शेरदा अनपढ़ की कविता पर अनिल कार्की की लम्बी टिप्पणी
हम कितने आशावान और कितने निश्चित हैं अपने आने वाले दिनों को लेकर?
जब पूरी दुनिया के भीतर भेड़िया बाज़ार अपनी लपलपाती जीभ
लेकर खुला घूम रहा है, तब कविता को किस तरह इस्तेमाल किया जा सकता
है – ये एक अहम सवाल
है। हम देख रहे हैं,
हम सुन भी रहें है और हम लिख भी रहे हैं, लेकिन क्या
उस लेखन के भीतर वह
उत्कट जिजीविषा है, जो मौत को हरा
दे और जीवन की अनवरतता को लिख सके? मुझे ऐसी कुछ कविताएं बेहद पसंद है – जिनमे “काल तुझसे होड़
है मेरी” शमशेर बहादुर सिंह, नरेन्द्र सिंह
नेगी का गीत “भोल फिर जब रात
खुलली” सरदार जाफ़री साहब की “मेरासफ़र” साहिर
साहब की “मुझसे बेहतर गाने
वाले तुमसे बेहतर सुनने वाले” और बाबा की कविता
‘प्रेत का बयान‘ शामिल हैं। इन सबके बीच एक कविता शेरदा अनपढ़
की, जो मेरी अपनी दुदबोली की कविता भी है, इससे
मेरा गहरा जुड़ाव रहा है। जीवन के प्रति आस्था की इस बेहतरीन कविता की प्रासंगिकता आज के नगरीयबोध, अजनबीपन, तनाव और विसंगति के समय में बहुत ज़्यादा बढ़ गयी है। अमेरीकी
समाज के खाए पिए अघाए लोग अब जीवन के विरुद्ध हथियार बेचते-बेचते ऊब गए है और एक दूसरे को ही मारने पर उतर आए हैं। ऐसे हालात में जीवन और मृत्यु की बहस सामाजिक यथार्थ
से सीधे
जुड़ जाती है और कविता के भीतर से झाँकने लगता है जीवन, जो लड़ता है मृत्यु से। शेरदा
की कविता
‘मौत और मनखी‘
हमारे आने वाले दिनों की कविता हैं मौत और मनखी (मृत्यु और इन्सान)
एक ऐसे जीवन का चित्र है, जिसमें कविता का जुझारूपन
देखने को मिलता है। भले ही इसमें शमशेर की कविता ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ वाली राजनीतिक
चेतना न हो पर एक आम आदमी की विराट और विकट जिजीविषा का पूरा चित्र निकल कर आता है। जहाँ शमशेर कहते हैं
–
काल,/ तुझसे होड़ है मेरी : अपराजित तू-/ तुझमें अपराजित मैं वास करूं ।/ इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूं/ सीधा तीर–सा, जो रुका हुआ लगता हो-/ कि जैसा ध्रुव नक्षत्र भी न लगे,/ एक एकनिष्ठ, स्थिर,
कालोपरि/
भाव, भावोपरि/
सुख, आनंदोपरि/
सत्य, सत्यासत्योपरि
/ मैं– तेरे भी, ओ‘ ‘काल‘ ऊपर!/ सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल !/ जो मैं हूं-/ मैं कि जिसमें सब कुछ है…
क्रांतियां,
कम्यून,/
कम्यूनिस्ट
समाज के / नाना कला विज्ञान और दर्शन के / जीवंत वैभव से समन्वित / व्यक्ति मैं ।/ मैं, जो वह हरेक हूं / जो, तुझसे,
ओ काल, परे है – (‘काल तुझ से होड़ है मेरी‘ नामक कविता–संग्रह से)
