अनुनाद

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टूटकर ही बनते हैं पहाड़ -भास्कर उप्रेती

भास्‍कर उप्रेती छह बरस पहले मि㨜ला एक युवा कवि-पत्रकार, जिससे समय के साथ मि㨜त्रता गाढ़ी होती गई। मैंने उसमें बहुत भावुक-संवेदनशील इंसान पाया। लेकिन उसकी नौकरी उसे जल्‍द ही नैनीताल से दूहरादून ले गई। ज्‍़यादा साथ नहीं रह पाया हमारा पर दोस्‍ती और समानधर्मा होने का अहसास और साथ तो अब उम्र भर का है। इधर हम पहाड़ी लोग जिस संकट से गुज़र रहे हैं, उसका एक अलग आख्‍यान रचती हुई भास्‍कर की एक कविता मुझे अभी मि㨜ली। मैं भास्‍कर को शुक्रिया कहता हूं कि उसने हमारे भीतर की छटपटाहट और आक्रोश को अपना स्‍वर देकर और मुखर कर दिया। 
*** 


पहाड़ पर आई है आपदा
और मैं नहीं हूँ इससे विचलित
पहाड़ पर आपदा दरअसल एक गति है.
ठहराव के खिलाफ रहे हैं पहाड़
वे बनते-टूटते-बिखरते-जुड़ते ही पहाड़ हो पाते हैं
पहाड़ नहीं खींचे जा सकते सपाट लकीरों में
पहाड़ों की नहीं हो सकती
मनचाही गोलाईयां.
पहाड़ तोड़ते ही आये हैं
अपनी ऊंचाईयों को
बहते-फिसलते ही रहे पानी की तेज धाराओं में घुलकर.
बहुत महीन हो बारिश या
फट पड़ा हो बादल
पहाड़ बार-बार बुलाते हैं
बादलों को और आगे कर देते हैं छाती
हमसे टकराओ
हमसे हमसे हमसे
मुक्त होवो मीलों लम्बे तनाव से.
और फिर हम दोनों मिलकर बन जायें
पानी की तेज धार
मिट्टी-पत्थर ले चलें साथ
नदियों की गोद भर दें.
इस बार मुझे नहीं नहीं आया घर, मां, खेत, गाय, पेड़ और मधुमक्खियों का खयाल.
मित्रों-नातेदारों के साथ क्या हुआ ?
नहीं घबराया मैं सनसनाती ख़बरों से.
पहाड़ की तरह पहाड़वासी भी टूटते, बनते, बिगड़तेऔर बदलते आये हैं
सदियों से.
जिसको लगा होगा अस्तित्व का डर
वह निकल आया बाहर और शामिल हो गया एक सुपरिभाषित दुनिया में
उसकी धमनियां ठहर-सी गयीं
नपा-तुला हो गया
आकर कहीं ठहर गया.
मगर पहाड़ पर रहने वाले लोग
रोज ही चढ़ते-उतरते हैं
ऊंचाईयां-गहराईयाँ
फिरघराट खड़ा कर
मथते हैं पानी
और
हर बार फिर
नदी के लिए ढूंढ ले आते हैं लकड़ी का मुकम्मल पुल.
उनके लिए तय नहीं कोई वास्तु शास्त्र
जैसे हर बार पलटीमार जातीहै नदी
वह भी पलट जाते हैं नियम मानकर
बदल जाते हैं उनके रास्ते, उनकी मंजिलें.
उन्हें आप नहीं डरा सकते प्रलय की तस्वीर से
वे आदी हैं इस प्रलय में उतर जाने के
प्रलय कई बार निगल जाता है उन्हें
या कई बार प्रलय चट्टानों में पीस डालता है उन्हें
मगर वे फिर से उगकर खड़े हो जाते हैं ऊंचे
चट्टान का सीना चीरकर जैसे मिट्टी तक जा पहुँचते है पेड़.
वे सहभागी होते हैं पहाड़ के साथ उसकी खुशियों और त्रासदियोंमें
जैसे कि आसमान से उनके पैरों में गिरता झरना
जैसे की तीखे ढलान पर अटकी कोई चट्टान.
पहाड़ में रहते हुए उनका ह्रदय हो जाता है शिलाजीत सा
जो बहुत मजबूती से चिपटे रहता है आत्मा से.
नहीं! तुम दर्द का महाकाव्य रचकर
बार-बार सर पर सवार होकर
नहीं कर पाओगे सफ़ेद को काला
नहीं करा पाओगे पहाड़ से उनका अलगाव
वे नहीं डरेंगे, नहीं डरेंगे, कभी नहीं डरेंगे तुम्हारे विस्फारित आख्यानों से.
जो नहीं लगा पाते पहाड़ से दिल
वे ही दरअसल ऐसी मनहूस पटकथाएं रचतेहैं
पहाड़ से दिल लगाने वाले जानते हैं कहाँ छुपा रहता है निर्मल ह्रदय
पानी बनकर रिसता ही चला जाता है लगातार.
आपदाएं ही हैं जो जगाती हैं पहाड़ों को नींद से
खिसकती हुई शिलाएं
आसमान तक छलकता नदियों का संगीत
यही तो बताता है
तुम खतरों के लिए ही बने हो
यह जो खतरा बताकर प्रचारित किया जा रहा है वह तुम्हारी भाषा है
लहरों से टकराकर ही तुम्हारी मुक्ति संभव है
खेलोगे लहरों से तभी तो बना पाओगे अपनी ठौर
चाहोगे सुरक्षा और आराम
तो फेंक दिए जाओगे बाहर.
***

