केशव तिवारी आज के महत्वपूर्ण कवियों में हैं। अनुनाद पर ही प्रकाशन तिथि के क्रमानुसार शिरीष कुमार मौर्य, सुबोध शुक्ल तथा महेश पुनेठा के लेख आप इन तीनों के नाम पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं। सुबोध शुक्ल ने अत्यन्त विस्तार से उन पर लिखा है, मैंने उनके संग्रह ‘आसान नहीं विदा कहना’ पर लिखा है और जिस संग्रह पर आशीष मिश्र की यह समीक्षा है, उसी पर महेश पुनेठा ने भी लिखा है।
आशीष
मिश्र इधर की हिंदी समीक्षा में रेखांकित किए जाने वाले नौउम्र
प्रतिभावान समीक्षक हैं। हिंदी कविता को नए सिरे और अपनी तरह से आंकने के
उनके प्रयास अब हमारे सामने हैं। उनके निष्कर्ष वैचारिक हलचल से भरे हैं
और संवाद की भरपूर इच्छा/अपेक्षा रखते हैं। आशीष कविता के अलावा जनपक्षीय
चित्रकला पर भी लिख रहे हैं।
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ऊपर से विरोधाभासी लगता हमारा
समय गहराई में इसका ठीक उल्टा , बहुत ऐकिक है । इस संरचना को थामे रखने का काम सिर्फ़
सत्ता द्वारा फैलाए जा रहे विचार ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि प्रतिरोध
भी उसी से समंजित होता दिखाई दे रहा है । हर प्रतिरोध प्रच्छन्न रूप से हमारा ही गतिरोध
बन रहा है । ऐसे मायाजाल में फँसा महसूस कर रहे हैं, जहाँ हम
अपने ही सहचर को पीट रहे हैं या फ़िर दूसरे की छाया को । दोनों से ही मौजूदा संरचना
को कोई फर्क नहीं पड़ता । हमारे समय में थोड़ा रंग–रोगन लगा कर
कई शताब्दियाँ अपनी अशुभ छाया के साथ सक्रिय हैं । आज़ मूलतः सामंतवाद , उपनिवेशवाद और नवसाम्राज्यवाद तीन तरह के भाव–विचार एक
संबद्धता में पूरी ‘व्यवस्था’ को चालित
रखते हैं । इनका अलगाव छायाभास है। नवसाम्राज्यवाद इनको अपने साथ लेकर और अपने हित
में अनुकूलित करते आगे बढ़ रहा है । हम किसी एक का प्रतिरोध करते हुए दूसरी सत्ता को
मज़बूत कर रहे होते हैं । हम उपनिवेशवाद का विरोध कारते हुए सामंतवाद को पुष्ट कर रहे
होते हैं । सामंतवाद का विरोध करते हुए उपनिवेशवादी और नवसाम्राज्यवादी तर्कों को अपना
लेते हैं । वैश्वीकरण की मुखालफत के नाम पर ‘एथनिक लोकेल’
को स्थापित करते हैं । इस तरह सब कुछ का संतुलन बना रहता है और व्यवस्था
ढचर–पचर चलती रहती है ।
90 के बाद की कविता अपने इसी
समय से टकरा रही है । इसकी पीठ पर अपने समय की माटी भी दिखती है। वह पहले की अपेक्षा
ज़्यादा सजग हुई है लेकिन इसके सामने संकट भी बड़े हैं । कविता समय की ‘विचारधारा’ और सौंदर्यबोध का पोल खोलती है । समझना यह
है, कि क्या कविता इसे विचारधारा और सौंदर्यबोध के स्तर
पर पार कर पाने में सक्षम हो पा रही हैं या नदी में एक नाव पर बैठ कर दूसरी को ढकेल
रही है । और प्रकारान्तर से हमारा सब किया–धरा व्यवस्था के पक्ष
में एक संतुलन का हिस्सा बन जा रहा है । कविता पर गोल–मोल बातें
