अनुनाद

गए अक्‍टूबर से अब तक की कविताएं : सब एक जगह

इनमें से कुछ कविताएं छपी, कुछ अनछपी हैं। कई बार अपनी कविताएं खो चुका हूं सो साल में एक बार अनुनाद पर ‘सब एक जगह‘ लेबल में सहेज लेता हूं। अपनी एक दिलचस्‍प तस्‍वीर भी शेयर कर रहा हूं जो मुझसे खो गई थी, एक पुरानी पेनड्राइव में मिली, अब फिर न खो जाए कहीं…ये भी इस इंटरनेट क्‍लाउड के हवाले। तस्‍वीर मिली पर इसे क्लिक करने वाला कहीं खो गया है। इस दुखी आत्‍मा को ऐसे रंगे हाथों आज तक न पकड़ा था किसी ने…..कभी आदमी की शक्‍ल ऐसी भी होती है और उसे पहचानने वाला भी मिल जाता है।


****


दीपावली 2013

रंगीन रोशनियों की झालरें परग्रही लगती हैं
उनमें मनुष्‍यता का अनिवार्य उजाला नहीं है

शिवाकाशी के मुर्गा छाप पटाखे
सस्‍ते चीनी पटाखों से हार गए लगते हैं
गांवों में बारूद सुलगने से लगी आग से मरे कारीगरों की आत्‍माएं
यहां आकर कलपती हैं
यह पटाखों का नहीं अर्थशास्‍त्र का झगड़ा है
जो अब मुख्‍यमार्गों पर नहीं सफलता के गुप्‍त रास्‍तों पर चलता है

एक बेमतलब लगते हुंकारवादी नेता के समर्थन में
समूचे भारतीय कारपोरेट जगत का होना
देश में सबसे बड़े विनाशकारी पटाखे की तरह फटता है
एक दिन देश शिवाकाशी के उस जले गांव में बदल जाएगा
नई दीपावली मनाएगा

कारपोरेट लोक में प्रचलित नया शब्‍द है
वातानुकूलित कमरों में बैठे नए व्‍यापारी भूखे कीड़ों की तरह
बिलबिलाते हैं
उनकी बिलबिलाहट को सार्वजनिक करने हमारे मूर्ख और धूर्त नायक
छोटे-बड़े पर्दों पर आते हैं

इस दीपावली पर मेरा मन
किसी बच्‍चे के हाथ में एक ग़रीब पुरानी सीली फुलझड़ी की तरह
कुछ सेकेंड सुलगा
और बच्‍चे की तरह ही उदास होकर बुझ गया है 

टीवी की स्‍क्रीन पर लोकल चैनल के मालिक का
बधाई संदेश
चपल सर्प की भांति इधर से उधर सरक रहा है
वह शुभकामनोत्‍सुक व्‍यक्ति व्‍यापार मंडल का अध्‍यक्ष है
और सत्‍तारूढ़ पार्टी का नगर अध्‍यक्ष भी
सत्‍तारूढ़ पार्टी बदल जाती है
मगर नगर अध्‍यक्ष वही रहता है

उसके पास अब दीपावली पर बहियों को बांधने के लिए
हत्‍यारे विचारों का नया बस्‍ता है

दीपावली का यूं मनाया भी जाना भी
एक हत्‍यारा विचार ही था सदियों से
जिसमें ग़रीब पहले मिट्टी के दिए जलाकर
और अब सस्‍ती झालर लगाकर शामिल हो रहा है
किसी ने नहीं सोचा
कि इस त्‍यौहार का व्‍यापार से न जाने कब स्‍थापित हुआ रिश्‍ता
मामूली जन की बहुत बड़ी पराजय थी
जो दोहराई जाती है कोढ़ी नकली रोशनियों  के साथ
साल-दर-साल
***

गुरु जी जहां बैठूं वहां छाया जी

प्‍यास लगने पर मिल जाता है साफ़ पानी
जतन नहीं करना पड़ता

काम से घर लौट आना होता है भटकना नहीं पड़ता
नींद आने पर बिस्‍तर मिल जाता है

चलने के लिए रास्‍ता मिल जाता है
निकलने के लिए राह

कुछ लोग हरदम शुभाकांक्षी रहते हैं
हितैषी चिंता करते हैं
हाल पूछ लेते हैं

कोई सहारा दे देता है लड़खड़ाने पर
गिर जाने पर उठा लेता है
ये अलग बात है कि शरीर ही गिरा है
अब तक
मन को कभी गिरने नहीं दिया

