कमाल सुरेया (1931-1990) |
कोई स्त्री रिश्तों
को निभाने में सहती है बहुत कुछ ..मुश्किलें
को निभाने में सहती है बहुत कुछ ..मुश्किलें
उसका दिमाग,दिल और रूह तक किसी
का निष्ठापूर्वक साथ निभाने को
का निष्ठापूर्वक साथ निभाने को
झेलता है इतने
आघात और झटके
आघात और झटके
कि दूसरा आदमी आता ही नहीं उसके दिलो-दिमाग़ में
वह आदमियों की तरह तुनक
कर झगड़ा भी नहीं उठाती
कर झगड़ा भी नहीं उठाती
कि सूप में नमक कम क्यों
है
है
बल्कि उलटे कहती है
..कोई बात नही,यदि
कोई मुश्किल है तो इसकी बाबत बात कर लेते हैं
..कोई बात नही,यदि
कोई मुश्किल है तो इसकी बाबत बात कर लेते हैं
और मर्द हैं कि सबसे ज्यादा
इसी एक बात से खीझते आग बबूला होते हैं।
इसी एक बात से खीझते आग बबूला होते हैं।
बातचीत ऐसे ही टलती जाती है
…
…
कभी मैच ख़तम होने तक
..नहीं तो फिर डिनर या दूसरी गैरजरूरी बातों के बहाने।
..नहीं तो फिर डिनर या दूसरी गैरजरूरी बातों के बहाने।
स्त्रियाँ जिद्दी और
बावली होती हैं
बावली होती हैं
अपने प्रेम को ऐसे सीने
से चिपका के रहती हैं
से चिपका के रहती हैं
जैसे जीवन न हुआ खूँटी के ऊपर टिका हुआ कोई सामान हुआ
यही वजह है कि वे चाहती
हैं तफसील से बातचीत करें
हैं तफसील से बातचीत करें
और साझा करें अपना दुःख
दर्द
दर्द
तबतक आस नहीं छोड़तीं
जबतक बन्दे को समझा न लें
जबतक बन्दे को समझा न लें
और उसके पास बचे न कोई
और रास्ता
और रास्ता
स्त्रियाँ देख ही लेती हैं दूर कहीं कोई उजाला और खोल डालती हैं
अपनी व्यथा का पिटारा
पर यह सब करके उनको अक्सर जवाब क्या मिलता है?
“अपनी यह बकवास अब बंद
भी करो”
भी करो”
ये सब बातें उसको नाहक
की चिख चिख लगती हैं
की चिख चिख लगती हैं
और वह उनकी और कभी गौर
से देखता तक नहीं
से देखता तक नहीं
और इस तरह एक समस्या
समाधान के बगैर छोड़ कर
समाधान के बगैर छोड़ कर
देखने लगता है दूसरी
ओर
ओर
आदमी को कभी एहसास ही
नहीं होता
नहीं होता
कि यही अनसुलझी बात गोली की
तरह आएगी
तरह आएगी
और लगेगी उसके सीने पर एक दिन.
