इन नवगीतों के लिए अनुनाद ने रोहित रूसिया से फेसबुक बातचीत में अनुरोध किया था। हम कविता के सभी रूपों की उपस्थिति अनुनाद पर चाहते हैं। रोहित को इस सहयोग के लिए आभ्ाार। अनुनाद पर उनका स्वागत है।
इस बातचीत के बीच मुझे निराला से लेकर आज तक के सभी समर्थ आधुनिक कवियों के छंद याद आते रहे – इस याद में मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय जैसे नाम सहज ही शामिल हो जाते हैं। इधर की कविता में देखें तो यश मालवीय के नवगीत हमारी वैचारिक सम्पदा
बन गए हैं। रोहित रूसिया के नवगीत उस स्पष्ट वैचारिक परम्परा में नहीं हैं, लेकिन उनका जनपक्षीय स्वरूप स्पष्ट है। हर जनपक्षधर आवाज़ हमारी
समवेत आवाज़ का अंश है, ऐसा हर अंश हमारे लिए क़ीमती है – क्योंकि ‘अकेले नहीं मिलते मुक्ति के रास्ते’ …. रोहित के नवगीतों
में स्थानीय स्मृतियां हैं, मनुष्यता और मानवीय संवेदनाओं के खोते जाने का विषाद है, जीवन के लुप्त होते बिम्ब हैं और हृदय के कांपने जैसी नाज़ुक ध्वनियां
हैं। रोहित एक समर्थ चित्रकार भी हैं, यहां उनके कुछ रेखांकन इन गीतों के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा
है अनुनाद के पाठक इनका स्वागत करेंगे।
रोहित के नवगीत संग्रह के लिए लिखी गई श्री हनुमंत किशोर की टिप्पणी नीचे तस्वीर के रूप में प्रकाशित है, पूरी स्क्रीन पर देखने के लिए कृपया इमेज पर क्लिक करें।
***
नदी की धार-सी संवेदनाएं
घट रही हैं
अब नदी की धार सी
संवेदनाएं
पेड़ कब से
तक रहा
पंछी घरों को
लौट आयें
और फिर
अपनी उड़ानों की खबर
हमको सुनाएँ
अनकहे से शब्द में
फिर कर रही आगाह
क्या सारी दिशाएं
हाट बस
आडम्बरों के
दीखते ,
जिस ओर जाएँ
रक्त रंजित हो चली
हैं
नेह की
सारी ऋचाएं
रोक दो,
जिस ओर से भी आ रही
ज़हरीली हवाएं
घट रही हैं
अब नदी की धार सी
संवेदनाएं
प्रेम में भीगे हुए कुछ फूल
तुम्हारा साथ देंगे
दूर तक
प्रेम में भीगे हुए
कुछ फूल
अपने सूखने के
बाद भी
पंखुरी पर
बांसुरी से गीत गाते
पल रहेंगे
रंग फीके हो भले पर
प्यार के
संबल रहेंगे
गंध मीठी सी
मधुर मकरंद की
यूं ही रहेगी
हाँ, समय के
बीतने के बाद भी
था कहा तुमने
जो बिछुड़ेंगे तो
मिल न पायेंगे
बस, समय की धार में
डूबेंगे और
बह जायेंगे
क्यों मगर
उतना लबालब
ही भरा है
प्रेम का घट
रीतने के बाद भी
जिन लकीरों ने
लिखी थी
हाथ और
माथे पे खुशबू
वक्त ने
पानी मिला कर
धो दिया
किस्मत का जादू
एक अरसा हो गया
पर दिल नहीं बदला
अभी भी
साथ तेरा
छूटने के बाद भी
तुम्हारा साथ देंगे
दूर तक
प्रेम में भीगे हुए
कुछ फूल
अपने सूखने के
बाद भी
***
बाहर आलीशन
बाहर आलीशान
भीतर से बहुत
टूटे हुए घर
बदलते
मौसमों की तरह
सब, नेह के सुर
जो थे कोमल ह्रदय
लगने लगे हैं
जानवर के खुर
मुंडेरो पर
सजा आये हैं
सब ही
नींव के पत्थर
बड़ी बेचैन हो कर
घूमती हैं
अब हवाएं
कोई सुनता नहीं है
अब
किसी की भी सदायें
लिए ऊँची उड़ानों
की उम्मीदें
कतरे हुए पर
सजे दिखते हैं
अब तो
हाट जैसे , रिश्ते
सारे
सतह पर राख
भीतर हैं
सुलगते से अंगारे
सभी के जिस्म पर
चिपके हुए हैं
मतलबी सर
बाहर आलीशान
भीतर से बहुत
टूटे हुए घर
***
क्या कहें क्या ना कहें
क्या
कहें
क्या ना
कहें
गीत बन
ढलते रहें
श्रम से
भीगी
जो हो
सांसे
