अनुनाद

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कविता जो साथ रहती है-6 / महेश वर्मा की एक कविता : गिरिराज किराड़ू

गिरिाराज किराड़ू ने इस बार न सिर्फ़ अपने बल्कि मेरी समझ के भी बहुत क़रीब के कवि महेश वर्मा पर लिखा है। यह कविता मेरे भी साथ रहती है। मैं इसका लफ़्ज़-दर-लफ़्ज़ पाठ नहीं कर पाता जैसा गिरिराज ने किया है क्‍योंकि मुझे भी अहसास है कि मैं ख़ुद गर्वीली मुद्राओं के भीतर वधस्‍थल की ओर ले जाया जाता हुआ एक निरूपाय पशु ही हूं ….. बहरहाल, यह मेरे कहने का स्‍थान नहीं है। इस स्‍तम्‍भ के रूप में हमारे वक्‍़त की कविता पर गिरिराज के कथन संजोने की चीज़ हैं। ये सिलसिला अभी लम्‍बा जाएगा।   


रोने की सामाजिक और निजी भाषा


और जबकि किसी को बहला नहीं पाई है मेरी भाषा
एक शोकगीत लिखना चाहता था विदा की भाषा में और देखो
कैसे वह रस्सियों के पुल में बदल गया

दिशाज्ञान नहीं है बचपन से
सूर्य न हो आकाश में
तो रूठकर दूर जाते हुए अक्सर
घर लौट आता हूँ अपना उपहास बनाने

कहाँ जाऊँगा तुम्हें तो मालूम हैं मेरे सारे जतन
इस गर्वीली मुद्रा के भीतर एक निरुपाय पशु हूँ
वधस्थल को ले जाया जाता हुआ

मुट्ठी भर धूल से अधिक नहीं है मेरे
आकाश का विस्तार – तुम्हें मालूम है ना ?

किसे मै चाँद कहता हूँ और किसको बारिश
फूलों से भरी तुम्हारी पृथ्वी के सामने क्या है मेरा छोटा सा दुःख ?

पहले सीख लूं एक सामाजिक भाषा में रोना
फिर तुम्हारी बात लिखूंगा

(सामाजिक भाषा में रोना: महेश वर्मा )

