समकालीन अच्छे दिनों की निरर्थकता
के बरअक्स नए दिनों की स्थापना देते ये कवि साथी अरुण देव हैं। उनकी कविताएं बताती
हैं कि अपने नज़दीक को ठीक से न देख पाने वाली दूरदृष्टि में भी दोष होता है। कविता-दर-कविता, हर कविता में आपको एक थॉट प्रोसेस मिलेगी, जिसका आज की हड़बड़ी में सिरे से अभाव है – कुछ ही कवि हैं, जो चमकदार शिल्प अथवा चमम्कृत कर सकने वाली सूक्ति के लोभ से उदासीन रहकर
एक समूची विचार-प्रक्रिया का निबाह अपनी कविताओं में करते हैं, अरुण उन प्रिय कवियों में एक हैं। मैं प्रस्तुति-टिप्पणी के नाम पर यहां
इन पांच कविताओं की व्याख्या कर देने का गुनाह नहीं करूंगा, ख़ुद मेरा यक़ीन है कि कविताएं व्याख्या नहीं मांगतीं – व्याख्याओं से
संसार के महानतम काव्य को बरबाद करने देने के उदाहरण हमारे सामने हैं। कविताएं साथ
मांगती हैं – संवाद मांगती है, और यही वे पाठकों को देती भी हैं।
अरुण देव ने अपनी ऐसी ही आत्मीय कविताएं अनुनाद को उपलब्ध कराईं, इसके लिए मैं उन्हें शुक्रिया कहता हूं।
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१. घड़ी के हाथ पर समय का भार है
घड़ी के हाथ पर समय का भार है
कभी कभी इतना भारी हो जाता है समय
कि घड़ी सुस्त चलना चाहती है
चाहती तो है दुर्दिन में तेज़ चलकर उस पार निकल जाए
जहाँ बेहतर दिन न सही
जहाँ बेहतर दिन न सही
कम से कम काट लेने लायक रातें तो हों
अच्छे दिन किसे कहते हैं और बुरे में कितना बुरा है
घड़ी सोचती तो है
हर सुबह वह उठाती है कि यह लो नया दिन
और
घड़ी सोचती तो है
हर सुबह वह उठाती है कि यह लो नया दिन
और
अब हुई रात
समय में जैसे ठहरा हुआ एक दूसरा ही समय
समय में जैसे ठहरा हुआ एक दूसरा ही समय
घड़ी साज़ की आँखों में इतिहास पढना चाहिए
तटस्थ
तटस्थ
उसकी आँख में दबे
लेंस से कुछ भी नही बचा रहता
घड़ी को समय के साथ रखता है
कि बताता हुआ काली रात के बाद भी एक सुबह होती है
घड़ी को समय के साथ रखता है
कि बताता हुआ काली रात के बाद भी एक सुबह होती है
घड़ी के डायल पर समय का पानी
और समय का ही अपना रेत बनाते हैं एक अनवरत नदी
समय की नदी में
बहुत कुछ बह जाता है
रेत की तरह उसके किनारे पर समय के कण बिखरे रहते हैं
घड़ी समय को बदलती तो नही
पर समय के हिसाब चलती भी नहीं
और यह
और समय का ही अपना रेत बनाते हैं एक अनवरत नदी
समय की नदी में
बहुत कुछ बह जाता है
रेत की तरह उसके किनारे पर समय के कण बिखरे रहते हैं
घड़ी समय को बदलती तो नही
पर समय के हिसाब चलती भी नहीं
और यह
ऐसे समय में
और यह ऐसे
वैसे समयों में
कितनी राहत की बात है.
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२.दृष्टि दोष
मेरी आँखों का लेंस धुधंला पड़ गया है
उस पर एक ही चीज
बार बार देखने की ऊब है.
उस पर जब गिरती है
झूठ के चमकीले पैरहन में लिपटी हुई तेज़ रौशनी
वह कहना चाहती है प्लीज
मुझे माफ करे
अश्लीलता और कृतघ्नता के मटमैले प्रकाश में
वह अपने को झुका लेती है
चीखों को सुन उसका फैलना
दरअसल उसे ठीक से समझ लेने की ही उसकी एक कोशिश है
जब सूखने लगती है
आंसुओं से भर लेती है
जब सूखने लगती है
आंसुओं से भर लेती है
सूखे तालाब में छटपटाती मछली
को जैसे मिल जाए जल
को जैसे मिल जाए जल
उसे देखना था हरी घास, चिड़िया, बच्चे और ढेर सारी खुदमुख्तार औरतें
पर जले हुए जंगल
पक्षियों के नुचे हुए पंख
कुपोषण के शिकार बिलबिलाते बच्चे
और पेड़ों से लटकी औरतों की लाशें दिखती हैं
पक्षियों के नुचे हुए पंख
कुपोषण के शिकार बिलबिलाते बच्चे
और पेड़ों से लटकी औरतों की लाशें दिखती हैं
तब उसकी आँखों का बचा हुआ प्रकाश भी कालिमा में बदल जाता है
क्या देखे
और यही सब कितनी बार देखे
और कब तक देखे
और यह देखते रहना भी
तो तोड़ता है अंदर से
तभी तो लेंस में समय का कचरा इकठ्ठा होता जाता है
क्या देखे
और यही सब कितनी बार देखे
और कब तक देखे
और यह देखते रहना भी
तो तोड़ता है अंदर से
तभी तो लेंस में समय का कचरा इकठ्ठा होता जाता है
नजदीक को ठीक से अब तक न देख पाने की विवशता में
धीरे–धीरे क्षीण पड़ने लगती है उसकी दूर देखने की दृष्टि.
