भारतीय स्त्री
के जीवन के करुण महाख्यान के कुछ पृष्ठ लिखती सोनी पाण्डेय की यह कविता प्रस्तुत करते
हुए अनुनाद उनका आभारी है। यह पृष्ठ जो बहस में रहेंगे, विमर्श में नहीं अटेंगे, किसी भी अकादमिक बड़बोले अकादमिक
लेखन से दूर हमेशा इसी तरह के प्रतिबद्ध रचनात्मक लेखन में धड़केंगे। सोनी पाण्डेय ने अब तक के कविकर्म में अपने जीवनानुभवों के साथ जिस सामाजिक यथार्थ को पाठकों के सामने रखा है, वह हमारे बहुत निकट का यथार्थ है और उतना ही विकट भी। इस जीवन को जानना, इस पर गहराते संकटों को गहरे तक जानना भी है। ऐसे कवि हमें चाहिए जो उस महाख्यान को समझें, जिसे एक समग्र पद में हम जीवन कहते हैं। सोनी ऐसे ही कवियों में अब शुमार हैं।
***
चौके
की रांड़, गोड़वुल वाली आजी
(एक विधवा के जीवन पर आधारित कुल कथा जिसे माँ के मुँह से सुना था )
1.
मेरे बचपन की कहानियों में
न राजा था न रानी
ना आजी और नानी की भावपूर्ण लोरियाँ
सतरंगी बचपन के ना ही खूबसूरत स्वप्न
माँ थी , माँ का जीवन संघर्ष था ,
सासों का द्वन्द था
माँ सिसकती रही तब से
जब से छिना उसकी नन्हीं उँगलियों के बीच से माँ के आँचल का कोर
आज भी जार – जार रोती है
उसके अन्दर की बेटी
माँ के कफ़न लिपटे शरीर को याद कर ।
2.
बिन माँ की बेटी माँ के हिस्से में नहीं थे राजा और रानी के किस्से
इस लिये वो हम चारो को
सुनाती थी कुछ जीवन्त किस्से
जिसमें औरत थी
औरत का जीवन था
चूल्हा था चाकी था , दरवाजे पर बँधा हाथी था
बाबा का बंगला
बावन गाँव की राजशाही थी ।
3 .
इसी घर में अम्मा ने देखा था
गोडवुल वाली आजी को
भर – भर अंचरा निचुडते
गठरी भर सिकुडते हुए
अम्मा के क़िस्सो में ये सबसे करुण गाथा थी
क्यों कि आजी और अम्मा का नाता
काश और मूज की तरह बना
सुजनी से छेद कर डाली में ढ़ला
जिसमें सहेज कर रखती रहीं घर भर की सुहागिनें
सिंनोरा भर सेंदुर
कहलाती रहीं सधवा ।
4.
मैंने भी देखा था
दक्खिन वाली दालान के कोने में
एक शापित कोठरी
जिसके छाजन की आँखों से आज भी बूँद – बूँद टपकता है आजी का जीवन
यहीं ब्याह कर उतरीं थीं आजी
और सुहाग सेज पर बैठे हुए काल को दे बैठीं जीवन का उजास
डूब गया ब्याहते ही जीवन का सूर्य
बन बैठीं उतरते ही चौके की रांड़।
5.
चौके की रांड़ आजी
अम्मा कहते – कहते फफक पडती
बहिनी घर में पड़ा अतिरिक्त सामान थीं
संस्कृति का कूडे़दान थीं
जहाँ खखाकर थूकना चाहती थी पुरुष की सभ्यता
और आजी पूरे दिन क़ैद रहतीं चौखट के पिंजड़े में ।
6.
गोड़वुल वाली आजी तब तक रहीं घर में रहीं अहम
जब तक लातीं रहीं नईहर से
बाँधकर कमर में
भर खोंईछादानी अशरफ़ी और मुहरें
रसद बैलगाड़ी में
अम्मा ने सुना था नाऊन के मुँह से कि
उनके पलंग के पाये चाँदी के और झालर सोने के थे ।
7.
आजी की सफ़ेद एकलाईवाली साड़ी
अम्मा कहती थी
धीरे – धीरे मटमैली होती गयी
जब ख़ाली हो गयी नईहर की तिजोरी
बचा रह गए शापित खेत और खलिहान
घर और दालान
जिसकी चौखट पर उजाड़ कर पूरा कुटम्ब बैठे थे ब्रह्म
शेष बची आजी कही जाती थीं
हट्ठिन और मरीन
जिसका बिहाने मुँह देखना महापाप
छू जाना शाप था ।
8.
