रेखांकन : कुंवर रवीन्द्र |
मेरी
सोनपरी
तुझे कभी ख़बर हो पायेगी ?
तेरी तस्वीरें किसी के लिये
क्रोसीन, पैरासीटामॉल और ब्रूफेन हैं
तू कैसे जानेगी रे कि तेरी
गिटपिट गिटपिट अनवरत बातें सुनते हुये
कोई एक पल को उस आवाज़ की
रस्सी पकड़ पहुंच जाता है बादलों में
जब मैं कहता हूं क्या कहा
क्या कहा ज़रा फिर से कहना
तू ये तो नहीं सोचती कि उंचा
सुनने लगा हूं मैं ?
तू कैसी है मेरी सोनपरी ?
जब हम अपने जीवन को बना रहे
हैं प्रतीक्षा का पर्यायवाची
तू ये तो नहीं सोचती कि दिन
कहीं महीने न बन जाएं महीने साल
तेरी अस्वस्थता की ख़बर पर
मेरी आवाज़ का कांपना मेरी असहायता की स्वीकारोक्ति है
मैंने हमेशा सबसे अधिक भय
दूरियों से खाया है
इनके अलावा मेरा कोई कुछ नहीं
बिगाड़ सकता
पहाड़ से निकली नदी जैसी
छलछलाती तेरी आंखों में जो मेरे स्वागत का भाव है
उसे मैं कब ग्रहण करूंगा कह
नहीं सकता
कि सब बहुत तेज़ भाग रहे हैं
और मेरे पांवों में ज़माने
भर की थकन है
मन में मन भर बेचैनी कि कहीं
नहीं मिलता आराम
तू डर मत !
तेरे हर भय हर डर को मैं
सिर्फ़ यह बता कर भगा सकता हूं
कि तेरे नाम से कोई तुझसे
मीलों दूर जीत रहा है अपने सारे भय
कि तेरी हंसी सुनकर ही कोई
खे रहा है मरूस्थल में आशा की नौका
कि तू इस दुनिया में रहते
हुये भी रहती है एक स्वप्न संसार में
जहां मैं हूं और तू है
तेरी आंखें हैं और मेरी
आकांक्षाएं
जिन्हें पूरा तो वैसे भी
नहीं होना है
लेकिन तेरा होना वह उम्मीद
है जिससे आकांक्षाएं पल रही हैं
पूरे होने से अधिक ज़रूरी है
होना
जैसे तेरा मेरे पास होने से
अधिक ज़रूरी है
तेरा होना
***
उपयोग
जितनी
बातें हिदायतों के रूप में कही गयी थीं
ज़्यादातर
अपना अर्थ खो चुकी थीं
मां
की शिक्षाओं ने कई बार नुकसान भी पहुंचाया था
क्योंकि
सबने उन्हें मेरी तरह नहीं माना था
जैसे
आधी से ज़्यादा दुर्घटनाओं में मेरी गलती नहीं थी
सड़क
पर चलने वाले बहुत सारे लोग नहीं मानते थे ट्रैफिक के नियम
सरकार
टैक्स जमा करने के फायदे बताती थी
प्यार
करने के फायदे किसी ने नहीं बताये
जबकि
वह टैक्स जमा करने से कहीं अधिक ज़रूरी था
हत्यारे
राज्यों में घूमने के लिये सुंदर विज्ञापन बनाये गये थे
सेना
में आने के लिये नये खून को आमंत्रित किया जाता था
देश
की सेवा करने के बहुत सारे रास्ते थे जो सुंदर और जोशीले थे
देश
किताबों में बहुत बहादुर था
बच्चों
को नैतिक शिक्षा की किताब सबसे अधिक पसंद थी
जिसे
भूख लगती थी उसे मौत की हद तक लगती थी
जो
खरीद सकता था उसके सामने पूरी दुनिया बिकने को तैयार थी
जिस
दुनिया में भूख से मौतें हो रही थीं
वहीं
भूख से खेलने वाले खेल भी ईज़ाद कर लिये गये थे
सारी
हिदायतों के बावजूद कुछ मौतें लगातार होती थीं
जिनका
कोई ज़िम्मेदार नहीं था
अगर
दुनिया में निर्देशों को माना जाता
तो
शायद कविता लिखने की किसी को ज़रूरत न पड़ती
“अंजान वस्तुओं को हाथ न लगायें”
और
