अनुनाद

माँ का अंतर्द्वन्‍द्व – महेश पुनेठा की लम्‍बी कविता




मैं कविता में मनुष्‍यता के लम्‍बे आख्‍यानों का बहुत सम्‍मान करता हूं। साथी कवि महेश पुनेठा ने यह लम्‍बी कविता पढ़ने को भेजी तो उनसे इसे अनुनाद के लिए मांगने का लोभ मैं संवरण न कर सका। 

मां से एक लम्‍बा लगभग आत्‍मकथात्‍मक-सा संवाद। बेहद सादा भाषा। सपाट-सा लगता लहज़ा लेकिन भीतर उतनी ही जटिल उथल-पुथल से भरा। लोक के अंधियारे पक्षों पर रोशनी का उम्‍मीद भरा, उतना ही सधा हुआ कवि- कथन। महेश जैसे सहज कवि उस भाषा और अन्‍दाज़ में बोलते हैं, जैसे वे हैं। इस कविता की प्रगतिशीलता नारा नहीं बनती, मर्म बनकर पाठक के हृदय को बेधती है।

मैं इस कविता के लिए महेश को शुक्रिया कहता हूं। अब तक अनुनाद पर उनका वैचारिक गद्य ही छपा है, कविता पहली बार – स्‍वागत है मेरे प्रिय कवि !   

 
माँ का अंतर्द्वन्‍द्व

माँ मैं नहीं समझ पाया
तुम्हारे देवता को
बचपन से सुनता आया हूँ उसके बारे में
पर उसका मर्म नहीं समझ पाया कभी

होश संभाला जब से
दौड़ता ही देखा तुम्हें
किसी न किसी गणतुवा या पूछेरे के घर
काँटा भी चुभा हो किसी के पैर में
हुआ हो कोई दुःख-बीमार
आदमी हो या जानवर
तुमने अस्पताल से पहले गणतुवा के घर की राह पकड़ी
भले ही हर बार राहत मिली हो अस्पताल से ही

पेट काटकर तुमने
न जाने कितने रातों के जागर लगाए
कितने बकरों की बलि दी
पूजा-पाठ -गोदान-यज्ञ तो याद नहीं
किस-किस मंदिर और कितनी बार करवाए
रोग-दोष, दुःख-तकलीफ़ कभी नहीं भागे
बक़ायदा बढ़ते ही गए

पिता ने पहले से अधिक शराब पीनी शुरू कर दी
गबन के आरोप में पिता की नौकरी चली गई

कंपनी बंद होने से
बड़ा भाई दिल्ली से घर लौट आया

दहेज़ न दे पाने की हैसियत
और मंगली होने के चलते
बहन को कोई वर नहीं मिल पाया

उचित पौष्टिक आहार के अभाव में
और दिन-रात काम में पिसी होने के कारण
भाभी का गर्भपात हो गया

बछिया मर जाने के कारण
गाय खड़बड़ करने लगी दूध देने में
बकरी को बाघ उठा ले गया

मकान को छत नहीं मिल पाई बीस वर्षों से
जमीन का टुकड़ा खडि़या माफिया ने दबा लिया
नौले का पानी सूख गया 
तुम्हें इस सब में भी देव-दोष ही नजर आया

जितने गणतुवा-पूछेरों के घर गई
उतने भूत-प्रेत ,
परी-बयाव
आह-डाह,
घात-प्रतिघात ,
रोग-दोष
देवता बताए
तुम पूजती रही सभी को
थापती रही
ताबीज़ बनवाए
झाड़-फूँक करवायी
मुर्गों की बलि दी
कई मंदिरों में बैठी औरात

पर कभी घर में शांति नहीं देखी
एक अदृश्य-अज्ञात भय मंडराता रहा
बाहर से अधिक भीतर दबाता रहा
दरिद्रता से बढ़कर दूसरा दोष है क्या कोई ?

