अनुनाद

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विमलेश त्रिपाठी की प्रेम कविताएँ



सुपरिचित युवा कवि-‍कथाकार विमलेश इन दिनों प्रेम कविताओं के संग्रह की तैयारी में हैं। ये कविताएं उसी संग्रह की पांडुलिपि से। ये कविताएं बताती हैं कि प्रेम ऐसी जगह है, जहां आदमी का सामना ख़ुद से होता है। वो अपना ही आईना बन जाता है।
***   
एक भाषा हैं हम

शब्दों के महीन धागे हैं 
हमारे संबंध

कई-कई शब्दों के रेशे-से गुंथे
साबुत खड़े हम 
एक शब्द के ही भीतर

एक शब्द हूं मैं
एक शब्द हो तुम

और इस तरह साथ मिलकर
एक भाषा हैं हम

एक ऐसी भाषा 
जिसमें एक दिन हमें 
एक महाकाव्य लिखना है।
***

दरअसल

हम गये अगर दूर
और फिर कभी लौटकर नहीं आय़े
तो यह कारण नहीं
कि अपने किसी सच से घबराकर हम गये

कि अपने सच को पराजित
नहीं देखना था हमें
कि हमारा जाना उस सच को
ज़िंदा रखने के लिए था बेहद ज़रूरी

दरअसल हम सच और सच के दो पाट थे
हमारे बीच झूठ की
एक गहरी खाई थी

और आख़िर आख़िरर में
हमारे सच के सीने में लगा
ज़हर भरा एक ही तीर

दरअसल वह एक ऐसा समय था
जिसमें बाज़ार की सांस चलती थी

हम एक ऐसे समय में
यक़ीन की एक चिडिया सीने में लिए घर से निकले थे
जब यक़ीन शब्द बेमानी हो चुका था

यक़ीनन वह प्यार का नहीं
बाज़ार का समय था

दरअसल उस एक समय में ही
हमने एक दूसरे को चूमा था

और पूरी उम्र
अंधेर में छुप-छुप कर रोते रहे थे।
***

तुम्हारे लिए लिखते हुए

लिखता समय की आंख में
अनगिन इंतज़ार

कॉलेज के गेट पर प्लास्टिक का
अधगोड़ा चप्पल पहिने खड़ा एक लड़का
उसके मुचड़े हुए कुरते की जेब में
एक मुरझाया गुलाब लिखता

लिखता एक झपसी हंसी
जिसके ताप से
पिघलती हृदय में जमी सदियों की बर्फ़
रिसता गरम रक्त
रात-दिन चैन से मरने तक न देता

लिखता एक गीत हवा में लहरा कर गुम गया कहीं
जो हर एक नए साल के पहले दिन
भेष बदलकर आता
कहता कान में कोई एक गोपनीय बात

और बहुत कुछ जो लिख नही पाता
उसे घर की सबसे पुरानी आलमारी में
बंद कर
उसकी चाबी तुम्हारे पास के
पूकूर में उछाल कर फेंक देता

इस तरह एक दिन
तुम्हारे बारे में सोचते-लिखते हुए
झूठ-मूठ मर जाता
फिर-फिर जन्मने के लिए ।
***

कभी जब

कभी जब ख़ूब तनहाई में तुम्हें आवाज़ दूं
तो सुनना

जब हारने लगूं लड़ते-लड़ते
तो खड़ा होना मेरे पीछे
दुआओं की तरह

प्यार मत करना कभी मुझे
उसके लायक नहीं मैं

पर जब नफ़रत करने लगूं इस दुनिया से
तुम सिखाना
कि यह दुनिया नफ़रत से नहीं
प्यार से ही बची रह सकती है।
***

तुमसे संबंध

लिखता नहीं कुछ
कहता नहीं कुछ

तुम यदि एक सरल रेखा
तो ठीक उसके नीचे खींच देता 
एक छोटी सरल रेखा

फ़िलहाल इसी तरह परिभाषित करता
तुमसे अपना संबंध।
***

देह की भाषा

देह की अपनी एक भाषा
अपना व्याकरण

जब अन्य भाषाएं हो उठतीं
कंटीली झाड़ियों की तरह जटिल
इतनी कि निकल पाना
क़रीब-क़रीब नामुमकिन

और पसर जाता आकाश जितना भारी
एक मौन
दो स्वत्वों के बीच

तब देह की भाषा में
लिखता हूं कविताएं

इस तरह हर बार
बचा रहता है हमारा प्यार । 
***

इतवार नहीं

आंगन में आज
कनेर के दो पीले फूल खिले हैं

दो दिन पहले
तुम लौटी हो इक्किस की उम्र में
मुझे साढ़े इक्किस की ओर लौटाती

समय को एक बार फिर
हमने मिलकर हराया है

सुनो
इस दिन को मैने
अपनी कविता की डायरी में
इतवार नहीं
प्यार लिखा है।
***

एक लंबी कविता में ढल जाने दो

एक ठूंठ के खोखल की उदासी-सी सुबह
जंग के बाद की एक उजाड़ रात-सी खमोशी
एक सहमें हुए लावारिश बच्चे की तस्वीर-सा प्यार यह

