अनुनाद

गिरिराज किराडू की कविताएँ

गिरिराज के यहां कविता एक नाज़ुक विषय है, गो वो अकसर ख़ुद को कठोर कवि कहता पाया जाता है। मैंने पहले भी दो-तीन बार अनुनाद पर उसकी कविताएं लगाते हुए टिप्‍पणियां की हैं और ख़ुद को ख़ासी मुश्किल में पाया है। उसकी कविताओं को महसूस करना मुझे जितना अपने लिए आसान लगता है, उस पर बात करना नहीं। वो मुश्किल में डालने वाला कवि है, क्‍योंकि वह जीवन और कविता की मुश्किलों का कवि है। उसकी कविता के प्रिय गद्य में आने वाले पात्र और प्रसंग हमारे बहुत आसपास के और अपने होते हैं और बयां उसका बहुत ख़ास अपना। ये जो उसका अपनाहै, वह कभी सपाट तो कभी जटिल कहन में हमारा अपना होता जाता है। यहां मेरे अनुरोध पर जो उसने कविताएं दी हैं, उनमें से अविष्‍कारवाली लोकमत के दीपभव विशेषांक में छपी हैं, जाहिर है लोगों ने पढ़ी भी होंगी। बाक़ी की तीन मैंने एक चलती बस में उससे सुनीं… साथ कई कविमित्र थे। मैं कभी नहीं भूलूंगा कि उसने अपनी इन कविताओं के पाठ के लिए जो जगह चुनी, वह शोरोगुल और दोस्‍तों की चुहलबाजियों से भरी एक बस थी। पहली कविता के पाठ के तुरत बाद मैंने अपने आप से कहा यह न्‍यायप्रिय नाटकीय मानो हमें दिवंगत करके छोड़ेगा, लेकिन फिर जब वो अंतिम पंक्तियां बार-बार गूंजने लगीं मन में तो मैं कक्षा के किसी सबसे अनुशासित विद्यार्थी की तरह बैठ गया। उसकी आवाज़ में मनुष्‍य होने का ओज था, जो किसी को अत्‍यन्‍त समर्थ कवि होने का दर्प लग सकता था। मैं बिंधा हुआ था कुछ अपने और कुछ गिरिराज की कविताओं में आने वाले जीवन-प्रसंगों से। उसने पढ़ा – हमने सब युद्ध पर्दे पर देखे/ सीधा प्रसारण/ आंख बंद करने पर युद्ध महज आवाज़ था – मैं बॉड्रीलार्द को कोसने लगा….इधर किसी हिंदी कवि ने हाइपर्रियल की धूर्तता को इस तरह उजागर किया हो, मुझे याद नहीं पड़ता।  हिंदी में मौन भी अभिव्‍यंजना है की स्‍थापित कर दी गई महानता के बरअक्‍स गिरिराज का यह ख़याल मुझे ताउम्र याद रहेगा – जिसे वे मौन कहते हैं अगर कुछ होता है तो तीखा महीन मांझा/ कंठ को चीरता जो मनमर्जी से, आवाज़ का खून लगा है जिसकी धार पर….

ख़ैर……मुझे इन कविताओं को प्रस्‍तुत करते हुए कोई लेख नहीं लिखना है, उसके लिए कोई दूसरी जगह होगी और गिरिराज की दूसरी सारी कविताएं। 

अब तक अनुनाद पर हर कवि को शुक्रिया कहता रहा हूं ….. पर तुझे कभी नहीं कहूंगा गिरि… जा तुझे बख्‍़शा गया …. ख़ुश रह और यूं ही ज़माने भर के दर्द से भरा तबाह भी….
*** 