करने के बजाय , आज़ कविता उस भाषा को कहना चाहिए जो इस प्रपंच
को भेद सके । कविता अलंकार , बिंब , प्रतीक
रचने वाली कोई विधा नहीं ; वह एक भाषा है जिसमें इस प्रपंच को
भेद पाने की क्षमता सबसे ज़्यादा है । सारी कलात्मकता इसी प्रक्रिया में एक अनिवार्यता
के रूप में विकसित होनी चाहिए ।
90 के बाद की कविताओं के सन्दर्भ में
लोक–संस्कृति पर ज़ोर दिया जा रहा है । हिन्दी आलोचना में लोक
‘तुलसीदल’ हो चुका है– पवित्र
और स्वप्रमाणित । इसे वैश्वीकरण के खिलाफ़ एक मूल्य और नागर कविता का विकल्प कहा जा
रहा है । मैं सोचता हूँ, कि यहाँ रुक कर सन्देह करना चाहिए ।
क्या ‘ग्लोबल’ का ‘लोकल’ से सच में इस तरह का विरोध है ? क्या आज़ की कविता नागर कविता का विकल्प बन पा रही है ? मुझे ऐसा नहीं लगता । यह एक सुविधाजनक प्रतिक्रियाभास है । भयानक पूंजी–प्रपंच जैसे अध्यात्म और धर्म को ग्लोरीफ़ाई करता है उसी तरह ‘लोक’ को भी । विश्व बाजार अपना छायाभासी विरोध भी रचता
है, जो सार रूप में वह उसी का हिस्सा होता है । वह अपने सांस्कृतिक
उत्पादों में ‘लोक’ को जगह दे रहा है पर
लोक के प्रतिरोधी चरित्र को नहीं ; उसकी कोमलता और मासूमियत को
, वह जो उसके अनुकूल है । इससे वह अपने अवसाद को भरने व अपने को प्रामाणिक
बनाने का काम करता है । अतः हमें इसे विच्छेदित करना होगा । टेक्स्ट के भीतर इसके प्रकृति की पहचान करनी होगी । इस
प्रक्रिया में पता चलेगा, कि बहुत बड़ा हिस्सा सामंती लय में
‘समाज–मंगल’ की प्राण–प्रतिष्ठा से आगे नहीं बढ़ पा रहा है ! यह ऐसा गोल चक्कर
है जो कहीं नहीं जाता ,चलने का भ्रम ज़रूर पैदा करता है । नाव
घाट से बँधी हो और पूरी रात चप्पू चलाते रहिए, क्या फर्क पड़ेगा
?
अधिकतर कविताओं से पता ही
नहीं चलता, कि पिछले बीस–पाचीस सालों में
उदारीकरण एवं बाज़ारीकरण का लोक और गाँवों पर क्या प्रभाव पड़ा । अभी भी लोग गाँव और
शहर को दो समानान्तर स्थितियों की तरह ही ट्रीट कर रहे हैं । लोक और शहर दोनों ही एक
टाइप की तरह रचे जा रहे हैं । लोक और शहर दोनों के बहु–स्तरी
स्वरूप को अनदेखा कर दिया जाता है । जबकि याथार्थ इससे अलग है । बाजार ने गाँवों में
लोगों की महत्त्वाकांक्षाओं , सम्बन्धों के स्वरूप और पूरी जीवन–दृष्टि को बदल कर रख दिया है । दूसरी तरफ़ शहरों में लोग मिट्टी के दिये
, बैल गाड़ियों के प्रतिरूप , कुदाल और ढ़ेकुल से
अपना ड्राइंग रूम सजा रहे हैं; जो कि अब बहुत कुछ गाँवों में
ही नहीं बचा । इन चीज़ों को (जो बीत चुके हैं) मध्यवर्गीय व्यक्ति अपने सुचिक्कण बोध के दायरे में ग्लोरीफ़ाई कर रहा है ।
यदि आज अवधी कविता का अध्ययन करें तो मिलेगा कि वहाँ गाँवों के चित्र बहुत विडंबनात्मक
हैं , शायद अन्य बोलियों में भी ऐसा ही हो । हम हिन्दी में रचे
जा रहे गाँव को अवधी के गाँव से कैसे जोड़ें । हिन्दी में ही हम केशव तिवारी और एकांत