किसी के घर जाऊं तो सुविधाजनक आसन मिलता है
और गर्म चाय

जिससे चाहूं मिल सकता हूं
ख़ुशी-ख़ुशी
अपने सामाजिक एकान्‍त में रह सकता हूं
अकेला अपने आसपास
अपने लोगों से बोलता-बतियाता

अपनी नज़रों से देखता हूं और देखता रह सकता हूं
भरपूर हैरत के साथ 
कि यह वैभव सम्‍भव होता है इसी लोक में

जबकि
परलोक कुछ है ही नहीं
अपने लोक में होना भी
एक सुख है
कविता और जीवन का
***  

चुनाव-काल में एक उलटबांसी

सड़क सुधर रही है
मैं काम पर आते-जाते रोज़ देखता हूं
उसका बनना

गिट्टी-डामर का काम है यह
भारी मशीनें
गर्म कोलतार की गंध
ये सब स्‍थूल तथ्‍य हैं और हेतु भर बताते हैं
प्रयोजन नहीं

मैं जैसे शब्‍दों के अभिप्रायों के बारे में सोचता हूं
वैसे ही क्रियाओं के प्रयोजनों के बारे में

अगर कुछ सुधर रहा है तो मैं उत्‍सुक हो जाता हूं
सड़क सुधर रही है तो हमारी सहूलियत के लिए
लेकिन यह भी हेतु ही है
प्रयोजन नहीं है

प्रयोजन तो इन सुधरी हुई सड़कों से सन्निकट चुनाव में सधने हैं
राजनेतागण आराम से कर सकेंगे
अपनी यात्रा
यात्रा की समाप्ति पर इसे अपनी उपलब्धि बता पाएंगे

ये सब बहुत सरल बातें हैं पर इनकी सरलता
विकट है
हम सुधरने से पहले की बिगड़ी हुई सड़कों पर चले थे
कुछ गड्ढे तो हमने हारकर ख़ुद भरे थे

तो जटिलता अब यह है
कि बिगड़ी हुई सड़क पर चले लोग
क्‍या चंद दिनों में सुधरी हुई सड़क पर चलने से
सुधर जाएंगे

इस कवि को छुट्टी दीजिए पाठको
क्‍योंकि आप तो समझते ही है
अब राजनेताओं को समझने दीजिए यह उलटबांसी

कि बिगड़ी हुई सड़क पर चले हुए लोग
उनकी सेहत में सुधार लाएंगे
या वहां हुए कुछ चालू सुधारों पर चलते हुए
उसे और बिगाड़ जाएंगे।
***

मैं पुरानी कविता लिखता हूं

इधर
पुरानी कविताएं मेरा पीछा करती हैं
मैं भूल जाता हूं उनके नाम
कई बार तो उनके समूचे वजूद तक को मैं भूल जाता हूं
कोई कवि-मित्र दिलाता है याद –

मसलन अशोक ने बताया मेरी ही पंक्ति थी
कि स्‍त्री की योनि में गाड़ कर फहराई जाती रहीं
धर्म-ध्‍वजाएं
अब मुझे यह कविता ही नहीं मिल रही
शायद चली गई जहां ज़रूरत थी इसकी
उन लोगों के बीच
जिनके लिए लिखी गई

इधर कविता इतना तात्‍कालिक मसला बन गई है
कि लगता है कवि इंतज़ार ही कर रहे थे
घटनाओं
दंगों
घोटालों  
बलात्‍कारों का     

कृपया मेरी क्रूरता का बुरा मानें
मेरे कहे को अन्‍यथा लें

मेरे भूल जाने के बीच याद रखने का कोलाहल है अगल-बगल
मुझे बुरा लगता है
जब कवि इंतज़ार करते हैं अपनी कविताओं के लिए
आन्‍दोलनों का
ख़ुद उतर नहीं पड़ते

न उतरें सड़कों पर
पन्‍नों पर ही कुछ लिखें
फिर कविताओं में भी शान से दिखें

हिन्‍दी कविता के
इस सुरक्षित उत्‍तर-काल में
मुझे माफ़ करना दोस्‍तो
मेरी ऐतिहासिक बेबसी है यह
कि मैं हर बार एक पुरानी कविता लिखता हूं
और
बहुत जल्‍द भूल भी जाता हूं उसे।   
***

ज़मीन को पाला मार है

अभी कुछ समय पहले ढह पड़ी थी
इसकी उर्वर त्‍वचा झर गई थी
जो बच गई उसे पाला मार रहा है पहाड़ पर

