मुझे नहीं पता शाहनाज़ जी कब से कविताएं लिख रही हैं पर अब वे हिंदी की सुपरिचित कवि हैं। अपनी पढ़त के हिसाब से कहूंगा कि उनकी कविताओं ने पिछले दो बरस में बहुत तेज़ी लेकिन सादगी के साथ अपनी पहचान बनाई है। इसी अवधि में नेट पर उनकी कविताओं की उपस्थिति रेखांकित की गई है और शाहनाज़ जी के लेखन से मेरा परिचय ब्लॉगपत्रिकाओं के ज़रिये ही हुआ है। शाहनाज़ जी के पास एक समृद्ध अनुभव संसार और वैचारिकी है – यही वजह है कि उनकी कविताएं पाठकों के बीच गहरी उम्मीद की तरह उपस्थित होती हैं। सहज ही देखा जा सकता है कि यह कविता का आलोचकों से नहीं, पाठकों से मुख़ातिब होने का दृश्य है – अनुनाद पर इस सुखद दृश्य और उसे सम्भव करने वाली कवि शाहनाज़ इमरानी का स्वागत है।
***
आजकल
किनारे पर
जब आँसू
सूख जाते है
ज़रूरी कोई बात कहने की
आख़री कोशिश में
मैं ख़ुद को ग़लत वक़्त पर
ग़लत जगह
लगातार हारती जा रही हूँ
जैसे उम्मीद अब हँसती नहीं
पकड़ने के लिए जब गर्दन ग़ायब हो
ख़ौफ़ साथ चलता है और
चीख़ बर्फ़ के तरह जम जाती है
आवाज़ें मरती जाती
थकन रग-राग में दर्द के साथ बहती
और रास्ते अपना होना निरस्त कर देते हैं
अँधेरे में अटकल से चलने का समय
अँधेरे से आती लाल रौशनी
एक अफ़वाह सी फ़ैल जाती है मुझमें
सुबह सरगोशी में भी कुछ नहीं कहती
और रात तक लफ्ज़ बूँदों की तरह
कागज़ पर मेरे सामने गिरते रहते है
देर तक गिरते रहते है।
सूख जाते है
ज़रूरी कोई बात कहने की
आख़री कोशिश में
मैं ख़ुद को ग़लत वक़्त पर
ग़लत जगह
लगातार हारती जा रही हूँ
जैसे उम्मीद अब हँसती नहीं
पकड़ने के लिए जब गर्दन ग़ायब हो
ख़ौफ़ साथ चलता है और
चीख़ बर्फ़ के तरह जम जाती है
आवाज़ें मरती जाती
थकन रग-राग में दर्द के साथ बहती
और रास्ते अपना होना निरस्त कर देते हैं
अँधेरे में अटकल से चलने का समय
अँधेरे से आती लाल रौशनी
एक अफ़वाह सी फ़ैल जाती है मुझमें
सुबह सरगोशी में भी कुछ नहीं कहती
और रात तक लफ्ज़ बूँदों की तरह
कागज़ पर मेरे सामने गिरते रहते है
देर तक गिरते रहते है।
***
आदमी ज़िंदा
है
बदल गया है सच
परिस्थतियों
के साथ
सब अनसुना
हो गया है
दिन मांगते
हैं न्याय
इंसान में
इंसान होने की
गुंजाइश कम
अटकलों,
संदेहों,
और
अंदेशों पर
लटका समय
और खोखले वादे
देखने का
नज़रिया कैसे
बदले
नेता माँ
बाप नहीं
जनता के
नौकर हैं
जनता हाथ
जोड़े खड़ी रहती है
लाठी किसी
के भी हुकम से चले
सहना जनता
को पड़ता है
योजनाये
बहुत हैं,
करोड़ों
का बजट है
पर सरकार
खुशहाली का निवाला
कुबेरों को
खिलाती है
बेशर्मी की चर्बी