घर में चोरी हुई
तुम चावल लेकर पूछने गई
चौबीस घंटे में बरामदग़ी की बाज़ी दी
चौबीस साल बीत गए
हाईकोर्ट में चल रहे मुक़दमे को
शर्तिया जीतने की बाज़ी थी
उल्टा हुआ
जीता-जीता मुक़दमा हार गए

जिन गणतुओं को
पता नहीं अपने अतीत का
वह तुम्हारे अतीत का उत्खनन करते रहे
तुम्हारे हर कष्ट की जड़
खंडहरों और ध्वंसावशेषों में लिपटी दिखाते रहे
बात-बात पर
तुम से हाँ की मुहर लगवाते रहे
तुमने इसे दैवीय चमत्कार मान लिया
और जैसा-जैसा कहा वैसा-वैसा करती गई
यदि तुम्हारी मन्नत पूरी हुई
तुमने दसों को बताया
बढ़ गई गणतुवा की टी.आर.पी.
जब बाज़ी नहीं लगी
अपने भीतर ही दफ़्न कर लिया तुमने उसे

मेरे प्रश्नों-प्रतिप्रश्नों से तुम
भीतर तक सिहर उठती
अपनी क़सम देकर चुप करा देती
माँ! तुम सोचती हो
दिल्ली तक अछूती नहीं जिससे
मैं नहीं मानता उसे
इसलिए परेशान रहता हूँ अक्सर

तुम करती रहती हो भक्ति
दिन के दो-दो वक़्त जलाती हो दीया
कभी नहीं किया नागा
फिर भी तुम्हारा देवता तुमसे नाराज़ क्यों हुआ
क्यों कहता है- कि भूल गई है तू मुझे
नहीं चढ़ाया एक फूल
नहीं जलायी एक बाती अरसा गुजर गया
तेरा हर तरह से भला किया मैंने
तू उसी में खो गई
कभी याद नहीं आई तुझे मेरी।

माँ! जिसको तुम देने वाला कहती हो
वह क्यों मांगने लगता है-
दो रात के जागर और एक जोड़ी बकरे
माँ! क्या अंतर है-
तुम्हारे इस देवता और हफ़्ता वसूलने वाले दरोगा में
मेरी समझ में आज तक नहीं आया

कैसा अजीब न्याय है उसका
करे कोई- भरे कोई
न जाने कितनी बार सुन लिया
तुम्हारे मुँह से –
पितर का किया नातर को लगता है

मैं कभी पचा नहीं पाया इस न्याय सिद्धांत को
मेरी सहज बुद्धि कहती है कि
सजा उसी को मिलनी चाहिए जिसने अपराध किया हो
सजा भुगतने वाले को पता नहीं
कि उसे किस अपराध की सजा मिली है।

और यह कैसी सज़ा कि सज़ा देने वाले को खु़श कर दें
तो सारी सज़ा माफ़

माँ! तुम्हारे मुँह से अनेक बार सुन चुका हूँ
कि जहाँ जाओ कुछ न कुछ पुराना निकाल देते हैं
सब खाने-पीने का धंधा है
मुझे लगता है तुम्हारा मोहभंग हो गया है
लेकिन
फिर किसी नए गणतुवा का नाम सुनते ही तुम
क्यों निकल पड़ती हो-
रूमाल की गाँठ में चावल और भेंट बाँध
पूछ करने को
माँ! मैं आज तक
न तुम्हारे इस देवता को समझ पाया
और
न तुम्हारी इस अंधआस्था को
तुम्हें ही कहते पाया
वह बाहर नहीं भीतर होता है
फिर तुम क्यों भटकती रहती हो इधर-उधर
तुम्हारी बाहर की भटकन
भीतर की जकड़न बन गई
मुक्त होना चाहती हो पर मुक्त नहीं हो पाती हो
किसी ने कोशिश भी नहीं की माँ
तुम्हें बाहर निकालने की
जितने आए उन्होंने एक नया धड़ा बाँध दिया
एक त्रिशूल और गाड़ दिया
धूनी रमा दी
जलते दिये में तेल डाल दिया
अगरबत्ती की धुलखंड मचा दी ।

मुझे लगता है माँ तुम
इस मानसगृह से
बाहर निकल पाती तो अवश्य सुक़ून पाती।
***

0 thoughts on “माँ का अंतर्द्वन्‍द्व – महेश पुनेठा की लम्‍बी कविता”

  1. जिन्हें अन्य आधार मिले, वे आस्था परिवर्तित करते रहे। जिन्हें तर्क पर भरोसा रहा उन्होनें अंध को छोड़ विश्वास को अपना लिया, आस्था परिवर्धित भी हो सकती है।

