ड),(कोरियाई में : से दल अई ग्योल
हन) ।
काव्य-नाटक:
खंड-खंड अग्नि (अंग्रेजी
,
गुजराती, मराठीऔर कन्नड़ में अनूदित भी ) ।
आलोचना-शोध:
नये कवियों के काव्य-शिल्प सिद्धान्त
, कविता के बीच से,
साक्षात त्रिलोचन,
संवाद भी
विवाद भी ।
संपादित:
निषेध के बाद
,
हिदी कहानी का समकालीन परिवेश, बालकृष्ण भट्ट,
प्रतापनारायण मिश्र, कथा-पड़ाव ।
अनूदित: कोरियाई
कविता-यात्रा
,
सुनो अफ्रीका,कोरियाई बाल कविताएं आदि।
बाल-साहित्य: एक
सौ एक बाल कविताएं

और समझदारहाथी:समझदार चींटीसहित 15 बाल-कविता संग्रह, आठ
कहानी-संग्रह
, लोकथाओं/कथाओंकी जादुई
बांसुरी और अन्य कोरियाई कथाए
सहित 4
पुस्तकें
, बाल-नाटक: बल्लू हाथी काबालघर, संस्मरण: फूल भी और फल भी ।
प्रमुख
पुरस्कार-सम्मान:
सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड, गिरिजाकुमार माथुर स्मृति राष्ट्रीय
पुरस्कार,हिन्दी अकादमी का साहित्यकार सम्मान, कृति पुरस्कार
तथा बाल-साहित्य कृति पुरस्कार
,गौरव सम्मान (पोर्ट ऑव स्पेन),
इंडो रशियन लिटरेरी सम्मान, कोरियाई दूतावास
का प्रशंसा-पत्र
, भारतीय बाल-कल्याण संस्थान कानपुर का सम्मान,
प्रकाशवीर शास्त्री विशिष्ट सम्मान,
एन०सी०ई०आर०टी
का राष्ट्रीय बाल-साहित्य पुरस्कार
, रत्न शर्मा स्मृति
राष्ट्रीय बाल-साहित्य पुरस्कार
, भारतीय अनुवाद परिषद,
दिल्ली का द्विवागीश पुरस्कार, ब्लोगोत्सव-2010
श्रेष्ठ
कवि सम्मान ।
संपर्क:
बी-
295,
सेक्टर –20, नोएडा-201301, मो- 9910177099 divik_ramesh@yahoo.com
***
सभी चित्र गूगल इमेज से साभार

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