हमारी खोयी हुयी सारी यादें हमें एक दिन नक्षत्रवन की उसी बेंच पर मिल जातीं
जहां
बैठकर तुमने मेरे कंधे पर सिर रखा था
और
मेरे नाखून काटे थे
कहीं
कोई चेतावनी नहीं मानी जाती थी
हर
चीज़ के नये-नये उपयोग पैदा कर लिये जाते थे
रेलगाड़ी
के शौचालय हमारी औरतों की तरह संभालते थे हमारी कुंठाएं
हम
पैण्ट की चेन बंद करते हुये कलम खोंसे
शरीफ़
इंसानों की तरह बाहर निकलते थे
***
यादों का जंगल
कवियों
के शब्दों ने यादों को जंगल बताया था
तब
से ही मुझे मेरी यादें मूंज का जंगल लगती हैं
इससे
कितना भी बच कर गुज़रूं
एकाध
जगह से खून तो निकलना ही है
कारणों
की पड़ताल नहीं की कभी
लेकिन
लगता है 10 साल पहले
ही जीना शुरू किया है
उसके
पहले की बातें पाइरेटेड सीडी वाली फि़ल्म की तरह याद आती हैं
आधी-अधूरी, अस्पष्ट और
एक के खोल में दूसरी
बचपन
अर्धबेहोशी में देखे टीवी कार्यक्रम जैसा
ही-मैन
को कहीं देखने पर सिर्फ़ इतना ही याद आता है
कि
रामायण से पहले आता था और हम देखने के लिये किसी के घर जाकर मिन्नतें करते थे
कुछ
असर बहुत गहरे तक उतरे मगर कब पड़े याद नहीं
इतना
कि कभी देखूं रीना रॉय की कोई भी पुरानी फि़ल्म
लगता
जैसे अगले दृश्य में उसे नागिन बनना है और डस लेना है किसी को
एक
क्रिकेट के मैच के लिये किसने दी सैकड़ों कुर्बानियां
प्रेम
निवेदन के लिये जाते दोस्त को किसने लिखा
सात
पन्ने का प्रेमपत्र अपनी परीक्षा छोड़कर
कौन
था शहर में सबसे स्मार्ट
किसने
विदाउट टिकट किया था दिल्ली का सफ़र एसी में
ऐसे
बचकाने एडवेंचर करने वाला जो था
उसकी
शकल यादों के जंगल में से झांकती है
हूबहू
मेरे जैसी
नौकरी
के सिर्फ आठ सालों में भूल चुका हूं
उसके
पहले के अच्छे दिन
‘जब से पैदा हुआ तब से कर रहा हूं बिना मन की नौकरी’ जैसा
अनुभव होता है
शादी
के सिर्फ पांच सालों में
याद
नहीं आती भूले से भी बिस्तर की अकेली रातें
इतनी
जल्दी की शादी के पहले वाले कुंआरेपन के दिन हवा हो गये हैं
उस
समय की यादें मुझसे रूठ गयी हैं
मैं
वर्तमान में जीने लगा हूं
इसे
किसी कहावत की तरह न लें
मैं
अपनी डायरी न लिखने की आदत पर शर्मिंदा हूं
उस
जंगल में क्या हो रहा है
मैं
जानना चाहता हूं
मैं
वहां जाना चाहता हूं मगर रास्ता भूल जाता हूं
जिन्हें
रास्ता पता है
वे
प्लाइवुड बेच रहे हैं
एनजीओ
चला रहे हैं
या
डॉक्टरों के पास बैग लेकर चक्कर काट रहे हैं।
***
सवारी गाड़ियाँ हमारी सगी गाड़ियाँ हैं
अगर
कविता शुरू करने का कोई नियम न होता हो
तो
मेरे और मेरे भाई के बीच की एक मजेदार याद के साथ जाऊं सत्रह-अठारह साल पहले
और
बताऊं कि ढेर सारे सामानों के साथ बेलथरा रोड स्टेशन पर
पापा
और मां के साथ हमने तीन घण्टे लगातार एक उद्घोषणा सुनी थी
जिसे
अगले कई दशकों तक एक दूसरे के सामने दोहराते हुये पुराने बेफिक्र दिनों में गोते
लगाने थे
“पांच सौ तिरपन सवारी गाड़ी,
जो भटनी से चल मंडुवाडीह तक जाती है, अभी भटनी से चली नहीं है”
भारतीय