श्रीवास्तव के गाँव का अष्टभुजा शुक्ल के गाँव से क्या संबंध बनाएँ ! कौन सा बोध ज़्यादा वस्तुगत है, पता लगाना होगा । केशव
तिवारी की कविताओं पर बात करते, ज़्यादा विस्तार से बचते हुए,
इन्हें समझने का प्रयास करेंगे ।
केशव तिवारी की कविताएँ अपनी
‘विशिष्ट छविमयता’ के कारण आकर्षित करती हैं ।
यही चीज उनकी कविता को अलग आस्वाद और रचनाकार व्यक्तित्व को अलग पहचान देती है । इनकी
कविता की गमक दूर से ‘मुग्ध’ करती है ।
और एक बार गहराई में उतरने के बाद देर तक यह चेतन–अवचेतन के विविध
स्तरों पर बनी रहती है । यह गमक लोक की है ; मूलतः अवधी लोक की
। मैं केशव तिवारी को प्रेम, प्रकृति और लोक का कवि कहूँगा ।
इसी बात को थोड़ा सुधार दूँ तो कहूँगा , कि वे लोक में भीगे प्रेम
और प्रकृति के कवि हैं । सिर्फ़ यही होता तो कोई ख़ास बात न होती । कारण कि कविता में
लोक और स्थानीयता को अपने–आपमे कोई मूल्य नहीं कहा जा सकता ।
यह दृष्टि और बृहत्तर दुनिया से जुड़ कर ही महत्तर सांस्कृतिक भूमिका में उतरती है ।
केशव तिवारी के यहाँ लोक और दृष्टि का यह संबंध
परिवर्तनशील रहा है । शुरुआत में लोक के प्रति एक मोह जैसा दिखता है । पहले संग्रह
में इसी कारण बिम्बों के प्रति गैर–ज़रूरी आग्रह है । यहाँ वे
लोक–बिंबों की तह जमा कर भाषा में सलवटें डालते हैं । इस तरह
के भाषा की विडम्बना
यह है, कि जितनी मोहक बनती जाती है, उतनी
ही यथार्थ से दूर जाती दिखती है । यहाँ इनका लोक बहुत मोहक है । भाव–बोध का स्वरूप इस तरह
का है, कि याथार्थ को उसके रुखड़ेपन के साथ ग्रहण करने के बजाय
उसे एक मुग्धकारी लय
में बदल देता है । कविता का प्रथम पाठ प्रभावित करता है परन्तु ठहर कर सोचने से सारी
बात खुल जाती है । अंततः कविता ‘cognitive recognition’ का माँग
करती है , ’emotional recognition’ से ज़्यादा दूर तक काम नहीं
चलता।
केशव पहले संग्रह में बहुत
रूमानी लगते हैं । दूसरे संग्रह में यह बोध बदलता है और थोड़ा वाग्मित होते दिखते हैं
। यहाँ विवरण और वक्तव्य मिलेगा, जो कहीं कविता बन पाता है और
कहीं बनने का आभास पैदा करता है । इस दूसरे संग्रह को संक्रांति की तरह देखना चाहिए
। अगर कोई कहे कि दूसरा संग्रह पहले जितना अच्छा नहीं है तो इसमें कुछ गलत नहीं है
पर इतना ज़रूर जोड़ना होगा, कि यह अगला कदम है । तीसरे संग्रह में
वे इसे साध लेते हैं । अब वे तटस्थ होकर लोक को कविता में बदलने व वक्तव्य को सार्थक
बनाने में सफल हो जाते हैं । लोक से अनुराग और उससे जुड़ाव दोनों अलग–अलग बातें हैं । अच्छी कविता दूसरे का वरण करती है । तीसरे संग्रह में आ कर
वे औरंगजेब का मन्दिर , कश्मकश , तो काहे
का मैं , अवध की रात रचने में सक्षम होते हैं । वे ‘शामे अवध’ की लय से ‘अवध की रात’
की विडंबनात्मक
व गद्यात्मक स्थितियों से घिर जाते हैं । लय का टूटना यथार्थ के प्रति बदली हुई दृष्टि
