अनुनाद

शायक आलोक की दस कविताएं



शायक आलोक से मुलाक़ात का माध्यम फेसबुक है। इस नौजवान की कविता ने मुझे बहुत शुरूआत से अपनी ओर खींचा। अनुनाद पर पहली बार फेसबुक से जो कविता आयी, वो शायक की ही थी। निजी सम्पर्क कुछ नहीं, न कभी ऐसी कोई ख़्वाहिश ही हम दोनों में से किसी को हुई। मेरे लिए शायक हिंदी कविता के एक नौउम्र नागरिक हैं – और उनकी इतनी भर पहचान पर्याप्त है। 
कई लोगों के लिए यह शायद विचारधारा को ख़ून की तरह धारण करने वाले इस अकिंचन सम्पादक द्वारा विचारधारा को पानी की तरह रखने के पक्ष में तर्क देने वाले कवि को रेखांकित करने का बहसतलब प्रसंग है। लेकिन उस सादिया हसन का सामना करने के लिए शायक के साथ हमें भी हमेशा बहस के लिए प्रस्तुत रहना पड़ेगा, जो कहती है – तुम्हारे राम से डरती रहूंगी ताउम्र / मेरे अल्लाह पर ही मुझे अब कहाँ रहा यकीन.. यहां याद रखना होगा कि विचारधारा हमारे भीतर ख़ून की तरह है पर ख़ून की संरचना में कितना तो पानी है – यह तथ्य शायक के लिए भी। सब जानते हैं कि जो इस बहस से मुंह मोड़ेंगे, विचारद्रोही होंगे। कई कविताओं में शायक का संवाद समाज से इतना गहरा है कि उसमें सही राजनीतिक प्रतिबद्धता अनायास आती है।उनकी कविताओं के कई रंग हैं। उनमें आम नागरिक जीवन के अनवरत संघर्षों से संवाद हैं। देवीप्रसाद मिश्र ने प्रार्थना के शिल्प में नहीं का जो मूल्यवान मुहावरा हमें दिया, उसका दिलचस्प विस्तार शायक की प्रार्थना में है – हालांकि देवीप्रसाद मिश्र से भी पहले कुमार विकल ने नास्तिक के प्रार्थना गीतों की राह बना दी थी, देवी भाई ने उसी का सजग विस्तार किया – अब यह विस्तार नए कवियों के और भी जटिल इलाक़ों में है।  सब बातों के साथ ही उसमें वह गम्भीर खेल भी लगातार जारी रहता है, जहां कविता में आए कौवे को भगाने के बजाए टूटा घड़ा और कंकड़ रख देने का प्रस्ताव है। मैं कामना करता हूं कि जनपक्षधरता की राह उनकी कविताओं में और साफ़ होती जाए – अपने आत्मसंघर्षों के बीच वे मनुष्यता के बचे रहने की इकलौती प्रिय विचारधारा की ओर बढ़ते रहें। शायक की ही पदावली का सहारा लेकर कहूं तो तेज़ अंधड़ों के बीच काठ कठोर आवाज़ में चियांरते बूढ़े पेड़ के लिए चिड़िया बेटियों के गुनगुनाने योग्य कविताएं जब तक लिखी जाती रहेंगी, कविताओं में विचार, उम्मीद और स्वप्न जीवित रहेंगे।  

हिंदी कविता में नए ताल छंद को समर्पित इस स्तम्भ में शायक की कविताओं का स्वागत और हम तक कविताएं पहुंचाने के लिए आभार भी।
*** 
1
तुम्हारा चुप रहना तुम्हें अन्दर से ऐसे खा सकता है
जैसे चुप पड़ी किताबों को खा जाते हैं दीमक
चुप खड़े चूहों को उठा ले जाता है चील 
तुम्हें बोलना चाहिए – आवाज़ उठानी चाहिए 

