कमल जीत चौधरी हिंदी की युवतर कविता में अब एक ख़ूब जाना-पहचाना नाम है। हिंदी की बड़ी पत्रिकाओं ने ख़ुद को जब बड़े या अधिक नामचीन नामों के लिए आरक्षित कर लिया है और कविता की गरिमा को सहेजना छोड़ दिया तब, हमारी ब्लागपत्रिकाएं और ईपत्रिकाएं उसे बेहतर सहेज पा रही हैं। कमल की पहचान इंटरनेट के इसी संसार पर बनी है और उन्हें बहुत सम्भावनाशील युवा कवि के रूप में लगातार रेखांकित किया गया है। कमल ने बहुत कम समय में अपनी ही तरह की कहन और मुहावरा अर्जित किया है। वे अपने आसपास के विषयों को एक निश्चित वैचारिकी के साथ इस तरह से लिखते हैं कि आजकल के बहुल्लेखित लोकेल का एक अनिवार्य और निरन्तर अतिक्रमण सम्भव होता है। अनुनाद पर कमल पहले भी कई बार प्रकाशित हो चुके हैं। इन कविताओं के लिए हम उनके आभारी हैं।
***
जा रही हूँ
जा रही हूँ …घर
बुहार रही हूँ …घर
सामान बाँध रही हूँ
सब बाँध फांद कर भी
तुम छूट ही जाओगे थोड़े से
रह जाओगे अटके
पंखे के पेंच में
खिड़की के कांच में
कौंधोगे
बाहर के दृश्य में
धूप में छां में
दर्पण में अर्पण में
ले जा रही हूँ
बुदबुदाती प्रार्थनाएँ सभी
पर तुम
जली हुई अगरबती में
पिघली हुई मोमबती में
चकले बेलने की खुरचन में
बर्तनों की ठनकन में
अजान में
चौपाई में
रह जाओगे बिखरे हुए थोड़ा थोड़ा
चारपाई में
तुम छूट ही जाओगे
नमक में नमक जितना
बुहारूं चाहे कितना
किसी के किस्सों में
टुकड़ा टुकड़ा हिस्सों में
रुत परेशान में
किसी की जबान में
हौंसले की कमान में
रह जाओगे तुम
उठे हुए तूफ़ान में
तुम्हारा छूटना मुझे अच्छा लगेगा
तुम छूटोगे
पाबन्द हुई किताबों में
अंधेर गर्द रातों में
जुगनुओं के खवाबों में
ओस की बातों में
छूट जाओगे थोड़े से
शहर के शोर में
सीढ़ियों में
कोरिडोर में
रात की रेत में
रेत की सेज में
तवी की छवि में
कल्पना की कवि में
छत पर उगी काई में
खंभे की परछाई में
तुम छूट ही जाओगे थोड़ा सा
घास में
मुट्ठी बांधे हाथ में
आकाश में
चाँद में
जा रही हूँ
तुम्हे छोड़कर थोड़ा थोड़ा
सामान बांधे खड़ी देख रही हूँ
मैं भी तो छूट रही हूँ थोड़ा थोड़ा
कैसे बुहारूं
कितना बुहारूं
जा रही हूँ …घर
बुहार रही हूँ …घर।
****
आते हुए लोग
वे पक्षियों से कह रहे हैं
बाग छोड़ दो
गृहस्थनों से कह रहे हैं
चीनी दाल छोड़ दो
खिलाड़ियों से कह रहे हैं
दंगल छोड़ दो
आदिवासियों से कह रहे हैं
जंगल छोड़ दो
गाँव से कह रहे हैं
गंवई छोड़ दो
उत्तर भारतीयों से कह रहे हैं
मुंबई छोड़ दो …
डंडे से धकियाये जाते हुए लोग
दर्द से बिलखते
पीड़ा गीत गाते
अपने साथ आम नहीं
आम के बगीचे से
गुठलियाँ बीन रहे हैं
वे ले जाकर इनको
गाँव की पगडंडियों पर बोयेंगे
वही सोयेंगे
वही हँसेंगे
वही रोयेंगे
पांच एक बरस में
जब पगडंडियाँ सड़क होंगी
धकियाये हुए लोग तीस एक के
आम बौरायेंगे
फल पकेंगे
जिस पर तीस एक की अगली पीढ़ी
पत्थर उछालना सीखेगी –
फल तोड़ खाकर
गुठलियाँ मिट्टी में दबाकर
उस पर पहरा बैठाकर
किस्मत को गाँठ देंगे
मुट्ठी को बाँध लेंगे
आते हुए लोग।
****
पत्थर
एक दिन हम
पक कर गिरेंगे
अपने अपने पेड़ से
अगर पत्थर से बच गए तो
एक दिन हम
बिना उछले किनारों से
बहेंगे पूरा
अपनी अपनी नदी से
अगर पत्थर से बच गए तो
एक दिन हम
दाल लगे कोर की तरह
काल की दाढ़ का स्वाद बनेंगे
अगर पत्थर से बच गए तो –
एक दिन हम
एपिटेथ पर लिखे जाएंगे
अपने अपने शब्दों से
अगर पत्थर पा गए तो।
****
लड़कियां
मैंने देखी –
तुरपाई
सिलाई
कढ़ाई
बुनाई
रजाई
लड़की !
