अनुनाद

कविता की टिहरी डूब गई

इधर कुछ समय से उत्‍तराखंड में तथाकथित विकास के प्रबल पक्षधर बनकर सामने आए मेरे बहुत प्रिय वरिष्‍ठ कवि लीलाधर जगूड़ी के लिए सादर

तस्‍वीर: मनोज भंडारी-अनिल कार्की की फेसबुक वाल से साभार

पेड़ से गिरे पत्‍ते पक्षी बनकर मंडराते हैं आकाश में
पक्षी ज़मीन पर पत्‍तों की तरह झड़कर गिर जाते हैं
एक डूब चुकी ज़मीन पर यह दृश्‍य मुझे इस तरह दिखाई देता है कि कहीं दूर कोई और भी
ऐसे ही देख रहा है इसे

अपने आसपास में डूब जाने का अवसाद मुझे इसी तरह घेरता और छोड़ता है

हर ओर पानी भरता जाता है
गांव मेरा डूब से बहुत दूर किसी और पहाड़ की धार पर है
और उधर किसी बड़ी पवित्र नदी का प्रवाह भी नहीं
गाड़गधेरे हैं बस कुछ
और मैं किसी पवित्रता के लिए दु:खी नहीं हूं

मेरा अवसाद मुझसे बाहर है और मुझसे बड़ा है

टिहरी डूब गई
तो क्‍या हुआ बिजली बन रही है

लोग उजड़ गए
तो क्‍या हुआ बिजली बन रही है

स्‍मृतियां विलाप रही हैं
तो क्‍या हुआ बिजली बन रही है

ख़ुद को खोजते मेरे पहाड़ अपने शैशव में ही खंख हुए जा रहे हैं
तो क्‍या हुआ बिजली बन रही है

धरती में इतना क्षोभ इकट्ठा है कि 8 के पैमाने का भूकंप कभी भी आ सकता है
तो क्‍या हुआ बिजली बन रही है

अनगिन परिवार जान से जा सकते हैं
तो क्‍या हुआ बिजली बन रही है

यहां एक कवि को पहला वाक्‍य अभिधा और दूसरा व्‍यंजना बोलना पड़ रहा है
लक्षणा के बिना जीवन अपनी कोमलता खो रहा है
तो क्‍या हुआ बिजली बन रही है

मैं घर के सारे चमचमाते बल्‍ब अब फोड़ देना चाहता हूं
हालांकि वो ज़रूरी हैं पर उनसे भी ज़रूरी चीज़ें थीं जीवन में नहीं रहीं
रास्‍तों पर पुरानी रोशनी चाहता हूं जिसे हम बिना बिजली के सम्‍भव कर लेते थे
पर ये भावुक विद्रोह है विचारहीनता इसे भटका सकती है

ऐसा नहीं हो सकता था कि नई रोशनी भी बची रहती और टिहरी भी?

देहरादून और दिल्‍ली में कविता की टिहरी डूब गई है
उसका कुछ नहीं किया जा सकता
सिवा इसके कि हम अपनी-अपनी टिहरी संभाल कर रखें
और ताउम्र यह कहने का अधिकार भी
कि एक ज़माने में न जाने क्‍या हुआ था
पेड़ों के पत्‍ते पक्षी बनकर मंडराने लगे थे
और पक्षी सूखे हुए पत्‍तों की तरह एक डूब रही ज़मीन पर झड़ रहे थे

देहरादून और दिल्‍ली में कविता की टिहरी डूब गई थी
हम क्रोध और अवसाद के साथ देख रहे थे उसका डूबना
***

0 thoughts on “कविता की टिहरी डूब गई”

  1. बहुत प्रासंगिक है आज यह कविता. अन्दर तक बेधती है. इसका महत्व डूब चुकी टिहरी की हाय को थामे जगूड़ी के प्रति समर्पण के कारण और बढ़ गया है. एक बेहतरीन कविता.

  2. बड़े कवि के पिछले दिनों के स्टैंड को उघाड़ती अर्थवान कविता.
    "टिहरी डूब गई /तो क्या हुआ बिजली बन रही है…लोग उजड़ गए / तो क्या हुआ बिजली बन रही है… स्मृतियां विलाप कर रही हैं /तो क्या हुआ बिजली बन रही है…"
    जन-विरोधी विकास के मॉडल की वकालत में आ खड़े कवि पर अच्छी रचनात्मक टीप, कविता के रूप में.