1

पहला वाक्य ‘सामाजिक’ (होने में) विफलता का, एक ‘निजी’ विफलता का वाक्य है:
और जबकि किसी को बहला नहीं पाई है मेरी भाषा
यह ‘मेरी’ भाषा है, ‘निजी’ भाषा है, यह ‘निजी भाषा’ की भी विफलता का वाक्य है.
दूसरा वाक्य ‘सामाजिक’ होने की एक कोशिश है:
एक शोकगीत लिखना चाहता था विदा की भाषा में और देखो
शोकगीत अगर खुद के नाम हो और विदा भी खुद ही से विदा हो तो भी शोकगीत और विदा दोनों अन्य की पूर्वापेक्षा के बिना संभव नहीं. यह जो अपने से इतर सब कुछ है यह उससे विदा भी होगी ही और उसे भी यह शोकगीत सुनाई देगा ही.
और तीसरा वाक्य दूसरी बार विफलता का वाक्य है:
कैसे वह रस्सियों के पुल में बदल गया
एक शोकगीत रस्सियों के पुल में कैसे बदल गया जिसकी रूपकात्मकता और उसके इंगित जिनको पढ़ना कविता पढ़ने के लिए अनिवार्य है, का एक अर्थ, सीधा अर्थ यह है कि शोकगीत लिखने का उपक्रम भी विफल रहा.
पाठीय (शोकगीत) के पार्थिव (रस्सियों के पुल) में बदल जाने में पुल के रस्सियों का होना क्या यह कहता है कि शोकगीत को किसी और वस्तु या किसी और पुल जैसा होना चाहिए था?
तीन पंक्तियों के इस पद (स्टैंजा) का अगले स्टैंजा से क्या सम्बन्ध है?
दिशाज्ञान नहीं है बचपन से
सूर्य न हो आकाश में
तो रूठकर दूर जाते हुए अक्सर
घर लौट आता हूँ अपना उपहास बनाने
दूसरा पद पहले पद में हुए कर्म (विफलता) का कारण नहीं व्यक्त करता. वह पहले पद में जो व्यक्ति/मनुष्य है उसके होने का एक और विवरण है. जो व्यक्ति/मनुष्य अपनी भाषा से किसी को बहला नहीं  पाया, जो शोकगीत नहीं लिख सका, जिसका शोकगीत रस्सियों के पुल में बदल गया, वही व्यक्ति/मनुष्य दिशाज्ञान से वंचित है. उसी तरह उसके होने का एक और विवरण यह है कि उसे पता है:
कहाँ जाऊँगा तुम्हें तो मालूम हैं मेरे सारे जतन
इस गर्वीली मुद्रा के भीतर एक निरुपाय पशु हूँ
वधस्थल को ले जाया जाता हुआ
अब कविता में कोई ठोस अन्य/अनन्य है जिससे वह संबोधित है, ‘तुम्हें’ कहकर. उसे पता है रूठकर जाने की उसकी मुद्रा असफल भले हो अंत में, शुरू गर्वीली होने से करती है. और तब वह अपने बारे में बयान करता है. ‘भीतर’ वह ‘एक निरुपाय पशु’ है, ‘वधस्थल को ले जाया जाता हुआ’. यह उसकी वधस्थल को ले जाये जा रहे पशु जैसी निरुपायता है कि उसे दिशाज्ञान नहीं है, कि वह किसी को अपनी भाषा से बहला नहीं पाता, शोकगीत नहीं लिख पाता और यह उसका दयनीय ईगो मैकेनिज्म है कि वह अपनी समस्त पराजय और विकल्पहीनता को रूठकर जाने – पलायन करने – की ‘गर्वीली मुद्रा’ के अभिनय से ढक लेना चाहता है. लेकिन उसका यह ईगो मैकेनिज्म उस ठोस अन्य के सामने व्यर्थ है क्यूंकि उसे ‘तो मालूम है’ उसके ‘सारे जतन’.
उस मालूम है इस व्यक्ति/मनुष्य के निजी की क्षुद्रता, उसका ना-कुछ होना:
मुट्ठी भर धूल से अधिक नहीं है मेरे
आकाश का विस्तार – तुम्हें मालूम है ना ?
यह प्रश्नवाचक सच्चा और अडिग नहीं है, जिसे सारे जतन मालूम हों उसे यह भी मालूम होगा ही कि ‘ मुट्ठी भर धूल से अधिक नहीं है’ इस व्यक्ति/मनुष्य के ‘ आकाश का विस्तार’. क्या यह इस अस्तित्व की, उसके निजी की वह क्षुद्रता है जिसकी कल्पना सृष्टि के, सामाजिक के विराट के सम्मुख हम करते हैं और क्या इसी की वजह से यह लगातार हर कर्म में विफल है?
किसे मै चाँद कहता हूँ और किसको बारिश
फूलों से भरी तुम्हारी पृथ्वी के सामने क्या है मेरा छोटा सा दुःख ?
यह उसके निजी की, निजी दुःख की क्षुद्रता है जो ‘फूलों से भरी तुम्हारी पृथ्वी’ के सम्मुख ना-कुछ है. लेकिन यह पृथ्वी नहीं है जो यूं भी केवल फूलों से भरी नहीं हो सकती बल्कि ‘तुम्हारी पृथ्वी’ है.
उस ठोस अन्य का ‘तुम’ का निजी क्षुद्र नहीं यानी इस आख्याता व्यक्ति/मनुष्य की क्षुद्रता सार्वभौम नहीं. उसके बरक्स कोई है जिसकी एक पृथ्वी है समूची, सुखी – ‘फूलों से भरी’.
एक तरफ क्षुद्रता और दुःख है दूसरी तरफ विराट और सुख है. इन दो विलोमों में फिर भी यह सम्बन्ध है कि जिसका निजी विराट और सुखी है उसको सारे जतन पता हैं उसके जिसका निजी क्षुद्र और दुखी है.
क्या दोनों के मध्य अंतरंग वैपरीत्य का जो सम्बन्ध है, वह प्रेम है? दो असमान अस्तित्वों के बीच प्रेम. या विराट/सुख क्षुद्र का आल्टर ईगो है? क्या वे दोनों मिलकर सम्पूर्ण मानवीय अस्तित्व बनाते हैं, क्षुद्र और विराट मिलकर, सुख और दुख मिल कर? लेकिन अपने इस ठोस अन्य की बात, अपने इस आल्टर ईगो की बात वह तभी कह पायेगा जब वह सीख लेगा एक ‘सामाजिक भाषा में रोना’.  कविता ‘सामाजिक’ (होने में) की एक ‘निजी’ विफलता से शुरू होती है और ‘सामाजिक’ भाषा में रोना सीखने की कामना से समाप्त.
पहले सीख लूं एक सामाजिक भाषा में रोना
फिर तुम्हारी बात लिखूंगा
‘रोना’ क्या इसलिए कि वह उसके आत्म के सर्वाधिक अंतरंग क्रिया है, या इसलिए भी कि आल्टर ईगो के सुख का बयान करने के लिए अपने आप को अपने होने की पारिभाषिक क्रिया – रोने से – उत्तीर्ण किये बिना उसकी बात नहीं लिखी जा सकेगी.
अनन्य भी अन्य है.