मैंने सोचा –
कीचड़ में कमल
कमल में कविता
कविता में लड़की !
मैंने लिखा –
मोमबती
लकड़ी
फिरकी
गोटी
रोटी
शीशी
लड़की !
लिखते लिखते
लिख सका एक कविता
मैंने जाना –
लड़की पर
कविता लिखी जा सकती है
पर कविता में
लड़की नहीं लिखी जा सकती
घरेलू शब्दों में लड़कियां
बनाती नहीं
बुनती हैं
पकाती नहीं
पकती हैं
जलाती नहीं
जलती हैं
सुनाती नहीं
सुनती हैं
छीनती नहीं
बीनती हैं …
कविता के शब्दों में
वे लिखती नहीं
पैदा करती हैं –
लड़कियां माँ हैं।
जा रही हूँ …घर
बुहार रही हूँ …घर
सामान बाँध रही हूँ
सब बाँध फांद कर भी
तुम छूट ही जाओगे थोड़े से
रह जाओगे अटके
पंखे के पेंच में
खिड़की के कांच में
कौंधोगे
बाहर के दृश्य में
धूप में छां में
दर्पण में अर्पण में
ले जा रही हूँ
बुदबुदाती प्रार्थनाएँ सभी
पर तुम
जली हुई अगरबती में
पिघली हुई मोमबती में
चकले बेलने की खुरचन में
बर्तनों की ठनकन में
अजान में
चौपाई में
रह जाओगे बिखरे हुए थोड़ा थोड़ा
चारपाई में
तुम छूट ही जाओगे
नमक में नमक जितना
बुहारूं चाहे कितना
किसी के किस्सों में
टुकड़ा टुकड़ा हिस्सों में
रुत परेशान में
किसी की जबान में
हौंसले की कमान में
रह जाओगे तुम
उठे हुए तूफ़ान में
तुम्हारा छूटना मुझे अच्छा लगेगा
तुम छूटोगे
पाबन्द हुई किताबों में
अंधेर गर्द रातों में
जुगनुओं के खवाबों में
ओस की बातों में
छूट जाओगे थोड़े से
शहर के शोर में
सीढ़ियों में
कोरिडोर में
रात की रेत में
रेत की सेज में
तवी की छवि में
कल्पना की कवि में
छत पर उगी काई में
खंभे की परछाई में
तुम छूट ही जाओगे थोड़ा सा
घास में
मुट्ठी बांधे हाथ में
आकाश में
चाँद में
जा रही हूँ
तुम्हे छोड़कर थोड़ा थोड़ा
सामान बांधे खड़ी देख रही हूँ
मैं भी तो छूट रही हूँ थोड़ा थोड़ा
कैसे बुहारूं
कितना बुहारूं
जा रही हूँ …घर
बुहार रही हूँ …घर।
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आते हुए लोग
वे पक्षियों से कह रहे हैं
बाग छोड़ दो
गृहस्थनों से कह रहे हैं
चीनी दाल छोड़ दो
खिलाड़ियों से कह रहे हैं
दंगल छोड़ दो
आदिवासियों से कह रहे हैं
जंगल छोड़ दो
गाँव से कह रहे हैं
गंवई छोड़ दो
उत्तर भारतीयों से कह रहे हैं
मुंबई छोड़ दो …
डंडे से धकियाये जाते हुए लोग
दर्द से बिलखते
पीड़ा गीत गाते
अपने साथ आम नहीं
आम के बगीचे से
गुठलियाँ बीन रहे हैं
वे ले जाकर इनको
गाँव की पगडंडियों पर बोयेंगे
वही सोयेंगे
वही हँसेंगे
वही रोयेंगे
पांच एक बरस में
जब पगडंडियाँ सड़क होंगी
धकियाये हुए लोग तीस एक के
आम बौरायेंगे
फल पकेंगे
जिस पर तीस एक की अगली पीढ़ी
पत्थर उछालना सीखेगी –
फल तोड़ खाकर
गुठलियाँ मिट्टी में दबाकर
उस पर पहरा बैठाकर
किस्मत को गाँठ देंगे
मुट्ठी को बाँध लेंगे
आते हुए लोग।
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पत्थर
एक दिन हम
पक कर गिरेंगे
अपने अपने पेड़ से
अगर पत्थर से बच गए तो
एक दिन हम
बिना उछले किनारों से
बहेंगे पूरा
अपनी अपनी नदी से
अगर पत्थर से बच गए तो
एक दिन हम
दाल लगे कोर की तरह
काल की दाढ़ का स्वाद बनेंगे
अगर पत्थर से बच गए तो –
एक दिन हम
एपिटेथ पर लिखे जाएंगे
अपने अपने शब्दों से
अगर पत्थर पा गए तो।
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लड़कियां
मैंने देखी –
तुरपाई
सिलाई
कढ़ाई
बुनाई
रजाई
लड़की !
