आज प्रस्तुत हैं युवा कवि नीलाम्बुज की कुछ कविताएं। इनमें कहीं कच्चापन है मगर भरपूर ताज़गी भी। अनुनाद कवि को आगे की अधिक विचारवान एवं परिपक्व रचना-यात्रा के लिए शुभकामना देता है।
अंतिम पंक्ति का
शीर्षक
तर्जनी , मध्यमा, अनामिका
और यहाँ तक कि कनिष्ठा भी
पा जाती हैं मुझ से ज्यादा इज्ज़त
लेकिन द्रोणाचार्यों के बीच तो
मैं ही लोकप्रिय हूँ.
मैं ओ के हूँ
मैं चीयर्स हूँ
मैं शेम हूँ
मैं लिफ्ट हूँ , हूट हूँ
मैं लाइक और डिसलाइक का फ्रेम हूँ
मैं अपने आप में अनूठा हूँ
मैं अंगूठा हूँ।
***
लापता
कुछ पता नहीं चलता
शम्बूक के कटे हुए सिर का
छींटे तो पड़े होंगे रक्त के !
कहाँ हैं वो ?
क्या धो दिया गया उन्हें सोमरस से ?
या यज्ञ की वेदी के नीचे दबा दिया गया ?
क्या हुआ शबरी का
जूठन खिलाने के बाद ?
क्या राम ने दे दी उसे
वृद्धावस्था पेंशन ?
कहाँ दबी होगी उसकी फ़ाइल ?
और तो और
ना जाने कहाँ है
एकलव्य का कटा हुआ अंगूठा भी ,
नहीं दीखता ‘गुरु द्रोणाचार्य‘ वाले
मेट्रो स्टेशन पर भी
या द्रोणाचार्य की किसी तस्वीर में ?
कहाँ गए ऐसे लोग ?
कहाँ गयी उनकी स्मृतियाँ ?
ठहरो !
धरती हिल रही है
और
पाताल तोड़ कर कोई
निकल रहा है बाहर !!!
कुछ पता नहीं चलता
शम्बूक के कटे हुए सिर का
छींटे तो पड़े होंगे रक्त के !
कहाँ हैं वो ?
क्या धो दिया गया उन्हें सोमरस से ?
या यज्ञ की वेदी के नीचे दबा दिया गया ?
क्या हुआ शबरी का
जूठन खिलाने के बाद ?
क्या राम ने दे दी उसे
वृद्धावस्था पेंशन ?
कहाँ दबी होगी उसकी फ़ाइल ?
और तो और
ना जाने कहाँ है
एकलव्य का कटा हुआ अंगूठा भी ,
नहीं दीखता ‘गुरु द्रोणाचार्य‘ वाले
मेट्रो स्टेशन पर भी
या द्रोणाचार्य की किसी तस्वीर में ?
कहाँ गए ऐसे लोग ?
कहाँ गयी उनकी स्मृतियाँ ?
ठहरो !
धरती हिल रही है
और
पाताल तोड़ कर कोई
निकल रहा है बाहर !!!
***
मात्र
बाज़ार का दुलारा है
बड़े प्यार से पाला है
रोटी खाने जाओ तो मात्र
टीवी खोलो तो मात्र
फोन करो तो मात्र
बाज़ार में तो
हर होर्डिंग में चिपका मिला है बचुवा
कंडीशन अप्लाई का
बड़ा भाई है मात्र
दंगे में मात्र
चुनावों में मात्र
घोटालों में मात्र
संविधान में नहीं है
लेकिन समाज में
बड़ी खाप है मात्र
प्रेम में मात्र
पुरस्कार में मात्र
चोरी में मात्र
हर जगह पूर्ण विराम के पहले
रिक्त स्थान सा
उपस्थित है मात्र
‘मात्र‘ देखने में लगता है भोला भाला
लेकिन
बड़ा ‘नागरिक‘ है मात्र
मात्र इतनी सी बात
इस कविता-मात्र से ही तो
समझ नहीं आने की
चलो साथी
तीन रुपये मात्र वाली
चाय पी जाये ।
***
बाज़ार का दुलारा है
बड़े प्यार से पाला है
रोटी खाने जाओ तो मात्र
टीवी खोलो तो मात्र
फोन करो तो मात्र
बाज़ार में तो
हर होर्डिंग में चिपका मिला है बचुवा
कंडीशन अप्लाई का
बड़ा भाई है मात्र
दंगे में मात्र
चुनावों में मात्र
घोटालों में मात्र
संविधान में नहीं है
लेकिन समाज में
बड़ी खाप है मात्र
प्रेम में मात्र
पुरस्कार में मात्र
चोरी में मात्र
हर जगह पूर्ण विराम के पहले
रिक्त स्थान सा
उपस्थित है मात्र
‘मात्र‘ देखने में लगता है भोला भाला
लेकिन
बड़ा ‘नागरिक‘ है मात्र
मात्र इतनी सी बात
इस कविता-मात्र से ही तो
समझ नहीं आने की
चलो साथी
तीन रुपये मात्र वाली
चाय पी जाये ।
***
मदारी
यह कहाँ तक
जायज़ है
कि-
इंसान के
बच्चों को
हँसाने के लिए
बंदर के
बच्चों को
इंसान का ही
एक बच्चा
नचाता है
फिर भी –
घुड़की ही खाता
है ।
क्या दुनिया
भी
पूरी मदारी हो गई है ?