तुम्हें नहीं बोलना कि बची रहे तुम्हारी संतति
नहीं इसलिए कि बचा रहे प्रतिरोध
बचें रहे विचार .. पृथ्वी बची रहे .. बची रहे मानवता
न्याय-अन्याय धर्म-अधर्म बचें रहे 
तुम्हें चुप नहीं रहना चाहिए तुम्हारे लिए
तुम्हें बोलना चाहिए कि बची रहे तुम्हारी आवाज़. 
*** 

2

एक पेड़ जो बूढा हो गया है
आँधियों में जिसके उखड़ जाने का खतरा है
जो हवाओं में चिंयारता है काठ कठोर आवाज़ में
उस पेड़ के लिए लिखता हूँ मैं कविता
मेरी चिड़िया बेटी गुनगुनाती है उसे
. 
*** 

3

विचारधारा को तुमने खून की तरह रखा
खून खौलता था
ठंडा होता था
जम जाता था खून
खून पर दूसरा रंग नहीं चढ़ता था

जबकि यह सब बस कहने की बातें थीं 

तुम्हें रखना था विचारधारा को पानी की तरह 
खौला सकते थे पानी 
ठंडा कर सकते थे 
जमा कर बना सकते थे बर्फ 
काम के जरुरी रंग भी मिला सकते थे
.  
*** 

4

तुम्हारे समय का घाव
मेरे समय पर बचा हुआ दाग है
दाग में है तुम्हारे घाव की स्मृति

तुम्हारी स्मृति बचाऊं या कुरेद
लौटा लाऊं तुम्हारा समय
तय करो पिता
! 
***  

5

हाँ वह लौट आता है बेख्याल
बिना दस्तक
रात दिन दोपहर कभी भी
.

वह कभी कपड़े नहीं बदलता
उलझे बालों में कंघी तक नहीं
.

मैं उसके लौटने के दहशत में जीता हूँ 
मेरे कान दरवाजे पर होते हैं 
भले बिल्ली ने लगाई हो मेरे अहाते में छलांग 
मैं सोचता हूँ वह लौट आया है
. 

बेईमानी नहीं करूँगा सच कहूँगा 
कभी कभी किसी उनींदी सुबह 
अलसाई दोपहर 
कभी जब ऊब जाता हूँ चाँद को कर खारिज 
तारों की गिनती से 
मैं उसके लौटने का इंतजार करता हूँ
. 

वह लौट आता है हर बार 
और उसके लौटने में कभी नयापन नहीं होता
. 

अभी वह फिर लौटा है 
मेरे सिरहाने मेरे तकिये पर सोया है 
इस बार उसकी दाढ़ी भी बढ़ आई है 
उसके कपड़ों में पसीने की खुशबू है 
तेल है उसके नाक पर
. 

लौटा है अभी मेरा बीता हुआ समय
. 
*** 

6

मेरी चाय को तुम्हारी फूंक चाहिए सादिया हसन
ये चाय इतनी गर्म कभी न थी
इसकी मिठास इतनी कम कभी न थी
.

मैं सूंघता हूँ मुल्क की हवा में लहू की गंध है 
कल मेरे कमरे पर आये लड़के ने पूछा मुझसे 
कि क्रिया की प्रतिक्रिया में पेट फाड़ अजन्मे शिशु को मार देंगे क्या 
बलात्कार के बाद लाशें फूंक जला देंगे क्या 
हम दोनों फिर चुप रहे सादिया हसन 
हमारी चाय रखी हुई ठंडी हो गई
. 

हम फूलों तितलियों शहद की बातें करते थे 
हम हमारे दो अजनबी शहर की बातें करते थे 
हम चाय पर जब भी मिलते थे 
बदल लेते थे नजर चुरा हमारे चाय की ग्लास 
पहली बार तुम्हारी जूठी चाय पी 
तो तुमने हे राम कहा था
मेरा खुदा तुम्हारे हे राम पर मर मिटा था
. 

