अनुनाद

हल और हलंत के कवि: अष्टभुजा शुक्ल के कविता संग्रह पर आशीष मिश्र



इस समीक्षा का मूल रूप ‘पक्षधर’ में छपा है। यहां इसे संशोधन (समीक्षक के शब्दों में काफ़ी जोड़-घटाव)  के उपरान्त पुन:प्रकाशित किया जा रहा है। 
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हिन्दी भाषा ऐतिहासिक प्रक्रिया में जहाँ अपना रूपाकार ग्रहण करती है, वह शताधिक नदियों से सिंचित, दुनिया के सर्वाधिक उपजाऊ प्रदेशों में से एक है। जहाँ 70 प्रतिशत से ज़्यादा लोग गाँवों में रहते हों और 60 प्रतिशत से ज़्यादा लोगों का जीवन कृषि पर निर्भर हो, वहाँ गाँव और किसान-जीवन कविताओं में कम होता गया है! समकालीन कविता की अपेक्षा 90 के बाद की कविताओं में परिमाणिक स्तर पर आश्वस्तिदायक उभार तो दिखता है, पर यह छायाभास है, एक फिनिश् माल, जिससे सत्ता या बाज़ार किसी को असुविधा नहीं। यह न तो सामंतवाद का विरोध रच पाता है और न ही बजारवाद पर चोट कर पाता है। यहाँ गाँव अपने सार से रहित एकमार्केट फ्रेंडलीबिकाऊ माल है। आज बाज़ार अध्यात्म और लोक को उसी तरह बेच रहा है जैसे कपड़ों पर सनी लीओन के साथ चेग्वेरा और बाब मर्ले को बेचता है। इस उपभोक्ता प्रधान सामाजिक संरचना में, जिसमें अपसंस्कृति अपने को नित नए लुभावने रूपों में उत्पादितपुनरुत्पादित कर रही है, सामंतवाद अपने स्थानीय हितों को साधते हुए पूंजीवाद के चुस्तचिकने ढाँचे में कैसे फिट होने का प्रयास कर रहा है, इन कविताओं में देखा जा सकता है। हालाँकि इसे पकड़ पाना इतना आसान नहीं है। ये कविताएँ वैश्वीकरण से लड़ने की मुद्रा तो दिखाती हैं पर सामंतवाद की मुखाल्फ़त नहीं करतीं और इस तरह दुष्चक्र में निर्द्वंद्व भाव से फँस जाती हैं। यह नदी में एक नाव पर बैठ कर दूसरी को ठेलने वाली बात हुई। इसे कहीं नहीं पहुँचना है, संभवतः वे कहीं पहुँचना भी नहीं चाहते! इन्हें गाँव चाहिए, इन्हें लोक चाहिए पर उनके अंतर्विरोध और उनका क्रांतिकारी सार नहीं चाहिए(जो की स्थानीय हितों के साथ बाज़ार से जुड़ने पर  स्वाभाविक है)। इस तरह लोक इन राजरोगियों का शुगरफ्रीशुगर है।

लोकधर्मी(!) वर्गऔर सबाल्टर्नदोनों से परे लोक को एक मोनोलिथिक संरचना समझते हुए इनके समानान्तर स्थापित करना चाहता है। इनके तर्क सुनते हुए लगता है जैसे अबतक जात्सकीपंथ का कोई समाधान ही न हुआ हो! गहरे अर्थों में यह पिछली शताब्दी के अन्तिम दशकों में जगह बना रहे दलित और स्त्री अस्मिता की प्रतिक्रिया में स्थानीय सत्तासंरचना का नया उभार है। मुझे ठीकठीक पता नहीं, कि इस लोक के प्रति मोह रखने वालों में कितने दलित और कितनी स्त्रियाँ हैं! अगर नहीं हैं तो इसके कारणों का पता लगाना होगा। कविताओं में जो चित्र गाँव या किसानी के आते भी हैं वे बड़े रोमांटिक क़िस्म के हैं। जैसे कोई शहरी मध्यवर्गी दूर से बैठ कर अपने गाँव को देख रह हो या फ़िर बीसपचास वर्ष पूर्व के, स्मृतियों में बसे, गाँव को रच रहा हो। इस तरह की कविताओं में एक तरह का अनुचिंतन होता है जो बहुत कुछ प्रगीतात्मक संरचना बनाता है। इस प्रक्रिया में गाँव बहुत संवेदनशील, कोमल, अच्छाइयों का आगार बन कर उपस्थित होता है। इससे पता ही नहीं चलता कि पिछले बीसपाचीस सालों में उदारीकरण एवं बाज़ारीकरण का गाँवों पर क्या प्रभाव पड़ा। कुछ आलोचक हैं जो इन कवियों से ज़्यादा रूमानी हैं। वे इस पीढ़ी पर बात करते हुए अष्टभुजा शुक्ल को भूल जाते हैं। अष्टभुजा शुक्ल को भूल जाना स्वाभाविक भी था, कारण कि अष्टभूजा उनके चिक्कन रूमानी भावबोध के दायरे में अटते ही नहीं।