  3. बहुत मार्मिक और प्रासंगिक कविता ! लाशों पर चल कर होता हुआ विकास किसके काम आएगा ? उनके जो अपनी-अपनी एंटीलिया में सुरक्षित हैं !

  4. विकास की यह पूरी अवधारणा समाज और अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से नष्ट करने वाली है. हमारा पूरा सामाजिक तानाबाना बिखर रहा है…यह कविता उसका बहुत भावुक लेकिन बेहद तार्किक तरीके से प्रतिवाद करती है. बधाई क्या दूं..अपनी आवाज़ मिलाता हूँ आपकी आवाज़ से.

  5. कोशिश रहे साथी कि हम सबकी 'टिहरी' बची रहे | उनसे तो आशा कभी भी नहीं थी , कि वे इसे बचायेंगे | एक शानदार कविता के लिए आपको बधाई |

  6. बहुत मार्मिक कविता. काश टिहरी भी रहती और रोशनी भी..
    मैं घर के सारे बल्ब फोड़ देना चाहता हूँ, क्योंकि उससे भी ज़रूरी जो चीज़ें थीं वो रही नही…
    एक शहर का डूबना पीढ़ियों का डूबना है, शहर का डूबना एक जीवित इतिहास का अतल जल में गम होने जैसा है. शहर का डूबना विस्मृतियों का घनेरा है, आत्महत्या की ओर अग्रसर सभ्यता की निशानी है.
    कवि के मन के साथ मन है मेरा भी.

  7. बहुत अच्‍छा विश्‍लेषण है। जनविकास के मुद्दे से कविता में इसका आना फिर वरिष्‍ठ कवि को समर्पित हो जाना।बड़े बांधों के पक्ष में पद्मश्री लौटाने को कह रहे थे कवि लौटाई कि नहीं पता नहीं।अष्‍टभुजा शुक्‍ल की पंक्तियों में थोड़ी फेरबदल के साथ कहना होगा कि

    कैसा ललितललाम यार है
    कवि विकास रथ पर सवार है

    -के बी ममगाईं। दिल्‍ली

  8. शिरीष भाई इस तरह के तथाकथित विकास का पक्षधर मैं भी नहीं हूं..पर हम जिस चीज का विरोध कर रहे हैं..उसी का सहारा लेकर य‍ह विलाप भी कर रहे हैं…इसके बीच में कहीं संतुलन रखना होगा..वह इस कविता में थोड़ा सा नजर भी आता है..जब आप कहते हैं कि क्‍या ऐसा नहीं हो सकता था कि नई रोशनी भी बची रहती और टिहरी भी.. । पर वास्‍तव में आपकी कविता तो यहीं खत्‍म हो जाती है,उसे आप देहरादून और दिल्‍ली तक क्‍यों ले गए। वह अलग कविता में कहा जा सकता था।

  9. शुक्रिया भाई साब,

    यह जोखिम उठाना ही है। यही दो शहर (यानी राजनीति) समस्‍याओं की जड़ में हैं…. इनके बिना बात करना मेरे लिए तो सम्‍भव नहीं।

  10. जगूड़ी जी को समर्पित गहन चिन्तन कराती जागरूकता भरी रचना ..
    काश विकास की बात करने वाले प्रकृति और साधारण जन मानस को पहले समझ पाते!

  11. अच्छी कविता जो कथित विकास की परतें उघाड़ती है और किसी मछली की तरह पानी की आखिरी बूंद भी बचा लेना चाहती है। टिहरी को डूबते देखना, वह भी क्रोध और अवसाद के साथ। दरअसल यह क्रोध और अवसाद ही है जो उम्मीद जगाता है।

  12. एक दिन पूरा हिमालय डूब रहा होगा और हम देख रहे होंगे उस का डूबना क्रोध और अवसाद में .

  13. कवि ने उस वक्त की कल्पना में क्या कुछ नहीं लिखा जब सब कुछ उल्टा पुल्टा होने सा हो … और पानी में डूबी टिहरी और एक सभ्यता की हत्या विकास के लिए … और एक सामंजस्य भी और कवि की एक चिंता भी कि उसी तरह कविता की टिहरी भी डूबी जाती है ..सच है की टिहरी डूबी तो एक सुनियोजित तरीके से …. लेकिन विकास की जद पर चढी ये भेंट प्राकृतिक आपदा के सामने जब हिलेगी तो यह महाप्रलय होगा .. सोच कर दिल दहल जाता है …

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