धीरे – धीरे अम्मा कहती थीं
कि आजी का जीवन
घर भर की सुहागिनों के उतरन और बच्चों के जूठन पर आ टिका
जो लेकर उतरीं थीं
सोने की ईंट
बखरी भर रसद ।
9.
चौके की राड़ आजी और अम्मा का नाता
बिन सास के घर में
दियना संग बाती-सा था
जब उतरी थी अम्मा बारहवें साल में
बन कर नववधू बड़का दुवार पर
बिन माँ की बेटी को छाती से साट कर सोती थीं आजी
जब बाऊजी सोते थे पिता की गोद में
पकडकर नन्हीं हथेलियों को सिखातीं लिखना और पढना
औरत का जीवन जब बाऊजी जाते दूर शहर पढने
आजी के कमरे की दीवारों पर देखे थे अम्मा ने
कुछ लाल कुछ स्याह धब्बे
जो भरे यौवन में बड़ी तबाही का दस्तावेज़ थे ।
देखी थीं पलंग के नीचे मऊनी में कुछ लाल कुछ पीली चूडियाँ
जिसे रात में पहनतीं और दिन में तोडतीं थीं आजी
काठ के सन्दूक में कुछ नीली -पीली साड़ियां
ताखे पर डिबनी भर पीला सिन्दूर
जिसे रात में लगाकर सुबह धोती थीं आजी
कहलाती थीं राड़िन और साढ़िन
विधवा का प्रपंच ।
10.
अम्मा कहते -कहते रो पड़ती फफक कर
कि
त्योहारों में आजी
कूंच लेतीं पाँव के नाख़ून
और रिसते हुए ख़ून से
पोत लेतीं महावर
भर लेतीं माँग और कढ़ाकर
करुण राग चित्कारतीं
” कहाँ गईलें रे रमऊवा
हमार सेजिया डसाई के हो रामा . . . ,” ।
***
सोनी पाण्डेय
कृष्णानगर
मऊ रोड
सिधारी आजमगढ
उत्तर प्रदेश
9415907958
dr.antimasoni@gmail.com
(एक विधवा के जीवन पर आधारित कुल कथा जिसे माँ के मुँह से सुना था )
1.
मेरे बचपन की कहानियों में
न राजा था न रानी
ना आजी और नानी की भावपूर्ण लोरियाँ
सतरंगी बचपन के ना ही खूबसूरत स्वप्न
माँ थी , माँ का जीवन संघर्ष था ,
सासों का द्वन्द था
माँ सिसकती रही तब से
जब से छिना उसकी नन्हीं उँगलियों के बीच से माँ के आँचल का कोर
आज भी जार – जार रोती है
उसके अन्दर की बेटी
माँ के कफ़न लिपटे शरीर को याद कर ।
2.
बिन माँ की बेटी माँ के हिस्से में नहीं थे राजा और रानी के किस्से
इस लिये वो हम चारो को
सुनाती थी कुछ जीवन्त किस्से
जिसमें औरत थी
औरत का जीवन था
चूल्हा था चाकी था , दरवाजे पर बँधा हाथी था
बाबा का बंगला
बावन गाँव की राजशाही थी ।
3 .
इसी घर में अम्मा ने देखा था
गोडवुल वाली आजी को
भर – भर अंचरा निचुडते
गठरी भर सिकुडते हुए
अम्मा के क़िस्सो में ये सबसे करुण गाथा थी
क्यों कि आजी और अम्मा का नाता
काश और मूज की तरह बना
सुजनी से छेद कर डाली में ढ़ला
जिसमें सहेज कर रखती रहीं घर भर की सुहागिनें
सिंनोरा भर सेंदुर
कहलाती रहीं सधवा ।
4.
मैंने भी देखा था
दक्खिन वाली दालान के कोने में
एक शापित कोठरी
जिसके छाजन की आँखों से आज भी बूँद – बूँद टपकता है आजी का जीवन
यहीं ब्याह कर उतरीं थीं आजी
और सुहाग सेज पर बैठे हुए काल को दे बैठीं जीवन का उजास
डूब गया ब्याहते ही जीवन का सूर्य
बन बैठीं उतरते ही चौके की रांड़।
5.
चौके की रांड़ आजी
अम्मा कहते – कहते फफक पडती
बहिनी घर में पड़ा अतिरिक्त सामान थीं
संस्कृति का कूडे़दान थीं
जहाँ खखाकर थूकना चाहती थी पुरुष की सभ्यता
और आजी पूरे दिन क़ैद रहतीं चौखट के पिंजड़े में ।
6.