2
बीच में भूमिका

निजी और सामाजिक के बारे में जितना आसान यह कहना है कि वे मूलतः एक ही आत्म के आकार हैं, कि दोनों की कोई निरपेक्ष सत्ता नहीं; उतना ही मुश्किल है इसे जीवन में कर पाना या देखने की ऐसी विधि ढूंढ पाना जिसमें आत्म की उस एकता को उपलब्ध किया जा सके. निजी भी राजनैतिक अर्थात सामाजिक भी होता है और राजनैतिक/सामाजिक भी निजी होता है, कि मूलतः यह द्वैत व्यर्थ है यह कह पाना जितना आसान है इसमें इंगित अद्वैत को स्थापित करना उतना ही मुश्किल.
किन्तु यह ज़रूर है कि यह सामाजिक है जो निजता और सामाजिकता के भेद को अनिवार्य बनाता है बल्कि वही है जो निजता का परिसीमन भी करता है. आप सार्वजनिक स्पेस में क्या नहीं कर सकते यह निषेध सामाजिकता द्वारा परिभाषित होता है. यह परिसीमन और निषेध, यह द्वैत भाषा में भी होता है. भाषा भी निजी और सामाजिक भाषा होती है.
अक्सर हम यह मानते हैं निजी भाषा ‘प्रकृत’ होती है, ‘मूल’ होती है. सामाजिक भाषा निषेधों की छाया में, उनके आदेश और भय की छाया में रहती है, वह ‘साभ्यतिक’ होती है, ‘अभिनय’ होती है.
वह अन्य/अन्यों के होने से प्रतिकृत होती हुई संहिता (contract), बल्कि खुद अपने होने में विधि (law) होती है. भाषा की इस सामाजिक संहिता में प्रवेश में निजी का, मूल का दमन अपरिहार्य है वैसे ही जैसे साभ्यतिक में मूल का, इंस्टिक्ट का दमन अनिवार्य है.
सामाजिकता और समाज इस दमन पर आधारित व्यवस्थाएं हैं, भाषा भी. लेकिन जैसे सभ्यता में आदिम रहता है, सामाजिक भाषा में निजी रहता है, दमित लेकिन दमित होने में अनेकशः अभिव्यक्त.
यह दमन किन्तु अस्तित्व की (नैतिक) शर्त है इस अर्थ में कि यह न्याय की शर्त है. मूल की और लौटना संहिता और विधि से पहले के आदिम में, न्याय की असंभावना के क्षेत्र में लौटना है.  इस दमन के मुआवजे के तौर पर हमने सभ्यता पायी है, न्याय और उससे भी अधिक न्याय की एक वास्तविक, तथ्यात्मक, सम्भावना पायी है. किन्तु न्याय का यह प्रश्न सबसे विकट तब है जब वह ‘साभ्यतिक और ‘आदिवास’ के बीच है (यह निबंध ‘आदिवास’ को सभ्यता ही मानता है, कमतर बिल्कुल नहीं, लेकिन लगातार एक स्वीकृत बाइनरी (‘मूल/आदिम’ तथा ‘साभ्यतिक की) में बात कर रहा है इरादतन, क्यूंकि वह एक ‘तथ्य’ है).
मूल के साथ, आदिवासी के साथ न्याय यह नहीं है कि सभ्यता उसमें अपने परास्त आत्म की झलक देखें और अपने उस सभ्यतापूर्व आत्म को सभ्यता की अनहुई वैकल्पिकताओं को एक नुमाइश, एक संग्रहालय में बदल दे. उसके साथ न्याय यह है कि वह अपने ढंग से फिर से सभ्यता की इस यात्रा पर निकले या इस वर्तमान सभ्यता के विधि निषेधों से अपने ढंग से नेगोशिएट करे. अतीत का टूरिज्म, उसे एक एन्थ्रोपोलॉजिकल सब्जेक्ट में बदलना आपके लिए आपके काम का है उसके लिए नहीं उसके काम का नहीं.   