पर उस सुबह की चाय पर सबकुछ बदल गया सादिया हसन 
एक और बार अपने असली रंग में दिखी 
ये कौमें
..नस्लें .. यह मेरा तुम्हारा मादरे वतन 
टी वी पर आग थी खून था लाशें थीं 
उस दिन खरखराहट थी तुम्हारे फोन में आवाज़ में 
तुमने चाय बनाने का बहाना कर फोन रख दिया
. 

मैं जानता हूँ उस दिन तुमने देर तक उबाली होगी चाय 
मैंने कई दिन तक चाय नहीं पी सादिया हसन
. 

मैं तुम्हारे बदले से डरने लगा 
क्रिया की प्रतिक्रिया पर अब क्या दोगी प्रतिक्रिया 
इस गुजार में रोज मरने लगा 
जब भी कभी हिम्मत से तुम्हें कॉल किया 
बताया गया तुम चाय बनाने में व्यस्त हो 
मैंने जब भी चाय पी आधी ग्लास तुम्हारे लिए छोड़ दी
. 

गुजरात ने हम दोनों को बदल दिया था सादिया हसन
. 

ठंडी हो गई ख़बरों के बीच तुम्हारी चिट्ठी मिली थी
 
‘’ गुजरात बहुत दूर है यहाँ से 
और वे मुझे मारने आये तो तुम्हारा नाम ले लूँगी 
तुम्हें मारने आयें तो मेरे नाम के साथ कलमा पढ़ लेना 
और मैं याद करुँगी तुम्हें शाम सुबह की चाय के वक़्त 
तुम्हारे राम से डरती रहूंगी ताउम्र 
मेरे अल्लाह पर ही मुझे अब कहाँ रहा यकीन ‘’ 

तुम्हारे निकाह की ख़बरों के बीच 
फिर तुम गायब हो गई सादिया हसन 
मैंने तुम्हारा नाम उसी लापता लिस्ट में जोड़ दिया 
जिस लिस्ट में गुजरात की हजारों लापता सादियाओं समीनाओं के नाम थे 
नाम थे दोसाला चार साल बारहसाला अब्दुलों अनवरों के
. 

हजारों चाय के ग्लास के साथ यह वक़्त गुजर गया
. 

मैं चाय के साथ अभी अखबार पढ़ रहा हूँ सादिया हसन 
खबर है कि गुजरात अब दूर नहीं रहा 
वह मुल्क के हर कोने तक पहुँच गया है 
मेरे हाथ की चाय गर्म हो गई है 
ये चाय इतनी गर्म कभी न थी 
इसकी मिठास इतनी कम कभी न थी 
सादिया हसन, मेरी चाय को तुम्हारी फूंक चाहिए
. 
***

7

एक दिन
कीड़े खा जाएंगे तुम्हारी रखी जमा की गई किताबों को
फिर कीड़े आहार बनाएंगे तुम्हारी लिखी जा रही कविताओं को
फिर वे तुम्हारे जेहन पर हमला करेंगे
चबा लेंगे अजन्मी कविताओं के एक एक शब्द
वे खा लेंगे नींब से चाटते तुम्हारी पूरी कलम
और अंत में वे तुम्हारी उँगलियों को घर बना लेंगे
.
***  

8

प्रार्थना से हम करते हैं
तुम्हारे प्रति हमारे अविश्वास की संस्तुति
और रखते हैं आँखें बंद कि
हमारे समक्ष होने में प्रकट
तुम्हें खुली आँखों से भय न हो ईश्वर
!

और हम हाथ इसलिए जोड़े रखते हैं कि 
तुम हो नहीं 
जो होते तो थामते हाथ 
कि हमारे एक हाथ को देता है ढाढस 
हमारा ही हाथ दूसरा
.  
***

9

किसी कविता में कौवा आ जाय तो
उसे उड़ाने
मार भगाने के बजाय
टूटा घड़ा और कंकड़ रख दो.
*** 

10

चींटियों को यकीन है आएगी बारिश
कौवे को यकीन आएगा आने वाला
लड़की को यकीन है पत्थर देवता ढूंढ लायेंगे अच्छा घर वर
पंडित को यकीन कि मरेगी बिल्ली और बरसेगा सोना.

