चर्चित
युवा कवि मृत्युंजय अनुनाद पर लगातार छपते रहे हैं। उनकी कविताएं मिलना हमेशा ही
अनुनाद के लिए सुखद अनुभव होता है। कहना ही होगा ये छंद युवा हिन्दी कविता में
सामाजिक-राजनीतिक द्वंद्व की एक बेहद सधी हुई सलीकेदार लय सम्भव करते हैं। सभी
कविता-प्रसंग हमारे बहुत आसपास के जाने-पहचाने हैं, लेकिन इन्हें देखने का यह तरीका बिलकुल नया है।
इस पत्रिका में तुम्हारा फिर फिर स्वागत है साथी।
कवि की छवि केपी की नज़र में |
1.
बूंद बूंद चासनी टपकती अंधकार के जल में
जड़-चेतन सब बंधे-बिंधे हैं जातुधान के छल में
सारी रात ओस गिरती थी श्वान वृंद के स्वर में
जाने कितनी दफ्न दहशतें मेरे घर भीतर में
गेहूं झुलस बुझा, मंजरियाँ सूख झरी पाले में
दृष्टि बेधता कुहरा कोई अभी फंसा जाले में
2.
रातें गहरी हिंस्र हवा नाखूनों नीचे सुई कोंच रही है
भीतर बाहर पानी की गरमाहट नोच रही है
धोती साड़ी गमछा चमड़ा गहन बरफ के दाव
बेध रहे हैं राइफलों से अनगिनती हैं घाव
घुटी घुटी सी चीख ठंड से जमी जमी जाती है
खुले कैंप में कब्रों की तादात बढ़ी जाती है
3.
बेहोशी की चादर नीचे भारी गहरी सांसें लो
रेतीले अंधड़ भीतर भी दोनों आँखें खुली रखो
सपने में छट-पट कर बैठो, पीटो छाती माथा पटको
नीम रोशनी के दरख्त से पैर बांध कर उल्टा लटको
बुरा वक्त है फूहड़ चाल रस्ता नहीं खड़ी दीवाल
भरी आँख के लाख सवाल रफ्ता रफ्ता हुए हलाल
छटपट बारहसिंघे पर यों कसता जाय कंटीला जाल
गहरा गहन घुप्प अन्हियारा पुरुष-अर्थ का मुलुक हमारा
सबके भीतर इक हत्यारा बैठ उगलता भाषा-गारा
ज्ञान गूदरी पर अधखाए सेबों के हैं दाग
हे कवि देस बिराना है यह जाग सके तो भाग
4.
सूने बंद अंधेरे कोने मन भीतर कबसे हैं बंद
घन की गहन चोट सी बाजे रातघड़ी की टिकटिक मंद
दुर्दम आवेगी विचार के खुले जख्म में धँसते फंद
दीपक लोभी फंसा फतिंगा अभी उठेगी मौत की गंध
स्वप्नहीन भाषा निषिद्ध मन भाव पत्थरी घायल छंद
काई नींद चीर लहराते ख्यालों के हैं फणिधर चंद
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बूंद बूंद चासनी टपकती अंधकार के जल में
जड़-चेतन सब बंधे-बिंधे हैं जातुधान के छल में
सारी रात ओस गिरती थी श्वान वृंद के स्वर में
जाने कितनी दफ्न दहशतें मेरे घर भीतर में
गेहूं झुलस बुझा, मंजरियाँ सूख झरी पाले में
दृष्टि बेधता कुहरा कोई अभी फंसा जाले में
2.
रातें गहरी हिंस्र हवा नाखूनों नीचे सुई कोंच रही है
भीतर बाहर पानी की गरमाहट नोच रही है
धोती साड़ी गमछा चमड़ा गहन बरफ के दाव
बेध रहे हैं राइफलों से अनगिनती हैं घाव
घुटी घुटी सी चीख ठंड से जमी जमी जाती है
खुले कैंप में कब्रों की तादात बढ़ी जाती है
3.
बेहोशी की चादर नीचे भारी गहरी सांसें लो
रेतीले अंधड़ भीतर भी दोनों आँखें खुली रखो
सपने में छट-पट कर बैठो, पीटो छाती माथा पटको
नीम रोशनी के दरख्त से पैर बांध कर उल्टा लटको
बुरा वक्त है फूहड़ चाल रस्ता नहीं खड़ी दीवाल
भरी आँख के लाख सवाल रफ्ता रफ्ता हुए हलाल
छटपट बारहसिंघे पर यों कसता जाय कंटीला जाल
गहरा गहन घुप्प अन्हियारा पुरुष-अर्थ का मुलुक हमारा
सबके भीतर इक हत्यारा बैठ उगलता भाषा-गारा
ज्ञान गूदरी पर अधखाए सेबों के हैं दाग
हे कवि देस बिराना है यह जाग सके तो भाग
4.
सूने बंद अंधेरे कोने मन भीतर कबसे हैं बंद
घन की गहन चोट सी बाजे रातघड़ी की टिकटिक मंद
दुर्दम आवेगी विचार के खुले जख्म में धँसते फंद
दीपक लोभी फंसा फतिंगा अभी उठेगी मौत की गंध
स्वप्नहीन भाषा निषिद्ध मन भाव पत्थरी घायल छंद
काई नींद चीर लहराते ख्यालों के हैं फणिधर चंद
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इस विरोध के परिवेशों में मनस-संतुलन बचा रहे। सुन्दर कविता।
विचारोत्तेजक और सच कविता ।
विचार को मज़बूत करने वाली मौलिक कविता । सच बयान करने का साहस ।