3

रघुवीर सहाय की कविता में सामाजिक का अर्थ ‘नागरिक’ है. उनकी कविता में निजी ढूंढ पाना मुश्किल है – यह ‘नागरिक’ के निजी हो जाने की कविता है. ‘नागरिक’ के निजी हो जाने की प्रक्रिया आत्म-दमनकारी या आत्म-रूपांतरकारी प्रक्रिया है. रघुवीर सहाय उस भाषा से जिसके ‘दो अर्थ हों’ भय महसूस करते हैं – यह दो अर्थ वाली ‘रूपकात्मक’ भाषा न्याय को असंभव कर देती है. न्याय के लिए अंततः एकार्थ अनिवार्य है. न्याय रोशोमन नहीं है. रघुवीर भाषा की अलंकारिकता के, उसके और कवि-आत्म के, न्याय की खातिर दमन के, भाषा की चरम सामाजिकता/नागरिकता के लगभग इकलौते कवि हैं. मुक्तिबोध में अलगाव है, उनका लेखन ‘विपात्र-कथा’ है, उसमें आत्मविस्तार की अपार बेचैनी और छटपटाहट है, रघुवीर जैसा कठोर आत्म-दमन नहीं. आलोकधन्वा में निजी आत्म की उड़ान है, विद्रोही, काव्यात्मक उड़ान.
रघुवीर नागरिक प्रतिरोध के कवि हैं, आलोक विद्रोह के और मुक्तिबोध आत्म-संघर्ष के. रघुवीर के लेखन में आत्म-दमन की पृष्ठभूमि – आत्मसंघर्ष का मुक्तिबोधीय फैंटेसी पटल – अदृश्य है और रूमान की वह ठोस ऐन्द्रिकता भी जो आलोक में है. अगर एक पारिवारिक रूपक में कहें तो रघुवीर की कविता सख्त पिता की कविता है, मुक्तिबोध की घर में संस्थापित-किन्तु-विस्थापित पुत्र की और आलोक की घर से भाग गये आवारा विद्रोही की. 
जैसे एक मुक्तिबोधीय नैतिकता है भाषा को आत्म-संघर्षी बनाने की वैसे ही एक रघुवीर-नैतिकता भी है, भाषा को निरंतर न्याय-संभव बनाने की, अधिकतम संभव सामाजिक/नागरिक बनाने की. मुक्तिबोध में सभ्यता समीक्षा है तो रघुवीर में लोकतंत्र समीक्षा.
महेश वर्मा की यह कविता, तब जब कि आत्म-तुष्ट निजता और आत्म-तुष्ट सामाजिकता के बाहुल्य में संकोच की कविता है, वह सामाजिक भाषा में प्रशिक्षित न होने को बिना अपराधबोध के स्वीकार करती है.
यह संकोच और स्वीकार उसकी नैतिकता है. और यही वह चीज़ है जिसके कारण हमेशा साथ रहती है यह कविता. विनम्रता और संकोच से कायल करती हुई, मेरे जैसे दिशाज्ञान से वंचित जैसे-तैसे कवि को बिना डराये कुछ सिखाती हुई.
अन्य भी अनन्य है.