    
चाकू का आविष्कार १९९९

तुम रात दस बजे अपनी साईकिल पर दूध की टंकी लटकाए आये थे
एम.ए. मनोविज्ञान पढ़ रहे एक लड़के का अपने बाप को अब इस उम्र में कुछ आराम से रखने की खातिर साईकिल पर दूध की टंकी ले के चलना बहुत मशहूर था
तुम बिजली के खम्भे के नीचे खड़े बात कर रहे थे मेरे एक दोस्त से
अचानक एक स्कूटर रुका कोई आया तुम पर झपटता हुआ
कई वार हुए
खून कई दिनों तक जमा रहा था दीवार पर

सुबह पता चला तुम दूध देने आये तो मेरे बारे में पूछ रहे थे
सवा सात बजे
तुम ठीक थे तुम्हारी कोहनी के पास वार मामूली था

“जो मुझ पर झपटा इसलिए कि उसकी बहन को चाहता हूँ मैं
उसके पास कुछ नहीं था वार करने के लिए
भैया जो अपना देखा चमकता गली के खम्भे वाली रौशनी में
वह मेरा आविष्कार था —
बिना वार किये जीने की जिम्मेवारी और नहीं निभा सकता था
उसके ऊँचे  प्रेम में और नहीं रह सकता था
अब चाकू मेरा अभिन्न है, इसका कोई भी मतलब हो
कल से दूध देने आपके घर नहीं आऊंगा आखिर आप भी गवाह हैं
माफ़ कीजियेगा
प्रणाम!”
अंगूठी का आविष्कार २००१

यह तय अगर नहीं होता कि हमारी सगाई छह महीने से ज़्यादा नहीं चल पायेगी
तो भी तुम्हारे साथ रहने की कल्पना करने का मुझे कोई अफ़सोस नहीं होता –
यह तय था क्यूंकि मैं शुरू से यह जानती थी

टीबी के मरीजों की वह अस्पताल के एकदम पीछे वाली ईमारत
लेडी लिनलिथग्रो हॉल
अंग्रेज़ों के ज़माने की कुछ वैसी दिखती हुई भी
तुमने चुनी
हमारे मिलने के लिए

हमारे आस पास मरीज़ों के फिक्रमंद

तुम्हें कुछ दिन अपने साथ रखने के लिए
एक अंगूठी का आविष्कार किया था मैंने
उसी शाम
** 
धोखे का आविष्कार १९९२

उस बात को बीस बरस हो गये
चोरी छुपे याद करता हूँ :
वह लड़का जिसके नाम से पुराने शहर के बाजार की एक गली का नाम रखा गया था
शहीद कोठारी मार्ग
मेरा दोस्त था

उससे प्रतिशोध लेने के लिए
उसे यूँ कुत्ते की मौत मरने देने के लिए
जिसका किया मैंने आविष्कार
– कुछ नहीं होगा वहाँ न ईमारतों को ना उसे तबाह करने के इरादे से
गये तुम्हारे जैसे लड़कों को –
वह अब मेरे मरने का सामान है
ना ईमारत बची
न दोस्त
जिसे छब्बीस की उम्र में गली का नाम बनने की कोई तमन्ना नहीं थी

मुझे अब इस याद की देखभाल करनी है  
*** 
झूठ का आविष्कार १९९१  

किसी को कहना मत
यह तुमसे कहा तुम्हारे आशिक ने
तुम उसके लिए नहीं रोये
किसी को नहीं कहा
रहस्य तुम्हारे साथ ही नहीं जायेगा लेकिन 

उसने बानवे में तबाह किया था चीज़ों को
लेकिन तुम सोये थे उसके साथ उससे पहले
तुमने उसके सच को नष्ट किया
यह कहते हुए कि प्रेम करता हूँ तुमसे

दुनिया नष्ट होने तक तुम्हें उस संसर्ग की याद दिलाएगा
तुम्हारा वह आविष्कार
एक झूठ
प्रेम
**** 
आवाज़, अरमान, मौन और अपमान के बारे में  आठ अगस्त दो हजार बारह की दोपहर रोडवेज बस में कहासुनी

अपनी नहीं तो किसकी आवाज़ का अरमान हो तुम?
अल्लाह जाने 
तुम्हारी कोई आवाज़ है भी ?
अल्लाह जाने 
तुम्हारा कोई अरमान है भी?
अल्लाह जाने 

हमने सब युद्ध परदे पर देखे
सीधा प्रसारण
आँखें बंद करने पर युद्ध महज आवाज़ था

जिसे वे मौन कहते हैं अगर कुछ होता है तो तीखा महीन मांझा
कंठ को चीरता जो मनमर्जी से, आवाज़ का खून लगा है जिसकी धार पर

तुम्हें मुझसे बोले एक युग हो गया है, कुछ खबर है? 