आदमी के औजारों का ब्यौरा देते हुए हुए शमशेर काल को समझाते है। अपनी रंगीन सहृदयता वाले अंदाज़
में काल के साथ पेश आते हैं। जिस जीवंत वैभव से समन्वित समशेर की कविता का ‘मैं‘ आता है, उस मैं का विराट वैभव शेरदा की कविता में काल को काल की तरह ललकारता है। संघर्षशील
मानव, जो कभी हार नहीं मानता, उसके पक्ष में काल के विरुद्ध रचनात्मक बिगुल फूंकते हुए शेरदा का कवि कहता है –
मौत कुनै मारि हालो
मन्खी कुनो मै काँ मरुँ
अनाड़ी
त्वील चै चै फूल
उज्याणी
बाग फिर ले हरिये छु
त्वील धो के मनखी मारो गोद फिर ले भरिये छु
(मौत कह रही है मार दिया/ इन्सान कह रहा है मै कहाँ मरता हूँ / अनाड़ी
तूने देख देख कर फूल उजाड़े / बाग फिर भी हरे है / तूने पेट भर कर इन्सान मारे/ गोद फिर भी भरी है )
शेर दा मौत को अनाड़ी कहते हुए संबोधित करते है और एक तरह से काल की खल्ली उड़ाते हुए मृत्यु पर जीवन की विजय के, शोषण पर शोषित की विजय के शाश्वत सत्य को दोहराते हैं। जीवन की तमाम जटिलताओं के बावजूद इन्सान के लड़ते रहने और परिस्थियों से टकराने के आदमी के अदम्य साहस के सामने मौत को धता बताते हुए कहते है –
लुकी बैर त्वील वार करो,चोरि बैर नजर मिला
म्यार कान में धरी , मिहुंणी बन्दुक चला
त्वील उड़नचड़ मारो मैल घोल में मिलै रखो
त्योर धधकी चित कें ले मैल खूंनैल मिटाई राखो
म्यार कान में धरी , मिहुंणी बन्दुक चला
त्वील उड़नचड़ मारो मैल घोल में मिलै रखो
त्योर धधकी चित कें ले मैल खूंनैल मिटाई राखो
(छिप कर तूने वार किया चोर कर नजर मिलायी / मेरे ही कंधे में बन्दूक रखकर मेरे लिए ही चलाई / तूने उड़ती चिड़िया मारी मैंने
(उसे) घोंसले से मिलाया है / तेरी धधकी हुयी चिता को मैंने लहू से बुझाया है )
कवि कला की ज़रुरत को जीवन की अहम ज़रुरत तो मानता ही है, उसके निहित सौंदर्य को भी बखूबी पहचनता है। उड़ती चिड़िया की आजाद उड़ानों को एक उद्देश्य-एक मंजिल देता है। एक घोंसला, जिसमें मानवीय संवेदनाओं की अपार सम्भावनाएं है और अधूरी रह गयी लड़ाइयों को किसी वक्त पूरा करने का एक अटल विश्वास भी। ‘कटते भी चलो मरते भी चलो सर भी है बहुत बाज़ू भी बहुत‘ वाली यह आशा न केवल आदमी को परिस्थियों से टकराने के लिए तैयार करती है, बल्कि यथार्थ से जीवन के पलायन को रोकती है। उठने और भिड़ने का जज़्बा देती है। शेरदा का कवि साहिर साहब की तरह पल दो पल का शायर नही है। अपने एक लोकप्रिय गीत, जो फिल्मी गीत भी है, में साहिर साहब कहते हैं –
मैं पल–दो–पल का शायर हूँ, पल–दो–पल मेरी कहानी है ।/पल–दो–पल मेरी हस्ती है, पल–दो–पल मेरी जवानी है ॥/मुझ