रेल की विनोदप्रियता का आनंद लेते हुये हमने जाना कि हमें विनोदप्रिय बनाने में
भारतीय
व्यवस्था का सबसे बड़ा हाथ है
सवारी
गाड़ियों में सबसे ज़्यादा यात्राएं की हमने
पिता
के साथ जब भी गांव गये
कम
तनख्वाह के मारे पिता ने कभी एक्सप्रेस ट्रेन का विकल्प नहीं रखा
मऊ
और इंदारा जंक्शन जैसे स्टेशनों पर
सिर्फ
दो मिनट के घोषित पड़ाव के साथ देर तक रुकने वाली पैसेंजर ट्रेनें
हमारी
यात्रा का प्रमुख साधन थीं
पहले
इन ट्रेनों से कोफ्त होती थी और अब इनसे प्रेम हो गया है
तो
मैं इसे सिर्फ़ उम्र का बढ़ना और समझदारी का आना मानता हूं
जब
मैं समझ सकता हूं कि कौन सी चीज़ मेरे लिये है और कौन सी चीज़ मेरे कारण
अब
दूरंतो,
शताब्दियों और राजधानियों में किये गये सफर के बाद समझ चुका हूं
सवारी
गाड़ियाँ ही हमारी सगी गाड़ियाँ हैं
जो
रुकती हैं हर स्टेशन पर यह विश्वास दिलाती हुयी कि हमारी गति से भी चलती है कोई
गाड़ी
हमारी
ज़िन्दगी जैसी बेतरतीबी है इसके डिब्बों में
हमारे
घरों के फर्श जैसा अपनापन बिखरा है इसमें हर तरफ
पैसेंजर
ट्रेनों में दिखायी देते हैं वे चेहरे जो एक सहम का साया हर घड़ी ढोते हैं
अपने
हृदय के हर स्पंदन में
जो
हर किसी चढ़ने वाले को देखते हैं घबराहट के साथ
टिकट
खरीदने के बावजूद जिनके चेहरों पर एक अपराधबोध दिखायी देता है
वे
सिकुड़ कर बैठते हैं किसी कोने में
अगर
वे बीच में भी बैठे कहीं
तो
यूं सिकुड़ते हैं कि वह जगह भी कोना बन जाती है
से
हमेशा कोने में रहने की कोशिश करते हैं
वे
खुद को इस लोकतंत्र का हिस्सा मानने को लेकर संशय से घिरे हैं
जिस
दिन वे खुद को इस लोकतंत्र का हिस्सा मानने से इंकार कर देंगे
किसी
भी तरह की दुर्घटना की जि़म्मेदारी आपकी होगी
सिर्फ़
पैसेंजर ट्रेनों में ही जगह बची है ऐसे सामान रखने की
जिनमें
से जीने का जुनून बाहर आ रहा हो
दूध
के भारी बल्टे, सब्ज़ी की
बड़ी खांचियां
कपड़ों
की विशाल गठरियां
उम्मीद
के छोटे टोकरे
यहां
हम खुलकर बोल सकते हैं
हंस
सकते हैं और बीड़ी पीने में सिर्फ इतनी ही सावधानी रखनी है हमें
कि
दूर से आता कोई आरपीएफ का हवलदार पहले ही दिख जाये
हम
गीत चला सकते हैं कोई भोजपुरी अपने चाइनीज मोबाइल सेट में
आपको
कोई समस्या है हमारे आनंद लेने के तरीके से
तो
आप बस से जा सकते हैं बनारस से इलाहाबाद
इलाहाबाद
पैसेंजर ने आपको बुलाने के लिये कोई न्योता नहीं दिया
जो
पूरे सम्मान के साथ रुकती है सराय जगदीश हॉल्ट पर भी
वरना
आप को क्या पता कि हॉल्ट पर भी चढ़ने और उतरने वाले आदमी होते हैं
पूरी
दुनिया दिल्ली, बंबई, बनारस और
इलाहाबाद से ही ट्रेन नहीं पकड़ती
यदि
उपरोक्त पंक्तियों में आये हम, हमें या हमारे आदि से आपको कष्ट पहुंचा हो
रसभंग
हुआ हो, क्रोध आया
हो तो माफ़ करें
वो
पंक्तियां मैंने आपके लिये नहीं लिखीं
आप
जल्दी करें, मोबाइल मत
भूलियेगा
पर्स
चेक कर लें एक बार
अब
निकलिये
आपकी
राजधानी का वक्त हो रहा है !
