अनुनाद

कविता जो साथ रहती है : 5/ असद ज़ैदी की कविता पर गिरिराज किराड़ू




अनुनाद पर सुप्रसिद्ध कवि गिरिराज किराड़ू के महत्‍वपूर्ण स्‍तम्‍भ ‘कविता जो साथ रहती है’ के तहत इस बार प्रस्‍तुत है असद ज़ैदी की कविता ‘आम चुनाव’ पर एक लम्‍बी विचारोत्‍तेजक टीप। कहना ही होगा कि यह टीप ‘साहित्‍य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है’ की परम्‍परा में सम्‍भव होती है। नाम अगोरने वाले हिन्‍दी में बहुत हैं, कर दिखाने वाले कम – गिरि उन्‍हीं करने वालों में से है। असद ज़ैदी भी बहुत कम समझे गए कवियों में हैं, जो उनकी दुरूहता नहीं, हिन्‍दी के समझदारों की नासमझी का फल है। गिरिराज भी बतौर कवि ऐसा ही है, जिसे ठीक से समझा नहीं गया। उसकी राजनीति को कभी परखा नहीं गया। मगर इक उम्‍मीद-सी है कि हालात बदलेंगे और वक्‍़त रहते बदलेंगे। हमारे आसन्‍न राजनीतिक अंधकार पर प्रकाश डालती इस लम्‍बी टिप्‍पणी को प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार है। लोकसभा आम चुनाव की पूर्वबेला पर न असद ज़ैदी की इस कविता से मुंह चुराना आसान होगा और न ही गिरिराज किराड़ू के इस आकलन से।  

    फूल का निशान और स्त्रियाँ: गिरिराज किराडू    

आम चुनाव – असद ज़ैदी

आम चुनाव में मतदान के रोज़
अपनी बारी के इंतज़ार में खड़े मोहन भाई
किसी और युग में भटकने लगे…

वहीदा रहमानी
कुसुमलता माथुर
एक वी गौरी देवी
सुमित्रा भट्ट
इनमें चुनाव का सवाल ही क्या
दिल तो इन सबसे लगाया ही था

एक तपस्वी की तरह
कोई इस इतिहास को तो बदल नहीं सकता
गर इनमें किसी से रू-ब-रू कुछ कह न सके
तो अपने ही स्वभाव का दोष था
और इस बात का अफ़सोस भी क्या करना
एक भी औरत अब इस शहर में नहीं
कहाँ हैं वे सब, जानने की कोशिश ही न की

ऐ भली औरतो ऐ सुखी औरतो
तुम जहाँ भी हो
अगर वोट डालने निकल ही पड़ी हो
तो कहीं भूल के भी न लगा देना
उस फूल पर निशान.

(सामान की तलाश, पृष्ठ ३७-३८, परिकल्पना प्रकाशन २००८)


इधर कुछ महीनों से पहली बार एक राजनेता मेरे सपनों में आने लगा है.
मेरी नींदों में वे लोग कभी शामिल नहीं रहे हैं जिनसे मैंने टूटकर प्यार किया. वे मेरी जाग में इतना मेरे पास रहते हैं कि नींद को बख्श देते हैं मानो. उनका दिया सुख दुःख सब जाग का हिस्सा है. लेकिन जिनसे डर लगा, जिनके कहे से वितृष्णा हुई  वे अक्सर सपनों में दाखिल हुए.
इस राजनेता से भी डर लगा है, इसके बयानों से वितृष्णा हुई है.
जो ‘ह्यूमेनिटेरियन क्लिनिक’ डेस्डेमोना जैसे फूल की हत्या करने वाले ऑथेलो, अपने गर्व और कायरता में शकुंतला जैसी निर्भीक आत्मसम्मानी को अपमानित करने वाले दुष्यंत और यहाँ तक कि बोर्हेस को पढ़ने के बाद यीशू की मुख़बिरी करने वाले जूडास के लिए पाठकों के मन में खुल जाता है क्या वह इस तरह के राजनेताओं के लिए भी ख़ुल सकता है? और अगर नहीं खुलता तो क्यूँ नहीं खुलता? 