का प्रमाण है ।
केशव तिवारी की कविताओं में
दो तरह की संरचना मिलेगी । पहली, प्रगीतात्मक संरचना और दूसरी
(जिसको दूसरे संग्रह से रूपकार ग्रहण करते पकड़ा जा सकता है और जो तीसरे
संग्रह में एकदम स्पष्ट है) वक्तव्य मूलक रेखीय संरचना । उनकी मूल संरचना गीतात्मक/प्रगीतात्मक ही है । तीसरे संग्रह में भी, भले ही यह
संरचना कई कविताओं में टूटती हुई दिखती है पर बहुत बड़ी संख्या ऐसी ही कविताओं की है
। जब मैं प्रगीतात्मक या गीतात्मक संरचना कह रहा हूँ तो तुक और लय का पारंपरिक अर्थ
न लें । मेरे कहने का अर्थ एक मान:स्थिति के चारों तरफ़ बिंबों
के माध्यम से बुनी कविता से है । यह अनुचिंतन के आधार पर लिखी कविता है , जो अपने को संकेंद्री वृत्तों–जैसी संरचना में अभिव्यक्त
करती है । दुनिया के अंतर्विरोधी याथार्थ के बजाय उसका सरलीकृत ,रागात्मक अनुभव ही इस भाव–बोध को बनाता है । यह लय आरंभिक
पूजीवादी अवस्था की है । यह वहीं संभव है
। असंभव नहीं कि इस तरह की कविताओं में केशव तिवारी औद्योगीकरण
से पहले के समाज में वर्तमान रहने वाली ‘विशिष्ट समुदायिकता’ को ग्लोरीफ़ाई करते हैं पर उसके अंतर्विरोधों
को पोछ देते हैं । इस संरचना का हमारे समय से बहुत दूर का रिश्ता है । यह लोक किसी
भी तरह कोई प्रतिरोध निर्मित नहीं करता । यह संरचना सामंतवाद , उपनिवेशवाद और नवसाम्राज्यवाद तीनों ही के लिए मुफ़ीद पड़ती है । अनुचिंतन ,
संकेंद्री संरचना और इस ‘विशिष्ट समुदायिकता’
का ग्लोरीफिकेशन तीनों जुड़े हुए हैं । पूजीवाद व नवसाम्राज्यवाद उस कम्यून
से आगे की अवस्था है। कमियाँ दोनों मे हैं। पर हम अतीत को हथियार बना के वर्तमान से
नहीं लड़ सकते । लोक , स्थानिकता और जनपदीयता का नारा देने वाले
अधिकतर यही कर रहे होते हैं । इस संरचना को तीसरे संग्रह के ‘कटे धान की उदासी’ शीर्षक एक छोटी कविता से समझा जाए
–
बहुत गहरा है पर मन
थहा रहा है स्मृतियों की ताल
आवेग उतरा नहीं
लहरें किसका स्यापा कर रही हैं ॥
बबूल की डाल पर झूल रहा है
एक वीरान घोंसला
दला की बगिया का उम्र दराज पीपल
आते–जाते कुछ पूछता है ॥
मैं उसी पगडंडी
पर खड़ा हूँ
जिससे आख़िरी बार
जाते देखा
था तुम्हें ॥
कटरा बाजार के आगे तो शायद
यह नहीं जाती थी
सुना है किसी राजमार्ग से जुड़ गई है ॥
मैं भी दला के पुरवा का कहाँ रह
गया
कटे धान की उदासी रह गया है हमारा प्रेम॥
जिसमें स्मृतियों के
फूल काँटों की तरह कसकते हैं
तुम्हारे दरवाजे से गुजरता मैं
तुम्हारे होने के अहसास को अनखता हूँ ॥
दूर गूँजती धनकुट्टी की
पुक–पुक की आवाज क्या कभी एकांत में
तुम भी सुनती हो
अभी ।“
यह कविता सात बंदों में लिखी गयी है
। सातों एक–एक लोक बिम्ब हैं । ये बिम्ब हिल्लोल की तरह हैं
,केंद्र में एक रोमॅन्टिक–सी उदासी है । यह अतीत
का अनुचिंतन है जो संकेंद्री वृत्तों–जैसी संरचना में अभिव्यक होता है। आश्चर्य नहीं कि इस कविता में अनुचिंतन
