अनुनाद
पर बहुत समय बाद अपना लिखा कुछ लगा रहा हूं। ज़्यादा कुछ नहीं बस मेरे कुछ प्रलाप भर हैं।
अकेले आदमी
का प्रलाप
कविता
न थी स्वप्न में
जीवन था
जीवन था
वह
खड़ी थी सुबह ठीक आठ बजे
मेरे लिए उच्च रक्तचाप की दवाई लेकर
मेरे लिए उच्च रक्तचाप की दवाई लेकर
मुझे
दवाई खाकर कुछ देर बाद काम पर चले जाना था
मेरे चले जाने के बाद
चुपचाप वह भी खाती थी वही दवाई
यह मैंने बहुत देर बाद जाना
जब डाक्टर ने बताया
मेरे चले जाने के बाद
चुपचाप वह भी खाती थी वही दवाई
यह मैंने बहुत देर बाद जाना
जब डाक्टर ने बताया
एक
आदमी इस तरह भी असफल हो सकता है
मनुष्यता हर क़दम पर पड़ताल मांगती है
मनुष्यता हर क़दम पर पड़ताल मांगती है
मैं
नींद में था
अब जागने पर दवाई खाना नहीं
उसके साथ ख़ूब बातें करते हुए घूमने जाना चाहता हूं
अब जागने पर दवाई खाना नहीं
उसके साथ ख़ूब बातें करते हुए घूमने जाना चाहता हूं
पर कुछ
दिन अकेला हूं
रोज़
सुबह आठ बजे उसकी भीगी हुई आवाज़ आती है
मैं हाथ बढ़ा देता हूं
उधर जहां फिलहाल वह नहीं है
मैं हाथ बढ़ा देता हूं
उधर जहां फिलहाल वह नहीं है
कोई
नहीं जानता
बहुत दूर तक जाता है मेरा बढ़ा हुआ हाथ
अपने लिए कुछ जीवन मांग लाता है
बहुत दूर तक जाता है मेरा बढ़ा हुआ हाथ
अपने लिए कुछ जीवन मांग लाता है
मेरे
बहुत पास प्रेम है मेरा
***
***
जूठा-मीठा
प्रलाप
जब भी मिलते साथी बचपन के
हम बैठ जाते संग-साथ
खाते एक ही थाली में
अंगुलियां भी चाटते रहते
जब भी मिलते साथी बचपन के
हम बैठ जाते संग-साथ
खाते एक ही थाली में
अंगुलियां भी चाटते रहते
दादी
कहतीं – जूठा-मीठा मत खाया करो लड़को
हम लड़के कहां मानते
एक ही थाली में खाने की बात मुहावरा नहीं जीवन थी उन दिनों
हम लड़के कहां मानते
एक ही थाली में खाने की बात मुहावरा नहीं जीवन थी उन दिनों
पूछा
था दादी से –
जूठे के साथ मीठा लगाकर क्यों बोलते हैं
जूठा क्यों नहीं बालते
जबकि वही भर तो बोलना चाहते हैं
जूठे के साथ मीठा लगाकर क्यों बोलते हैं
जूठा क्यों नहीं बालते
जबकि वही भर तो बोलना चाहते हैं
दादी
कहतीं – तुम साथ क्यों खाते हो
जूठा खाते हो उसमें संग-साथ होने की मिठास मिलती है न
जूठा खाते हो उसमें संग-साथ होने की मिठास मिलती है न
हमने
अपने पुरखों से सीखा यह शब्द व्यवहार
जो भाषा धड़कती है हमारे भीतर
उसमें भी कितना कुछ जूठा-मीठा है
चले आते शब्द बहुत नाज़ुक किसी और भाषा से
हमारी भाषा को जूठा
और उतना ही मीठा करते
जो भाषा धड़कती है हमारे भीतर
उसमें भी कितना कुछ जूठा-मीठा है
चले आते शब्द बहुत नाज़ुक किसी और भाषा से
हमारी भाषा को जूठा
और उतना ही मीठा करते
दादी
यह भी कहतीं –
सुग्गे जूठा कर देते हैं जिन्हें वो फल सबसे मीठे होते हैं
सुग्गे जूठा कर देते हैं जिन्हें वो फल सबसे मीठे होते हैं
अरे
मेरे संगियो
अबे छोकरो
ये कहां किधर उड़े रे हम अलग-अलग
झुंड हमारा बिखर गया
हलक को भरपूर चीर रही खटास
एक दूसरे की उड़ान में शामिल नहीं हैं हम
अबे छोकरो
ये कहां किधर उड़े रे हम अलग-अलग
