भीतर-बाहर की आवाजाही
पिछले दिनों युवा कवि अमित श्रीवास्तव का पहला
कविता संग्रह‘बाहर मैं …मैं अन्दर ‘ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है . इस संग्रह में दो खण्डों में कवितायेँ संकलित
हैं . पहला खंड ‘मैं अन्दर ‘ नाम से
है. ‘बाहर ‘की कवितायेँ तो समझ में आ
जाती हैं लेकिन ‘भीतर ‘ की कविताओं को
समझने के लिए पाठक को जूझना पड़ता है . ये आसानी से समझ में आने वाली कवितायेँ नहीं
हैं. शायद इसका कारण मानव मन की जटिलता हो . किसी भी व्यक्ति के मन को समझना जितना
कठिन है उससे अधिक कठिन उससे जुडी अभिव्यक्ति को .मन की दुनिया बहुत बड़ी और पेचीदी
होती है .मेरा मानना है जीतनी बड़ी दुनिया बाहर है उससे बड़ी हमारे भीतर है . इसलिए
ये कवितायेँ पाठक से धैर्य की मांग करती हैं .इनके भीतर धीरे-धीरे ही प्रवेश किया
जाना चाहिए. इन कविताओं में लगता है कि कवि खुद से लगातार वाद-प्रतिवाद कर रहा है
. अपने से लड़ रहा है. इस प्रक्रिया में खुद को पहचानने की कोशिश कर रहा है .कवि की
खुद से गुत्थम -गुत्था चल रही है .ब्लर्ब लिखते हुए युवा कवि शिरीष मौर्य ने सही
पकड़ा है कि इस अन्दर में छटपटहट बहार के दबाबों की भी है .इस अन्दर में वह खुद
अपना ईश्वर भी है . ये कवितायेँ बताती हैं कि कवि का मैं वेदना और संवेदना का मेल
है .वह कहीं दूर से निर्देशित नहीं हैउसे ‘करारी चोट और ठंडी
औपचारिकता सहन नहीं है.
कवि का यह कहना –‘कि मैं भी कभी /ईश्वर रहा हूँगा ‘ उनके साहस और
आत्मविश्वास को बताता है . यह अच्छी बात है कि कवि ने खुद को मजबूती से बाँधा है
और खुद को छुपाने की कोशिश नहीं की है . जबकि इस बाजार युग में सभी का सत्य को
छुपाने में अधिक जोर है. कितना प्रीतिकर है कि कवि ऊँचाइयों को पाने के लिए भागता
नहीं . ‘त्रिशंकु‘ का कवि का आदर्श
होना, हमारे चारों ओर की परिस्थितियों का हमारी संवेदना पर
बढ़ते दबाब को बताता है ,यह समय -सत्य है जिसे कवि किसी
बनावटीपन से ढकना नहीं चाहता . इन कविताओं को पढ़ते हुए मनुष्य के भीतर के बारे में
बहुत कुछ नया पता चलता है और बहुत कुछ ऐसा जो हम सबके मन में कभी ना कभी पैदा होता
है .
जहाँ‘ मैं अन्दर‘ में
भीतर की हलचल है वहीँ ‘बाहर मैं ‘ में
बाहर की चहल-पहल .अपने आसपास की हर घटना को पैनी नजर से देखा गया है . छोटी
कविताओं की अपेक्षा लम्बी कवितायेँ अधिक प्रभावशाली हैं . उनमें जीवन पूरी ठाट के
साथ आता है . देश की आज की हालातों पर कविता सटीक और मारक टिप्पणी करती है -एक देश
है/ जो निरुद्देश्य है /जो अपने नागरिकों के सामने /निरुपाय/ नंगा खड़ा है नयी सदी
के पहले दशक में. इस हालत के लिए कवि का डाक्टर , वकील,
पत्रकार, लेखक ,नेता ,शिक्षक . इंजिनियर ,योगी उद्योगपति सहित सभी वर्गों
को जिम्मेदार मानना सही है .