का एक बिम्ब भी है। केशव तिवारी की भाव प्रवणता आश्चर्यचकित करती है । इसे संभवतः
हर कोई स्वीकार करेगा । पर वह जिस थल–काल की उपज है और जो स्थापित कर रही होती है–
, दिक़्क़त वहाँ है । इस पर बात करते हुए हम मनो–समाजिकी और सभ्यता–समीक्षा की गहराइयों में उतर सकते
हैं । अब आलोचना को ऐसी जहमत उठाते हुए इन पवित्र पदों को विच्छेदित करना चाहिए । अगर
ध्यान दें तो मिलेगा कि केशव तिवारी ने सापेक्षतः लम्बी कविताएं बहुत कम लिखी हैं ।
कारण कि लम्बी कविताओं में इस तरह के आवेग को बनाए रखना मुश्किल काम है । जो लिखा भी है , उनमें से अधिकांश या तो कमजोर हैं या फिर दुनिया के उलझे याथार्थ को नकारती
बहुत सपाट । इस संग्रह में एक कविता है-‘मुराद अली’। कविता सापेक्षतः लम्बी है , जो कुछ लोक–बिम्बों और नइका जैसे गैर–ज़रूरी प्रसंगों से बनती है
। आपको बजती हुई मसकबीन दिखेगी , दोपहरी में नाचती नाइका,
पर मुराद अली कहीं नहीं होंगे और न नइका का अंतर्जीवन होगा !
अगर इस कविता में मुराद और नइका का जीवन आ जाता तो यह शिल्प टूट जाता
। यह कविता उसी सामुदायिक जीवन को रचती है, जहाँ नइका और मुराद
अली को सन्दर्भ से बाहर फेंक कर अपने लिए सुखद माहौल पैदा किया जाता रहा । इस माहौल
में मुराद और नइका के आने से रस–भंग होता । पहले पाठ में आपको
लगेगा कि कविता मुराद और नइका के बारे में है पर थोड़ा रुक कर सोचेंगे तो ऐसा कुछ नहीं
है ! यह लोक उस व्यक्ति
का है, जो खुद ही उसी परिधि के भीतर खड़ा है जिससे वह लड़ने का
दिखावा करता है । कतकी , तुम्हारा रूप , कोई रोकता है , अवध और आम इसी तरह की कविताएं हैं। ‘जोगी’शीर्षक कविता तो एक गीत है।
तीसरे संग्रह में
उनकी कई सुन्दर कविताएँ ऐसी हैं जिनकी संरचना और भाषा इनसे एकदम अलग है । जैसे
– ‘औरंगजेब का मन्दिर’,‘कश्मकश’, विचार कि बहँगी’,‘डर’,‘कवि मान
बहादुर को याद करते हुए’,’कवि हमारे साथ ही रहो’,‘मोमीना’,‘अवध की रात’ आदि इसी तरह
की कविताएँ हैं । इस तरह की कविताओं में वर्तुल संरचना टूट जाती है । वर्तुल संरचना
के साथ अनुचिंतन और ‘विशिष्ट समुदायिकता’ भी चला जाता है । इनमें वक्तृता , संवाद , आयरनी आदि के सहारे कविता आड़े–तिरछे रस्तों से धीरे–धीरे आगे बढ़ती है । ऐसी कविताओं में हमारा समय है , हमारे
पैरों के नीचे का समय । ‘अवध की रात’ शीर्षक
कविता यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ । इस कविता को ‘कटे धान की उदासी’
के साथ पढ़ने पर बात स्पष्ट हो जाएगी –
घर–घर चलती है रात भर
महुआ की खींची कच्ची दारू
मिल बैठकर रचे जाते हैं
हत्या के षड्यंत्र ॥
गाँव के गाँव चलती है
हत्यारों की हाँक
भेड़ों की तरह शाम से ही
घरों में क़ैद हो जाते हैं लोग
॥
शहरों से असाध्य बीमारियाँ कमा कर
लौटे युवा
लेटे हैं झिनगा पर
दरवाजों के सामने खाँसते ॥