झुंड हमारा बिखर गया
हलक को भरपूर चीर रही खटास
एक दूसरे की उड़ान में शामिल नहीं हैं हम
सुनो
कभी एक ही फल पर चोंच मारते मिलें
कुछ जवान सुग्गे
उन्हें उड़ाना मत
पुराने दिनों के नाम
एक कुतरा हुआ आंवला खाकर पानी पी लेना
कभी एक ही फल पर चोंच मारते मिलें
कुछ जवान सुग्गे
उन्हें उड़ाना मत
पुराने दिनों के नाम
एक कुतरा हुआ आंवला खाकर पानी पी लेना
देखो
रे बुढ़ा रहे सुग्गो
अपनी समूची हसरतों से देखो
हमारे बच्चे अब
भरपूर फड़फड़ा रहे पांखें
अपनी समूची हसरतों से देखो
हमारे बच्चे अब
भरपूर फड़फड़ा रहे पांखें
अपनी
ही किसी गनगनाती याद में जाकर सोचो
इस जूठे-मीठे संसार में आख़िर कब ढंकी रह सकती हैं
जवान हो रही कांखें
इस जूठे-मीठे संसार में आख़िर कब ढंकी रह सकती हैं
जवान हो रही कांखें
***
एक
मृत्यु का प्रलाप
कुछ
मृत्यु हत्या होती हैं
हत्या
मृत्यु के साथ और मृत्यु श्रद्धांजलि के पश्चात
समाप्त
मान ली जाती है
श्रद्धांजलियों में अकसर एक भावभीनी श्रद्धांजलि
हत्यारे की भी होती है।
श्रद्धांजलियों में अकसर एक भावभीनी श्रद्धांजलि
हत्यारे की भी होती है।
जबकि
हत्या जारी रहती है
मृत्यु होना बना रहता है
मृत्यु होना बना रहता है
***
ओबामा
की भारत यात्रा पर एक आशंकित प्रलाप
बड़े
साहब चले गए
छोड़
गए दाद-खाज करने वाली याद
उम्मीद
नहीं छोड़ रहा पर किसी रेडियोधर्मी रिसाव की
लानत
सरीखी आशंका भी इस ‘पुण्य राष्ट्र‘ के
हतभागी आमजनों में रहेगी।
मिथाइल
आइसोसाइनाइट और हाईड्रोजन साइनाइड वाली दाद के निशान
अब भी
बाक़ी हैं
घावों
वाले शरीर अब नहीं हैं
सपाट
भाषा में कहें तो घाव देने वाला भी अपने स्वर्गीय आवास में है
पर वह प्यादा
भर था, घाव देने का विचार यहीं है …
घावों
की स्मृति हमेशा के लिए है और उस अपमान की भी
घावों
की स्मृति होने से अच्छा है, उनकी
आशंका होना, जो सावधान करती है
अरे ओ
दुनिया चलाने वालो
मरदूदो
जिनके
मन में आशंकाएं छोड़ते जाते हो
उन्हें
आश्वस्त करने का तर्क और तथ्यपूर्ण जतन भी करो
कभी
उनकी रज़ा भी पूछो
इधर
लोग जीवन को खुजाना नहीं
उसे
मानवीय गरिमा के साथ जी लेना भर चाहते हैं।
***
पीढ़ी-प्रलाप
कुछ
दिन पहले लगाई थी
मेरा बेटा चाहता है कि अहाते की वह दूब जल्दी से हरी-भरी हो जाए
ख़ूब फैल जाए
वह अभी 12 बरस का है।
मेरा बेटा चाहता है कि अहाते की वह दूब जल्दी से हरी-भरी हो जाए
ख़ूब फैल जाए
वह अभी 12 बरस का है।
मैं
जानता हूं
अभी कुहरा है, पाला है, शीत है
वसन्त आएगा
फिर ताप बढ़ेगा
लगातार सींचना पड़ेगा
अभी कुहरा है, पाला है, शीत है
वसन्त आएगा
फिर ताप बढ़ेगा
लगातार सींचना पड़ेगा
यह
अहाता
मई तक हरा होकर लहलहाएगा
मई तक हरा होकर लहलहाएगा
उन्हीं
दिनों बेटा भी 13 का हो जाएगा।
मैं 41 बरस का हूं।
***
***
प्राकृतिक
प्रलाप
मेरे
हृदय का रंग बुरूंश वाला है
जब
पेड़ एक उम्र गुज़ार लेते हैं उनकी छाल के जैसा गहरा भूरा
और उस पर किसी चीज़ के स्याह साये के बाद वाला रंग शरीर का
और उस पर किसी चीज़ के स्याह साये के बाद वाला रंग शरीर का