वक़्त
खेले
उल्टे
पांसे
मंज़िले
कदमों में
होंगी
शर्त बस
–
चलते रहें
राह
जब
दुश्वार
होगी
जीत
होगी
हार होगी
जिस्म
की
इमारतों
में
ख़्वाब
बस
पलते रहें
एक धुन्धली
सी
किरण है
रिश्तों मे
जो
आवरण है
सांस
की
गर्मी से
अपनी
मोम
से
गलते रहें
क्या
कहें
क्या ना
कहें
गीत बन
ढलते रहें
***
सिकुड़ गई क्यों
सिकुड़ गई क्यों
धीरे –
धीरे
आँगन वाली छाँव
वो आँगन का नीम
जो सबका
आँगन वाली छाँव
वो आँगन का नीम
जो सबका
रस्ता तकता
था
भरे जेठ में
भरे जेठ में
हाँक लगाता
सबको दिखता था
क्यों गुमसुम
जो देता था
सबके हिस्से की छाँव
सबको दिखता था
क्यों गुमसुम
जो देता था
सबके हिस्से की छाँव
इक दरवाजा था
जिस घर में
चार हुए दरवाजे
सबके अपने- अपने उत्सव
अपने बाजे – गाजे
आँगन को
सपनों में दिखते
नन्हें – नन्हें पाँव
चार हुए दरवाजे
सबके अपने- अपने उत्सव
अपने बाजे – गाजे
आँगन को
सपनों में दिखते
नन्हें – नन्हें पाँव
धुआँ भरा
कितना
जहरीला
अब इस घर के अंदर
भीतर से
अब इस घर के अंदर
भीतर से
बेहद
बदसूरत
बाहर दिखते सुंदर
जबसे बूढ़ा
नीम सिधारा
सूना अपना गाँव
बाहर दिखते सुंदर
जबसे बूढ़ा
नीम सिधारा
सूना अपना गाँव
सिकुड़ गई क्यों
धीरे –
धीरे
आँगन वाली छाँव
*** आँगन वाली छाँव
जब भी
लिखना
जो भी
लिखना
कुछ नया
लिखना
जब कोई
पूछे
कि आँगन
की
थकन
का
क्या करें
?
तुम तो
बस
कोयल –गौरैया
और बया
लिखना
गम अपरिचित
ने भी
बांटे,पर
खुशी के
दौर में
कौन
अपना
साथ
तेरे
खुश हुआ
लिखना
जब भी
लिखना
जो भी
लिखना
कुछ नया
लिखना
***
कल के
पन्नों पर
कल के
पन्नों पर
हम लिख दें
अपना भी
इतिहास
बीज रोपते
हाथों की
उष्मा बन
जाएँ
चट्टानी
धरती पर
झरनों से
बह जाएँ
सूखे कंठों
की खातिर
हो
लें
बुझने वाली
प्यास
सौंधी
मिट्टी वाला आँगन
हर चूल्हे
की आंच
और न
टूटे
गलती से
भी
संबंधों के
कांच
घुटते
रिश्तों में फिर
भर
दें
कतरा –कतरा
सांस
कोहरे की
धुंधली परतों से
क्या डरना
है ?
लू – लपटों
से भरी राह भी
तय करना है
ठानेंगे
तो
हो
जाएगा
बित्ते भर
आकाश
कल के
पन्नों पर
हम लिख दें
अपना
भी इतिहास
***
अब नहीं आती
अब नहीं आती
किसी की चिट्ठियाँ
नेह में
मनुहार में ,
जीत में या हार में
चुक गयी है
वेदना भी ,
वर्जना की धार में
स्वार्थ की सीलन ढकी
दिखती है
मन की भित्तियाँ
अब नहीं आती
किसी की चिट्ठियाँ
आदमी बढ़ता गया ,
चढ़ता गया ,
चढ़ता गया
और समय की होड़ में
खुद , आवरण
मढ़ता गया
भूल बैठा
झर रहीं हैं
नींव की भी गिट्टियां
अब नहीं आती
किसी की चिट्ठियाँ
***
कविता के सभी रूपों की अनुनाद पर आवाजाही बेहद महत्वपूर्ण और स्वागत योग्य पहल है. रोहित जी के नवगीत और चित्रों में सरलता का आकर्षण है, लेकिन अपने निहितार्थों में वे बेहद गंभीर विषयों से रूबरू कराते हैं. चिड़ियों की जो चहक जीवन से गायब होती जा रही है उसे अपने हर चित्र में जगह देकर वे हमें न केवल उस खुशी को जीने का अवसर देते दीखते हैं वरन उसे बचाने की भी पुरजोर अपील करते हैं. रोहित जी को बधाई और अनुनाद का शुक्रिया…
बहुत सुन्दर और दिल को छू लेने वाले गीत। सरल भाषा में एक संसार समेटे हुए है। बधाई हो 🙂
रोहित पीलिया जी ने 'वे कभी विरोध नहीं करते' काव्य संग्रह का कव्हर रेखांकन किया था मगर इतनी सुंदर कविता…..साधुवाद।