अनुनाद

अनुनाद

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला की दो कविताएं


अँधेरे के वे लोग    

अँधेरे में छिपे वे लोग कभी दिखते नहीं
दिन के उजालों में भी
अदृश्य वे

सड़क चलते आवारा कुत्ते
डरते है लोग उनसे
दूर से ही दिख जाते है
एक बिस्किट गिरा देते है या
थोड़ा संभल कर निकल जाते है …

वही एक प्राचीर को गढ़ते
एक भव्य महल को रचते
बहुमंजिली इमारतों को रंगते
अकसर
नज़र नहीं आते …

उनकी देह की सुरंग में कितना
अँधेरा है

एक नदी बहती है जहां
पसीने की
उसी में कहीं
वो डूब जाते हैं
अपनी मुकम्मल पहचान के लिए नहीं
अपने निर्वाण के लिए
मिट्टी की ख़ुश्‍बू के साथ ….

और रात को
जगमगाती रौशनी में
स्‍वर्णाभाओं से सज्जित
लोग सम्मान पाते है वहाँ
उन्‍हीं इमारतों में ….
***



वह जो नहीं कर सकती वह कर जाती है   

वह जो नहीं
कर सकती वह कर जाती है …

घंटों
वह अपनी एक खास भाषा मे हँसती है

जिसका
उसे अभी अधूरा ज्ञान भी नहीं

उसके
ठहाके से ऐसे कौन से फूल झड़ते है

जो
किसी खास जंगल की पहचान है …. …

जबकि
उसकी रूह प्यासी है

और
वह रख लेती है निर्जल व्रत 

सुना
है कि उसके हाथों के पकवान

से
महका करता था पूरा गाँव भर 

और
घर के लोग पूरी तरह जीमते नहीं थे 

जब
तक कि वे पकवान मे डुबो डुबो कर

बर्तन
के पेंदे और 

अपनी
उँगलियों को चाट नहीं लेते अच्छी तरह

खिलती
हुई कली सी थी बेहद नाजुक

गाँव
की एक सुन्दर बेटी 

घर
के अंदर महफूज़ रहना भाता था उसे
पर
वह चराती थी बछिया

ले
जाती थी गाय और जोड़ी के बैल

सबसे
हरे घास के पास

बीच
जंगल में …

एक
रोज

दरांती
के वार से भगाया था बाघ

छीन
कर उसके मुंह का निवाला

उसने
नन्ही बछिया को बचाया था

तब से वह खुद के लिए नहीं
बाघ
से गाँव के जानवर बच्चों को बचाने

की
बात सोचती थी

टोली
मे सबसे आगे जाती थी जंगल

दरांती
को घुमाते हुए ……………

उसे
भी अंधेरों से लगता था बहुत डर

जैसे
डरती थी उसकी दूसरी सहेलियां

पर
दूर जंगलों से लकडिया लाते

जब
कभी अँधेरा हुआ

खौफ
से जंगल मे

लडकियां
में होती बहस

उस
नहर के किनारे 

रहता
है भूत ….. 

कौन
आगे कौन पीछे चले 

सुलझता
नहीं था मामला

बैठ
जाती थी लडकियां 

एक
घेरे में

और
कोई होता नहीं था टस से मस

भागती
थी वह अकेले तब 

उस
रात के घोर अँधेरे में

पहाड़
के जंगलों की ढलान मे 

जहां
रहते थे बाघ और रीछ

और
गदेरे के भूत .. ..

फिर
हाथ मे मशाल ले 

गाँव
वालों के साथ आती थी  

पहाड़
मे ऊपर 

जंगल
मे वापस ………….

वह
रखती थी सबका ख्याल घर मे

सुबह
उनके लिए होती थी

उन्ही
के लिए शाम करती थी

बुहारती
थी घर

पकाती
थी भोजन और प्यार का लगाती परोसा.

सुना
कि उधर चटक गयी थी हिमनद

और
पैरों के नीचे से पहाड़

बह
गया था

बर्तन, मकान, गाय बाछी
खेत
खलिहान

सब
कुछ तो बह गया था ……………

कलेजे
के टुकड़े टुकड़े चीर कर

निकला
था वो सैलाब 

अपनों
की आखिरी चीख

कैसे
भूलती वह ………..