क्लासिकल त्रासदी कैसे अपनी करुणा से नायक के अपराध के प्रति हमारे रेस्पोंस को मैनीपुलेट करती हैं यह इसी स्तंभ में पहले कहा गया है. मिलान कुंदेरा ने जो क्लासिकल त्रासदी से सीख लेते हुए कहा था कि साहित्यिक कृति की नैतिकता ‘नैतिक निर्णय को स्थगित’ करने में है, उस कथन का असर हमारे आस-पास के साहित्यिक पर्यावरण में बहुत दिखाई देता है लेकिन अक्सर उसे गलत भी समझा गया है. नैतिक निर्णय ‘स्थगित’ करने की बात है, नैतिक निर्णय कभी न लेने की बात नहीं है. खुद कुंदेरा का लेखन ऐसे निर्णय लेता है. चेकोस्लोवाकिया के रूसी अधिग्रहण की सबसे मुखर और मारक आलोचना हमें उनके फिक्शन में ही मिलती है.

नस्लीय घृणा, शोषण, असमानता, अन्याय, नाज़ीवाद आदि के लिए संयुक्त राष्ट्र, और विभिन्न देशों के संविधान और क़ानून में ज़ीरो टॉलरन्स है. ज़ीरो टॉलरन्स कैसे मानवीय हो सकती है यह हमें इस तरह के राजनेताओं और उनके मनुष्यता विरोधी विचारों ने ही समझाया है. हिटलर ने इवा ब्राउन के साथ आखिर में क्या किया इस नैरेटिव को इस बात के उदहारण के तौर पर प्रस्तुत किया जाए कि सबसे नृशंस हत्यारे भी ‘मानवीय’ होते हैं तो इस फ़रेब के आरपार देखने की समझ साहित्य से उतनी नहीं,  जितनी आस-पास के रोज़मर्रा से बनी है.
स्वप्न और यथार्थ का फ्यूज़न आधुनिक साहित्य की एक करिश्माई उपलब्धि थी जो सबसे पहले काफ़्का के यहाँ मुमकिन हुई. उसी तरह निजी भी राजनीतिक होता है यह हमारी सबसे महत्वपूर्ण समकालीन अंतर्दृष्टियों में से है लेकिन यह कैसे होता है, कैसे निजी में राजनैतिक और राजनैतिक में निजी की इबारत छुपी होती है इसका जैसा साफ़ सहज बेहद कलात्मक  निरूपण असद ज़ैदी की कविता ‘आम चुनाव’ में है उसके कारण यह कविता पिछले तीन चार बरसों से साथ रहती है.
कविता में मोहन भाई मतदान करने के लिए कतार में लगे हुए अपने जीवन के ‘किसी और युग’ के इकतरफा प्रेमों को याद करने लगते हैं, उन स्त्रियों के नामों को गौर से देखें तो उनमें ऐसी बहुलता है (मुस्लिम, कश्मीरी हिन्दू, दक्षिण भारतीय आदि) कि लगता है मोहन भाई ने चुपचाप इस वतन से, इसकी बहुलता से, प्रेम किया है. 

अब उन ‘भली’ ‘सुखी’ औरतों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं, बस भरोसा है कि जैसे होती हैं हिन्दुस्तानी औरतें वैसे भली और सुखी होंगीं गो पक्का नहीं कि आज आम चुनाव में मतदान के दिन वे भी उनकी तरह मतदान करने के लिए कतार में हैं कि नहीं पर अगर वे ‘निकल ही पड़ी हों वोट डालने के लिए’ तो मोहन भाई, जो उनसे ‘अपने ही स्वभाव के दोष’ के चलते ‘रू-ब- रू’ कभी कुछ नहीं कह पाये, आज कहेंगे कि,

ऐ भली औरतो ऐ सुखी औरतो
तुम जहाँ भी हो
अगर वोट डालने निकल ही पड़ी हो
तो कहीं भूल भी न लगा देना
उस फूल पर निशान.