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धीरे–धीरे क्षीण पड़ने लगती है उसकी दूर देखने की दृष्टि.
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३.कामनाएं
सुबह ने सूरज से माँगा है आज का दिन
तुम्हारे लिए
आज की रात नही होगी
तुम्हारी भौहों पर घनी धूप है
तुम्हारे सीने पर आ बैठी हैं कुछ रंग- बिरंगी तितलियां
तुम्हारे होठों से
हंसी की धार बहती रहे अनवरत
मुस्कान का लाल रंग न कुम्भलाए कभी
नहाते वक्त भी न टूट कर गिरे तुम्हारे बाल
रेंगनी पर सूखते तुम्हारे शर्ट की जेब में
सूरज ने रख दिया है सुखों का पर्स
लहलहाते गेहूं से भरे खेतों के अनाज की ताकत
तुम्हारी धमनियों में अंकुरित होती रहे
तुम्हारे घर के सहन में हंसी के फूल खिले हैं
अपनी हंसी का जल इसमें डाल देना
घर
तुम्हारे साथ ही तो घर है
जिसमें कोई रोज़ शाम तुम्हारे लौटने का इंतजार करता है.
(श्री मनोज भटनागर
के लिए)
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४.हमारे बीच
ओ ! समय
हम दोनों के होठों के बीच समय की एक महीन पपड़ी है
जब उघड़ती है खून छलक जाता है
होठों ने लिखें हैं अनगिन प्रेम –पत्र तुम्हारी पीठ पर
मैंने किसी पेड़ की छाल पर कभी नहीं लिखा तुम्हारा नाम
उसकी त्वचा होगी लहूलुहान
मैं इंतजार करूंगा अपनी ज़बान के असर का कि
खुद टहनी का हरा पत्ता बन जाओ तुम
और फिर उसमें खिलने का इंतजार करूँ मैं
तुम्हारे बीच से, तुमसे ही,
तुम्हारा
जब उठता हूँ अपनी जड़ों पर तुम्हारे हंसी के बिखरे फूलों को
पाता हूँ
लम्बे सफर से लौट कर आयी हो
आओ सवार दूँ तुम्हारे केश
दबा दूँ तुम्हारे पाँव
तुम्हारे होठों को अपने होठों से छू लूँ
कही छलक न जाए खून
इस पर थोड़ी वैसलीन लगा लो
और गुनगुने पानी में रख लो अपने पैर
उतर जाएगी थकान
तब तक तुम्हारे लिए मोबाईल पर लगाता हूँ आबिदा का कोई गाना
इस तरह समय को थोड़ा खुरच देंगे हम
थोड़ा मुलायम
कि दो होंट आपस में बातें कर सकें.
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५.अप्प दीपो भव
यह प्रकाश
तुम्हें बचाए रखेगा
अँधेरे से .
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पता : 5, हिमालयन
कालोनी (नहर कालोनी)
नजीबाबाद,
बिजनौर (उ.प्र), 246763
मोब.- 09412656938 / ई.पता–
devarun72@gmail.com
अरुण जी की कविताएँ हमारी कठोर सतह को खुरच कर कब हृदयंगम हो जाती हैं पता नहीं चलता. इनमें पेड़ के लहुलुहान होने की फ़िक्र है…इनमें सामीप्य इतना निकट है की दृष्टी धुंधला जाती है ..ईंट पत्थरों को घर बनाने वाली कामनाओं का वास है और कितने भी निष्ठुर समय में घड़ी को कोसने के बजाय उसे समझने का प्रयास है. इन सार्थक कविताओं के लिए कवी को बधाई और शिरीष जी का शुक्रिया अनुनाद ई-पत्रिका के माध्यम से इन तक पहुँचाने के लिए.
बहुत प्यारी है ये कवितायें कही दुवाएं हैं इबादत है तो कही प्रेम …दृष्टी दोष आज की विडम्बना ..और घड़ी के हाथ पर समय का भार है.. समय का विश्लेषण करती हुई … और सबसे ख़ुशी की बात मेरे लिए यह कि अरुण देव जी को सुना है इन कविताओं में कविता वाचन में, उनकी आवाज में .. शुक्रिया अनुनाद, पत्रिका में इन्हें साझा करने के लिए
सभी कवितायें अच्छी है पहली कविता बहुत उम्दा है ।
अरुण जी की कविताएँ पढ़वाने के लिए शुक्रिया।
अच्छे दिनों की निरर्थकता के बरक्स नए दिनों की स्थापना के लिए कवि के पास जो स्पेस बचती है,वहीँ कहीं पाठक सघन अनुभूतियों से अपना सबंध जोड़ बैठता है। अच्छे दिनों की शुभकामनाओं के साथ -कवि को बधाई।