4

महेश वर्मा की कविता मेरे लिए ‘निजी’ रूप से कविता की उम्मीद की कविता है. उससे आलोक पुतुल के ‘रविवार.कॉम’ पर परिचय हुआ था और तब से वह उम्मीद बढ़ती ही रही है. उनकी कविता को मैंने ‘हिंदी कविता का छत्तीसगढ़’ कहा है – ‘अपने बारे में दूसरों की अटकलों से बेपरवाह:  जीवन और कला की अपने ढंग से बहती एक नदी, अपने ढंग से होता हुआ एक आदिवास.’  बाद में इसी कॉलम में यह कहा गया है कि महेश वर्मा, प्रभात और कुछ हद तक मनोज कुमार झा की कविता ‘हिंदी कविता का छत्तीसगढ़’ है. महेश छत्तीसगढ़ में रहते हैं लेकिन ऐसा कहने में इस बात का बहुत योगदान नहीं है. इन तीनों (त्रयी प्रस्तावित करने में कुशल हिंदी के बुजुर्ग इसे २००० के बाद की कविता के लिए एक त्रयी का प्रस्ताव मान लें यद्यपि वे खुद तो ऐसा कभी करेंगे नहीं, वे तो यह मान ही चुके  हैं कि उनके बाद न कविता है, न प्रतिबद्धता न कला है तो सिर्फ़ ‘मीडियाक्रिटी’, ‘मूर्खता’ और ‘पतन’. वैसे खुशी की बात है कि इस त्रयी को त्रयी के रूप में थोड़ी बहुत मान्यता मिलने के संकेत भी दिखे हैं). इस त्रयी की कविता इस अर्थ में छत्तीसगढ़ है कि इसमें मूल/आदिवास और साभ्यतिक के बीच निरंतर तनाव है. इसके पास पाठीय सार्वभौमिकता (textual universality) नहीं है, उससे एक तनाव है, कहीं कहीं उसका आकर्षण भी है. इनमें से कोई भी रघुवीर-नैतिकता या मुक्तिबोध-नैतिकता या आलोकधन्वा-समाधान की ओर अग्रसर नहीं है, उससे सीधे संवाद में भी नहीं है. इनमें पूर्व-आधुनिक समाजों की आवाज़ें हैं, उनका गौरवगान नहीं है, संग्रहालयीकरण नहीं है, किन्तु उनके आधुनिकीकरण की जटिलताओं की रंगतें हैं. इनके पास निश्चिन्त, आत्म-विश्वस्त आधुनिकता नहीं है, बल्कि आधुनिकता के नए या दमित विकल्पों की खोज की संभावनाएं हैं बिना गौरवगान या संग्रहालयीकरण के.
हो सकता है अंततः इनके यहाँ भी आत्म का सभ्यताकरण उसी तरह हो जैसे अन्यथा हुआ है. लेकिन अभी, बिल्कुल अभी विकल्पहीन नहीं है इनका संसार. 

0 thoughts on “कविता जो साथ रहती है-6 / महेश वर्मा की एक कविता : गिरिराज किराड़ू”

  1. सहमत हूँ कि यह कविता आत्मतुष्ट निजता और आत्मतुष्ट सामाजिकता के बीच के कवि-संकोच की जमीन से फूटती है .गिरी कविता की उस अपनी जमीन पर खड़े हो कर आधुनिक हिन्दी कविता के विस्तृत वायुमंडल में सांस लेते हुए उस से जो संवाद करते हैं , वह दिलचस्प है . बाकी महेश की कविता से मुक्त संवाद ही किया जा सकता है , उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती . यह उसका अपना अंदाज़ है . रस्सी का पुल संवाद की खुली हुई और लचीली जगह बनाता है, जो सीमेंट के पुल के बरक्श कम सुरक्षित लेकिन अधिक संभावनाशील है .

  2. आपने रस्सियों के पुल के रूपक पर सही दृष्टि डाली आशुतोष भाई- कम सुरक्षित किन्‍तु अधिक सम्‍भावनाशील। इन्‍हीं पुलों पर मेरे प्रदेश में पिथौरागढ़ के सीमान्‍त से लेकर यमुनाघाटी तक का जीवन अपनी बाधाएं पार करता हैं।

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