अनुनाद

अनुनाद

वंदना शुक्‍ल की नई कविताएं

स्‍मृतियां
यादें
जीवन
के नन्हें शिशु हैं
उम्र
के साथ बढती जाती है
उनमें
नमी
जैसे
दरख्त की सबसे ऊंची पत्ती में
आसमान
भरता जाता है
जैसे
खीसे में चिल्लर का भार
या
आँखों में पानी की तहें
या
बादलों में हरापन …
यादों
में घर होते हैं और
कई
बार कई कई घरों में रहते हैं हम
एक
साथ
घर
बदलने का मतलब
सारी
दुनियां का बदल जाना है
कुछ
यादों से वक़्त खरोंच लेता है उनके रंग
 
अपने
पैने नाखूनों से
कई
यादों को पहचान पाते हैं हम
उनकी
हंसी या गीलेपन से
कई
चेहरे ऐसे भी होते हैं जो
छिपा
जाते हैं
अपना
रोना हमारी स्म्रतियों में  
***
क्यूँ
नहीं …!
क्यूँ
नहीं होता कोई ऐसा ज़िंदगी में
जो
कहीं नहीं होता पर
होता
है हमारी यादों में सबसे ज्यादा  
भटकता
रहता है गलियारों में आत्मा की
और
हम ये दावा भी नहीं कर पाते
कि
देखो
प्यार
का चेहरा ऐसा होता है !
***
विवशता
संबंधों
की भीड़ में
 
एक
अकेली स्मृति
किसी घनेरे
दरख्‍़त की
सबसे
ऊँची शाख पर अटकी
वो
क्षत-विक्षत पतंग
अपने
ही वजूद का ढाल बनी
जिद्द
का हौसला लिए
जूझ
रही है
   
तूफानी
हवाओं से
बरसाती
थपेड़ों से
बदरंग
से लेकर
चिंदी
चिंदी होने तक …
अपने
अपनों से बहुत दूर तक
उखड़ी
सांस को बचाए
  
हालांकि
तुम
असफल कलाकार निकले
लेकिन
‘’जीवन बचे रहने की कला है’’
सच
कहा था तुमने नवीन सागर !
***
कुछ
तो है
कुछ
तो है जो डूब रहा है
आत्मा
की नदी में
एक
विचित्र-सी ध्वनि जिसकी सूरत
नदी
से नहीं मिलती  
कुछ
अजन्मे बच्चों की फुसफुसाहट
फैल
रही है पृथ्वी पर
बात
कर रहे हैं उन ख़ाली जगहों की
जहाँ
वो खेलेंगे …दौड़ेंगे
उन्होंने
अभी बीहड़ का अर्थ नहीं जाना है
  
***
भोपाल
कमला
पार्क के आगे
सदर
मंजिल के क़रीब से गुज़रता वो रस्ता
जो
ले जाता था खिरनी वाले मैदान में
अब
उसे इकबाल मैदान कहते हैं
यहाँ
जाएँ तो जनाब ज़रूर देखिये वो  
लोहे
का खम्भा
ये
कोई बिजली का खम्भा नहीं है ना ही
बादशाहों
का मन बहलाने वाला मलखंभ
कभी
उठाते थे जो गर्दन
मुहं
से वाह निकलना तय था  
खम्भे
के ऊपर बैठा है
अल्लामा
इकबाल का ‘शाहीन’
लोहे
की मज़बूत तीलियों से बुना
स्वामीनाथन
के पसीने की चमक
गाहे
ब गाहे
अब
भी लौक जाती है उसके हौसलों पर
धूप
बारिश जाड़े में चमकता भीगता बैठा है वो
अपने
पंख सिकोड़े
यूनियन
कार्बाइड की गैस से लेकर
सूखी
हुई झीलों से आती गर्म हवा तक
झेली
है उसने
‘केसिट
किंग’ के हत्यारों को देखा है
पनाह
देते शहर को तो
मसूद
की हत्या का भी
गवाह
बना है वो
सुने
हैं किस्से या देखा है
 
शानी,दुष्यंत
,शरद जोशी ,कारंत,इकबाल
मजीद
, नवीन सागर,विनय दुबे जैसे
समर्पित
भोपालियों को
 
