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रेखांकन :शिरीष |
चुप रहती
लड़की
मेरी दोस्त
तुम जानती नहीं हो
चुप और अकेली लड़की को देख
मतलब निकाले जाते हैं
पूर्वाग्रह पाले जाते हैं
तुम जिस दुनिया में रह रही हो
वहाँ लड़की शब्दकोश में नहीं है
पर उसके अर्थ सबसे ज्यादा हैं
मसलन
सार्वजनिक बोलती
बेबाक घूमती
हाथ पैर चलाती लड़की को
छिनाल कह दिया जाता है
अकेली बैठ
पेड़ से बातें करती का अर्थ
प्यार ले लिया जाता है
सवाल ले लिया जाता है
बवाल ले लिया जाता है
चुप रहती का अर्थ
कटी पतंग
पहाड़ का संग
पानी का रंग भी समझा जाता है
यहाँ रोती का अर्थ
सिनेमाई सास ललिता पवार
या माँ निरूपा राय भी होता है
रोती का एक अर्थ
चक्की की आवाज़
चूल्हे का धुआं भी माना जाता है …
सच तो यह है
लड़की का अर्थ
ग्लोबल है
पंचतत्व है
सबकुछ है
बस लड़की नहीं है
तुम जानती नहीं हो
चुप और अकेली लड़की पर
कविताएँ लिखी जाती हैं
कविताएँ मौन अपेक्षित नहीं होती
तुम बोलो
बोलने से अधिक सोचो
तुमसे मौन अपेक्षित क्यों नहीं है
जबकि इस दौर में
दिल्ली की अपेक्षा
मौन के अतिरिक्त कुछ नहीं है
वे चाहते हैं
तुम बोलो
पर विनायक सेन होकर नहीं
सुष्मिता सेन होकर
अरुंधती राय होकर नहीं
ऐश्वर्य राय होकर
मेरी दोस्त
तुम्हारे बोलने से
खूंटे की गाय खोलने से
उनको कोई खतरा नहीं
वे जानते हैं
जंगल में रहते हुए भी
तुमने अभी तक
शेरनी पर कोई किताब नहीं पढ़ी
…
तुम बोलती नहीं
बताओ तो इतने बड़े देश में
तुम चुप और अकेली क्यों हो
क्या यह चुप्पी इरोम शर्मिला के साथ है ।
{ २०११ }
***
बच्चे बड़े हो रहे हैं
एक बूढ़ा विस्थापित
जिसका नाम कम्मा था
मृत्यु शैय्या पर
अचेतावस्था में
ज़िद करता
बच्चे सी –
कहता
‘ मिगी छम्बे लई चलो घर अपने …
पाड़ा अले खुए दा पानी लई अओ
में उए पीना जे …बस उए !‘ *
उसके प्राण रहते
घर वाले उससे
झूठ बोलते रहे
नल के पानी को
उत्तर वाले कुएं का बतला
पानी पिलाते रहे
उसे पतियाते रहे
अब वो नहीं रहा
उसकी ज़िद कहीं और …
एक अनपढ़ याददाश्त
बताती है
कैसे सन बहत्तर में
एक बाल कटी औरत के
फैसले से
इक्यावन गाँव के कुएं
जो रहट से
मेहनत से बंधे थे
उस पड़ोसी के लिए छोड़ दिए गए
जिसे धरती सींचने की तमीज नहीं
कुएं
मौन थे
गहरे थे
उलीचे जाने सम्भव नहीं थे
मिल मिलाकर
ऊपर खड़े होकर
बंद कर दिए गए
नीचे पानी अब भी है …
एक अन्य विस्थापित
जो अपनी मिट्टी से बहुत प्यार करता था
तिरंगा
सीने से लगाए रखता था
माँ भूमि को छोड़ते हुए उसने
अपनी मिट्टी को कांगड़ी में भर लिया था
अंत तक उसने दर्पण नहीं देखा
वह डल में अपनी छवि निहारना चाहता था
इस आस को दबाए
वह एक दिन कच्ची दीवार के नीचे दब गया
उसकी लाई मिट्टी को
एक चालाक मसीहा ने
राजपथ पर रख
उसमें मनीप्लांट की बेलें लगाई
जो फलते फूलते
यू ० एन ० ओ ० तक फैल गई हैं
वह चालाक आदमी
भावना से सराबोर
कैमरे के सामने
कैमरे की याददाश्त से
कला केन्द्रों
साहित्यिक कार्यक्रमों
राजनीतिक सभाओं में
खूब बोलता और बताता है
कि कैसे एकाएक सन ८९ में
स्वर्ग के झरने
मरने के लिए
बिच्छू सांप और लू से भरी
धरती पर मोड़ दिए गए …
यह अलग बात है
पुराण कथाएँ सत्य हो रही हैं
स्वर्ग चतुर्दिक
झण्डे गाढ़ रहा है
धरती हार रही है
झरने ऊँचे थे
शोर करते थे
हाथ हिला हिला कर
उनके फोटों लिए गए
सत्ता के गलियारों में
प्रदर्शित किए गए
[जो साफ़ नहीं हैं ]
पर आज गौरतलब है
फोटो लैब में बैठ
कुछ बच्चे फोटो साफ़ कर रहे हैं
कुएं खोद रहे हैं
यक़ीनन नीचे पानी अब भी है
कड़े हो रहे हैं तानकर खड़े हो रहे हैं
सावधान !
बच्चे बड़े हो रहे हैं .
{ २०१० }
* मुझे छम्ब ले चलो अपने घर …मैंने उत्तर वाले कुएँ का पानी ही
पीना …बस वही .