क्या करूं मैं इनका

बंद करो झूठे दावे
सामने से हटो मुझे सांस लेने दो मेरे दोस्त

मुझे मत रोको अपने अभिनय की उठान से
लौटने दो मुझे अपनी अधूरी कविताओं के पास

मुझे जिन्दा रहने दो
अपने पवित्र शब्दों के साथ

एक लंबी कविता में ढल जाने दो 
***

तुम्हारे लिए एक कविता

तुम्हारे लिए लिखना चाहता हूं एक बहुत सुंदर शब्द
एक बहुत सुंदर वाक्य
इस तरह एक बहुत सुंदर कविता

इन सबको मिलाकर कविता के रंग से
बनाना चाहता हूं तुम्हारा एक सुंदर चित्र
एक सुंदर आंख
एक सुंदर नाक
एक बहुत सुंदर दिल
और भी बहुत कुछ
तुम्हे मुकम्मल करने हेतु जो जरूरी

लिखना चाहता हूं – तुम
जो कहीं दूर गांव के किसी मेड़ पर किसी सूखते पेड़ की छाया में बैठी हो
फटती हुई धरती के लिए बारिश की प्रतीक्षा में

तुम जो अंधेरे घर की एक बहुत छोटी खिड़की से
देखती हो बाहर का एक कतरा धूप
तुम जो घूंघट के नीचे से ताकती हो सिर्फ जमीन

तुम जिसे बहुत पहले आदमी की तरह होना था
तुम जिसे खुलकर हंसना
और बोलना था
देना था आदेश लेना था कठोर निर्णय अपने लिए और इस पृथ्वी के लिए

तुम जिसे देख इतिहास को आती है शर्म
होता है अपराध-बोध
तुम जो चिता पर बैठी हो एक पुरूष के साथ
तुम जो बंधी हो किसी पुरूष के बलिष्ठ बाजुओं में

तुम जो सुरक्षित नहीं हो घर और बाहर कहीं भी
तुम जिसको दुनिया ने मनुष्य से
एक चारे में तब्दील कर दिया है

तुम्हारे लिए लिखना चाहता हूं एक कविता
स्वीकार करना चाहता हूं अपने सारे अपराध

देखना चाहता हूं तुम्हें
अब और कुछ नहीं
सिर्फ और सिर्फ एक मनुष्य।

***

किसी ईश्वर की तरह नहीं

मेरी देह में सूरज की पहली किरणों का ताप भरो
थोड़ा शाम का अंधेरा
रात का डर भरो मेरी हड्डियों में

हंसी का गुबार मेरे हिस्से की कालिख में
उदासी की काई मेरी उजली आत्मा पर

किसी ईश्वर की तरह नहीं
एक मामूली आदमी की तरह मुझे प्यार करो।
*** 
 
यदि तुम ईश्वर बनना चाहते हो

इच्छा मृत्यु के लिए एक स्त्री के प्रेम में पड़ना जरूरी है
मोक्ष के लिए एक स्त्री देह की जरूरत
भय और ताकत के लिए भी
जरूरी है कि एक स्त्री सबकुछ भूलकर
सिर्फ तुम्हें प्यार करे

यदि तुम ईश्वर बनना चाहते हो
असुर बनना चाहते हो
पेड़ बनना चाहते हो
जानवर और जंगल बनना चाहते हो
तो तुम्हें एक साथ कई स्त्रियों से प्रेम करना होगा…।।
*** 

तुम्हारी वजह से ही

तुम्हारे कंधे पर
झुकता है पहाड़

तुम्हारी छाती से
फूटती है एक नदी

होना तुमसे अलग
मेरा होना एक जंगल है

तुम्हारी वजह से ही
आदमी हूं मैं..।.

***









विमलेश त्रिपाठी
·        बक्सर, बिहार के एक गांव हरनाथपुर में 7 अप्रैल 1979 को जन्म । प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही।
·        प्रेसिडेंसी कॉलेज, कोलकाता से स्नातकोत्तर, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधरत।
·        देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख आदि का प्रकाशन।
·        हम बचे रहेंगे कविता संग्रह नयी किताब, दिल्ली से प्रकाशित।
·        एक देश और मरे हुए लोग – कविता संग्रह, बोधि प्रकाशन
·        कहानी संग्रह अधूरे अंत की शुरूआत पर युवा ज्ञानपीठ नवलेखन, 2010 पुरस्कार
·        सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन की ओर से काव्य लेखन के लिए युवा शिखर सम्मान।
·         कविता के लिए सूत्र सम्मान, 2011
·        भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता का युवा पुरस्कार
·        कविता कहानी का भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में अनुवाद।
·        पहला उपन्यास – कैनवास पर प्रेम – भारतीय ज्ञानपीठ से शीघ्र प्रकाश्य