इस मौसम में कौन-सी फ़सलें होती हैं
मैं भूल गया हूं
जबकि अब भी
सीढ़ीदार कठिन खेतों के बीच ही रहता हूं
फ़र्क़ बस इतना है
कि कल तक मैं उनमें उतर पड़ता था पांयचे समेटे
अब नौकरी करने जाता हूं
कच्‍ची बटियों पर कठिन ऋतुओं के संस्‍मरण
मुझे याद नहीं
कुछ पक्‍के रास्‍ते जीवन में चले आए हैं

मुझे इतना याद है
कि सर्दियों के मौसम को भी ख़ाली नहीं छोड़ते थे
उगा ही लेते थे कुछ न कुछ
कुछ सब्जियां कुछ समझदारी से कर ली गई
बेमौसम पैदावार

पर इतना याद होने से कुछ नहीं होता
ज़मीन को पाला मार रहा है या मेरे दिमाग़ को

अगर मेरे जैसे और भी दिमाग़ हुए इस विस्‍मरण काल में
तो ज़मीन को पाला मार रहा है जैसा वाक्‍य
कितना भयावह साबित हो सकता है
यह सोच कर पछता रहा हूं

ज़मीन को पाला मारने पर हम घास के पूले खोलकर
सघन बिछा देते थे
नवाकुंरों पर
मैं बहुत बेचैन
दिमाग़ के लिए भी कोई उतनी ही सुरक्षित
और हल्‍की-हवादार परत खोज रहा हूं

पनपने का मौसम हो या न हो पर उग रहे जीवन को
नष्‍ट होने देना भी
उसकी मृत्‍यु में सहभागी होना है।
*** 

फीकी अरहर दाल
(बिरजू चाचा यानी डॉ. बी.जी.व्‍यास के लिए)

एक बहुत बड़ी गल्‍ला मंडी है पिपरिया
एक बहुत छोटा शहर है पिपरिया
मेरे बचपन में यह बहुत छोटा क़स्‍बा होता था
वो आत्‍मीय आढ़तें छोटी-छोटी
वो लाजवाब मशहूर अरहर की दाल

वहां एक छोटी नगरपालिका है जिसमें मेरा छोटा चाचा
बड़े-बड़े काम करता है
एक लगातार चलती दारू की भट्टी है जिसमें छोटे से बड़ा वाला
दिन-रात दारू पीता
पिपरिया से नागपुर तक डॉक्‍टरों के चक्‍कर लगाता है
उससे बड़ा वाला बुरी तरह कराहता है
पुरानी चोटों
और समकालीन दबदबे के बीच अपनी एक अजीब गरिमा के साथ
वह किसी नीच ट्रेजेडी में फंसा है
मैं उसे निकाल नहीं सकता

इस बहुत बड़ी गल्‍ला मंडी में
झाड़न भी साल भर में लाखों का निकलता है
ठेका-युग में उसके लिए भी दिया जाता है ठेका
ख़ून होते हैं हर साल
झाड़न के लिए

बहुत छोटे शहर के बड़े भविष्‍य की योजनाओं के नाम
नए बन रहे बढ़ रहे सीमान्‍तों  पर
तहसील में पुराने गोंडों की ज़मीनों के नए-नए दाखिल-खारिज सामने आते हैं
रेल्‍वे लाइन पर मिली है लाश – यह एक स्‍थायी समाचार है

चोरी छिनैती करते आवारा छोकरे स्‍मैक पीते हैं जिसे आम बोलचाल में
पाउडर कहा जाता है

मैं पिपरिया नहीं जाता
कभी-कभी बरसों पहले गुज़र गई दादी के घर जाता हूं
मुझे वो घर नहीं मिलता
एक बहुत छोटा शहर मिलता है

मेरे अर्जित किए हुए पहाड़ी सुकून में
पत्‍नी बनाती है कभी धुली तो कभी छिलके वाली मूंग दाल
कभी उड़द मसाले में छौंकी हुई शानदार
मसूर भी बनती है मक्‍खन के साथ
जिसे इसी मुंह से खाता हूं
कभी राजमा
भट्ट की चुड़कानी
कभी स्‍वादिष्‍ट रस-भात

किसी दोपहर बनती है अरहर
पहला निवाला तोड़ते ही मुझे आता है याद  
कि जीवन में पिपरिया उतना ही बच गया है
जितनी भोजन में उत्‍तर की यह
फीकी अरहर दाल
***