से पहले
कितने
शायर
आए और आ कर चले
गए,/कुछ आहें भर कर लौट गए, कुछ नग़में गाकर चले गए ।/ वे भी एक पल का क़िस्सा थे, मैं भी एक पल का क़िस्सा हूँ,/
कल तुमसे जुदा हो जाऊंगा गो आज तुम्हारा हिस्सा
हूँ॥/ कल और आएंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले,/मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले।/कल कोई मुझको याद करे, क्यों कोई मुझको याद करे/मसरुफ़ ज़माना मेरे लिए, क्यों वक़्त अपना बरबाद करे॥
वहाँ पर शेर दा गरज कर कहते है–
द्दो गज कफनैल तयोर क्ये यो दुनो ढको जालो
तू घरो दी निमाई देले धरती उज्याव सकी जालो
त्वील खूनैक खून करो खूँन फिरिलै खूँन छु
त्वील खूनैक खून करो खूँन फिरिलै खूँन छु
त्वील माट कें माट में मिलामाट फिरिलै ज्यून छु
(दो गज कफ़न से तेरे क्या ये दुनिया ढक जाएगी / तू घर की बत्ती बुझा देगा तो क्या दुनिया की रौशनी मिट जाएगी/तूने खून का खून किया खून फिर भी खून है/तूने मिट्टी को मिट्टी में मिलाया मिट्टी फिर भी जिन्दा है)
खून फिर भी खून है की यह घोषणा कई-कई रूपों में आम जन मन के जीवन का पोषण करती हुयी आधुनिक चुनौतियों से टकराने के लिए कमर कसती है। मिटटी के कभी न मरने का यह एलान शोषितों के पक्ष की दमदार वकालत ही नहीं करता, बल्कि अंतत: मेहनत करने वालों के विजय को भी इंगित करता है। कभी हार न मानने वाली मानवीय जिजीविषा को अपने केंद्र में रखते हुए कविता जीवन की गतिशीलता को नया आयाम देती है। हालांकि इस क्रम में अली सरदार जाफ़री जी की एक कविता ‘मेरा सफ़र’ भी महत्वपूर्ण है। जाफ़री जी कहते है –
मैं एक गुरेज़ाँ लम्हा1हूँ / अय्याम के अफ़्सूँ–खा़ने2 में / मैं एक तड़पता क़तरा हूँ मसरूफ़े–सफ़र3 जो रहता है / माज़ी4 की सुराही के दिल से / मुस्तक़बिल5
के पैमाने में / मैं सोता हूँ और जागता हूँ / और
जाग के फिर सो जाता हूँ / सदियों का पुराना खेल हूँ मैं / मैं मर के अमर हो जाता हूँ
(1-बीत जाने वाला क्षण 2-जीवन के जादुई घर 3-यात्रा में व्यस्त4- अतीत5-भविष्य )
यहाँ भी कभी एक गुजरा हुआ लम्हा है, जीवन के जादुई
घर में। लेकिन शेर दा
के लिए जीवन जादुई घर नहीं है, बल्कि आदमी का अपना स्वर्ग है। आम आदमी के अपने हाथों से निर्मित है। उसके पोर-पोर पर आदमी की छाप है कुलदीप की कविता की इन पंक्तियों की तरह–
मेरे साथी/हमें चलना है
दिगंत तक/अपनी ही राख से/कई कई बार लेना है
जन्म/हमें दौड़ना है बिजली के तार को मोड़कर
बनाये गए चक्के के पीछे भागते हुए बच्चे की तरह/नंगे पाँव/थपाथप धरती पर अपने होने की मोहर
लगाते हुए.
