अनुनाद

अनुनाद

आर्याव्रत में मिस्टर के: ईस्वी सन २०१४ – गिरिराज किराडू

गिरिराज किराड़ू नामक हमारा साथी और प्रिय कवि कविता के इलाक़े में इतना धैर्यवान है कि हमारे धैर्य की परीक्षा लेने लगता है। बहुत प्रतीक्षा के बाद कुछ दिनों से मेरे पास गिरिराज की ये कविताएं हैं और वही पुराना आलम है इस पाठक के दिल का, जिसे अनुनाद पर गिरिराज की कविताएं लगाते हुए पहले भी कई बार लिखा, इस बार छोड़ रहा हूं….. अब कुछ भी कहा जाना, कहीं और विस्तार से कहा जाना है।  इन कविताओं के लिए शुक्रिया दोस्त।  
**** 
[यह
कविताएं जुलाई २०१४ में पूरे होशो हवास में लिखी गयीं थीं, पांच महीने कविताएं अप्रकाशित
रहीं इससे कवि के अपेक्षाकृत स्वस्थ होने का संकेत मिलता है. इस दौरान इन्हें सुनने
वाले दोस्तों महेश वर्मा, शिव कुमार गांधी,  प्रभात, पद्मजा और कमलजी के लिए]
सुबह तीन
बजे हमने सुबह में रहने की ख्वाहिश को तर्क कर दिया
चार बजे तक
साफ़ नज़र आने लगे वे शव जिन्हें दफ़नाने की जिम्मेवारी हमारी नहीं थी
पाँच बजे
हमने अंतःकरण को एक हथियार की तरह खोंसा
छह बजे
पार्क में फूलों पर मंडरा रहे थे ठहाके कभी बूढ़े कभी दुष्ट
सात बजे
हमारे फोन में गिरा ‘आक्रमण’
आठ बजे
आरती हुई
नौ बजे बूट
बजाये
दस बजे हम
राष्ट्र हो गए
भूख का
अनुभव एक पीढ़ी से नहीं
जिन्होंने
रोटी के लिए की थी गुंडागर्दी वे बच्चे आपके पिता हो गए
अब भी एक
एक कौर ऐसे चाट के खाते हैं  लगता है खाना
खाने तक की तमीज़ नहीं
आप अन्न के
स्वाद से कई जन्मों की दूरी पर हैं
और उनकी
ऐतिहासिक भूख पर अब कलकत्ते की पुलिस का नहीं आपका पहरा है
मेरा दुख
तुम्हारे भीतर नहीं बस सका   
तो जाना
मेरे भीतर दुख की कोई बसावट नहीं
मैं बस तंज
करना जानता हूँ
पेड़ों पर
हर तरफ झूल रहे हैं शरीर
बच्चों और
पक्षियों के क्षतविक्षत शव लटके हैं आकाश में
मैं तंज
करता हूँ और अपने समूह की खोखल में जा
छुपता हूँ
आप कौनसा वाद्य बजाते हैं का उत्तर नवीन सागर नामक हिंदी कवि के पास यह था कि
मैं संतूर नहीं बजाता नहीं बजाता तो नहीं बजाता अगर आप इस वजह से मुझे कम मनुष्य
मानने वाले हैं तो मानिये लेकिन नहीं बजाता तो नहीं बजाता
जीवन की
काल-कोठरी में रामकुमार का चित्र टंगा होना चाहिए ऐसा महसूस करने वाले नवीन तक
मृत्यु के मटमैले पर्दे के पार यह संदेसा पहुंचे कि मेरे जीवन की काल-कोठरी में एक
संतूर टंगा है जिसे मैं नहीं बजाता तो नहीं बजाता
जिसे आप
एकदम ज़लील आदमी मानते हैं उसके साथ रेल में रात का सफर मत कीजिये
वह इतनी
बार घबराया हुआ पसीने में तरबतर नींद से उठ बैठेगा कि
सुबह उसे हिफ़ाज़त
से घर छोड़ने जाना कर्तव्य लगने लगेगा लेकिन आपको किसी दूसरे शहर जाना होगा
और एकदम
ज़लील एक आदमी की ऊबड़खाबड़ नींद आपके गले में मनहूस परिंदा बनकर लटक जाए
इसका इल्ज़ाम
भारतीय रेल के सर क्यूँ करना चाहेंगे आप?
कविता में
नाम लेना बहुत मुश्किल काम है, रमेश
लिखो नाथूराम
गोडसे, रमेश
अब लिखो वे
पचास और नाम जो इसके बाद लिखे जाने चाहिए, रमेश
तुम अपने को
कालातीत क्यूँ करना चाहते हो, रमेश
तुम कविता
में सिर्फ रमेश लिखो, रमेश
[एक बार
फिर रघुवीर सहाय के लिए]
*** 
[अंतिम] [प्रेम]
[कविता]
आपसे प्रेम
नहीं करने में उसका सुख है
जब आप कब्र
की ओर चालीस कदम चल चुके होंगे तो
दुआ देंगे
उसे आपसे प्रेम नहीं करने के लिए
तब तक उसके
नक्श-ए-क़दम में इरम है
बस अपनी
आँखें खुली रखिये
***