बढ़ती जाती है
बढ़ती जाती
स्लम बस्तियाँ
धर्म एक
हथियार बना है
उन्माद से
भरे हैं लोग
रोज़ नई
घटती घटनाओं के साथ
घटना का
ताक़तवार गवहा
होंट सी कर
घर से बाहर निकलता
है।
***
सफ़र में
शहर की
मसरूफ़ शाम
बहुत सी
चीज़ों को
पीछे छोड़ते हुए
भागती
कारें,
बाईक्स,
बसें
पीछे छूटती
जाती हैं साईकलें
और पैदल
चलते लोग
अनगिनत
होर्न की आवाज़ें
सभी की आगे
जाने की कोशिशें
कुछ देर
बारिश
और फिर वही
स्टेशन
खिच-खिच
करता शोर
सफर में
मिले बातें यूँ की
जैसे
पुरानी पहचान हो
पते लिये
और अदले-बदले
मोबाइल
नंबर
टिक-टिक
करती
रात भी
गुज़र गयी
रात
खुराफातों की कहानियों में बीती
दिन के साथ
अंगडाई लेकर उठे
बचपन रंग,
रूप,
नाम
कॉफी की
खुश्बू में घुल गये
सभी क़िस्से
और यादें
सुबह फिर
वही ग़म-ऐ-रोज़गार
मुक़ाम पर
पहुँचे तो सभी को
जल्दी थी
अपना-अपना
सामान उठाया
सलाम हुआ न
हाथ मिलाया
सर्दी की
आखरी सासें
घना कोहरा
और ज़ंग लगा सूरज
मेरी
बेतुकी कविताओं की तरह
घर तक मेरे
साथ आया।
***
दरवाज़े
कभी अंदर
और कभी
बहार खुलते
है दरवाज़े
बंद
दरवाज़ों से आती हैं आवाज़े
अभी
खुलेंगे दरवाज़े
बंद
दरवाज़ों की ख़मोशी
बहुत डरती
है।
***
वक़्त के
साथ
मौसम सूरज
लिए घूमता है
ज़मीन सुलग
रही है
उसके
खुरदुरे हाथ
सुबह से
शाम तक
बर्तन
माँजते
पोंचा
लगाते
कपड़े धोते
हैं
गलियों के
वासी
कमज़ोर
बच्चे
छोटे तंग घर में
रोज़ ठिगने
और
कमज़ोर होते
जाते
गर्म हवा
की किरचें चुभती
आसमान एक
बन्द होती छतरी
पति कर्ज़
चुकाते मर गया
उधार के रूपयों
का मूलधन बना रहा
ब्याज बढ़ता
गया
गति और
इंसानियत का
कोई रिश्ता
नहीं रहा
ज़मीन
हाँफती पूरा
एक चक्कर काटने में
तापमान कुछ
और बड़ गया
वक़्त के
साथ बदल रही औरत
वक़्त के
साथ गल रही औरत।
***
ख़ुदा बेख़बर
है
शायद सब
ऐसे ही होते हैं
जटिल असहज
अस्पष्ट
अकेले उन
स्थितियों से लड़ रहे होते हैं
जीतने के
लिए नहीं,
लड़ने
के लिए
ज़िन्दगी भर मन और
आत्मा के
होने का
सबूत
लिए कागज़
काले करते हैं
पैदाईश के
लम्हें में पहली बार
रोने की
आवाज़ से गुज़रते
गिरने और
उठने के बीच
इस छोटे से अंतराल
में
पुकारा जा
रहा है ख़ुदा को
ख़ुदा की
हुकूमत सारी कायनात पर
पर ख़ुदा
बेख़बर है।
***
शून्यता
अँधेरा और
बेहिसाब लोग
उस जिस्म
को मिट्टी बनने के लिए
छोड़ आये
हैं क़ब्र में
उन
कहानियों की तरह
जो
राजकुमारी को जंगल में
अकेला छोड़
आती थी
वो सब तो
झूठी कहानियां थीं
सच क्या था
?
वो तो
तुम्हारे साथ दफ़्न हो गया
समझ में न
अाने वाली इस दुनियां में
ज़िन्दगी से
क्या चाहिए
क्या
तुम्हे मालूम था ?