***
संघर्ष की ऐसी की तैसी
जब
मैं खड़ा हूँ अकेलेपन के शिखर पर
नीचे
की भीड़ को लगातार घूरता
खोजता
उसमें कोई हमसोच
आप
लगातार कवितायेँ लिख रहे हैं
चाँद, बादल, नाव और फूल
बार-बार आपकी कविताओं में बेख़ौफ़ आ रहे हैं
मुझे
हड्डियों के भीतर तक डरा रहे हैं
मैं
जानता हूँ आपको बहुत सारी नियामतें मिली हैं जन्म से ही
कि
एक धातु विशेष के चम्मच की बात आपके ही सन्दर्भ में कही गयी है
फिर
भी उत्कृष्टता की आपकी भूख है जो आपके अनुसार
वह
दरअसल हर घंटे हर मिनट अपने महत्व को यत्र तत्र सर्वत्र देखने की प्यास है
सबसे
बड़ा नशा यही है ऐसा आपकी बातों से साफ़ ज़ाहिर है
जो
आपकी कविताएँ हैं
वही
आपकी बातें हैं और आप कविताओं में आजकल देने लगे हैं प्रश्नों के जवाब
बेतरतीबी
जो एक यातना है आधी दुनिया के लिए वह आपके लिए एक औज़ार है
फक्कड़पन
को दिखाने के लिए आपने दुनिया की परवाह न होने का बयान जिस मेज़ के सामने बैठ कर
दिया है
उसी
मेज़ की दराज़ में रखी हुई है आपकी बैंक की पासबुक और बीमे के कई काग़ज़
जिनसे
मुझे कोई मतलब नहीं है
जैसे
आपको कोई मतलब नहीं दशकों से अनशन पर बैठी सबसे आग भरी आँखों से
कि
नाक की नली से आहार ग्रहण करने जैसी बातों से बिगड़ता है आपकी कविता का सौन्दर्य
कि
अपनी जड़ों से बेदख़ल किये जा रहे लोगों की बात आप कभी और करेंगे किसी आलेख में
फिलहाल
चाँदी के पाल वाली नाव को आपने छोड़ दिया है रेशम से एहसासों की नदी में
कुछ
मखमली ख्वाब हैं कुछ फूलों से हलके बादल हैं और कुछ पुरानी यादें हैं जिन्हें आप
वैसे तो कभी याद नहीं करते
जिनमें
कुछ आपके धोखे हैं कुछ जान बूझकर भूले गए उधार
लेकिन
कविता में वह आपकी मदद करती हैं
जैसे
गाँव की यंत्रणादायक स्मृतियों से निकाल लाते हैं आप पड़ोसी के हल बैल
खेत
के ऊपर खिले इन्द्रधनुष
कविता
लिखना अब ज़रुरत नहीं मजबूरी है आपकी
जैसे
सरकारी नौकरी करना और बड़ी-बड़ी बातें करना
आप
लिखें जी भर के जैसे खाते हैं खीर भर पेट भोजन के बाद
बस
इतना सोच लें कि किसी दिन आपकी कविता से छीन लिए गए बादल, नाव, चाँद और नदी
तो
क्या होगा आपका
क्या
होगा आपकी कविता का
***
ऊब
भरे बेबस दिनों में
1-
राह
चलते किसी खाली डब्बे को
हम
पैरों मारते ले जाते थे उसके बैकुण्ठ तक
अकारण
निरुद्देश्य
हम
भी प्रकृति के किसी अनजान संचालक की सड़क पर पड़े खाली पिचके डिब्बे थे
हमारे
भीतर एक भी बूंद कोल्ड ड्रिंक नहीं बची थी
अपने
भीतर की शीतलता हमने खुद सोख ली थी सारी
कि
ज़माने में मर्द कहलाने के लिये क्रूर दिखना पहली शर्त थी
बड़ी
सफलता पाने की भी
२-
बड़़ी
सफलताओं के सपनों में हमने छोटी सफलताओं का अपमान किया
एक
छोटे से कमरे में हम एक ही तरह के कई अपराधी
काट
रहे थे अपनी सज़ा और बाहर पेशाब करने जाते हुये
एक
अपराधी किसी रूखी किताब से सिर उठा कर कहता था
“अबे ज़रा पंखा कम कर देना”
हमें
ज़्यादा हवा बर्दाश्त नहीं होती थी
चाहे
पंखे की हो या बाहर की
हम
अपने कमरों में नज़रबंद थे
जैसे
अपनी नज़रों में
३-
बाहर
से तुरंत पेशाब कर कोई नहीं लौटता था
हम