मछलियों को यकीन है कि तालाब में रहेगा साल भर पानी
बगुले को यकीन एक रोज चुग लूँगा मन भर मछलियाँ 
केकड़े को यकीन वह बचेगा हर सूरत में. 

घर को यकीन है लौट आएगा प्रवासी
सिपाही को यकीन है जल्द ही बुला लेगा घर. 

सब यकीन में जी रहे हैं. 

मुझे यकीन है कि अब बदल गया है समय 
पुरानी बात रही नहीं 
यकीन पर भरोसे लायक रही नहीं दुनिया. 
***  

नाम : शायक आलोक
जन्मतिथि : 08.01.1983
बेगूसराय, बिहार 

पेशे से पत्रकार और फोटोग्राफर शायक आलोक बेगूसराय, बिहार के हैं और संप्रति दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन और फोटोग्राफी करते हैं. ये इतिहास और मनोविज्ञान के छात्र रहे हैं. इनकी कुछ कविताएं व कहानी जनसत्ता, कथादेश, समावर्तन, कल के लिए, निकट, संवदिया, नेशनल दुनिया, शुक्रवार वार्षिकी आदि में प्रकाशित हुई हैं.

संपर्क : shayak.alok.journo@gmail.com / +91-8527036706   
 


 


0 thoughts on “शायक आलोक की दस कविताएं”

  1. abhishek prakash

    शायक जी अभी आपके फेसबुक प्रोफाइल को देखा तो ये लिंक मिला। चुकि आपके प्रोफाइल को फालो करता हूँ तो कभी कभी कुछ पढ़ भी लेता हूँ तो एक मौजू व्यक्ति की तरह ही पाया ।लेकिन आपकी कविता से आपकी विचारो की गहराई, संवेदनशीलता का पता चला। चुकि मै साहित्य का विद्यार्थी नहीं हूँ इसलिए कविता पर मै बहुत सूक्ष्म विश्लेष्ण तो नहीं कर सकता। लेकिन इतना कह सकता हूँ कि'जनभाषा' का इस्तेमाल और युगबोध के हिसाब से आमजन को झकझोरने वाली रचना है। गोधरा पर जो आपने लिखा उसके लिए शब्द नहीं बस स्तब्ध हूँ कि हमारे समाज में सोच तो है पर वो फलक पर नहीं आती!

  2. शायक आलोक को अच्छी कविताओं के लिए बधाई !अनुनाद और शिरीष भाई को भी अच्छी कविताओं का चयन जारी करने के लिए बधाई !

  3. bahut he sundar, sahaj aur saargarbhit kavitayein…. kaam ki soch aur prastutikarn.. hardik badhai aur shubhkamanayein… dhanyabaad ish post ke liye.

  4. शायक आलोक की कविताओं को इग्नोर नहीं किया जा सकता ।
    एक जबरदस्त स्वर है उनकी कविताओं में जो पढ़नेवाले को स्वतः
    खींचता है अपनी ओर । सभी कविताएँ बढ़िया हैं ……………………………..

  5. अच्छी कवितायें / " तुम्हारे समय का घाव " और "तुम्हारा चुप रहना " बहुत अच्छी लगी !

  6. शायक को इन कविताओं के लिए बधाई . बेईमानी नहीं करुँगी , सच कहूँगी कि इन कविताओं में यकीनन बचे रहने और बचाए रखने की ताकत है . कवयो मनीषा ..

  7. बहुत समय बाद कुछ बेहतरीन पढा ,हृदय प्रफुलित हो गया। धन्यवाद लेखक साब।

  8. अच्छी कविताएँ। हमारे समय की नब्ज़ को महसूसती।कवि को बधाई!

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