ये
साये चेहरे पर सबसे पहले पड़ते हैं
दिमाग़
दूब की तरह कभी मुरझाता
कभी उमगता है
सभी दिशाओं में अपनी बारीक़ जड़ें फैलाए घूमता
अपनी मिट्टी को भरपूर जकड़ता है
बना रहता है संकट काल में भी कुछ हरा
कभी उमगता है
सभी दिशाओं में अपनी बारीक़ जड़ें फैलाए घूमता
अपनी मिट्टी को भरपूर जकड़ता है
बना रहता है संकट काल में भी कुछ हरा
न जाने कहां
कितनी दूर जन्मते, पनपते और पलते हैं
ये जो कुछ लोग अब भी
लगातार सूखते कंठ को पानी की तरह मिलते हैं
ये जो कुछ लोग अब भी
लगातार सूखते कंठ को पानी की तरह मिलते हैं
***
2015 के पहले दिन का प्रलाप
ब्लॉग
पर पोस्ट लगाने में विलम्ब हो रहा है
– मैं आजकल अहाते में दूब लगा रहा हूं।
– मैं आजकल अहाते में दूब लगा रहा हूं।
फेसबुक अब कुछ देर तक रहने वाला अवलोकन है
और स्टेटस एक ज़रूरी लगने वाला हस्तक्षेप।
और स्टेटस एक ज़रूरी लगने वाला हस्तक्षेप।
कुछ
शाम पढ़ने-लिखने में जाती है, कुछ आंगन
में परिवार के साथ बैठ अाग जलाने-तापने में।
लकड़ी के टूटने की आवाज़ बताती है उसका कच्चा या पक्कापन
इंसान के टूटने की आवाज़ें भी यही बताती हैं पर उन्हें सुन पाना लकड़ी तोड़ने से सीखा है
लकड़ी के टूटने की आवाज़ बताती है उसका कच्चा या पक्कापन
इंसान के टूटने की आवाज़ें भी यही बताती हैं पर उन्हें सुन पाना लकड़ी तोड़ने से सीखा है
नींबू
की चाय प्रिय पेय है इन दिनों।
सहयोगी माली से मिली बीड़ी एक वरदान।
सहयोगी माली से मिली बीड़ी एक वरदान।
छुट्टी
के बीच चल रहे कुछ असल कामों के कारण थक जाने से आयी नींद
इस क़दर चमकती है
कि पलकें ख़ुद ब ख़ुद मुंद जाती हैं।
इस क़दर चमकती है
कि पलकें ख़ुद ब ख़ुद मुंद जाती हैं।
मुंदती
आंखों और आती नींद के बीच यह आज का पहला और अंतिम प्रलाप है।
जानता
हूं यह सब कुछ दिनों का सुख है।
आगे फरवरी खड़ी है और काम-काज का पूरा साल।
आगे फरवरी खड़ी है और काम-काज का पूरा साल।
***
दिन
ढले का प्रलाप
मैं
ढूंढता ही रह गया जाने किधर गया
दिन मिला है मुझको जब दिन गुज़र गया
दिन मिला है मुझको जब दिन गुज़र गया
***
उत्तर
का प्रलाप
न
छत्तीस में हूं न उत्तर में हूं
मध्य में धोखा हुआ
मध्य में धोखा हुआ
अखंड
उत्तर में रहने लगा
मुझे
इस शीत में भी
अपने जनों के संग-साथ रहने की गर्मी मिलती है
अपने जनों के संग-साथ रहने की गर्मी मिलती है
किसी
लकदक मंच पर बोलने जाने से अच्छा है
किसी गोठ में बैलों को लूटे से उतारी हुई
सूखी घास खिलाऊं
किसी गोठ में बैलों को लूटे से उतारी हुई
सूखी घास खिलाऊं
साहित्य
की कार बाद में ले लूंगा
पहले पंचर सुधारने लायक मैकेनिक बन जाऊं।
***
पहले पंचर सुधारने लायक मैकेनिक बन जाऊं।
***
पेशावर
के बाद अट्टहासों के विरुद्ध एक प्रलाप
बच्चे
बस अपने मां-बाप का दीन धरम ढोते हैं
जाहिलो, वे हिंदू या मुसलमान नहीं होते हैं
जाहिलो, वे हिंदू या मुसलमान नहीं होते हैं
***
तोगड़ियो
और इमामों के विरुद्ध मनुष्य होने का प्रलाप
ईश्वर
नहीं है
– निंदा नहीं, नकार