मैंने सोचा –
कीचड़ में कमल
कमल में कविता
कविता में लड़की !
मैंने लिखा –
मोमबती
लकड़ी
फिरकी
गोटी
रोटी
शीशी
लड़की !
लिखते लिखते
लिख सका एक कविता
मैंने जाना –
लड़की पर
कविता लिखी जा सकती है
पर कविता में
लड़की नहीं लिखी जा सकती
घरेलू शब्दों में लड़कियां
बनाती नहीं
बुनती हैं
पकाती नहीं
पकती हैं
जलाती नहीं
जलती हैं
सुनाती नहीं
सुनती हैं
छीनती नहीं
बीनती हैं …
कविता के शब्दों में
वे लिखती नहीं
पैदा करती हैं –
लड़कियां माँ हैं।
****
तुम हो
तुम हो तो
कागज़ के शहर में भी
फूलोत्सव है
तुम न हो तो
फूलोत्सव भी
छलोत्सव है
तुम हो तो
काँटे की नोक पर भी
प्रेमकविता
तुम न हो तो
फूल की लोच पर भी
कंठ गाए पीड़ा
तुम हो तो
बीज से फल
तुम न हो तो
स्वेटर से ऊन …
तुम हो तो कुछ है
तुम न हो तो कुछ है
तुम हो
तुम न हो –
तुम हो।
****
कवि गोष्ठी में आने के लिए
मैं सुनने आया कविता
मुझे अखबार सुनाया गया
पढ़ने बैठा अखबार
मुझे बाज़ार पढ़ाया गया …
किकर* की दातुन कर
खेत के नक्के* मोड़ता हूँ
बन्ने* पर चापी* मार
साग टोडा* खाता हूँ
बेसुरा होकर
पूरे सुर में लोक गीत गाता हूँ
मैं नहीं पढ़ना चाहता बाज़ार
पर बाज़ार मुझे जबरदस्ती पढ़ लेना चाहता है
बाज़ार सबको पढ़ रहा है
बड़ी तेजी से
उसकी सॉफ्टवेयर कुल्हाड़ियाँ
फार्मुलावन गाड़ियाँ
हमें काट रही हैं …
बचने के लिए
पानी हो जाओ
अगर कट के बचना है तो
थोड़ा सा गोबर बचाओ –
फिर कवि गोष्ठी में आओ।
****
१ – किकर – एक काँटों वाला पेड़
२ – नक्के – सिंचाई का पानी मोड़ना
३ – बन्ने – खेत की मेड़
४ – चापी – बैठने की एक मुद्रा
५ – टोडा – बाजरे की रोटी
देश के भीतर एक देश
देश के भीतर एक देश
नंगा भूखा बेछत सो नहीं पाता
एक बड़े आलीशान गोल भवन का
बड़ी बेअदबी के साथ
एक टी० वी० चैनल लाइव प्रसारण करता है
हर ब्रेक में गुड नाईट का विज्ञापन देता है –
देश के भीतर एक देश
खर्राटे भरता रहता है।
****
डरना
खाओ
खूब खाओ
मैं नहीं करता मना
खाना
मगर चींटी देखना
पीओ
खूब पीओ
मैं नहीं करता मना
पीना
मगर ऊँट देखना
जाओ
सो जाओ
मैं नहीं करता मना
सोना
मगर सपना देखना …
डरो
खूब डरो
मैं नहीं करता मना
डरना
मगर डर से डरना।
****
फ़र्क़ – १
बारिशें खूब बरसी
आँगनों का फ़र्क़ किए बगैर
तुम ढूँढ़ते रहे
छत ओढ़कर
अपने हिस्से का भीगना।
फ़र्क़ – २
बादल क्यों बरसे
आँगनों का फ़र्क़ किए बगैर
वे जान क्यों नहीं पाए
तारे गिनती कच्ची छत का सौंदर्यशास्त्र
छत ओढ़कर भीगने वालों से
कितना अलग है।
****
जन्म :- १३ अगस्त १९८० काली बड़ी , साम्बा { जे० & के० } में एक छम्ब
विस्थापित परिवार में
शिक्षा :- जम्मू वि०वि० से हिन्दी साहित्य में परास्नातक { स्वर्ण पदक
प्राप्त } ; एम०फिल० ; सेट
लेखन :- २००७-०८ में लिखना शुरू किया
प्रकाशित :- संयुक्त संग्रहों ‘स्वर एकादश‘ { स० राज्यवर्द्धन } तथा ‘तवी
जहाँ से गुजरती है‘ { स० अशोक कुमार } में कुछ कविताएँ ,नया ज्ञानोदय ,
सृजन सन्दर्भ , परस्पर , अक्षर पर्व , अभिव्यक्ति , दस्तक ,अभियान ,