शेर दा का रचनाकार पहाड़ों में उगा हुआ देवदार है। उसमे जीवन और अपनी माटी की गंध है। यह महक जीवन को कभी भी निर्थक नहीं होने देती और न ही उसे मेहनत से पलायन करवाती है। दमघोंटू प्रतियोगिता के दौर में मेरी अपनी पीढ़ी साँस ले रही है, मैं भी इससे अछूता नही हूँ। हम सब जीवन के योद्धा हैं। हम भी लड़ रहे हैं। अपने-अपने खूंटे से बंधे होने के बावजूद हममें भी छटपटाहट है, ये क्या कम है? यही छटपटाहट एक दिन हमसे हमारे खूंटे तुड़वाएगी पर कविता को हमारी उम्मीदें बनाये रखनी ही होंगी और जीवन के साथ लय बनकर बहना होगा। हनी सिंह जैसे गायक हमारी विकृतियों के पोषक हैं, जो ‘मैं हूँ बलात्कारी‘ जैसे गीत लिखते हैं। उन गीतों से भी रचनात्मक स्तर पर हमारी कविता को लड़ना होगा जीवन पर मौत के इस संकट से बाहर निकालने का औजार हमारी कविता बनना होगा। शेर दा जीवन के इस संकट को बहुत पहले भांप चुके थे, तभी वह कहते है-
प्राण छु रे मनिखियो क पूर्वज छु
धरती के चमकुणी माटा सूरज छु
ज्योत छु यो जोत सदा अमर रौलि
लोक लोक में चमकने
लोक लोक
चमकुनी रौलि
(प्राण हूँ मैं इन्सान का पूर्वज हूँ
/ धरती को चमकने वाला मिटटी का सूरज हूँ
/ ज्योति हूँ ये ज्योति सदा अमर रहेगी
/ लोक लोक में चमक रही है /लोक लोक में चमकती रहेगी)
इसके अलावा बाबा की एक कविता यह बताती है कि ये मिटटी के लोग और मिट्टी के सूरज कौन हैं, पर बाबा के यहाँ मौत बलवान है और जीवन भुखमरा मास्टर बाबा के
यहाँ जीवन हड्डियों का पंचगुरा हाथ लहराता है और यमराज कड़क
कर बोलता
है, लेकिन शेर दा के
यहाँ वह
इन्सान की
उत्कट जिजीविषा के सामने हार मान लेता है –
ओ रे प्रेत –
कड़ककर बोले नरक के मालिक यमराज
सच – सच बतला !
कैसे मरा तू ?
भूख से, अकाल से ?
बुखार कालाजार से ?
पेचिस बदहजमी, प्लेग महामारी से ?
कैसे मरा तू , सच –सच बतला ! –नागार्जुन
मनखी के मरी द्युल कें तू मन मई ख़ुशी हूँने रौ छै
मासु कें बुकूंल कुनोछिये
हाड़ कें चुसने रौ छै
काच – पाक समेरी त्वील चित में चढूनै
रे है
मान्खियक
ध्वाक में तू मिटटी कें जलुनै रे है
तू कुनै मारि हालो बेवकूफा !मैं का मरुँ – शेर दा
(इन्सान को मार दूंगा करके तू मन मन ही मन खुश हो रहा है / मांस को चबाऊंगा और हाड़ चूसूंगा कह रहा है/कच्चा पक्का समेट कर तू चिता चढाते रहना / इन्सान के धोखे में मिटटी को जलाते रहना/ तू कह रहा है मार दिया बेवकूफ! /मैं कहाँ मरा )
बाबा की तरह शेर दा का लड़ता-भिड़ता आम आदमी यमराज को अपने हालातों से परिचित न करवाते हुए भी परिस्थितियों और जीवन के अंतर्विरोधों से दोहरे स्तर पर टकराता है। शेर दा की कविता का आम आदमी डट कर मुकाबला करने में विश्वास करता है। यही शेर दा की वास्तविक जीवन की विशेषता भी रही है। जीवन से हताश हुए लोगों के लिए हताशा भले ही व्यक्तिगत स्तर पर हो पर ऐसा है नहीं। इस हताशा का मूल कारण आदमी की सम्पूर्ण श्रमशक्ति को खरीदने और उसका मनचाहा उपयोग करने वाली सत्ताएं और मुठ्ठी भर लोग हैं। हमारे दौर की जटिलताएं इतनी आसान नही हैं, जितना आसान समाजशात्र पढना होता है। एक ही मुद्दे पर साम्प्रदायिक और प्रगतिशील लोगों एक तरह से सोचने को मजबूर करती ये समस्या सोच के