दिल्‍ली में कवितापाठ

प्रिय आयोजक मुझे माफ़ करना
मैं नहीं आ सकता
आदरणीय श्रोतागण ख़ुश रहना
मैं नहीं आ सका

मैं आ भी जाता तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
मैं हिन्‍दी के सीमान्‍तों की कुछ अनगढ़ बातें सुनाता अटपट अंदाज़ में
मैं वो आवाज़ हूं जिसके आगे उत्‍तरआधुनिक माइक अकसर भर्रा उठते हैं
आपके लिए अच्‍छा है मेरा न आना

अध्‍यक्ष महोदय अवमानना से बच गए
संचालक महोदय अवहेलना से
न आने के सिवा और मैं कुछ नहीं कर सकता था आपके कवितापाठ की
अपूर्व सफलता के लिए

तस्‍वीरें दिखाती हैं
कवितापाठ अत्‍यन्‍त सफल रहा
ख़बरें बताती हैं मंच पर थे कई चांद-तारे
सभागार भरा था
एक आदमी के बैठने लायक भी जगह नहीं बची थी

आप इसे यूं समझ लें
कि मैं कवि नहीं
बस वही एक आदमी हूं जिसके बैठने लायक जगह नहीं बची थी
राजधानी के सभागार में

नहीं आया अच्‍छा हुआ आपके और मेरे लिए
आपका धैर्य भले नहीं थकता
पर मेरे पांव थक जाते खड़े-खड़े
सत्‍ताओं समक्ष खड़े रहना मैंने कभी सीखा नहीं
लड़ना सीखा है

आप एक लड़ने वाले कवि को बुलाना तो
नहीं ही चाहते होंगे
चाहें तो मेरे न आ पाने पर अपना आभार प्रकट कर सकते हैं
मुझे अच्‍छा लगेगा।
***

भूला हुआ नहीं भूला

मैं राजाओं की शक्ति और वैभव भूल गया
उस शक्ति और वैभव के तले पिसे अपने जनों को नहीं भूला
सैकड़ों बरस बाद भी वे मेरी नींद में कराहते हैं

मैं इतिहास की तारीख़ें भूल गया
अन्‍याय और अनाचार के प्रसंग नहीं भूला
आज भी कोसता हूं उन्‍हें

मैं कुछ पुराने दोस्‍तों के नाम भूल गया
चेहरे नहीं भूला
इतने बरस बाद भी पहचान सकता हूं उन्‍हें
तमाम बदलावों के बावजूद

मैं शैशव में ही छूट गए मैदान के बसन्‍त भूल गया
धूप में झुलसते दु:ख याद हैं उनके
वो आज भी मेरी आवाज़ में बजते हैं  

बड़े शहरों के वे मोड़ मुझे कभी याद नहीं हुए
जो मंजिल तक पहुंचाते हैं
मेरे पहाड़ी गांव को दूसरे कई-कई गांवों को जोड़ती
हर एक छरहरी पगडंडी याद है मुझे

किन पुरखे या अग्रज कवियों को कौन-से पुरस्‍कार-सम्‍मान मिले
याद रखना मैं ज़रूरी नहीं समझता
उनकी रोशनी से भरी कई कविताएं और उनके साथ हुई
हिंसा के प्रसंग मैं हमेशा याद रखता हूं

भूल जाना हमेशा ही कोई रोग नहीं
एक नेमत भी है
यही बात न भूलने के लिए भी कही जा सकती है

क्‍योंकि बहुत कुछ भूला हुआ नहीं भी भूला

उस भूले हुए की याद बाक़ी है
तो सांसों में तेज़ चलने की चिंगारियां बाक़ी हैं
वही इस थकते हुए हताश हृदय को चलाती हैं।  
***

केदार-केदार

केदार जी जन-जन के कवि हैं
उनके लिखे में जनवाद की गहरी चमक है

उन्‍होंने हमें हमारे छूटे हुए गांव लौटाए हैं
लोक के कई भूले हुए बिम्‍ब बार-बार सम्‍भव कर दिखाए हैं

कविता को लेकर उनकी समझ बहुत साफ़ है
जो हिन्‍दी पट्टी के ज़मीनी संघर्ष की अभिव्‍यक्ति से बनती है

उन्‍होंने मुक्‍त छंद में रहते हुए भी
कभी छंद नहीं छोड़ा
लोक हृदय से जुड़े हुए कई गीत रचे

हमारा सौभाग्‍य है
कि हम केदार जी के रचना-युग के साक्षी बने

यह मझोला क़द, गोरा रंग और सुतवां चेहरा
हिन्‍दी में कभी न भूलने वाली एक
अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण कवि-उपस्थिति है

अंत तक आते हुए कहा उन्‍होंने
कि केदार दिल्‍ली में रहकर भी कविता की दिल्‍ली से दूर ही रहे हैं
मेरे भीतर एक आह-सी उट्ठी…….