हिमाचल मित्र , लोक गंगा , शब्द सरोकार ,उत्तरप्रदेश , दैनिक जागरण , अमर
उजाला , शीराज़ा , अनुनाद , पहली बार , बीइंग पोएट , तत्सम , सिताब दियारा
जानकी पुल आदि में प्रकाशित
सम्प्रति :- उच्च शिक्षा विभाग , जे०&के० में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत।
तुम हो
तुम हो तो
कागज़ के शहर में भी
फूलोत्सव है
तुम न हो तो
फूलोत्सव भी
छलोत्सव है
तुम हो तो
काँटे की नोक पर भी
प्रेमकविता
तुम न हो तो
फूल की लोच पर भी
कंठ गाए पीड़ा
तुम हो तो
बीज से फल
तुम न हो तो
स्वेटर से ऊन …
तुम हो तो कुछ है
तुम न हो तो कुछ है
तुम हो
तुम न हो –
तुम हो।
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कवि गोष्ठी में आने के लिए
मैं सुनने आया कविता
मुझे अखबार सुनाया गया
पढ़ने बैठा अखबार
मुझे बाज़ार पढ़ाया गया …
किकर* की दातुन कर
खेत के नक्के* मोड़ता हूँ
बन्ने* पर चापी* मार
साग टोडा* खाता हूँ
बेसुरा होकर
पूरे सुर में लोक गीत गाता हूँ
मैं नहीं पढ़ना चाहता बाज़ार
पर बाज़ार मुझे जबरदस्ती पढ़ लेना चाहता है
बाज़ार सबको पढ़ रहा है
बड़ी तेजी से
उसकी सॉफ्टवेयर कुल्हाड़ियाँ
फार्मुलावन गाड़ियाँ
हमें काट रही हैं …
बचने के लिए
पानी हो जाओ
अगर कट के बचना है तो
थोड़ा सा गोबर बचाओ –
फिर कवि गोष्ठी में आओ।
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१ – किकर – एक काँटों वाला पेड़
२ – नक्के – सिंचाई का पानी मोड़ना
३ – बन्ने – खेत की मेड़
४ – चापी – बैठने की एक मुद्रा
५ – टोडा – बाजरे की रोटी
देश के भीतर एक देश
देश के भीतर एक देश
नंगा भूखा बेछत सो नहीं पाता
एक बड़े आलीशान गोल भवन का
बड़ी बेअदबी के साथ
एक टी० वी० चैनल लाइव प्रसारण करता है
हर ब्रेक में गुड नाईट का विज्ञापन देता है –
देश के भीतर एक देश
खर्राटे भरता रहता है।
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डरना
खाओ
खूब खाओ
मैं नहीं करता मना
खाना
मगर चींटी देखना
पीओ
खूब पीओ
मैं नहीं करता मना
पीना
मगर ऊँट देखना
जाओ
सो जाओ
मैं नहीं करता मना
सोना
मगर सपना देखना …
डरो
खूब डरो
मैं नहीं करता मना
डरना
मगर डर से डरना।
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फ़र्क़ – १
बारिशें खूब बरसी
आँगनों का फ़र्क़ किए बगैर
तुम ढूँढ़ते रहे
छत ओढ़कर
अपने हिस्से का भीगना।
फ़र्क़ – २
बादल क्यों बरसे
आँगनों का फ़र्क़ किए बगैर
वे जान क्यों नहीं पाए
तारे गिनती कच्ची छत का सौंदर्यशास्त्र
छत ओढ़कर भीगने वालों से
कितना अलग है।
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जन्म :- १३ अगस्त १९८० काली बड़ी , साम्बा { जे० & के० } में एक छम्ब
विस्थापित परिवार में
शिक्षा :- जम्मू वि०वि० से हिन्दी साहित्य में परास्नातक { स्वर्ण पदक
प्राप्त } ; एम०फिल० ; सेट
लेखन :- २००७-०८ में लिखना शुरू किया
प्रकाशित :- संयुक्त संग्रहों ‘स्वर एकादश‘ { स० राज्यवर्द्धन } तथा ‘तवी