इस समीक्षेय संग्रह में तक़रीबन साठ कविताएँ हैं। इन कविताओं से पता चलता है, कि अष्टभुजा जी के बोध का भूगोल गाँव से लेकर बड़े क़स्बों या छोटे शहरों तक फ़ैला है। और इनकी चेतना का इतिहास 90 के बाद तेजी से बढ़े गाँवों पर उदारीकरण और बाजार के आर्थिक और सांस्कृतिक दबावों से निर्मित है। अष्टभुजा इन सारे दबावों के प्रति बेहद सजग कवि हैं। इस फेनामिना के तहत पैदा हो रही नई परिस्थितियों को, उसके पूरे संदर्भों के साथ पकड़ने में सक्षम हैं, जो समान्यतः हमारी नज़र की जद से बाहर होती हैं। इनके बोध का स्वरूप क्या है और कितना यथार्थ है, इसका पता चल जाएगा यदि उन्हीं के जातीय क्षेत्र के कवि केदारनाथ सिंह को उठा कर देखें। एक कवि के यहाँ चित्र बहुत विडंबनात्मक है तो दूसरे के यहाँ सौंदर्यपूर्ण। अब इसी बात को उलट देंकेदारनाथ सिंह के यहाँ बिडंबनात्मक स्थितियाँ भी बहुत सौंदर्यपूर्ण ढ़ंग से आती हैं और अष्टभुजा के यहाँ सौंदर्यपूर्ण स्थितियाँ भी बहुत विडंबनात्मक और व्यंग्य के रूप में।

गाँव पर कविताएँ और गाँव की कविताएँ दो अलगअलग बातें हैं। अष्टभुजा की कविताएँ गाँव की कविताएँ हैंअपनी खूबसूरती और विडम्बना के साथ। 90 के बाद हिन्दी कविता में गाँव पर कविताओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। इसे वैश्वीकरण की प्रतिक्रिया में एक शरणगाह की तरह समझा जा सकता है। जिसमें आत्महत्या करते हुए किसान, गरीबी और प्रकृति आदि के विषय में या तो वर्णन है या फ़िर एक क़िस्म की भावुकता। इन्हें पढ़ते हुए भाषिक सर्जनात्मक्ता का अभाव यह बताता है, कि कविता का गाँव की वस्तुगत यथार्थ से कोई संबंध नहीं । अष्टभुजा लिखते हैं

कविता की खेती में जितने सुख हैं
खेती की कविता में उतने ही दुख और असमंजस
  
अष्टभुजा शुक्ल किसी विषय पर कविताएँ लिख रहे हों वहाँ गाँव और किसानी के छोटेछोटे उपादान विविध तरीकों से रचितपुनर्रचित होते रहते हैं । प्रेमचंद के एक तैल चित्र को देख कर लिखते हैं

चेहरा छीले गए खलिहान की तरह  
माथा आसमान  
आँखें दो मेघ खंड
मूछें उगी हुई फ़सल
और होठ पानी भरा चोढ़ा

चंद्रबली सिंह के विषय में लिखते हैं

बाँस की पेड़ी की तरह
चहचहाते हैं उसमें कुछ पक्षी  
पत्तों के पुराने सूपों को झाड़ कर
निकल रही है बगल से  
एक नई करइल  
सुदृढ़ शंक्वाकार पत्ताकृत

यह गाँव की  कविता है, जिसके आते ही कविता की संरचना बदलने लगती है। अष्टभुजा शुक्ल की कविताओं की संरचना और उसकी भाषा कई स्तरों पर हिन्दी कविता की सामान्य संरचना को तोड़ती हैं, उसे अपर्याप्त सिद्ध करती हैं। ऐसा गाँव के यथार्थ से उपजे नए तरह के बोध के कारण होता है। अष्टभुजा शुक्ल इसे समझते हैं