प्रस्तुत
संग्रह में ‘डल‘ बहुत मार्मिक कविता है जो दहशतगर्दी के चलते कश्मीर के आम आदमी के हालत को
पूरी संवेदनशीलता के साथ बयां करती है . डल झील जो अपनी सुन्दरता के लिए विश्व
प्रसिद्द है, पर्यटकों के नहीं आने से बेचैन,झल्लाई हुयी है जो काटखाने के लिए आ रही है . आम आदमी की पीड़ा को समझने
वाला कवि ही प्रकृति के भावों को इस तरह से समझ सकता है . यह बैचनी और झल्लाहट
दरअसल उन लोगों की है जो अपनी आजीविका से महरूम हो गए हैं .एक कवि मन ही इस तरह से
देख सकता है दूसरा तो वहां के प्राकृतिक सुन्दरता में खो कर रह जाता . यह कविता
कश्मीर के करुण हालत को काव्यात्मक रूप में पाठक तक पहुंचाने में सफल रहती है .इस
कविता की ये पंक्तियाँ …..‘जावेद को किसी का इन्तजार नहीं
अब/जावेद का कोई इंतजार नहीं करता घर पर‘ , पाठक के सीधे
मर्म में जाकर लगती हैं जिसमे पाठक देर तक कसमसाता रहता है . ‘मैं बहुत उदास हूँ ‘ कविता कवि की प्रतिबद्धता और
सरोकारों को बताती है . अमित ने इस कविता में उदासी के जो -जो कारण बताये हैं उन
कारणों से एक संवेदनशील व्यक्ति ही उदास हो सकता है . पर इस कविता की खासियत है कि
यह उदास नहीं करती है बल्कि उदासी से लड़ने की ताकत देती है . आश्वस्त करती है कि
और भी हैं ज़माने में जिनको ज़माने की चिंता है .
‘कहानी नहीं नियति है ‘ संग्रह की एक और मार्मिक
कविता है जिसमें आजादी के साठ बरस बाद भी करोड़ों भारतवासी इस स्थिति में नहीं
पहुँच पाए हैं कि अपने नन्हे-मुन्नों की छोटी -छोटी चाहतों को भी पूरा कर पायें.
इस कविता में एक गरीब महिला की मनस्थिति को दिखाया गया है जो अपने जिद करते बच्चे
के लिए न उसके पसंद का खिलौना खरीद पाती है और न दो केले .
इनके अलावा प्रस्तुत संग्रह में ‘विदेश नीति ‘
, ‘मुल्तवी ‘
, ‘महाकुम्भ‘ ,’कालाढूंगी ‘ जैसी कवितायेँ हैं जो भीतर तक हिलाती हैं और अपने साथ ले चलती हैं . इन
कविताओं में एक अच्छी बात है कि ये पुलिस वालों के प्रति
थोडा ठहरकर सोचने को
प्रेरित करती हैं . वे भी आदमी हैं उनके भीतर भी इन्सान का दिल धड़कता है . इस दृष्टि से सोचना भी
जरूरी है क्यूंकि पुलिस की आम आदमी के सामने जो छवि बन चुकी है दरअसल उसके लिए
उनकी कार्य परिस्थितियां और उन पर पड़ने वाले राजनीतिक दबाब अधिक जिम्मेदार हैं .
कुल
मिलकर कवितायेँ अपने नयेपन से ध्यान आकर्षित करती हैं .कथ्य और शिल्प के स्तर पर
ये कवितायेँ परंपरागत अनुशासन को तोडती हैं . इन कविताओं में ऊपर से जो दिखता है
उससे ज्यादा उभर आता है जो भीतर दबा है . कवि की यह भीतर- बाहर की आवाजाही उनकी
कविता के भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है. उनके इस पहले संग्रह का स्वागत होना
चाहिए.
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महेश पुनेठा की समीक्षा भी अमित श्रीवास्तव की कविताओं से बतकही करती हुई पगडंडी पर नंगे पाँव काँटे – काँकर की परवाह किये बिना चलती रहती है.…. यूँ कि … ये साथ अच्छा लगता रहा.…