उनके
खामोशी से चले जाने तक  
पर
उसकी जिद्द तो देखो
बचा
हुआ है वो अब तक !
बैठा
है अब भी खम्भे पर पंखों को झटकारता
जितने
बार फड़फडाता है अपने पंख
कुछ
तीलियाँ बिखर जाती हैं ज़मीन पर
लोहे
की हैं तो क्या हुआ
?
ध्यान
से देखो तो लगता है अब
वो
खम्भे पर कम हवा में ज्यादा है
कितना
बदल गया है समय… वो सोचता है
और
गिद्धों की प्रजातियाँ भी तो
कितनी
नई नई उग आई हैं इस पुराने देश में
?
***
एक
ही रास्ता
ये
मुल्क है मेरा
यहाँ
मत्स्य कन्याएं हैं
बोतल
में बंद जिन्न हैं
परियां
हैं
समुद्र
को पी जाने वाले ऋषि मुनि हैं
मार्टिन
लूथर के वंशज हैं
जो
कहते हैं औरतें चुड़ैल होती हैं
डेविल्स
के साथ रहती हैं
इनके
बच्चों का मार दिया जाना
ज़रूरी
है और
बच्चे/बच्चियां
मार दिए जाते हैं
|
आबादी
की हरियाली में
आकाश
से बर्बादी की घोर बारिश झर रही है
और
उधर धूप में पेड़ों से
सूखे
हुए सन्नाटे…
विकास
के जंगल में सभ्यता
धू
धू कर जल रही है
मैं
इतिहास की पीठ के पीछे छिप गई हूँ
|
***
चौराहे
–एक
चौराहों
पर
महापुरुषों
की मूर्तियाँ
चौराहों
को सजाने के लिए नहीं होती
बच्चों
को हिस्ट्री का पाठ पढ़ाने के लिए भी नहीं
जैसे
नहीं होते शहीदों के स्मारक
खेतों
/किसी छोटे कसबे के बाज़ार या
किसी
घर के कच्चे आंगन में उनकी शहादत को
नमन
करने के लिए  
बल्कि
होते हैं ये उनके ज़ज्बे
और
उनकी देशभक्ति की आत्मा को
उनका
हश्र बताने के लिए
*** 
चौराहे-दो
चौराहे
तो होंगे आपके शहर में भी
और
उनके बीचों बीच होगी  
किसी
महापुरुष के
मज़बूत
हाथों में देश का संविधान थामे खडी कोई मूर्ति
या
घोड़े पर सवार किसी
जांबाज़
राजा की मूर्ति
,हाथ
में शमशीर लहराती हुई
मूर्ति
का मज़बूत और आदमक़द होना
दरअसल
उसके
न होनेको बचा पाने की गारंटी नहीं होता 
चौराहों
के आसपास से गुजरने वाले
जानते
हैं ये सच
ये
युग पुरुष
जब
अपने इसी घोड़े पर सवार धूल चटाते होंगे
अपने
दुश्मनों को
या
जब
दहाड़ते होंगे ,तब होंगे संसद से सडक तक
पर
अब तो  
वो
बेबस है इन मूर्तियों में इतने कि
चीख़
तो क्या अपनी जगह से हिल भी नहीं सकते
चाहो
तो देख लो उस गुलम्बर के आसपास
दिन
दहाड़े हत्या करके किसी की
***
पीड़ा
देश के लिए
/समाज के लिए यहाँ तक कि
इंसानियत
के लिए
कितनी खर्च
होती है बारूद /उम्मीद’और ऊर्जा
चीथड़े कर
दी जाती है औरत की
इज्ज़त सरे
बाज़ार ..
क्रोध में
भिंच जाती हैं मुट्ठियाँ
आग में
झोंक दिए जाते हैं वाहन ,घर और सपने
खून और
पानी का रंग हो जाता है एक
लोग कहते
हैं कि इन हालातों में तुम्हारी खामोशी
अखरती  है
मन में शक
पैदा करने की हद तक …
कैसे बताऊँ
तुम्हे दोस्तों
कि मैं
नहीं जाया कर सकती अपने शब्द
धुंए में
तब्दील होने देने के लिए
ना ही
गिरना चाहती हूँ अपनी ही नज़रों से
क्यूँ कि
नहीं नष्ट
करना चाहती अपनी ऊर्जा
उन
शक्तियों के लिए
जिन्हें
लिए बैठा है इतिहास अपनी गोद में
एक लापता
हो चुकी सदी से
कैसे बताऊँ
तुम्हे मैं कि
नहीं सह
सकती अपने शब्दों का अपमान मैं
जिन
निहत्थे शब्दों का वापस लौट आना
लगभग तय है
तुम्हारी
नाकाम कोशिशों की तरह
दोस्तों
लौटने के लिए सिर्फ घर होता है
उम्मीदें
नहीं …
***
सच
तकलीफदेह
नहीं होता /आशाओं का असफल हो जाना
चिंतनीय यह
भी नहीं होता कि चंद मुट्ठी भर लोग
राज़ कर रहे
हैं एक बड़ी आबादी पर
खतरनाक
होता है आदमी की
स्वाभाविक/निश्छल
हंसी का उससे
छीन लिया
जाना |
***
युक्ति
मैंने छोड़
दिया है खुला भूख को
पशुओं
द्वारा चर चुके खेत में
और बाँध
दिया है अपनी आजादी को
अभिव्यक्ति
के मज़बूत खूंटे से
छिपा दी
हैं अपनी इच्छाएं और सपने