छत से आसपास की छतों का जायज़ा लेते हुये देखते थे काम पर जाते लोगों को
और
सोचते थे कि दुनिया में सबसे खुशनसीब होना है काम वाला होना
भीतर
आकर हम हर बार उसी बात को बदल-बदल कर कहते थे
उम्मीद
करते थे कि जिस दिन हमारे पास नौकरियां होंगीं
हम
ईश्वर जैसे विषय से नीचे बात ही नहीं करेंगे
पर
ऊब के उन लंबे दिनों में हमने जाना कि ईश्वर सिर्फ़ बात करने के लिये ही
सबसे
अच्छा विषय नहीं है
बल्कि
वह दुनिया का सबसे बड़ा पंचिंग बैग भी है
और
सबसे बड़ा वर्चुअल मलहम भी
४-
सबसे
खतरनाक होता है दिनों के बारे में जानने की ज़रूरत न महसूस करना
शनिवार
के दिन सुबह से ही यदि रविवार लगता तो इसका सिर्फ एक अर्थ था
हमारे
लिये रविवार कोई अतिरिक्त खुशी लेकर नहीं आता था
रविवार
की खुशी पाने के लिये छह दिनों की व्यस्तता ज़रूरी है
जितना
ज़रूरी है माता पिता का स्नेह पूरा महसूस करने के लिये
खुद
माता पिता बनना
५-
फिल्मों
के बारे में पढ़ते हुये हम सपने देखते थे बड़े-बड़े
राजनीति
की ख़बरों में हमने गालियों की ईजाद की थी
दुनिया
हमारी दोषी थी
हम
बेबसों के सरताज थे
एक
वक्त के बाद हमें खुद पर गुस्सा आता था
उस
वक्त के बीत जाने के बाद तरस
६-
निराशा
के बीज वक्तव्य में
यह
बात मुख्य थी कि कलियुग में हर इंसान नौकर पैदा होगा
नौकरी
पाना राष्ट्रीय चिंता होगी जिसमें गर्क हो जाएंगी बड़ी से बड़ी प्रतिभाएं
और
इसे ख़ुशी की बात की तरह माना जायेगा
जिसके
पास नौकरी नहीं होगी
उसके
पास खुशी, आज़ादी और नींद नहीं होगी
बल्कि
उसकी जेबों में आपको मिलेगी हताशा, अनिद्रा और
आत्महत्या करने के तरीके
फुरसत
और अवसाद पर्यायवाची शब्द हो जाएंगे
७-
जिन
दोस्तों की नौकरियां लगी होती थीं हाल फिलहाल ही
वे
कई चुटकुलों और अश्लील मज़ाकों के साथ आते थे
वे
अक्सर हंसते रहते थे
या
हमें हंसते दिखायी देते थे
पूरी
दुनिया में कहीं कोई प्रेम कहानी नहीं थी
कुछ
नीरस प्रेम कहानियों में नौकरी शामिल न होकर भी सबसे बड़ा खलनायक थी
किसी
दोस्त ने ‘ऑफिस’ शब्द पर ज़ोर देते हुये किसी ‘कलीग’ का भेजा एसएमएस सुनाया था
दुनिया
के सबसे खूबसूरत तीन शब्द ‘आई लव यू’ नहीं ‘सेलरी इज
क्रेडिटेड’ हैं
हमारे
पास न ऑफिस था न कलीग्स
हमें
सिर्फ एमटीएनएल के एसएमएस आते थे।
८-
अतीत
सबसे सुंदर और सुरक्षित खोह थी
कोई
न कोई अक्सर छलांग लगा कर चला जाता था पुराने दिनों में
वहां
से वापस आने को तैयार नहीं होता था
किहीं
रिज्यूमे डालने की बात को काट कर वह याद करता था ‘सबसे बड़ा
खिलाड़ी’ का एक गीत
और
कहता था ममता कुलकर्णी को कुछ और फिल्में करनी चाहिए थीं
इच्छाएं
पहले भी अतृप्त रही थीं
उन्हें
अब भी पूरा नहीं होना था
भीतर
से लगता था जैसे हमें कभी नौकरी नहीं मिल सकती
इन्हीं
दृश्यों के बीच किसी एक ने कामना की दो साल बाद रिटायर हो रहे पिता की मृत्यु की
और
रात भर रोता रहा
९-
हमारे
सस्ते मोबाइल फोनों पर किसी अंजान नंबर से फोन आना बड़ी घटना थी
हम
हर नंबर पर नौकरी की आस लगा बैठते थे
कंपनियों
की कॉलें अक्सर तोड़ती थीं हमारा स्वप्न
कुछ
कंपनियां हमें लोन देने की बात करती थीं तो कुछ क्रेडिट कार्ड