तब समझा मैं
वे सिंह पर भाषण कर रहे थे
मैं अग्रवाल समझे था

अब दूर हुआ भ्रम
अपने सुने के अंजाम पे रोना आया
उनके कहे के अंजाम पे आयी हंसी

ख़ुद को बेहतर टटोल कर देखा मैंने
मेरे दिमाग़ में बसा एक क़स्‍बा
बांदा
दबंगों-बाहुबलियों-सामन्‍तों का

हृदय में केदार की याद बहुत नुकीली
कहीं भीतर तक धंसी।
***

खुला घाव

मैं खुला घाव हूं कोई साफ़ कर देता
कोई दवा लगा देता है
मैं सबका आभार नहीं मान सकता
पर उसे महसूस करता हूं
सच कहूं तो सहानुभूति पसन्‍द नहीं मुझे

खुले घाव जल्‍दी भरते हैं
गुमचोटें देर में ठीक होती हैं
पर खुले घाव को लपेट कर रखना होता है

मैं कभी प्रेम लपेटता
कभी स्‍वप्‍न लपेटता हूं कई सारे
कभी कोई अपनी कराहती हुई कविता भी लपेट लेता हूं
लेकिन हर पट्टी के अंदर घुटता हुआ घाव तंग करता है
वह ताज़ा हवा के लिए तड़पता है

प्रेम, स्‍वप्‍न और कविता ऐसी पट्टियां हैं जो लिपट जाएं
तो खुलने में दिक्‍कत करती हैं
मैं इनमें से किसी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता
पर घाव के चीख़ पड़ने पर इन्‍हें जगह-जगह से काटकर
खोल देना पड़ता है  

खुला घाव खुला ही रहना चाहता है
खुला घाव तुरत इलाज चाहता है अपने में बंधा रहना नहीं चाहता
गुमचोटों की तरह बरसों टीसना नहीं चाहता
उसकी ओर से मैं क्षमा मांग लेता हूं – 
ओ मेरे प्रेम !
हे मेरे स्‍वप्‍नो !!
अरी मेरी कविता !!!

बना रहे प्रेम पर घाव को न छुपाए
बने रहेंगे मेरे स्‍वप्‍न सही राह चले तो झूटे आवरण नहीं बन जाएंगे
उघाड़ेंगे ही मुझे भीतर तक
बनी रहे कविता लगभग जैसी वह जीवन में है विकल पुकारती

यह खुला घाव खुला घाव ही है
बस कीड़े न पड़ें इसमें
वे जब ख़ूब छक चुकने के बाद भी
आसपास बिलबिलाते हैं
तो उनकी असमाप्‍त भूख मैं महसूस कर पाता हूं

उनका जैविक आचरण रहा है मृत्‍यु के बाद देह को खा जाना
पर अब जीवन भी उनकी भूख में शामिल हैं
विचारहीन मनुष्‍यता उनका सामना नहीं कर सकती  
वह जीवित रहते खा ली जाएगी

खुले घाव और बिलबिलाते कीड़ों के इस जुगुप्‍सा भरे प्रसंग में
मैं अपनी कोई चिन्‍ता नहीं करता
अपनी चिन्‍ता करना अपनी वैचारिकी के खिलाफ़ जाना है  

लगातार लगते घावों से ही अब तक जीवन कई भटकावों से बचा है
कुछ और सधा है
मेरे अपनो  
आश्‍वस्‍त रहो

मेरा होना एक खुला घाव तो है  
लेकिन विचारों से बंधा है।    
***   

हाशिया

मुझे हाशिए के जीवन को कविता में लाने के लिए पहचाना गया –
ऐसा मुझे मिले पुरस्‍कार के मानपत्र पर लिखा है
जिस पर दो बड़े आलोचकों और दो बड़े कवियों के नाम हैं

उस वक्‍़त पुरस्‍कृत होते हुए
मैं देख पा रहा था हाशिए पर भी नहीं बच रही थी जगह
और रहा जीवन तो उसे हाशिए पर मान लेना मेरे हठ के खिलाफ़ जाता है
मैंने पूरे पन्‍ने पढ़े थे
उन पर लिखा बहुत कुछ ग़लत भी पढ़ा था
मैंने उस ग़लत पर ही सही लिखने से शुरूआत करने की छोटी-सी कोशिश की थी
हाशिया मेरे जीवन में महज इसलिए आया था
क्‍योंकि पहाड़ के एक कोने में मेरा रहवास था और कोने अकसर हाशिए मान लिए जाते हैं
बड़े शहर पन्‍ना हो जाते हैं