गृहस्थ मोटरसाईकिल

 
 
गृहस्थी मोटरसाईकिल
पर बस जाती है
मोटरसाईकिल
पन्द्रह बरस बाद वही रहती है
लेकिन आप
किसी और के साथ रहते हैं
अब अब तक
के सारे प्रेम गृहस्थ हैं एक ऐसा ख़याल है जिसके हाथ में खंज़र है

एक स्त्री
एक पुरुष के साथ गृहस्थी बसाती है
मोटरसाईकिल
पर
एक निर्दोष
सपना देखती है मोटरसाईकिल पर
पुरुष
मोटरसाईकिल चलाता है
स्त्री कार
चलाना सीख लेती है
                                                कार
में गृहस्थी
                   मोटरसाईकिल पर गृहस्थी
एक पुरुष
एक स्त्री से कार चलाना नहीं सीखता
एक स्त्री
एक पुरुष की मोटरसाईकिल को अजायबघर में रख आती है
 
हजारों
लोगों को मार दिए जाने का समाचार सुबह पढ़ने के बाद
आप प्रेम
करते हैं रात में
मोटरसाईकिल
अहाते में दो शवों  के साथ गिरती है

किसी और
भाषा में लिखे जिस मृत्युलेख से बना है 
मोटरसाईकिल
का शरीर
उसके कई
अनुवाद हैं  गृहस्थी प्रेम संहार
अनुवाद में
उम्मीद नहीं
कौन मरा का
अनुवाद इधर की भाषा में किसने मारा नहीं  
*** 
किरदार बदल
गया है
बेहद प्यार
आता है उन पर जो अपनी कविता में बना लेते हैं प्रधानमंत्री को एक किरदार
यह बात
छुपाने का कोई फायदा नहीं कि इस प्यार का कारण शुरू में यह होता है कि यह कोशिश एक
आकर्षक मासूम मूर्खता लगती है आखिर अरबपतियों वैज्ञानिकों राजनेताओं
क्रांतिकारियों और जनसंहारकों आदि की तरह कवियों को भी लगता है वही सबसे
महत्वपूर्ण हैं संसार के इस गोरखधंधे में
लेकिन बीच
बीच में ढीले  शिल्प और कलात्मक आलस्य के
बावजूद जब वह कविता जीवन में तीन बार सुन ली जाती है उसके मानी पहले से ज्यादा
दिलफरेब और मानो शरारती ढंग से जटिल होने लगते हैं
इस बीच कोई
और प्रधानमंत्री हो जाता है और कविता को शाश्वत होने की दुश्वारी आ पड़ती है
बिना बदले
कुछ भी कवि चौथी बार आपके सम्मुख पढ़ता है प्रधानमंत्री वाली कविता और आप जोर से
चिल्लाना चाहते हैं अरे किरदार बदल गया है
जाने कैसे
मंच पर अपनी कविता की पहुँच से आश्वस्त अपने मैनेरिज्म में खोये कवि तक आपका इरादा
पहुँच जाता है
उसकी आँखें
सभागार में ढूँढती हैं आपको
वह जैसे
तैसे अपनी शायद सबसे लोकप्रिय कविता पूरी करता है
[राजेश
जोशी के लिए, अग्रिम माफ़ी की अर्ज़ी के साथ]
*** 
आत्मावलोकन
२०१४
जिन
पन्द्रह सालों में मैं अपनी नज़रों से गिरा
चौदह एक
नयी शताब्दी के थे
एक पुरानी
का
मुझे गणित
नहीं आता था लेकिन फिर भी मेरा दावा था
संसार और
दर्शन को समझ लेने का
एक पुराना
और चौदह नये के समीकरण से
अपनी नज़रों
से गिरने के लिए दो शताब्दियों में होना ज़रूरी था
यह पलटकर
मैंने रामानुजम या विटगेंस्टाइन से नहीं अपनी अँगरेज़ छाया से कहा  
उसने कहा
भाड़ में जाओ यह अनुवाद है फक ऑफ का
***

0 thoughts on “आर्याव्रत में मिस्टर के: ईस्वी सन २०१४ – गिरिराज किराडू”

  1. तुरत फुरत क्या लिखा जाए ऐसी कविताओं पर कि इनसे अन्याय न हो, न्याय तो खैर आजकल होता भी कम है. बस यही कि फिर से पढ़ रहा हूँ

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