जहाँ से गुजरती है‘ { स० अशोक कुमार } में कुछ कविताएँ ,नया ज्ञानोदय ,
सृजन सन्दर्भ , परस्पर , अक्षर पर्व , अभिव्यक्ति , दस्तक ,अभियान ,
हिमाचल मित्र , लोक गंगा , शब्द सरोकार ,उत्तरप्रदेश , दैनिक जागरण , अमर
उजाला , शीराज़ा , अनुनाद , पहली बार , बीइंग पोएट , तत्सम , सिताब दियारा
जानकी पुल आदि में प्रकाशित
सम्प्रति :- उच्च शिक्षा विभाग , जे०&के० में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत।
सम्पर्क :-
कमल जीत चौधरी,गाँव व डाक – काली बड़ी,तह० व जिला – साम्बा [१८४१२१ ]
जम्मू व कश्मीर/ दूरभाष – ०९४१९२७४४०३
जम्मू व कश्मीर/ दूरभाष – ०९४१९२७४४०३
बेहद सुन्दर कवितायें…..
बहुत ही परिपक्व लेखन….
शुभकामनाएं कमल जीत को..
अनुलता
बहुत शानदार कवितायेँ ,एक अलग -सा तेवर। कमलजीत को हार्दिक बधाई।
Shirish Jee aapke manch ka haardik aabhaar vyakt karta hun…Dhanyavaad!
Apne priya paathkon ke prem aur vishvaas se hi utsah evam pratibaddhta bni rahti hai. Haardik dhanyavaad !!
कमलजीत प्यारे दोस्त हैं अछे इंसान और एक शानदार कवि ….इनकी कविता इनका तेवर इनकी फिकर ..देश समाज गाँव कस्बों खेत खलिहान और सिस्टम से इनका उलझना ..ये सारी खूबी कमलजीत की कविता में सहज आती है.इनको पढ़ा जाना जरुरी है …अनुनाद का शुक्रिया कमलजीत को दिल से बधाई…
अद्भुत ! ये कविताएं 'चापी' मार कर पढ़ी जाने वाली हैं .
धर्मशाला से पठानकोंट जाते हुए ये कवितायेँ पढी और हमेशा की तरह कमलजीत ने सुखद विस्मय से सराबोर कर दिया। मन प्रसंन्न इसलिए भी है की मै कमल के घर क्र कितने करीब हूँ। इस सौगात के लिए अनुनाद का शुक्रिया। चलती गाडी में टाईप को गलतियों के लिए क्षमा।
धर्मशाला से पठानकोंट जाते हुए ये कवितायेँ पढी और हमेशा की तरह कमलजीत ने सुखद विस्मय से सराबोर कर दिया। मन प्रसंन्न इसलिए भी है की मै कमल के घर क्र कितने करीब हूँ। इस सौगात के लिए अनुनाद का शुक्रिया। चलती गाडी में टाईप को गलतियों के लिए क्षमा।
एक निश्चित वैचारिकी के साथ लिखते हैं ….
bahut zabardast kavitayey h badey dino k baad menay aapki kavitaey aaj padi h par in kavitao ko padkar mujey kuch naya sa anubav ho rha h aur bahut acha bi lag rha h aapki kavitaey such mey kmaaal ki hoti h sir aapko bahut bahut mubarakh ho
हमारे दौर का एक जेनुइन युवा कवि …..अच्छा लगा इन कविताओं को पढ़कर
Sundar!
…….kya khu or kehne ko kya reh gya
simply love u and ur poetry
all the best
सुखद है इन कविताओं को पढना…जा रही हूँ, तुम हो और फर्क विशेष रूप से अच्छी लगीं. बधाई कमलजीत जी को.
iss dhod main ruk kar sochne ke lea majbhoor karte hai je kavitayein!
गुलजार स्टाइल की कवितायें हैं. आजकल युवाओं पर गुलज़ार का कुछ ज्यादा ही असर होता जा रहा है.
Ekdam nyi avaaz . Yah door tak jayegi.
Keep going Prof.Sahib.Gud Luck!
Raghuveer Singh ,
Shastri Nagar, Jammu.