गोड़वुल वाली आजी तब तक रहीं घर में रहीं अहम
जब तक लातीं रहीं नईहर से
बाँधकर कमर में
भर खोंईछादानी अशरफ़ी और मुहरें
रसद बैलगाड़ी में
अम्मा ने सुना था नाऊन के मुँह से कि
उनके पलंग के पाये चाँदी के और झालर सोने के थे ।
7.
आजी की सफ़ेद एकलाईवाली साड़ी
अम्मा कहती थी
धीरे – धीरे मटमैली होती गयी
जब ख़ाली हो गयी नईहर की तिजोरी
बचा रह गए शापित खेत और खलिहान
घर और दालान
जिसकी चौखट पर उजाड़ कर पूरा कुटम्ब बैठे थे ब्रह्म
शेष बची आजी कही जाती थीं
हट्ठिन और मरीन
जिसका बिहाने मुँह देखना महापाप
छू जाना शाप था ।
8.
धीरे – धीरे अम्मा कहती थीं
कि आजी का जीवन
घर भर की सुहागिनों के उतरन और बच्चों के जूठन पर आ टिका
जो लेकर उतरीं थीं
सोने की ईंट
बखरी भर रसद ।
9.
चौके की राड़ आजी और अम्मा का नाता
बिन सास के घर में
दियना संग बाती-सा था
जब उतरी थी अम्मा बारहवें साल में
बन कर नववधू बड़का दुवार पर
बिन माँ की बेटी को छाती से साट कर सोती थीं आजी
जब बाऊजी सोते थे पिता की गोद में
पकडकर नन्हीं हथेलियों को सिखातीं लिखना और पढना
औरत का जीवन जब बाऊजी जाते दूर शहर पढने
आजी के कमरे की दीवारों पर देखे थे अम्मा ने
कुछ लाल कुछ स्याह धब्बे
जो भरे यौवन में बड़ी तबाही का दस्तावेज़ थे ।
देखी थीं पलंग के नीचे मऊनी में कुछ लाल कुछ पीली चूडियाँ
जिसे रात में पहनतीं और दिन में तोडतीं थीं आजी
काठ के सन्दूक में कुछ नीली -पीली साड़ियां
ताखे पर डिबनी भर पीला सिन्दूर
जिसे रात में लगाकर सुबह धोती थीं आजी
कहलाती थीं राड़िन और साढ़िन
विधवा का प्रपंच ।
10.
अम्मा कहते -कहते रो पड़ती फफक कर
कि
त्योहारों में आजी
कूंच लेतीं पाँव के नाख़ून
और रिसते हुए ख़ून से
पोत लेतीं महावर
भर लेतीं माँग और कढ़ाकर
करुण राग चित्कारतीं
” कहाँ गईलें रे रमऊवा
हमार सेजिया डसाई के हो रामा . . . ,” ।
***
सोनी पाण्डेय
कृष्णानगर
मऊ रोड
सिधारी आजमगढ
उत्तर प्रदेश
9415907958
dr.antimasoni@gmail.com
यह तो विलाप है सोनी।
इस कविता में तीन पीढी की औरते है।
स्वयं लेखिका ,उसकी मां और दादी।
मां और दादी भी स्मृतियों में है । लेकिन ये स्मृतियां पिछले पचास साल के गांव के लूट की जो तस्वीर दिखाती है वह अदभुत है।आजी की नहीं यह तो जैसे गांव की पुकार हो।
बहुत ही मार्मिक … और भाषा शैली अद्भुत
अतीत के कटु और तीखे अनुभवों को अत्यंत मार्मिक अंदाज में उकेरा है; सोनी जी
बहुत सुन्दर चित्रण
स्त्री का क्रंदन और हाहाकार।मन को झकझोरने वाली कविता।सोनी, तुम्हे और तुम्हारी कलम को सलाम।
सुभान अल्लाह
एक ही शब्द …………वाह
बेहतरीन उद्गार
बहुत ही मार्मिक और अद्भुत बधाई सोनी मेम
बेहतरीन कविता…. कविता गाँव की स्त्रियों की पीड़ा का आख्यान है… गांव का दर्द है जो कविता से बाहर आने को आतुर है।
बहुत ही सुंदर व दिल को छूने वाली कविताएं
अच्छी कविता है
कटु यथार्थ…