वह
दहाड़ मार कर रोना चाहती है और

वह
कतई हँसना नहीं चाहती है मगर

देखा
है उसे

आंसू
को दबा कर

लोगों
ने

हँसते
हुए

और
झोपड़ी को फिर से

बुनते
हुए ……………..

जानती
है वह

बचा
कुछ भी नहीं 

सब
कुछ खतम हो गया है …

मानती
है फिर भी

किसी
मलबे के नीचे

कही
कोई सांस बची हो ….

नदी
के आखिरी छोर से

पुनर्जीवित
हो 

कोई
उठ कर,

उस
पहाड़ की ओर चला आये ….

इस
मिथ्या उम्मीद पर

भले
ही वह झूटे मुस्कुराती हो

पर
एक आस का दीपक जलाती है

पहाड़
मे फिर से खुशहाली के लिए

***
संक्षिप्त परिचय 
डॉक्टर (स्त्री रोग विशेषज्ञ ), समाजसेवी और
लेखिका। पिता के साथ देहरादून
, जगदलपुर (अब छत्तीसगढ़ ),
गोपेश्वर (उत्तराखंड) कानपुर, लखनऊ, कलकत्ता अध्यन के लिए रहीं, अतः मध्यप्रदेश में
बस्तर जिले में आदिवासियों के जीवन को भी बहुत नजदीक से देखा
परखा-समझा। तीन साल संगीत-साधना भी की। नृत्य से भी लगाव रहा। स्त्रीरोग
विशेषज्ञ होने की वजह से महिलाओं की सामाजिक
, मनोवैज्ञानिक
और शारीरिक पीड़ाओं को नज़दीक से देखा और दिल से महसूस किया। अपने पति के साथ मिल
कर हर महीने में एक या दो बार सुदूर सीमांती पहाड़ी गाँवों में व देहरादून के
बाहरी हिस्सों में ज़रूरतमंदों को नि:शुल्क चिकित्सकीय सेवा उपलब्ध कराती रही हैं।
उत्तराखंड में सामाजिक संस्था
धादसे
जुड़ कर सामाजिक विषयों पर कार्य भी करती हैं। सामूहिक संकलन
खामोश ख़ामोशी और हमऔर त्रिसुगंधी में रचनाएं
प्रकाशित हुई हैं।

0 thoughts on “डॉ. नूतन डिमरी गैरोला की दो कविताएं”

  1. सोने में सुहागा, नूतन तुम कितनी शिद्दत से लड़कियों को महसूस करती हो, तुम्हारी कविताओं में झलक रहा है, बेहद सुन्दर अभिव्यक्ति !

    अनुपमा तिवाड़ी

  2. नूतन जी की ये दोनों कविताएं संघर्षशील लोगों का हौसला बढानेवाली कविताएं हैं, पहली कविता 'अंधेरे के वे लोग' जहां सदा अंधेरों में जीने वाले श्रमिकों की कठिन जिन्‍दगी का सच उजागर करती है, वहीं दूसरी कविता 'वह जो नहीं कर सकती, कर जाती है' पहाड़ की कठिन जिन्‍दगी में गुजर-बसर करने वाले संघर्षशील लोगों की जिजीविषा को गहराई से व्‍यक्‍त करती है। वह संघर्षशील स्‍त्री जंगल में बछिया को बचाने बाघ से जूझने का हौसला रखती है, लेकिन प्रकृति की विनाश-लीला के सामने बेबस है, बस इसी एक उम्‍मीद में जीवन के क्रम को बनाए रखने का संकल्‍प दोहराती है कि शायद प्रकृति की उस विनाश लीला के बावजूद वह किसी दबी हुई सांस को जीवन दे सके। बेहद मार्मिक कविता है। नूतन जी को इन प्रभावशाली कविताओं के लिए बधाई।

  3. नूतन की दोनों कविताएँ सच्ची और अच्छी हैं.पहली कविता जहाँ श्रमिक के अंधरे से टकराती है वहीं दूसरी कविता एक स्त्री के संघर्षों और जिजीविषा की कहानी बन जाती है. भाई शिरीष और कवयित्री नूतन आप दोनों को बधाई.

  4. मार्मिक भावों से ओतप्रोत और दिल को छूती हैं आपकी कवितायेँ.
    आपकी संवेदनशीलता का कायल हूँ नूतन जी.

    आभार.

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