मैं दरअसल लिखे हुए पर लिख रहा हूं अब तक
यानी पन्‍ने पर लिख रहा हूं
साफ़ पन्‍ना मेरे समय में मिलेगा नहीं 
लिख-लिखकर साफ़ करना पड़ेगा

कुछ पुरखे सहारा देंगे
कुछ अग्रज मान रखेंगे
कुछ साथी साथ-साथ लिखते रहेंगे
तो मैं लिखे हुए पन्‍नों पर भी कविता लिख कर दिखा दूंगा

कवि न कहलाया तो क्‍या हुआ
कुछ साफ़-सफ़ाई का काम ही अपने हिस्‍से में लिखा लूंगा।
****

जलती झाड़ी नहीं जलती

घर के पीछे हैं जंगली झाड़ी
कांटों वाले फल लगते हैं उस पर छोटी मूंगफली जैसे
पर बकरियां लाचार उन्‍हें खाने से
पंछी कुतरने से
आदमी की तो औकात ही क्‍या
छलछला जाता ख़ून अंगुली के पोर से

अहाते में काम पर लगे मजूर ने दी थी सलाह –

सूखने पर डंडा मार के झारेंगे इसे
लगा देंगे आग घर के पीछे ही तो है
आपको इससे फिलहाल कोई परेशानी नहीं

बीतते मौसमों में हरियायी रही पर ये
बसन्‍त में उगी थी
मासूम पौध सरीखी लगती
किसी ने ख़याल नहीं किया
हाथ भर की होते ही उग आए कांटे
अब जाड़ों में आकर
कहीं सूखी है

हमें कांटें नहीं चाहिए जीवन में
रिश्‍तों में
भाषा में
कविता में
हद हो गई झाड़ी पर भी कांटे नहीं चाहिए हमें
महज इसलिए कि आसानी से उजाड़ सकें उसे

कुछ लोगों के लिए कांटा होना बुरा ख़याल है
झाड़ी से मुक्ति पाने के सिलसिले में सलाह देने वाला मजूर अब भी बग़ल के खेत में ही है
किसी और के काम में लगा
उसी सूखी कंटीली झाड़ी को देख कहता है –

अपनी  रक्षा बेज़ुबान पौधे भी कर लेते हैं
हम आदमी ही खुले पड़े रहते हैं चाहे कोई धकिया ले
उखाड़ फेंके कहीं से कहीं
मुझे ही देखो झारखंड से फेंका गया यहां
वहां मेरे हिस्‍से की ज़मीन पर खदान लगी है

उसे कहना नहीं आ रहा था उसके दु:ख को मैं समझ पा रहा था
उसकी पीर कैसे बांटूं समझ नहीं पाया तो
हथेली पर सुरती रगड़कर खिलाई उसे
वह थोड़ी राहत में दिखा

यह सर्वहारा झाड़ी सूखी है अब इसके कांटेदार फल भी सूखे हैं
कपड़ों पर चिपक जाते
चुपचाप
झाड़ी के बीच से होकर भागी बिल्‍ली की पीठ उन्‍हें देखा सवार
बकरियों के पांवों पर
कुत्‍तों के बालों में वे थे

मैंने आग लगा दी
धू-धू कर उठी लपटें पर जानता हूं मैं
यह जलती झाड़ी जली नहीं है
आसपास ही फिर उगेगी
मुझे काम मिलेगा फिर इसे जलाने का    

सर्वहारा है यह
मैं मध्‍यवर्गीय सुविधाभोगी
जनम भर जला कर भी
जला नहीं पाऊंगा इसे  
***

बिल्लियों और कुत्‍तों की सत्‍यकल्पित कवि-कथा

एक घर में तीन बहनें
लाड़ली मां बाप की एक भाई उनसे भी लाड़ला
बड़ी हुई बहनें
बिल्लियों की तरह जाने लगीं
चुपचाप इधर से उधर
भाई कुत्‍ते की तरह गुर्राने लगा

सब प्रजातियों की तरह उनके भी मधुमास आए
बिल्लियां और चौकन्‍नी और चपल हो गईं
विकल भर्राए रूदन सरीखी आवाज़ में पुकारने लगे बिल्‍ले घर के आसपास