मिल–बैठकर ‘कार–परोजन’ निपटाने वाली समाजिकता ‘मिल–बैठकर हत्या के षड्यंत्र रचने वाली’ समाजिकता में बदल चुकी है ! युवा शहरों से पैसे के बजाय
असाध्य बीमारियाँ कमा के लौट रहे हैं ! इन विडंबनात्मक स्थितियों
को पकड़ने के क्रम में कविताओं की पूरी संरचना ही बदल जाती है । यहाँ शामे अवध की लय
टूट जाती है । कवि स्वयं लिखता है –‘यह शामे अवध नहीं’। मुझे यहाँ केशव तिवारी अपने पिछले बोध को नकारते नज़र आते हैं । मैं इस कवि
का स्वागत करना चाहता हूँ । यही कवि हमारे काम का है । यही कविताएँ वर्तमान और भविष्य
की कविताएँ हैं ।
***
हैरान हूँ, कि कोई टीप्पणी नही दिखी यहाँ , क्या कुछ कमी रह गई है इस समीक्षा में ? मुझे पढ़कर अच्छा लगा। अच्छी समीक्षा है। बधाई आशीष भाई। आप निर्भीक हैं , सच्चे हैं।
भाई,मुझे यह समीक्षा कविता, आज के समय और समाज को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण लगी है ।भाषा रचनात्मक और प्राणवान है ।कविता की तहों और उसकी सलवटों तक पहुँचती हुई ।
बेहद अलग आस्वाद की समीक्षा है ।कविता में समय को तलाशने की समकालीन दृष्टि ।आज की कविताओं के मानक तय करती समीक्षा-दृष्टि ।दर असल समय की जटिलता को इसके सामाजिक-आर्थिक अनुभव के बिना समझ पाना संभव नहीं ।नब्बे के दशक के बाद मानवीय रागों की संधारण क्षमता में बङे बदलाव आए हैं ।कविताएँ भी बदल रही हैं ।अस्तु नये तरह की संवेदनात्मक समझ के बिना उनका अर्थ नहीं खोला जा सकता ।मुझे आशीष मिश्र की समीक्षा -दृष्टि कयी वजहों से आज की कविता को समझने के लिए अनिवार्य लगती है ।
साथी शायद लोग इसी लिए अपना पक्ष और विपक्ष तय नहीं कर पा रहे हैं । हिन्दी में समीक्षा को तो विज्ञापन समझ लिया गया है । इसे टूटना ही चाहिए । बधाई आशीष मिश्र ।
सुगढ़ समीक्षा एक जमीन माटी से जुड़े कवि के सृजन पर।
कंडवाल मोहन मदन
bahut sundar samiksha !
Bahut achha…
हम कविता समीक्षा में इतना गहरे उतर कर बात करने के आदी नहीं हैं. संरचनात्मक स्तर की इस सार्थक विवेचना ने कविता और उसके अंतर्कथान को खोलने की कोशिश की है. यह एक कठिन काम है. आशीष कविता को बहुत गहराई से समझने की चेष्टा करते हैं. वे नए कवियों की कविताओं को अरसे से पढ़ रहे हैं और लगातार चर्चा में लाते रहे हैं. उनसे कविता पर बात करना संरचना के स्तर पर कविता को समझना है. वे ऊपरी तौर पर कोई निष्कर्ष देने के बजाय अंतरतम को जानने की जुगत में रहते हैं.
यह प्रयास भी उसी का एक हिस्सा है. उनकी अंतर्दृष्टि को साधुवाद और मेरी हार्दिक बधाई..
आशीष ने जिस बिंदु पर बात ख़त्म कर केशव की कविता का स्वागत किया है, सच में वही केशव की कविता का नया प्रस्थान बिंदु है। केशव की कविता का यह पाठ पूरे समकालीन काव्य परिदृश्य को ठीक से देखने-समझने की एक मुकम्मिल दृष्टि देता महत्वपूर्ण लगता है। बधाई आशीष कि हमारे समय में तुम जैसा दृष्टिवान समीक्षक है।