साथ–साथ सघन होती जटिलताओं की भी है। नायक ढूँढता मध्यम वर्ग किसी भी समय अस्सी साला बूढ़े को आपना नायक घोषित कर सकता है और किसी भी समय कुमार विश्वास सरीखे कवि मेरे नौजवान साथियों को पागल और दीवाना बना सकते हैं और हमारे परिस्थितियों से टकराने के जज़्बे को नेस्तोनाबूद कर सकते हैं। किसी भी समय सरकार कह सकती है कि लोकतंत्र में सबको अपना गुस्सा निकालने का अधिकार है इसलिए आंदोलनों का पंडाल सरकार अपनी ओर लगाएगी। पर क्या आन्दोलन गुस्सा निकलना भर है? अब कविता की जिम्मेदारी बढ़ गयी है। उसे भटकाव के इस जंगल में सही रास्ता तो चुनना ही पड़ेगा वरना कविता का दोगलापन उसे खा लेगा। इस तरह की उत्कट जिजीविषा की जीवित कविताओं को औजार बनाना होगा, जो चौतरफा हमलों को झेल भी सकें और सही रास्ता भी दे सकें। मेरी उम्र के नौजवानों और छात्रों के कवि विद्रोही कहते है –
मैं भी मरूंगा/और भारत भाग्य विधाता भी मरेंगे/मरना तो जन–गण–मन अधिनायक को भी पड़ेगा लेकिन मैं चाहता हूं/कि पहले जन–गण–मन अधिनायक मरें/फिर भारत भाग्य विधाता मरें फिर साधू के काका मरें/यानी सारे बड़े–बड़े लोग पहले मर लें/ फिर मैं मरूं–
आराम से,
उधर चलकर बसंत ऋतु में/जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है/या फिर तब जब महुवा चूने लगता है या फिर तब जब वनबेला फूलती है/नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके और मित्र सब करें दिल्लगी/कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था/कि सारे बड़े–बड़े लोगों को मार कर तब मरा।
कवि को कब मरना है इस बारे में इससे बेहतर कविता और कोई नहीं हो सकती। वाकई ये अपनी मनचाही मौत है, जटिल सामाजिक
दबावों
की मौत नहीं। इस मौत को आमीन कहा जा सकता है। लेकिन फ़िलहाल तो शेर दा की कविता की तरह हमें मौत से और आदमीयत
को खत्म करने वाली परिस्थितियों
से उनके ही अंदाज में टकराना
होगा
.
तू जग सेउने रे, मैं जग ब्यूंजूने
रऊँ
तू चित जगुनै रे, मैं चित निमुनै
रऊँ
(तू जग को सुलाते
रहे मैं जग को जगाते रहूँ/
तू चिता जलाते रहे मैं चिता बुझाते
रहूँ
)
****
अनिल युवा कवि और फिलहाल कुमाऊं विश्वविद्यालय में शोधछात्र हैं। उनकी कुछ कविताएं और एक लम्बा लेख पाठक अनुनाद पर पहले भी पढ़ चुके हैं।
बेहतरीन आलेख …..बहुत मेहनत और दृष्टि से लिखा गया है …..बोली भले किसी स्थान विशेष तक सीमित हो सकती है पर चेतना नहीं, शेर दा की कविता इस बात का प्रमाण है .अनिल भाई ने अपने आलेख में इस बात को बखूबी उभारा है . …….बधाई.
Behatreen laghu aalekh. Dhanyavaad. – kamal jeet choudhary ( j and k )
इस उत्लेृष्ट कख में अनिल जी की मेहनत व काबिलियत साफ झलकती है.. बहुत ही बेहतरीन
बेहतरीन व विस्तृत लेख के लिए अनिल जी को बहुत बधाई.
बेहतरीन अनिल,शेरदा के सारे पक्ष सम्मिलित करने के लिए
बॆहतरीन आलॆख, शॆरदा कॆ काव्य का इतना बारीक विश्लॆषण दुर्लभ है।
संग्रहणीय प्रस्तुति …
बहुत बढ़िया आलेख।
बेहतरीन आलेख
उम्दा/सुन्दर/बेहतरीन
कार्की ज्यू भोते भल लाग तुमर यो लेख।
जी रया जाग रया। अपड़ी भाषा बोली कें यासिके अघिल बढ़ाते र या ।
शेरदा अनपढ़ की कविताओं पर काफी शानदार शोधपरक समीक्षा।