बिल्‍लों के प्‍यार के साथ बिल्लियां घर में पाती ख़ूब लाड़
मां बाप के गिर्द बदन रगड़ती घुरघुराती घूमतीं

भाई बाहर कुत्‍ते की तरह भौंकता
घर में गुर्रा कर कोने में पड़ा दिखता

एक दिन अचानक आ गई एक और स्‍त्री घर में 
भाई के दिन फिरे

बिल्लियों के बाल फूल गए उत्‍तेजना और क्रोध से
मां मालकिन बन गई
बेटी की तरह लगने वाली स्‍त्री से की जाने लगी उम्‍मीद
पालतू कुतिया हो जाने की
बिल्लियां भी मौका ताक झपट्टा मार भाग जाती उसे
चारदीवारी पर बैठ
पहुंच से दूर
दांत दिखातीं

भाई जो स्‍त्री को लाया बियाह कर
उसने कुत्‍तापना छोड़ दिया
बिल्लियों से नहीं छूटा बिल्‍लीपन

एक दिन पालतू कुतिया होने से इनकार कर
वापस लौट गई वह स्‍त्री

बिल्लियां अब भी लगातार घर के अंदर-बाहर आती-जाती हैं
बिल्‍लों के सतत् रूदन पर अपने मधुमास भी मनाती हैं
लिपट जाती है मां के गिर्द
एक स्‍त्री के अभागे लौट जाने के दु:ख को
घर से एक कटखनी पागल कुतिया के चले जाने का सौभाग्‍य बताती हैं

अब इस कथा में कोई विमर्श है कि नहीं
यह तो कोई विमर्शकार बताएगा

मेरे भीतर का कवि ठान कर बैठा है
कि वह महज इस एक घर पर नहीं अपने समूचे आसपास पर
धिक्‍कार के साथ
लगातार
किसी वफ़ादार ग़ुस्‍सैल कुत्‍ते की तरह भौंकता ही जाएगा
***   

वसन्‍त
(सत्‍यानन्‍द निरूपम के लिए)

हर बरस की तरह
इस बरस भी वसन्‍त खोजेगा मुझे
मैं पिछले सभी पतझरों में
थोड़ा-थोड़ा मिलूंगा उसे
उनमें भी
जिनकी मुझे याद नहीं

प्रेम के महान क्षणों के बाद मरे हुए वसन्‍त
अब भी मेरे हैं
मिलूंगा कहीं तो वे भी मिलेंगे

द्वन्‍द्व के रस्‍तों पर
सीधे चलने और लड़ने के सुन्‍दर वसन्‍त
लाल हैं पहले की तरह
उनसे ताज़ा रक्‍त छलकता है तो नए हो जाते हैं
मेरे पीले-भूरे पतझरों में
उनकी आंखें चमकती हैं

वसन्‍त खोजेगा मुझे
और मैं अपने उन्‍हीं पीले-भूरे पतझरों के साथ
मिट्टी में दबा मिलूंगा

साथी,
ये पतझर सर्दियों भर
मिट्टी में
अपनी ऊष्‍मा उगलते
गलते-पिघलते हैं

महज मेरे नहीं
दुनिया के सारे वसन्‍त
अपने-अपने पतझरों पर ही पलते हैं।
*** 

कुछ फूल रात में ही खिलते हैं

कुछ बिम्‍ब बहुत रोशनी में
अपनी चमक खो देते हैं

कुछ प्रतीक इतिहास में झूट हो जाते हैं
वर्तमान में अनाचारियों के काम आते है

कुछ मिथक सड़ जाते हैं पुराकथाओं में
नए प्रसंगों में उनकी दुर्गंध आती है

कुछ भाषा परिनिष्‍ठण में दम तोड़ देती है
कविता के मैदान में नुचे हुए मिलते हैं कुछ पंख

सारे ही सुख 
दु:ख से परिभाषित होते हैं
गो परिभाषा करना कवि का काम नहीं है 
घुप्‍प अंधेरे में
माचिस की तीली जला
वह काग़ज़ पर लिखता है कुछ शब्‍द

यह समूची सृष्टि पर छाया एक अंधेरा है
और सब जानते हैं
कि कुछ फूल रात ही में खिलते हैं
***