– निंदा से बड़ा अपराध।
– निंदा नहीं, नकार
– निंदा से बड़ा अपराध।
फिर
कहूंगा –
ईश्वर नहीं है।
उसके अनुवाद भी नहीं हैं।
ईश्वर नहीं है।
उसके अनुवाद भी नहीं हैं।
ऐसा
कहते हुए
अपने संविधान में वास करता
अपने संविधान में वास करता
मैं एक
स्वतंत्र मनुष्य हूं।
ईश्वर नहीं है
मेरा संविधान है।
***
मेरा संविधान है।
***
खेद का
प्रलाप
मेरे
ही रक्त में मौजूद थे कुछ शत्रु उसके
मेरे
होने की रोशनी में छुपा था कुछ स्याह भी
उधर
शायद रह-रहकर उठती मेरे हृदय की भभक का धुंआ था
एक
ज़रूरी रोशनी के बीच जीते
काम
करते
उस
स्याह को
वक़्त
रहते साफ़ करना मैं भूल गया था
अभी
बेबस पोंछता हूं हर दाग़
बाहर
के त्यौहारों में भीतर का उजाला अनदेखा न रह जाए
उसी
में तय होने हैं आगे के सफ़र
अब
इतना भर यत्न मेरा कि पहले भीतर के उजाले में चलूं
फिर
कहीं बाहर दिखूं
आप
चाहें तो इसे नए साल का संकल्प मान सकते हैं
और
किसी भी चमक दमक वाले बाहरी त्यौहार में शामिल न हो पर
मेरा
अग्रिम ख़ेदज्ञापन भी
***
भवाली
की ठंड का एक प्रलाप
सर्दियों
की इन रातों में ठिठुरते नहीं, सुकून के
साथ डूबते-से हैं
ये
पहाड़।
कहीं
कुछ लोग ठिठुरते हैं कि पहनने को पर्याप्त ऊन नहीं उनके पास
वंचितों
के घर ठिठुरते हैं
कि
चीड़ की टहनियों से रात उलांघ जाने लायक कोयले नहीं बनते
– वे
अपने सग्गड़ों की राख में बची खुची आंच कुरेदते हैं।
ठंड के
मारे नेपाली कच्ची के नशे में ज़ोर की आवाज़ में गाते हैं गीत
कुछ
लोग हीटर के पास बैठे कोस लेते हैं उन्हें
बिना उस
नशे को जाने
जो
दरअसल कच्ची का नहीं
चढ़ती
ठंड और उतरती शराब के बीच मुलुक के याद आने आने का है
और हर
प्रवासी पुरुष के मुलुक में
कुछ
स्त्रियां बसती हैं
–
अलग-अलग रिश्तों के नाम से।
मैं ये
कुछ संवेदना के शब्द लिखता हूं, यह जानते
हुए
कि
इनमें आभा नहीं
आभास
भर है
– इस
जानने के बीच लेटे हुए एक गर्म बिछौने पर
शरीर
तो नहीं
पर
मेरी आत्मा अकसर ठिठुरती है इन दिनों।
इस
ठिठुरन में कितनी तो शर्म है
पर वह
भी इस समकालीन जीवन में एक जाती हुई चीज़ है
यह
जानना भी कुछ जानना ही है कि शर्म सिर्फ़ शरीरों में निवास नहीं करती।
वह
प्रवासी पक्षी है
– उसे
रहने को जीवन से भरे ज़्यादा गर्म इलाक़े चाहिए।
***
बीमार आंखों
का प्रलाप
आंखें
बीमार लगती थीं पर उनमें सुन्दर दृश्य थे
उन
आंखों में
विलोमों
के सम्बन्ध का एक विलोम था
स्थायी
उनमें
पानी था
वह
हृदय की आग को बुझाता नहीं, बचाता था
वो लाल
रहीं सदा
हमेशा
क्रोध में नहीं प्रसन्नता में भी
अकसर
एक विचार में
निखरता
रहा उनका रंग
यों
लोग उनमें मनुष्यता के उत्सव को
संक्रमण
समझते रहे
सूज
जाते थे कभी उनके पपाटे मुर्दा स्वप्नों के भार से
वो
उन्हें भी अपना जल पिलातीं
जिलाती
थीं
जीवित
चलते दिखते हैं वे स्वप्न अब जीवन में
तो
आंखें उनसे
कोई
आभार नहीं मांगती
बोझिल
दीखती हुई-सी वे दरअसल अभार हैं
हल्की
हवाओं-सी
कई
आंखों के बीच वो आंखें बुझती-सी लगें तो समझ लेना
यह
बिखरती चिनगियों की संभाल भर है
एक दिन