विवशताओं
के सूखे जंगल में 
चंद
कहानियों और बुजुर्गों की बुझ चुकी आँखों में से
बचाई हुई
कुछ आंच से सुलगा रखी हैं अपनी साँसें
उम्मीद का
अपना कोई
ईमान धर्म
कहाँ होता है ?
***
पहचान
उसका नाम
गीता है
भूल जाती
है वो अक्सर अपना नाम
हो जाती है
वो बहन जी सुबह बेटे को
स्कूल के
रिक्शे में बैठाते रिक्शेवाले से
संभलकर
रिक्शा चलाने का अनुरोध करती हुई
कभी सब्जे
वाले से दो रुपये के लिए झगडती औरत
घर में
झाडू पोंछा और भोजन बनाती हुई गृहणी
पति के
पसंद का लहसुन का तडका दाल में लगाती पत्नी 
किसी
पार्टी के चुनाव प्रचार में कई सपने आँखों में पाले हो जाती है जनता
और कभी
मुन्नू की फीस के लिए
 दाल के डब्बे में बचाए गए पैसों में
कमी ढूंढती
माँ
रात में
पति से ‘’थकान ‘’ के लिए फटकार खाती निरीह -अबला
और फिर
निढाल हो पति की बगल में लेटी
छत को
ताकती हो जाती है एक चिंता
मुन्नू के
सुबह के नाश्ते की और
घासलेट की
लम्बी लाइन को अपनी आँखों में मूँद
पूरे दिन
को अपनी रात पर ओढ़
सो जाती है
वो
सपने में
पूछती है खुद से
 क्या उसका नाम गीता
सुनकर चौंक
जाने और बतौर सबूत के लिए ही
रखा गया
था?
***
राजेन्द्र
यादव के लिए
जातक कथाओं
की तरह थी उस दरख्त की तमाम कहानियाँ 
उस बीहड़
जंगल का सबसे बूढा किस्सागो था वो
अनगिनत
कहानियाँ फूटती थीं उसकी शाखाओं से
असंख्य
कहानियाँ वो बनाता था अपने बीजों में
अभी कल तक
वो पेड़ अपनी उम्र से ज्यादा घना हो रहा था
जबकि उसे
‘’पीडीगत लिहाज ‘’में हो जाना चाहिए था
सूखकर ठूंठ
,उसकी आँखों को उतार देना चाहिए था
रंगीन
चश्मे और बेदखल कर देना था खुशबुओं को
अपने
बुज़ुर्गियाना लिहाज़ से  ,
छोड़ देना
था अपना तख्‍़तोताज़ जंगल के राजा का
पर 
फैल रही
थीं उसकी शाखाएं दिशाओं के बाहर
अधीनस्थ
झाड झंकाड और खरपतवारों को 
सैंकड़ों ख़ामियां
नज़र आ रही थीं उसमे
चीख़ चीख़
कर बगावत को उछाल रहे थे वो उसकी जानिब 
पर मौसम अब
भी उसी के आसपास मंडराते थे
धूप
बारिश,वसंत जाड़े की ठिठुरन
वो जूझता
रहा उनसे प्यार और तकलीफ से
उसकी एक
शाखा पर लगा घोसला तो
कब का उजाड़
हो चुका था जिसे
कहा जाता
था कि बचा कर नहीं रख पाया वो बूढा दरख्त ,पर
पूरे जंगल
की तमाम चिड़ियाँ बाज कौए आ आकर बैठते थे 
उसकी
शाखाओं पर और पाते आश्रय
शाम को
उसकी सल्तनत में मच जाता शोर
चीखते
कोसते चुहलबाजिया करते पक्षी
अपनी
नुकीली चोंच और तीखे पंजों को
गड़ाते उसकी
संतप्त आत्मा पर
उसी की डाल
पर बैठे हुए |
वो अपनी
तमाम बुजुर्गियत ,पीडाएं ,दुःख समेटे
चुपचाप
सुनता रहता उनका रोष  
एक दिन जब
उसे छोड़कर तनहा
एक एक कर
सारे पक्षी उड़ गए बगलगीर दरख्त पर 
सो गए जाकर
वो बूढा
पेड़ अपनी आत्मा पर सैंकड़ों तोहमतें
अपमान और
पीडाएं लपेटकर
छोड़ कर
अपनी जड़ें गिर गया ज़मीन पर
और अपने
पीछे हज़ारों 
चीखें
चिल्लाहटें शोर और प्रेम की कहानिया
छोड़ता गया
,कहानी की शक्ल में
….अब
उसके ज़मींदोज़ जिस्म की शाखाओं पर
बैठे वही
पक्षी जो उसे चले गए थे छोड़कर
बहा रहे
हैं जार जार आंसू
पढ़ रहे हैं
कसीदे …
जिसकी कभी
दरकार नहीं रही उस बूढ़े पेड़ को
अपनी
सदाशयता की तरह 
***

0 thoughts on “वंदना शुक्‍ल की नई कविताएं”

  1. …..बात कर रहे हैं उन खाली जगहों की / जहाँ वे खेलेंगे / उन्होंने अभी बीहड का अर्थ नहीं जाना है

  2. वंदना शुक्‍ल की सभी कविताऍं अच्‍छी हैं। पढते हुए सुकून देती है। आत्‍मा को थोड़ा एकांत—इस शोरीली दुनिया के बावजूद।

Leave a Reply to वंदना शुक्ला Cancel Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top