हमने
कई बार कॉल कर रहे कस्टमर केयर वाले से भी नौकरी मांगी
उसकी
कंपनी में आवेदन करने की प्रक्रिया जानने के बाद
हम
उस बात को हंसी में उड़ाने का नाटक करते थे
और
देर तक उसका मज़ाक उडा कर हंसते थे।
१०-
हमारी
नौकरियां लगने के कई सालों तक हमें उन दिनों की याद नहीं आयी
हमने
उनके बारे में लम्बे समय तक नहीं सोचा न ही बातें कीं
नौकरियों
की थकी शामों में ऑफिस से बाहर निकलना एक आदि अंत से परे की घटना थी
आकाश
वैसा ही मनहूस लगता था सालों से
धरती
वैसी ही गरम
रविवार
हमारी सबसे बड़ी सम्पत्ति थे
हम
दोस्तों से फोन पर मिलते थे या ख़यालों में
सात-आठ
साल की नौकरियों में हमें महसूस होता था कि हम नौकरियां कर रहे हैं पिछले कई
जन्मों से
तीस
के बाद हम अचानक चालीस के हुये थे
उस
चालीस में हमें एक साथ बैठे हुये अचानक उन दिनों की याद आयी
हमने
पाया कि हमारे पास जो सबसे कीमती चीज जब-जब रही
हम
तब-तब उसे सही समय पर पहचान नहीं पाये
हमने
खुद को धिक्कारा कि उस वक्त हमारे पास कुछ न हो समय कितना था
इसके
बाद हमने अपने परिवारों को कोसा थोड़ी देर
और
अपने घरों की ओर चल पड़े
बहुत सुन्दर कवितायें हैं, ख़ास कर पहली दूसरी और चौथी.
साझा करने के लिए धन्यवाद.
बहुत बढ़िया कविताएँ हैं।
जितनी बातें हिदायत के रूप में कही गयी थीं / कवियों ने शब्दों को जंगल बताया था / संघर्ष की ऐसी की तैसी / इन कविताओं में वो ईमानदार तडप हैं जो आम आदमी के दुख-दर्द और उनके संघ्रर्षो से जुडकर मन को कचोटती है। मेंरी सोन पारी सुन्दर कविता है।
ऊब भरे बेबस दिनों में। आम आदमी की यातनाओं की कविता को धारदार है। यहाँ भाषा की सृजनात्मकता और काव्यत्व भरपूर है।
हर कविता पढ़ते हुए आँखें हँसने लगी तो कभी गीली हुई, मन बेचैन हुआ ,और तकलीफ इतनी कि उसका दर्द शायद शब्द संभाल नहीं पाएँ। जिन्दगी की बेतरतीबी को इतने सहज शब्दों में पिरोया जा सकता है क्या इन्हें पढ़ने से पहले तो मैं यही सोच सकती थी ,पर अब नहीं !!बहुत जीवंत कवितायेँ हैं। बहुत -बहुत बधाई !!इतनी अच्छी कवितायेँ पढ़ने के बाद आज कुछ और नहीं पढ़ा जाएगा!!
कवितायें अपने ही बीच से उभरी हुई लगती है, यथार्थ पर बात करती हैं ..कवि साहसी है उत्सर्जन की नैसर्गिक प्रक्रिया को भी बखूबी ला कर कविता में अपनी बात रखने का दम रखता है| इन कविताओं में बहुत तड़प है .. आम जीवन का रेखाचित्र और भिन्नताएं सवारी रेलगाड़ी में रखता है तो वही उपयोग में विडम्बना बताता है कि तमाम हिदायतों को अमल करते अनहोनी होती हैं… मेरी सोनपरी, बेरोजगारी का दुःख और मनोविज्ञान, संघर्ष की ऐसी तैसी बहुत सरल तरीके से बहुत गूड़ मनोभावों को बयान करती है … इन कविताओं को हम तक पहुचने के लिए धन्यवाद अनुनाद पत्रिका को
बहुत सुन्दर..बिलकुल आह्लादित करती कवितायें … जैसे बिना किसी उम्मीद के अनमोल तोहफा मिल गया हो…परत दर परत कवितायें ऐसे खुलती हैं जैसे हमसे ही कोई हमारी स्मृति का खजाना साझा कर रहा ..विमलचंद्र पाण्डेय दिल से शुक्रिया अपनी कविताओं से हमें झनझना देने के लिए