थोड़ीसी बनैली हवा
और एक आदिवासी कुल्हाड़ी
लाना चाहता था
लेकिन रेक्सीन का बैग
फट जाने के डर से  
एक छेदना तक नहीं ला सका वहाँ से।

उनके देशज बिम्बों व विडंबनात्मक स्थितियों के कारण कविता में तहाकर रखी गयी मध्यवर्गीय सौंदर्यबोध तारतार हो जाता है ।ए सी तृतीयशीर्षक कविता में इसी बात को लिखते हैं

इस डिब्बे में
जिंदगी के हिसाब से कम
क़ानून कायदों के हिसाब से  
ज़्यादा चलते हैं लोग। 


हाथामारनामें लिखते हैं

हरियाली के अचार
काँच के पारदर्शी जारों में सजाए गए
पानी के हाथों को पीछे से बाँध दिया गया है
और नवजात हवा नाक रगड़ रही है उन फ़र्शों पर
ऐसे ही कुदाल
हँसी जैसी हँसिया
और भूत के पिछले पाँव जैसे फावड़े
जिनपर मिट्टी का एक भी कण नहीं। 

अष्टभुजा कविता में चीज़ों को इतना झाड़पोंछ और पॉलिश करके नहीं रखते; चीज़ों को उनकी वस्तुवत्ता में कचरे और कर्दम के साथ उठा कर कविता में रख देते हैं। इससे मध्यवर्गीय सौंदर्यबोध को खुजली मचना स्वाभाविक है। बाजार और उदारीकरण द्वारा फैलाई जा रही संस्कृति के द्वारा एक बहुत बड़ी दुनिया तलछट में बदलती जाती है। अष्टभुजा उन्हें कविताओं में रचते हुए इस पूरी प्रक्रिया को प्रतिपक्ष में बदल देते हैं।हलंतइसी का प्रतीक है। वे गाँवों में छोटेछोटे परिवर्तनों और उससे जीवनसंवेदना पर पड़ने वाले प्रभावों को पकड़ने में सक्षम हैं।भारत संचार निगम लिमिटेड’, ‘कम्बाइन’, ‘नई कहावतआदि जैसी कविताओं में अष्टभुजा के इस क्षमता को देखा जा सकता है। अष्टभुजा कहीं से भी भावुक नहीं हैं, वे उद्योग और यंत्रों को नकारते नहीं। परन्तु जब यह एक बड़े हिस्से के जीवन को नकारात्मक रूप से प्रभावित करने लगे तब इसे उचित नहीं कहा जा सकता। कम्बाइन कृषि कार्य के लिए उपयोगी यन्त्र है परन्तु जहाँ मजदूरों का एक बहुत बड़ा वर्ग भूमिधरों के यहाँ कटियाबिनिया पर जीवन निर्वाह के लिए निर्भर है, वहाँ यह मसीन एक महामारी है –‘गेहूँ की फ़सल काटने के साथसाथ जिनके खेत नअहीन हैं उनके हाथों को काट कर लूला बना दिया है उसने / बहुत से चूल्हे बुझा चुकी है फूँक मारकरखड़ी है वह जसे बहुत सी हत्याएं करने के बाद थक कर सुस्ता रही है। यह 90 के बाद की कविताओं में अकेली कविता है जिसने इतने मार्मिक ढंग से भूमि-वितरण की समस्या को रखा है। पूरे हिन्दी भाषी क्षेत्र में भूमि-वितरण की भयंकर समस्या है, पर आश्चर्यजनक रूप से इसे मुद्दा बनाने वाली कविताओं का अभाव है! लोक, गाँव, किसानी के इतने हल्ले के बाद ऐसा होने का कारण क्या हो सकता है, जब आप सोचना शुरू करेंगे तो आपको इन कवियों की संरचनात्मक अवस्थिति के बारे में सोचना पड़ेगा। इस नज़रिये से अष्टभुजा अकेले कवि हैं जो इस दायरे को तोड़ पाते हैं। यह अलग तरह की लोक-संपृक्ति है, जो अपने हितो पर कलात्मक किल्लीकारी का पर्दा डालने वाली माया नहीं उसे उघाड़ देने वाली लोक-दृष्टि का विश्वासी है। अष्टभुजा गाँवों के अंतर्विरोधों को छिपाते नहीं, उसे उसकी विडंबनाओं के साथ रख देते हैं।