यह निजी में मौन रहने वाले की मुखर राजनीति है. वह खुद इस कतार में है कि फूल के खिलाफ़ कम से कम एक वोट सुनिश्चित कर सके. अपनी कामना में वह ऐसे चार और वोटर पक्के करना चाहता है. और अगर वहीदा रहमानी, कुसुमलता माथुर, वी गौरी देवी, सुमित्रा भट्ट मिलकर वतन हैं तो मोहन भाई यह पक्का करना चाहते हैं यह वतन फूल के खिलाफ़ वोट दे दे. और अगर वे ‘आधी दुनिया’ हैं तो आधी दुनिया फूल के खिलाफ़ वोट दे दे.
वोट परदे की ओट.
शादी के बाद अपनी मृत्यु तक घूंघट करने वाली मेरी नानी शायद इस वाक्य में ‘पर्दे की ओट’ की त्रासद विडम्बना को पार करके यह वाक्य बोलती थी, विजय और गर्व से. कलकते में रहने वाले कई मारवाड़ियों की तरह उनके पिता और पति दोनों कांग्रेस समर्थक थे. नानी जो बाकी जीवन में उनका बहुत प्रतिवाद नहीं कर पायी, एक नागरिक के दुर्लभ पवित्र एकांत में अपनी पसंद के उम्मीदवार को वोट देती रही.

बंगाल के कम्यूनिस्ट नहीं जानते होंगे कि उनकी सत्ता बनने में बिलासपुर में जन्मी, लेकिन मूलतः राजस्थान की और कलकत्ते की एक छोटी-सी खोली में अपनी ज़्यादातर विवाहित जिंदगी बिता देने वाली स्त्री के एक नागरिक के रूप में किये गए ‘चुनाव’ का (जो उनकी ज़िंदगी का एकमात्र चुनाव था बाकी तो सब कुछ उनके जीवन में बिना उनके चुने ही हुआ) क्या योगदान था.

पितृसत्तात्मक हिन्दुस्तानी परिवारों में स्त्रियों का वोट ऐसा लगता है परिवार का मुखिया तय करता है लेकिन नानी और बाद में उनकी तर्ज पर उनकी दोनों बेटियों ने और मुझे यकीन है उनकी तरह बेशुमार स्त्रियों ने पितृसत्ता के खिलाफ़ ‘परदे की ओट’ यह जो गुप्त लोकतान्त्रिक कारवाई की है उसका लेखा होना बाकी है. 

