अनुनाद

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वाया 80’ – मृत्‍युजंय की कविता


मृत्‍युजंय बहुत अलग-अलग शिल्‍पों में कविता सम्‍भव करने वाले अद्भुत युवा कवि हैं। वे भरपूर राजनीतिक हैं, उनकी कविता के उद्देश्‍य राजनीतिक हैं, जो दिनों दिन विचारहीन होते जाते हमारे दौर में मुझे एक ख़ूबसूरत बात लगती है। यह कविता भी ऐसी ही है, जिसमें न सिर्फ़ राजनीति बल्कि कविता के निकटतम बिखरते-बनते इतिहास में समाहित राजनीति भी शामिल है। वाया 80′ से 90′ 90′ और 90′ की टेक पर समाप्‍त होने वाली इस कविता में बीच की बहुत सारी जगह बहुत सारे ब्‍यौरे से भरी है और साफ़ है कि कविता उससे कहीं लम्‍बी है, जितनी दिखती है। यह जान पाना भी मुश्किल नहीं कि वह ‘पलायन’ क्‍या और कैसा है, जिसके उल्‍लेख पर कविता का अंत होता है। और क्‍या कहूं….मेरी ओर से भी एक बार – स्‍वाहा…..स्‍वधा…नमोस्‍तुते…. 
इस कविता को फेसबुक पर यहां ख़ूब पढ़ा और सराहा गया है… लेकिन किसी ब्‍लागपत्रिका में संभवत: यह पहली बार छप रही है। अनुनाद इसे छापकर ख़ुशी और संतोष का अनुभव कर रहा है।  
*** 
वाया 80’
(सुविधानुसार जहां-तहां पहली बारजोड़ लें।)

ए सरंगी, कान कटबू? स्वाहा!
चोट घूंसे की ठीक पास नाक के, स्वधा!
अंगूठी कांसे की, छाप नाग की, नमोस्तुते!

स्वाद बहते खून का खारा, स्वाहा!
हाकी की देशी बहन ठक्की, स्वधा!
चाकूला घाव सरकंडे के कलम का, नमोस्तुते!

दिन अनंत दूधिया उफनाया, स्वाहा!
नंगी पीठ पर चौड़ी पटरी का धमाका, स्वधा!
डूबना ट्यूबवेल के गड्ढे में, नमोस्तुते!

छटपटाहट बड़े होने की, स्वाहा!
परछाइयाँ डर की बेइंतहा, स्वधा!
रुकना सांस का पूरे आधे मिनट, नमोस्तुते!

नाड़े से कसी गर्दन, स्वाहा!
उबल कर छटपटाती आँख, स्वधा!
आम के बगीचे में हाथ-पैर कटी भरी बोरे में लाश, नमोस्तुते!

हाफपैंट और शिश्न, स्वाहा!
स्कूल और वयस्क,
स्वधा!

कुंठा हताशा और गुस्सा और नफरत, नमोस्तुते!

झपाक से पँचगोइयाँ नाच, स्वाहा!
वीसीआर, टी वी और भोंपू, स्वधा!
मरती गारियों के आखिरी तुमुल कोलाहल पर फिल्मी
सोहरों की जीत, नमोस्तुते!

बांस पर टंगा टोपीदार बल्ब बिजली का, स्वाहा!
मरफ़ी का रेडियो,
लकड़ी के बक्से में टीवी, स्वधा!

आभाषी रामायण,
अगरबत्ती की गंध, नमोस्तुते!

नीम का पेड़, स्वाहा!
व्योमकेश बक्शी,
स्वधा!

लाल दवा और एक कुवें की मौत, नमोस्तुते!

गाना और मरना और जरना, स्वाहा!
दोहरी मुरदाघाट पर बांस और खोपड़ी, स्वधा!
मौत और कबीर की जुगलबंदी, नमोस्तुते!

गंदुमी सी लड़की,
स्वाहा!

जाड़े की भोर पैर की हड्डी पर चिपकती कार्क की पथरीली
गेंद, स्वधा!

खिस्सहऊ पंडित,
नमोस्तुते!

धोबी मास्टर साब और सम्मान, स्वाहा!
13 मुट्ठी का बैल, स्वधा!
सड़े आलू की बारिश और पीलू, नमोस्तुते!

गुमटियों में शीशा जड़े केश-करतनालय, स्वाहा!
डामर और कोलतार,
स्वधा!

चुनावी बिल्ले और पर्चे, धूल जीप की, नमोस्तुते!

 ग्रामसभा की जमीन पर भुतहा पीपल,
स्वाहा!
चमार के साथ सियार का तुक, स्वधा!
दलितों का कब्रिस्तान, संविधान संविधान, नमोस्तुते!

दक्खिन टोले की मड़ई में, स्वाहा!
मेहनती माजूरिनों का अनवरत रुदन, स्वधा!
अरहर और गन्ने के खेतों का कुंभीपाक, नमोस्तुते!

होली, प्रचंड नीचताएं, स्वाहा!
चूते टिकोरों बीच दहले की पकड़, स्वधा!
मंदिर शिव का,
श्राप नंगे पुजारी का, नमोस्तुते!

शौच और लोटा और कुत्ते और पंडित और जनेऊ और बलात्कार
और चीख और खामोशी,

स्वाहा-स्वधा नमोस्तुते!

सात लड़कियां पिता की खोज में, स्वाहा!
सात भाईयों के भयावह प्रेम में घुटती लड़की, स्वधा!
बाढ़ सरजू की,
संसृति सड़ेपन की गंध से बोझिल, नमोस्तुते!

इबारत चाचा का कुनबा, स्वाहा!
मुंह से आग फेंकते बाजीगर उस्मान, स्वधा!
मांस और धनिये की अद्भुत गंध, नमोस्तुते!

शोरोगुल, स्वाहा!
छोटा ताजिया-बड़ा ताजिया व ईदगाह, स्वधा!
दादी का मरसिया हाय हुसैन हम न हुए, नमोस्तुते!

एकता में दुई और खैनी की चोरी और पुलिस बल, स्वाहा!
90 और 90 और 90
और 90, स्वधा!
पलायन, नमोस्तुते!

*** 
कवि से सम्‍पर्क – 
Mrityunjay,Lecturer, Hindi Department,Ravenshaw University, Cuttack

    Odisha -753003, Ph. +91-8763642481

0 thoughts on “वाया 80’ – मृत्‍युजंय की कविता”

  1. कथ्य और शिल्प में अद्भुत यह कविता एक व्यापक समय की परत के नीचे की धीमी हलचलों को महसूस कर रही है .बहुत बधाई !शिरीष जी प्रस्तुति हेतु आभार .

  2. मृत्युंजय को पढ़ना हमेशा ही एक सार्थक और शानदार अनुभव होता है। यह कविता भी वैसी ही है… समय की भयावहता को जैसे उन्होंने अनायास ही पकड़ लिया है। बिना किसी कोशिश के। वे हिंदी कविता की नई आस हैं। उन्हें किसी की नजर न लगे।

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