अष्टभुजा शुक्ल के बोध के जिस इतिहास और भूगोल की बात शुरुआत में की गई है, उसकी कुछ सीमाएँ भी हैं, जिन्हें छिपाया नहीं जाना चाहिए। उनकी कविताओं में व्यंग्य ही प्रधान है परन्तु कई बार संस्कृत की शास्त्रीयता के दबाव में अपने कौशल प्रदर्शन के चलते या फ़िर अवचेतन में जमी जातीय और लैंगिक स्मृतियाँ, इनके संवेदना और बोध की सीमाएँ गढ़ देती हैं। इस संग्रह मेंमशरूम केयर ऑफ कुकुरमुत्ताशीर्षक कविता में निराला के कुकुरमुत्ता की पैरोडी बनाते हुए लिखते हैं-“अब न किसी गुलाब ख़ातिर फारस जाना / न घोड़े के लिए काबुल / न बुद्धि के लिए कैम्ब्रिज / न रक्तपात देखने के लिए कुरुक्षेत्र /न नंगेपन के लिए किसी आदिवासी समाज में। यहाँ आदिवासी समाज को जिस नंगेपन से जोड़ा गया है उसके पीछे के हिंसक दृष्टि से हम अपरिचित नहीं हैं। क्या विवस्त्रता और नंगापन एक ही बात है! इसी संग्रह में एक सुन्दरसी कविता है-‘पुरोहित की गाय। इसमें गाय में स्त्री छवि बहुत सघनता से जुड़ी हुई है या गाय की अर्थछवियाँ सामंती दबाव में घुटती हुई स्त्री तक विस्तार पाती हैं। पर एक जगह जिस तरह का व्यंग्य बनाते हैं वह बहुत कुछ स्त्री अस्मिता के खिलाफ़ चला जाता है –“वह ख़ोज रही है सुख / जो जनता केवल दुख / फ़िर भी उसी दुख के लिए कम से कम चौबीस घण्टे की नशा तारी है / अललाहट जारी है  बाँस की जड़ेंशीर्षक कविता में एक गैर जरूरी व्यंग्य है जो अष्टभुजा के बोध की सीमाओं की तरफ़ इशारा करता है। इसे पढ़ते हुए धूमिल, राजकमल चौधरी और रघुवीर सहाय कौंध जाते हैं –“बाप/ सदासदा के लिए विदा हुए हमसे / उन्हें कंधा देने के लिए हम अपनी / बहनों को भी बुलाना चाहते थे / लेकिन अपनी ससुराल में वे / गरुण पुरण के / फटे हुए पन्नों से अपनी दूधमुही पोतियों की टट्टी साफ़ कर रही थीं। कई बार अष्टभुजा पर छंद और तुक का गैर जरूरी दबाव दिखता है। इस सबके बावजूद इस संग्रह से अष्टभुजा के पूरे काव्यव्यक्तित्व की ऐसी छवि बनती है जो समकालीन कविता में सबसे ज्यादा यथार्थ और साफ़ है।
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इसी हवा में अपनी भी दो चार साँस है                                         
प्रकाशकराजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली। मूल्य -200 रुपए                                                 
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आशीष मिश्र                                                                                              08010343309
                                                                                                                                                                                                                                                 

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  1. आशीष ऐसे युवा आलोचक हैं,जिनमें काफी संभावनाएँ हैं. अष्टभुजा जी के संग्रह की बेबाकी से पड़ताल की है आशीष ने. अष्टभुजा जी ने गाँव में होने वाले परिवर्तनों को जिस तरह से पकड़ा है, और उसे अपनी कविता का विषय बनाया है, वह उन्हें कवियों की पांत में अलग खड़ा कर देती है. लेकिन इस अलगाव के साथ पैदा हुई दिक्कतों को आशीष ने जिस तरह उभारा है वह हमें उस पहलू की तरफ सोचने के लिए विवश कर देता है जिसमें गाँव इस समय के बाजार के लिए एक 'माल' या कहें बाजार की संभावना के रूप में दिखाए जा रहे हैं. कवियों के लिए इसे अपनी कविता में स्वाभाविक रूप से लाना एक चुनौती तो है ही. इसके लिए न केवल गाँव के जीवन से रू-ब-रू होना जरुरी है बल्कि आज के परिवर्तनों और उसके द्वारा हो रहे बदलावों पर बारीक नजर जरुरी है.

  2. लोक लोक जीवन की अलग-अलग छवियों, भाव, प्रकृति और जीवन के चित्रों को रखांकित करने वाली कविताएं पाठकों को भी विचलित कर जाती हैं। इन कविताओं की अपील बड़ी व्यापक है। बेहतरीन समीक्ष लिखी है।

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