***
एक खुला हुआ ख़त
सुनो !
कान धरो
मैं फिर लडूंगा
फिर मारूंगा फिर मरूँगा
फिर सोचूंगा फिर बोलूँगा
फिर लिखूंगा
न हारा था
न हारूँगा
जल जंगल ज़मीन मेरी है
शोषकों की हर मशीन मेरी है
आप इसे सनक कहें या जनून
यहाँ कोई फर्क पड़ने वाला नहीं
सच तो यह है
आज़ादी न्याय अधिकार समता मांगना
छीनना
सनक है न जनून है
यह सबूत है कि अभी
जिन्दा मुझमें खून है
गौरतलब है
उनके पास वातानुकलित कक्ष है
मेरे पास नीर बहाता वक्ष है
मेरे पास एक मत है
मत क्या है
खुला हुआ एक ख़त है
उन कवियों
समाजशास्त्रियों
राजनीतिज्ञों
पत्रकारों
बुद्धिजीविओं के नाम
जो बहस मुबाहिसों में
बस यही फरमाते हैं –
कुछ नहीं हो सकता है
कुछ नहीं हो सकता है …
जो शोक गीत गाते हैं
चूल्हा नहीं जलता है
चिराग भी बस बुझता है
सुहाग चक्की में पिसता है
कुछ नहीं हो सकता है …
पर पढ़ो तो
ख़त में यह खुलासा है
पासा पलट सकता है
कुछ भी हो सकता है
देश के साथ कुछ टोपियों और लुंघियों ने
बलात्कार किया है
श्रमजीवी इसका गर्भपात न होने देंगे
सपना नहीं खोने देंगे
सदियों की यातना के बाद ही सही
देश एक बच्चे को जन्म देने की प्रक्रिया में है
लिंग से फर्क नहीं पड़ता
होने वाली संतान सवाल करेगी
सेरालक के लिए बवाल करेगी
सेब सा चेहरा लाल करेगी
अपने हक़ के लिए कमाल करेगी
इस बीच आप जागो
अपनी समझ से परदे उठाओ
पीछे कुछ हथियार पड़े हैं
हम सब के पास अपने अपने हथियार हैं
हमें इन्ही से लड़ना है
यह लड़ाई
बेलन से लेकर
विचार से होते हुए
बन्दूक तक से हो सकती है
हथियार कौन सा चुनना है
यह विकल्प हो सकता है
पर लड़ाई किससे है
इसमें कोई विकल्प नहीं
अपने हजारों चेहरों में भी
वह तो सिर्फ एक है
हमें अक्ल के घोड़े
दौड़ा दौड़ा कर
उसके होने
और हमारे न होने के कारणों में से
सबसे सही कारण
तलाशना है
उसे खत्म करना है
हमें यह देखना है
हम ही कतारों में क्यों फँसे हैं
सुलभ शोचालयों के बाहर
असुलभता उठाते
हम सोच क्यों नहीं पा रहे है कि
हम इतने अधिक हैं
संख्या में
कि हमारा पेशाब तक
सैलाब ला सकता है
फिर हम तो हम हैं
जलजला ला सकते है
खुलकर गा सकते हैं
सुनो कान धरो
मैं तो लडूंगा
आपकी तो खैर …
{ २०१० }
***
परिचय :-
कमल जीत चौधरी
जन्म :- १३ अगस्त १९८० काली बड़ी , साम्बा {
जे० & के० } में एक
छम्ब
विस्थापित जाट परिवार में
शिक्षा :- जम्मू वि०वि० से हिन्दी साहित्य में परास्नातक { स्वर्ण पदक
प्राप्त } ; एम०फिल० ; सेट
लेखन :- २००७-०८ में लिखना शुरू किया
प्रकाशित :- संयुक्त संग्रहों ‘स्वर एकादश‘
{ स० राज्यवर्द्धन } तथा ‘तवी
जहाँ से गुजरती है‘ { स० अशोक कुमार } में कुछ कविताएँ , नया ज्ञानोदय ,
सृजन सन्दर्भ , परस्पर , अक्षर पर्व , अभिव्यक्ति , दस्तक
,अभियान ,
हिमाचल मित्र , लोक गंगा , शब्द सरोकार , उत्तरप्रदेश , अनहद
, दैनिक
जागरण , अमर उजाला , शीराज़ा
, अनुनाद , पहली बार , बीइंग पोएट , तत्सम ,
सिताब दियारा , जानकी पुल , आओ हाथ उठाएँ हम भी , आई० एन० वी० सी० आदि
में प्रकाशित
सम्प्रति :- उच्च शिक्षा विभाग , जे०&के० में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद
पर कार्यरत ।
००००
सम्पर्क :-
काली बड़ी , साम्बा
जम्मू व कश्मीर , ( १८४१२१ )
दूरभाष – 09419274403
ईमेल – kamal.j.choudhary@gmail.com
रेखांकन :शिरीष |
बहुत सुन्दर भावपूर्ण
Shirish bhai pahli kavita ki 17th pankti mein jati nahi jata hai…kripya ise theek kar den. Dhanyavaad!!
संभवतः कमल जी की स्पष्ट दृष्टि और सहज भाषा के कारण कविताओं को पढ़ना अच्छा लगा !
पहली और अंतिम कविता काफ़ी वजनदार है । अच्छे लेखन व चयन के लिए धन्यवाद चौधरी जी और शिरीष जी ।
Shirish bhai haardik dhanyavaad!!
kamal bhai…maine yeh post aaj dekhi….late ho gya….khair….aise umda kavita keliye bdhai….
बेहतरीन है
manjul