  2. पुनेठा जी मुझे इसीलिए प्रिय है कि उनकी कविता में अनुभूति की सच्चाई होती है जिसे बयान करने के लिए बनावटी भाषा की जरुरत नहीं होती माँ का प्रेम उसे वह सब करने को मजबूर करता है जिसे हम अंधी आस्था का नाम देते है लेकिन इस आस्था से उसे कुछ मिलता नहीं कवि को लगता है की कहीं न कहीं माँ की यह आस्था टूटती भी होगी वह मुक्त भी होना चाहती है लेकिन
    ''किसी ने कोशिस भी नहीं की माँ
    तुम्हें बहार निकालने की ''
    माँ ही दोषी नहीं है इस अंधी आस्था के लिए और अंत में कवि को लगता है
    ''मुझे लगता है माँ तुम
    इस मानस गृह से बहार निकल पाती
    तो अवश्य सुकून पाती|''
    माँ पूरे जीवन में अपने परिवार से सकून के लिए यहाँ वहां दौड़ती रही और अपना सारा 'जागर' लगा दिया लेकिन कभी सकून मिला नहीं |

  3. मुझे लगा कि महेश पुनेठा जी ने माँ के रूप में जिसे प्रस्तुत किया है, वह भारत की अंतर्विरोधी धार्मिक चेतना है, जो अपने अंधविश्वास के कारण हर दर पर मत्था टेकते रहने को मजबूर रही है। मुझे यह कविता पढ़ते हुए बार – बार तुलसीदास की याद आ रही थी– तुलसी भी समस्याओं को तो सामने रखते हैं, लेकिन उसके कारण और समाधान तक बिल्कुल नहीं पहुँच पाते। समस्याओं का कारण कलियुग है तो समाधान रामभक्ति। इसी से भारत की वह अंधविश्वासी चेतना निर्मित हुई है, जो सदा भटकती ही रही, कहीं सुकून नहीं प्राप्त कर सकी। महेश जी ने समाधान का संकेत भर कर दिया- यदि इस मानसगृह से निकल पाती तो अवश्य सुकून पाती।

  4. अभी-अभी कविता पढी। मुझे लगता है कविता के कई पाठ होंगे और भीतर तक जाने के लिए आग्रह करती है। ऐसी कविताएँ मुझे बहुत आकर्षित करती हैं। सुन्दर अभिव्यक्ति। बधाई महेश जी।

  5. एक अच्छी कविता में आकार पाकर अवसाद भी प्रेरक बन जाता है और अवसाद से बाहर निकलने का हाहाकार भी। पुरनी पीढ़ी, खासकर माँ और पिता, से संवाद के ब्याज से संभव हुई कई महत्तवपूर्ण हिंदी कवता के साथ इसे पढ़े जाने पर इसका महत्त्व समझ में अधिक सक्रिय होता है।

  6. जितने आए उन्होंने एक नया धड़ा बाँध दिया
    एक त्रिशूल और गाड़ दिया
    धूनी रमा दी
    जलते दिये में तेल डाल दिया
    अगरबत्ती की धुलखंड मचा दी ।
    आ.शुक्ल ने कभी कहा था कि कविता ह्रदय की मुक्तावस्था है…पुनेठा जी की कवितायेँ पढ़ मुझे हमेशा इसी मुक्ति, पवित्रता का एहसास हुआ….ध्वनियों ,शब्दों से ऐसा लगाव अन्यत्र बहुत कम दिखता है ….पहाड़ सी गंभीरता लिए कितनी मैदानी कविता है यह !

  7. मां जिसको तुम देने वाला कहती हो, वह मांगने कयों लगता है….बेहद लाजबाव कविता…..ऐसा सब कुछ हमारे यहां लगभग हर कभी घटित होता रहता है …..कविता को पढ़कर ऐसा लगा जैसे आप हमारे ही इलाके से संबंध रखते हों और इन सब अंधविशवासों को बचपन से देखते आ रहे हों….बहुत ही सुंदर ….दिल को छु लेने वाली कविता है यह….

  8. पुनेठा की कविता को पढ़ना दरअसल खुद से ही रुबरु होना है !
    व्यक्तिगत संवेदन को समष्टिगत रूप देने के लिए मुबारकबाद !

  9. माँ की अटूट आस्था की प्रभाव शाली अभिव्यक्ति आपकी रचना हैं , सारे अंधकार के बीच हरीशचंद्र जैसी अंतिम सत्य के प्रति उसकी अडिगता सराहनीय हैं , विशेष रूप से राज पाट न मिलाने पर भी माँ का चट्टानी भरोसा अपने आप में एक सबक हैं क्योकि यह यथास्थितिवाद नहीं अपितु शुचिता को वापस लाने के लिए कोई भी दाम चुकता करने का आव्हान हैं , यह दीगर बात हैं कि हम बिना थके , कितनी दूर चल सकते हैं? बेहतरीन रचना के लिए बहुत बहुत बधाई , पुनेठा जी , सौभाग्यशाली हूँ जो पढ़ने का अवसर मिला।

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