·        कोलकाता में रहनवारी।
·        परमाणु ऊर्जा विभाग के एक यूनिट में कार्यरत।
·        संपर्क: साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64.
·        ब्लॉग: http://bimleshtripathi.blogspot.com
·        Email: bimleshm2001@yahoo.com
·        Mobile: 09748800649

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  1. ’ प्रेम ’की निश्छलता को शब्दों के महीन रेशों मे बांधकर अदभुत, अकथ्य, उस पवित्र भाव को जिस सादगी और स्वच्छता से आपने पिरोया है ,वह सीधे अंतर की तहों तक पहुंचता है । —होना तुमसे अलग मेरा होना एक जंगल है– जैसी पंक्तियां ,.. और ,.. सभी कविताए मन को प्रेम से सराबोर करती है , जैसे ग्रीष्म में किसी नदी की लहरे किनारे पर लेटे थके पथिक को अपनी शीतलता से आहलादित करती है । आपका बहुत बहुत आभार ,.. सौम्य ,शाश्वत प्रेम कविताओ के लिये ।

  2. अद्भुत प्रेम कवितायेँ हैं–सादगी का सौंदर्य , अभिव्यक्ति की सहजता ,एकदम नया बिम्ब – विधान आदि प्रभावित करता है। –''जब हारने लैगू लड़ते लड़ते तो खड़े होना मेरे पीछे /दुआओं की तरह ''. बधाई विमलेश ,प्रेम जैसे सनातन विषय पर समकालीन भाव बोध और दृष्टि संपन्न ताज़गी के साथ लिखने के लिए। ओरजु।

  3. विमलेश भाई की प्रेम-कवितायें सहेजकर रखने के लिए है | जीवन में इतने कोलाहल के मध्य उनकी कविता सेमल के रुई जितनी नरम भाषाओँ से पिरोई गई हैं | एक रिश्ते के बीच की असंख्य अनकही बातों को जिस सहजता से उन्होंने रखा है ..वो अतुलनीय है | बार-बार पढने पर भी इनकी कवितायें विरक्त नहीं करती ..और यही इनके कविता की उपलब्धि है | विमलेश भाई को ह्रदय से बधाई ..

  4. जब हारने लगूँ लडते लडते
    तो पीछे खडा होना मेरे
    दुआओं की तरह
    ___________________
    विमलेश ने प्रेम को प्रेम की तरह और प्रेम की भाषा में लिखा है

    बधाई

  5. दरअसल हम सच और सच के दो पाट थे/ हमारे बीच झूठ की/ एक गहरी खाई थी/ और आखिर आखिर में/ हमारे सीने में लगा/ ज़हर भरा एक ही तीर… सम्बन्धो के बीच खोखलेपन को उजागर करती बहुत ही अदभुत पंक्तियों के साथ कवि की प्रेम के भरोसे में डूब हुओं की यह अभिलाषा
    ’जब हारने लगूं लड़ते- लड़ते/ तो खड़ा होना मेरे पीछे/ दुआओं की तरह… पर जब नफ़रत करने लगूं इस दुनिया से/ तुम सिखाना/ कि यह दुनिया नफ़रत से नहीं/ प्यार से ही बची रह सकती है।’ वाकई लाज़वाब है।

  6. इन कविताओं को पिछले तीन दिनों में कई बार पढ़ा है। यहाँ प्रेम शरण्य नहीं है ; उम्मीद है और खुद को पहचान पाने की एक राह भी।एक सादगी है ; एक सिधाई जहाँ 'नैकु सयानप बाँक नही"। विमलेश की कविताओं में सहजता है ; ज्यादा कताई – बुनाई और रंग – रोगन नहीं। मुझे लगता है कि यह एक कठिन चीज है ; सहज होना बहुत कठिन है। भाषा और कहन के स्तर पर यह मेरे लिए एक बहुत पुराने कोठार में आज के जमाने की चोरबत्ती लेकर घुसना है और याद करना है कि एक दुनिया हुआ करती थी जो कि आज की दुनिया की नींव में दफ़्न है। कविता की दीवार से कान सटाकर हम उनका होना महसूस कर सकते हैं। क्या कहूँ; सचमुच बहुत अच्छी कवितायें हैं ये।

  7. बेहतरीन कवितायेँ .विमलेश हमारे समय की जितनी अच्छी पड़ताल करते है वाह काबिले गौर है .अपनी प्रेम कविताओं के माध्यम से इन्होने अहसास के बारीक तंतुओं को छुआ है .बहुत बधाई !

  8. 'Kisi ishvar ki tarha nahi / ek maamuli aadmee ki tarha pyaar karo mujhe' pyaar jb stri ko devi aur purush ko Premeshvar ki upadhi de to pyaar pyaar nahi satta bn jaataa hai…isi ko khatm krna hai…yadi tum ishvar banana chahte ho???? Is kavita par aalochanaatmk baat honi chahiye. Baharhaal pyaar se bhari in kavitaon ka svaagt! Aapko haardik badhai!!

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