अनुमान किया जा सकता है कि मोहन भाई विवाहित हैं और हमें अब यह दुआ करनी चाहिए कि उनकी विवाहिता और ये ‘प्रेमिकाएं’ अपने प्रतिशोध में फूल पर मुहर न लगा बैठें! यह इस कविता में निजी और सामाजिक/राजनितिक का एक और अस्तर है.
कविता की एक उस्तादाना शरारत यह है कि स्त्रियों को फूल बड़े पसंद होते हैं – कहीं इतनी सी बात पे कोई फूल को वोट न दे दे!
वैसे  कुछ अध्ययन यह कह चुके हैं कि जहाँ भी स्त्रियों ने अधिक मतदान किया है, दक्षिणपंथी पार्टियों को फायदा हुआ है.
यह संभव है कि इस कविता, और इस निबंध को भी, स्त्रियों के राजनैतिक विवेक के बारे में पूर्वाग्रह से ग्रसित मान लिया जाय लेकिन यह उन दुखद तथ्यों से आँख मूंदकर ही संभव है जो इस देश में स्त्रियों की शिक्षा, उनके जीवन में पारिवारिक और सामाजिक के शिकंजे और राजनीतिक सक्रियता के लिए अनुपलब्ध स्पेस के साथ साथ उनकी ऐसी सक्रियता के दमन के बारे में मौजूद हैं.
एक और सवाल यह भी है  कि मोहन भाई के पास क्या विकल्प है? वे किसे वोट देंगे? अगर उनकी चारों भली, सुखी औरतें उनसे सलाह मांगें तो वे क्या सुझाएंगे?
यह प्रश्न इस कविता में नहीं है पर क्या नब्बे के बाद के भारत में मोहन भाई के पास कोई विकल्प है? यह जानकारी भी इस कविता में नहीं है कि मोहन भाई की जाति क्या है?
अगर मोहन भाई का सरनेम होता इस कविता में हम क्या उनके विकल्पों का अनुमान कर पाते?
असद ज़ैदी की इस कविता के बारे में मैंने एक बार पहले कहा है कि “प्रतीकात्मक और सजावटी नहीं, सचमुच का, नाम ले कर, अपना नुक्सान करने वाला प्रतिरोध करना उसकी सहजताओं में शामिल हैं.”
जिस माहौल में साम्प्रदायिकता विरोध को भी अवसरवाद की भेंट चढ़ाया जा जा रहा है, उसमें फूल के निशान से लेकर साहित्य अकादेमी के रुझान का उनका प्रतिरोध स्पष्ट और प्रभावी भी रहा है, प्रेरक भी. 
हिंदी के वरिष्ठ लेखक यूं कभी किसी नवागंतुक को मुक्तिबोध नागार्जुन शमशेर बताते रहते हैं लेकिन कुल मिलाकर युवा कविता के बारे में एक सत्ता की तरह, एस्टेब्लिशमेंट के मुहाविरे में ही बात करते हैं. अस्सी के दशक के बाद की कविता के बारे में उनके अर्द्धसामंती वक्तव्य सुनकर अब ऊब होती है. 
पर यह सवाल क्यूँ नहीं उठाया जाय कि कितने वरिष्ठ कवि ऐसे हैं जिनकी कविता, इस निबंध में चर्चित कवि की कविता की तरह, लगातार अपने को जीवंत, सार्थक और समकालीन बनाये हुए है?
यह कविता आजकल और शिद्दत से आती है. देश में आम चुनाव होने हैं और ऐसा लगता जिन जिन से कह सकती है यह कविता कह रही है कि अगर निकल ही पड़े हो वोट डालने तो ‘कहीं भूल के भी न लगा देना उस फूल पर निशान.’




 ***
हुसैन की चित्रकृति गूगल से साभार

0 thoughts on “कविता जो साथ रहती है : 5/ असद ज़ैदी की कविता पर गिरिराज किराड़ू”

  1. गिरिराज भाई ने कविता के बहाने जिस तरह सांप्रदायिक राजनीती का प्रतिरोध रचा है वह प्रसंशनीय है . ….सटीक आकलन .

  2. बहुत शोर सुनते थे फेसबुक पर जिनका
    उन्‍हें यहां क्‍यों चुप-सी लगी है
    ***
    (दो शाइरों के मिसरे तोड़ने-मरोड़ने की गुस्‍ताख़ी माफ़)

  3. गिरी जिस तरह से कविताओं का उत्खनन करता है, जो हिंदी की प्रोफेसरी आलोचना से एकदम अलग है, वह विस्मित भी करता है और रोमांचित भी. एक कविता को लेकर इस तरह विस्तार में लेकिन क्रमवार तरीके से उसने असद जी की इस कविता को आम पाठक (कहाँ है वह? यह 'आम' कहाँ है? इसका मौसम कितने महीने रहता है? इस पर किस ख़ास का हक है?) के लिए वह एक आसान नैरेशन में नहीं बदलता बल्कि जैसे उससे कविता के उस सवाल पर सान चढ़ाकर जिरह करता है. मैं चाहूंगा कि उसके ये लेख एक साथ किताब के रूप में आयें.

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