आदमियों की निगाह में
यदि स्त्री करती है गिले शिकवे
यदि स्त्री करती है गिले शिकवे
या बार बार दुहराती रहती है एक ही बात
आदमी को समझ जाना चाहिए
कि उसकी आस अभी टूटी नहीं है
कि उसकी आस अभी टूटी नहीं है
और रिश्ता उसके लिए
बेशकीमती है
बेशकीमती है
वो सबकुछ के बावजूद
उसे निभाने को आतुर है
उसे निभाने को आतुर है
रहना चाहती है साथ
..सुलझा के तमाम बदशक्ल गाँठें
..सुलझा के तमाम बदशक्ल गाँठें
और इसी पर है उसका सारा ध्यान
क्योंकि बन्दे से अब भी करती
है खूब प्यार।
है खूब प्यार।
एकदिन स्त्री चल देती है चुपचाप
…दबे पाँव
…दबे पाँव
यह उसके प्रस्थान का
सबसे अहम् पहलू है
सबसे अहम् पहलू है
और जाहिर सी बात है
कि आदमी इस बात को समझ नहीं पाते
कि आदमी इस बात को समझ नहीं पाते
बोलती ,कुछ शिकायत करती और झगडती स्त्री
अचानक चुप्पी के इलाके
में प्रवेश कर जाती है
में प्रवेश कर जाती है
जब अंतिम तौर पर टूट जाती है
रिश्ते पर से उसकी आखिरी आस
रिश्ते पर से उसकी आखिरी आस
उसका प्यार हो जाता
है लहू लुहान
है लहू लुहान
मन ही मन वो समेटती
है अपने साजो सामान सूटकेस के अन्दर
है अपने साजो सामान सूटकेस के अन्दर
अपने दिमाग के अन्दर
ही वो खरीदती है अपने लिए सफ़र का टिकट
ही वो खरीदती है अपने लिए सफ़र का टिकट
हाँलाकि उसका शरीर ऊपरी
तौर पर करता रहता है सब कुछ यथावत
तौर पर करता रहता है सब कुछ यथावत
इस तरह स्त्री निकल
जाती है रिश्ते के दरवाजे से बाहर।
जाती है रिश्ते के दरवाजे से बाहर।
सचमुच ऐसे प्रस्थान
कर जाने वाली स्त्री के पदचाप नहीं सुनाई देते
कर जाने वाली स्त्री के पदचाप नहीं सुनाई देते
आहट नहीं होती उसकी कोई
वह अपना बोरिया बिस्तर
ऐसे समेटती है
ऐसे समेटती है
कि किसी को कानों कान
खबर नहीं होती
खबर नहीं होती
वो दरवाज़े को भिड़काये
बगैर निकल जाती है
बगैर निकल जाती है
जब तलक सांझ को घर लौटने
पर स्त्री खोलने को रहती है तत्पर दरवाज़ा
पर स्त्री खोलने को रहती है तत्पर दरवाज़ा
समझता नहीं आदमी उस
स्त्री का वजूद
स्त्री का वजूद
एकदिन बगैर कोई आवाज
किये चली जाती है स्त्री चुपचाप
किये चली जाती है स्त्री चुपचाप
फिर रसोई में जो स्त्री
बनाती है खाना
बनाती है खाना
बगल में बैठ कर जो देखती है टी
वी
वी
रात में अपनी रूह को
परे धर कर जो स्त्री
परे धर कर जो स्त्री
कर लेती है बिस्तर में
जैसे तैसे प्रेम
जैसे तैसे प्रेम
वह लगती भले वैसी ही स्त्री हो पर पहले वाली स्त्री नहीं होती
स्त्रियों के कातर स्वर से
…उनके झगड़ों से डरना मुनासिब नहीं
…उनके झगड़ों से डरना मुनासिब नहीं
क्योंकि वे इतनी शालीनता
और चुप्पी से करती हैं प्रस्थान
और चुप्पी से करती हैं प्रस्थान
कि कोई आहट भी नहीं होती।
***
मार्मिक …
जिस तरह औरत का होना नहीं दिखता, उसी तरह उसका जाना भी नहीं दिखेगा…
बेहद अच्छी कविता के लिए शुक्रिया
Sundar!
अक्षरशः सत्य! अत्यंत मार्मिक कविता। धन्यवाद!
जब अंतिम तौर पर टूट जाती है रिश्ते पर से उसकी आखिरी आस
उसका प्यार हो जाता है लहू लुहान
मन ही मन वो समेटती है अपने साजो सामान सूटकेस के अन्दर
अपने दिमाग के अन्दर ही वो खरीदती है अपने लिए सफ़र का टिकट
हाँलाकि उसका शरीर ऊपरी तौर पर करता रहता है सब कुछ यथावत
इस तरह स्त्री निकल जाती है रिश्ते के दरवाजे से बाहर…
अंतर्मन को छू गई यह पंक्तिया… आभार
जब अंतिम तौर पर टूट जाती है रिश्ते पर से उसकी आखिरी आस
उसका प्यार हो जाता है लहू लुहान
मन ही मन वो समेटती है अपने साजो सामान सूटकेस के अन्दर
अपने दिमाग के अन्दर ही वो खरीदती है अपने लिए सफ़र का टिकट
हाँलाकि उसका शरीर ऊपरी तौर पर करता रहता है सब कुछ यथावत
इस तरह स्त्री निकल जाती है रिश्ते के दरवाजे से बाहर…
अंतर्मन को छू गई यह पंक्तिया… आभार
शानदार
It is a beautiful poem, can you share the english translation or the link to the original please?