मेरे कहने से कुछ नहीं होता जी
इसलिए मैं चुप नहीं बैठा रहता जी

अपमान का एक असर यह भी
कि अपने कहे के व्यर्थ नहीं निरर्थ हो जाने से इतना डर गये हो कि तबसे कुछ नहीं बोले हो

आपको सबको चुप करने के लिए यह बन्दूक मिली है
मुझे सबसे बात करने के लिए यह ज़बान

यात्री अपने जोखिम पे बोलें और अपनी सहूलियत से चुप रहें
यहाँ गाड़ी चा-पानी-पेशाब के लिए दस मिनट रुकेगी
***** 
न्यायप्रिय
(फिर रघुवीर सहाय के लिए)

यह हमारे सहवास का किसी किस्म का सारांश है कि मेरे साथ रहने में तुम्हें अपने से दूर रहना होता है और मुझे अपने से इसी तरह रहने से मृत्यु तक रह पायेंगे साथ साथ इसी तरह रहने से हो सकता है मृत्यु को पार लगा ले जाएँ हम

प्रेम में नहीं ऐसी आत्मीयता में होता है मरने का रोज आविष्कार इस बीच जो अन्याय है हमारे होने से बेपरवाह और हमारे होने से भी उसे कहने की कोशिश की अपने तई कौन किसकी याद में कहेगा यह निर्णय मैंने आज कर दिया है इकतरफा

मैं विदा लूँगा पहले और तुम कहना जाने क्यों करता रहता था यह सब अगर इस तरह धोखे से मुझे अकेले ही छोड़ जाना था बड़ा भारी एक अन्याय तो यही है जाओ यह स्त्री तुम्हें क्षमा नहीं मुक्त करती है अगर होते हों वो मायावी सात जनम मेरे किसी जीवन में कभी ना आना ओ न्यायप्रिय नाटकीय दिवंगत 
****** 
पिता  
(फिर फिर रघुवीर सहाय के लिए)

क्यूंकि तुम अब एक पिता हो अपने अंत पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं रहा
तुम्हें उस अपमान को जो जीवन रोज देता है और वह जीवन
जिसे तुमने जन्म दिया है में से किसी एक को चुनने की स्वतंत्रता नहीं है

तुम अपमान के नहीं उसके पिता हो जिसे तुमने जन्म दिया है
उस जीवन को अनाथ कैसे करोगे  
जिसे तुमने जन्म दिया है 

अब से तुम्हारा अपमान भी उसका पिता है

(गगन गिल की एक काव्य पंक्ति है: पिता ने कहा अब शोक ही तेरा पिता है)
******* 

0 thoughts on “गिरिराज किराडू की कविताएँ”

  1. सत्‍यजीत वर्मा

    बहुत अच्‍छी कविताएं हैं। समझने में मुश्किल हुई पर अच्‍छी लगीं।

  2. हमें कुछ और विस्मयादिबोधक शब्द ईज़ाद करने चाहियें ताकि ऐसी कविताओं की तारीफ कर सकें !! अद्भुत कहन….Giriraj Kiradoo की कविताएँ Shirish भाई के सौजन्य से. धन्यवाद तो कह ही सकते हैं फिलहाल

  3. गिरिराज जी की कविताओं को पढ़ना हमेशा आह्लादकारी होता है. धन्यवाद अनुनाद.शिरीष जी ने वैसे बहुत धाँसू लिखा है.

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