***
सभ्यता दाल-भात है !
स्वाद है संस्कृति?
केवल दाल-भात पेट तो भर देता है
लेकिन कभी-कभी एक अदद हरी मिर्च
(नमक के साथ)
स्वाद बढ़ा देती है
मिर्च कड़वी भी हो सकती है !
( फिर मीठी मिर्ची कभी सुनी भी तो नहीं !)
मिर्च कई तरह से खा सकते हैं –
हो सकता है बने चटनी
लोढ़े-सिलबट्टे पर ।
बन जाएगा आचार , यदि
भर दें उसमें थोड़ा सा मसाला और धन ।
यह बात भूख से निकली थी
और भूख संस्कृति नहीं होती
संस्कृति है स्वाद –
स्वाद : मेहनत का , पसीने का , खून का ।
इन्ही को समेट लो कवि !
सामासिक संस्कृति है यही , यही ।
कवि का कथन
मेरा नाम नीलाम्बुज है. बचपन में पहला उपन्यास ही चित्रलेखा पढ़ा और कविता पढ़ी कुकुरमुत्ता . यहीं से साहित्य के कीटाणु लग गए. डी. यू. से नज़ीर अकबराबादी की कविताओं
पर एम्फिल कर चुकने के बाद जे. एन. यू. के भारतीय भाषा केंद्र से
‘सामासिक संस्कृति और आज़ादी के बाद की हिंदी कविता‘ पर
पी. एच. डी. कर रहा हूँ. आजीविका के लिए अध्यापन करता हूँ. फ़िलहाल केन्द्रीय विद्यालय, बगाफा, त्रिपुरा में हिंदी प्रवक्ता.
कुछ फुटकर रचनाएँ (शोधलेख, व्यंग्य,आलोचना, कवितायेँ, समीक्षाएं और रिपोर्ताज) प्रकाशित.
संपर्क-
08729964909
उम्मीद जगाने वाला कच्चापन. खूब शुभकामनाएँ साथी नीलाम्बुज को.
bahut sundar!
बधाई नीलाम्बुज आपको ..| मित्र शिरीष के साथ जाना चाहूंगा, यह कहने के लिए कि बेशक इनमे कच्चापन है, लेकिन ताजगी भरपूर है | अच्छा लगा आपको अनुनाद पर देखना | 'हां …सिताब दियारा' पर भी आपका इन्तजार रहेगा |
अंदर तक छूती हैं आपकी कविताएँ………
अभी तक आप लोगों ने धैर्य के साथ इन कच्ची कविताओं को पढ़ा और अपनी बहुमूल्य राय दी, उसके लिए बहुत बहुत आभार। कच्चापन कवि का है तो कविताओं में आ गया है। कोशिश करूंगा सबके सुझावों को ध्यान में रखूँ तथा और बेहतर लिखने की कोशिश करूँ। पुनः शिरीष सर और आप सभी सज्जनों का आभार।
सभी कविताएँ अच्छी लगी , विशेषकर अंतिम कविता . कवि मित्र को बधाई .
-नित्यानंद गायेन
वारिश में भीगीमिट्टी का सोंधापन लिए हैं सभी कवितायेँ
मिट्टी की सोंधी खुशबू लिए हुए हैं सभी कवितायेँ
कविताएँ पसन्द आई।मै नही मानता कि कच्चापन है।निलाम्बुज भाई को लिखते रहना चाहिए।
कच्चापन कहाँ है भाई?….क्या कच्चेपन का टिका लगाना जरुरी है नए कवि के ऊपर? कविताएं एक से एक शानदार हैं.
ज़रूरी है भाई…. टीका लगाने से नए कवि को नज़र नहीं लगती 🙂
कविताओं का कच्चापन आलोचना की आग से ही दूर हो सकता है। कविता को पका लेने से पाठक पकने से बच जाते हैं। लेकिन मदन जी को शुक्रिया जिन्हें ये कविताएं सलाद की तरह कच्ची भी अच्छी लगीं।