अचानक वो होंगी साफ़ सफ़ेद चमकदार
पुतली
काली कुछ ज़्यादा
उनके
नीचे उम्र भर की स्याही भी
उस दिन
नहीं होगी
वहां
एक अंतिम आभा होगी
उसे
प्रकाश मत समझ लेना।
***
मुक्ति
पुनरुक्ति प्रलाप
एक
स्त्री ने कहा था चिढ़ कर जाओ मैं तुम्हें मुक्त करती हूं
एक ने
विवश होकर
एक ने
कुछ दयालु होकर
यों
मुझसे कुछ स्त्रियों ने कहा जाओ हम तुम्हें मुक्त करते हैं
ये
मुक्तियां थीं
जिनमें
कहीं खीझ कहीं विवशता और कहीं दया का अक्षम्य भाव था
आज
अपने सामाजिक एकान्त में
मैं कह
रहा हूं एक स्त्री से बिना उसे बताए
ओ मेरी
प्यारी तू मुक्त ही थी सदा से
बंधन
तेरे अपने गढ़े हुए भरम थे
उन्हें
भी तोड़ता हूं
जानता
हूं उनका टूटना तुझे दु:ख देगा
बाहर
कुछ नहीं
भीतर
सब कुछ
सुन
मैं न चिढ़ता हूं न विवश अनुभव करता हूं कभी ख़ुद को
मैंने
जीवन के गझिन अंधेरों में भी अपना पथ आलोकित पाया है
दया
मेरे लिए नहीं है
वह
प्रेम है
तू
मुक्त है सदा के लिए मैं बंधा हुआ
सब कुछ
भीतर
बाहर
कुछ नहीं
वो जो
देखा था चलते कभी बहुत पहले एक नौजवान को
सधे और
तेज़क़दम
उसमें
बहुत कुछ न देखना भी था तेरा
बाहर
कुछ नहीं
सब कुछ
भीतर
अनदेखा
ही अब भी
वह
चलता है कुछ लड़खड़ाता
कहीं
नहीं सहारों के बीच
वह
किसी के सहारे चलता दीखता है
पर
सब कुछ
भीतर
बाहर
कुछ नहीं
जीवन
सभी का पुनरुक्तियों से बना है
सुन
सुन तू
मुक्त है सदा से
सुन
पुनरुक्ति
सबमें
दोष नहीं होती
कभी वह
प्रकाश भी होती है
***
शिरीष जी की कवितायेँ एक खास समय की संवेदना ,अनुभव, पर लिखी गयी हैं। एक दुनियां जो कविता से बनी है, जिसके ज़रिये वह बाहर की दुनियां देखते है। अकेले आदमी का प्रलाप, जूठा-मीठा प्रलाप बेहतरीन कविताएं हैं। कविता के गहरे आश्य कविता की सतह के नीचे मौजूद हैं। कविता "ओबामा की भारत यात्रा पर एक आशंकित प्रलाप " में कई बड़ी बातों को भी बहुत सहजता से कहा है।" पीढ़ी -प्रलाप" बदलाव के मोड़ो की कविता है। आम इंसान की ज़ेहनी कैफ़ियत बयां करती कविताएं "2015 के पहले दिन का प्रलाप" उत्तर का प्रलाप बहुत अच्छी हैं। "पेशावर के बाद अट्टहासों के विरूद्ध एक प्रलाप " तोगड़िया और इमामो के विरूद्ध एक प्रलाप" "खेद का प्रलाप" और "भवाली की ठंड का एक प्रलाप " यह कवितताएँ स्वाभाविक प्रश्नो खड़े करती है, और सोचने पर मजबूर करती है। कविता अपने समय और परिवेश से जुड़ी हैं, प्रश्नो और चुनौतियों का सामना करती हैं।इन कविताओं में एक सचेतना है और यह अपनी ज़मीन के स्पर्श से वंचित नहीं है।
Yah pralaap samay ka yatharth hai…Bahut achchhi kavitain… Dhanyavaad!!
– Kamal Jeet Choudhary
जीवन में जितने रंग है उतने ही बेरंग होते जीवन के रंग … अपनों से दूर अपनों में और दूर रहते अजाने लोगो में अपना दर्द अपनी ख़ुशी को महसूस करना एक बेहद संवेदनशील व्यक्ति / कवि मन ही कर सकता है, और उसको अभिव्यक्ति का इतना सुन्दर और आयाम देना , बेशक प्रलाप है पर कवि की बारीक नजर और ब्यान करने का हुनर काबिले तारीफ़ है .. . सुन्दर जीवंत कवितायें