हेर रहे हम

अरे पहाड़ी रस्‍ते
कल वो भी थी संग तिरे
हम उसके साथ-साथ चलते थे

उसकी वह चाल बावली-सी
बच्‍चों-सी पगथलियां
ख़ुद वो बच्‍ची-सी

उसकी वह ख़ुशियां
बहुत नहीं मांगा था उसने

अब हेर रहे हम पथ का साथी
आया
आकर चला गया

क्‍यों चला गया
उसके जाने में क्‍या मजबूरी थी
मैं सब कुछ अनुभव कर पाता हूं

कभी खीझ कर पांव ज़ोर से रख दूं तुझ पर
मत बुरा मानना साथी
अब हम दो ही हैं 
मारी लंगड़ी गए साल जब 
तूने मुझे गिराया था
मैंने भी हंसकर सहलाया था
घाव
पड़ा रहा था बिस्‍तर पर
तू याद बहुत आया था

मगर लगी जो चोट
बहुत भीतर
तेरा-मेरा जीवन रहते तक टीसेगी

क्‍या वो लौटेगी

चल एक बार तू-मैं मिलकर पूछें
उससे

अरी बावरी
क्‍या तूने फिर से ख़ुद को जोड़ लिया
क्‍या तू फिर से टूटेगी
****  


दिनचर्या


आज सुबह सूरज नहीं निकला अपनी हैसियत के हिसाब से
बहुत मोटी थी बादलों की परत
उस नीम उजाले से मैंने
उजाला नहीं बादलों में संचित गई रात का
नम अंधेरा मांगा
उसमें मेरे हिस्‍से का जल था

काम पर जाते हुए भग्‍न बुद्ध मूर्ति-सा शांत और एकाग्र था रास्‍ता
उस विराट शांति से मैंने
सुकून नहीं गए दिन की थोड़ी हलचल मांगी
मेरे कुछ लोग जो फंस गए थे उसमें
आज दिख भी नहीं रहे थे दूर-दूर तक
उनके लिए चिन्तित हुआ

दिन भर बांयें पांव का अंगूठा दुखता रहा था
मैंने रोज़ शाम के अपने भुने हुए चने नहीं मांगे
कुछ गाजर काटीं और
शाम में मिला दिया एक अजीब-सा रंग

रात बादल छंट गए
बालकनी में खड़े हुए देख रहा हूं
भरपूर निकला है पूनम का चांद
मैं उससे क्‍या मांगू

थोड़ा उजाला मैंने कई सुबहों से बचाकर रखा है
उस उजाले से अब मैं एक कविता मांग रहा हूं
अपने हिस्‍से की रात को
कुछ रोशन करने के लिए

शर्म की बात है
जिन्‍हें अब तक गले में लटकाए घूम रहा था
वे भी कम पड़ गईं भूख मिटाने को
*** 

काव्‍यालोचना

एक रास्‍ते पर मैं रोज़ आता-जाता रहा
अपनी ज़रूरत के हिसाब से उसे बिगाड़ता-बनाता रहा
अब उस पर श्रम और सौन्‍दर्य खोजने का एक काम लिया है

सार्थक-निरर्थक होने के फेर में नहीं पड़ा कभी
जीवन और कविता में जो कुछ जानना था
ज्‍़यादातर अभिप्रायों से जान लिया  है  
*** 

काशी हिन्‍दू विश्‍वविद्यालय में सुरक्षित है रामचन्‍द्र शुक्‍ल की कुर्सी

पुख्‍़ता ख़बर है
कि काशी हिन्‍दू विश्‍वविद्यालय में सम्‍भालकर रखी गई है
रामचन्‍द्र शुक्‍ल की कुर्सी

रामचन्‍द्र शुक्‍ल की कुर्सी को सम्‍भालने की इच्‍छा रखने वाले भक्‍तजन
जीवनपर्यन्‍त रामचन्‍द्र शुक्‍ल को नहीं एक आचार्यनुमा कुर्सी को पढ़ते रहे हैं

अपने लिए भी महज एक कुर्सी ही गढ़ते रहे हैं 
***
 

0 thoughts on “गए अक्‍टूबर से अब तक की कविताएं : सब एक जगह”

  1. सुबह सुबह सब कवितायें पढ़ीं।खुला घाव कविता की कचोट सब से गहरी है। आज़ादी के सरसठ सालों में अनगिनत खुले घावों से देश की देह भर गयी है। सब कसकते रहे। कविता में संवेदना के ज्ञान में ढलने की प्रक्रिया ऐसी ही खुले घाव जैसी होती है शायद। व्होतीज्जादीके ढ़ें

  2. कविताएँ तो सबको कोई न कोई अच्छी लगेंगी ही। मुझे दिनचर्या कविता सबसे ज्यादा पसंद आई।

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