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  1. यथार्थ को लय देने के लिए भाष्कर भाई को धन्यवाद कविता को पढ़कर बलवंत मनराल की कविता याद आई कविता का अंश दे रहा हूँ

    न होने का संशय हमें कभी नहीं रहा
    भयाक्रांत होने का प्रश्न ही नहीं उठता
    काली चट्टानों के नीचे दबकर भी
    ‘झावारीं’ घास से उभरेंगे ,
    लोहे की छाती चीर कर मुखर होते रहेंगे
    वक्त के माथे की लकीरों में बने रहेंगे

    हमारा मौन भी
    एक संयत घोषणा है –
    सौ ताले जड़े जुबानों की
    आने वाले तूफानों की ! …
    ………….बलवंत मनराल

  2. भास्कर की कविता निश्चित ही 'पहाड़' के सच की कविता है लेकिन इसमें भी शक नहीं कि पहाड़ के साथ जो अनाचार हो रहा है उसने भी पहाड़ की नाराज़गी बढ़ाई है. मैं भी दो साल कभी नैनीताल में रहा था और जब ठीक 25 साल बाद वहाँ गया तो मैंने पहाड़ का जो सच देखा वह कुछ ऐसा था:

    "पूरे पचीस साल बाद पहुँचे जब हम नैनीताल में इस बार
    तो एक-ब-एक फिर से समा गई
    नैनी झील की तरलता मेरी नस-नस में
    उसे निर्निमेष ताकती हुई मेरी प्यासी आँखों की डगर,
    फिर से सिमट आए मेरी बाँहों में
    देवदारु के तने झुरमुटों के कारण कुछ ज्यादा ही नुकीले लगते
    उचकते से हरे-भरे पहाड़,
    फिर से भर गया मेरे मन में नास-रंध्रों की राह से घुस कर
    पहाड़ी पुष्पों के पराग से पगे पवन का प्रेमोत्तेजक प्रमाद।

    मैं पहले की तरह ही ठगा सा देखता रह गया
    माल रोड के और अधिक रंगीन हो गए नज़ारों को,
    किसी अदृश्य आकर्षण से बँधा खिंचता चला गया मैं
    हर उस जगह, जहाँ-जहाँ से जुड़ी थीं मेरी पुरानी स्मृतियाँ,
    मल्लीताल की बाल मिठाई, जहूर भाई की दूकान,
    पुराने सचिवालय का पार्क, एम एल ए क्वार्टर्स,
    ब्रुकहिल कॉलोनी, ए टी आई, सूखाताल,
    और फिर से मन किया कि लपक कर चढ़ जाऊँ
    अपने आसन्न बुढ़ापे की बढ़ती अशक्तता को ललकारती चाइना पीक पर
    जी भर कर निहारने के लिए नंदा देवी की बर्फीली चोटियों को,
    वहाँ से बस पक्षियों के आकार भर की दिखती हैं
    नैनी झील में तैरती तमाम नावें,
    और झील तो बस ऐसी दिखती है जैसे
    पहाड़ों का त्रिकोणीय हृदय अवस्थित हो
    उनके वक्ष-स्थल के बीचो-बीच
    खुले आम मचल-मचल कर धड़कता हुआ
    और हमारी भी धड़कनों को अनवरत बढ़ाता हुआ।

    पर ऐसा भी नहीं है कि
    कुछ भी न बदला हो नैनीताल में इन पचीस वर्षों में,
    बहुत से देवदारु-गुल्मों की जगह ले ली है अब कंक्रीट के भवनों ने,
    बहुत सी खरोंचें बनाई हैं इस हिमगिरि-सुंदरी के नाभि-स्थल पर
    यहाँ आ बसे कामातुर वहशियों ने,
    इन बलात्कारियों के स्खलित वीर्य के कचरे से
    पटा जा रहा है दिन पर दिन इसका झील रूपी गर्भाशय,
    गज़ब का व्यापार बढ़ा है यहाँ
    इस रूपसी की कांचन-कटि को गिरवी रख कर,
    शरीर की किञ्चित उभरी नाज़ुक रुधिर-नलिकाओं रूपी सड़कों पर
    रात-दिन चढ़ती-उतरती हजारों गाड़ियों की रक्त-चाप-वर्धक धमधमाहट
    व्यथित करती है इसे अनवरत
    बदन पर रेंगती काम-पिपासुओं की अँगुलियों के नाखूनों की चुभन की तरह,
    यह सब कुछ देख कर
    कुछ समय के लिए मुझे ऐसा भी एक अहसास हुआ कि जैसे
    पचीस साल बाद अचानक मैं भी शामिल हो गया हूँ आकर
    सामूहिक बलात्कार के बाद उन्मत्त हो
    पीड़िता के भग-तटों पर ही नृत्योल्लास करती
    काम-पिपासुओं की किसी भीड़ में।

  3. पहाड़ की कठोर सच्चाई, दुःख-दर्द और उससे लड़ने का जज्बा बयां करती कविता..

  4. आज वाकई भास्कर को बहुत दिनों बाद देखा आप के अनुनाद पर और कविता पढ़ कर मजबूरी भी महसूस की और थोड़ा सुकून भी …………..महाराज आपको और भास्कर को धन्यवाद ……………आपका राजेन्द्र

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