त्याग,
बलिदान
और दुखों की लम्बी फेहरिस्त
जिसे तुमने
घूँट-घूँट उतारा
खोदी जा
रही हैं क़ब्रें और बन रहा
लुप्त हुई
किसी पशु जाति सा तुम्हारा भी जीवाश्म
घर,बाहर,
मुर्दाघरों
में हर जगह हैं लाशें
चूड़ियों का
बोझ ज़यादा और कलाईयाँ पतली
नफरतों को
चुम्बनों में ढाला गया मगर
बद रंग से
नीले दाग़ उभर आये हैं जिस्म पर
सफ़ेद चादर
में सुर्ख़ ख़ून के धब्बे गवाह हैं
तुम ने
ज़िन्दगी की जंग आसानी से नहीं हारी थी
मेंरी
उँगलियाँ तुम्हारे जख्मों की याद दिला रही है
आंसुओं से
भीगी ताज़ा लहू में डूबी पांडुलिपि
लिखो काट
दो फिर लिखो
उनकी नफ़रत मौत
के क़रीब आती जा रही है
मौत देख
रही है गर्दने कितने
कोण पर झुकी हुई है
मौत जो
ज़िन्दगी में कभी भी आ जाती है
कोई
रिहर्सल न कोई रिटेक
नाटक ख़त्म
और उसके बाद शून्यता।
****
इस समय का
सच
बी.पी.ओ.
का कॉल सेन्टर
कम उम्र में बड़ी आमदनी
सब कुछ घूमता है सेंसेक्स,सेक्स
और मल्टीपलेक्स के आस-पास
इस समय का सच
बाज़ार और विज्ञापन तय करते है
मोबाईल पर सॉफ्ट टच
चौकन्ना रहते है रूपये की लूट में
लेन-देन आमद-रफ़्त का तालमैल
वातानुकूलित व्यापार
बाज़ार कपड़े, खाने तक मेहदूद नहीं
पूँजीवाद को बढ़ाता बाज़ार
सिमटी सकुड़ी बन्धुता
सारे सरोकारों दरकिनार
मशीने इंसान की जगह ले रही
प्रतिस्पर्धा हर जगह मौजूद है
चहरे चाहे जितने बदल गए हों।
कम उम्र में बड़ी आमदनी
सब कुछ घूमता है सेंसेक्स,सेक्स
और मल्टीपलेक्स के आस-पास
इस समय का सच
बाज़ार और विज्ञापन तय करते है
मोबाईल पर सॉफ्ट टच
चौकन्ना रहते है रूपये की लूट में
लेन-देन आमद-रफ़्त का तालमैल
वातानुकूलित व्यापार
बाज़ार कपड़े, खाने तक मेहदूद नहीं
पूँजीवाद को बढ़ाता बाज़ार
सिमटी सकुड़ी बन्धुता
सारे सरोकारों दरकिनार
मशीने इंसान की जगह ले रही
प्रतिस्पर्धा हर जगह मौजूद है
चहरे चाहे जितने बदल गए हों।
***
परिचय
जन्म भोपाल में। पुरातत्व विज्ञान (अर्कोलॉजी ) में स्नातकोत्तर। पहली बार कविताएं कृति ओर के जनवरी अंक में छपी हैं।
संग्रह –
कच्चे रास्तों से (अप्रकाशित)
संप्रति –
भोपाल में अध्यापिका
संपर्क – shahnaz.imrani@gmail.com
शहनाज की कविताये कुछ पढी हुई हैं ,कुछ यहाँ देखने को मिली। शहनाज़ के पास जीवन के विवेचन की सूक्ष्म और सतर्क दृष्टि है। आशा है उनसे और भी सुन्दर कवितायेँ पढ़ने को मिलेंगी।
Shukriya
शहनाज इमरानी के इंतकाल की दुखद खबर की पोस्ट आती गईं, उन्हीं से इस पेज पर आकर उनकी कविताएं पढ़ने की इच्छा हुई, आम आदमी की शहरी भागदौड़ की जिंदगी के बीच उसकी भावनाओं का चित्रण और भौतिकता की व्यर्थता की झलक
प्रथमेशसविता