सोनी
पांडेय की कविताएं मुखर स्त्री विमर्श के बरअक्स एक सामान्य घरेलू स्त्री के घर-दुआर
की कविताएं हैं। मुक्ति का स्वप्न यहां अंतर्धारा की तरह बहता है, ऊपरी वाचाल लहरों की तुलना में वह उस गहराई में रहता है, जहां स्त्री जीवन की तलछट है और बहाव में साथ आयी मिट्टी की उर्वर परत। सोनी की कविताएं
आप पहले भी अनुनाद पर पढ़ चुके हैं।
***
चित्रांकन : सोनी पांडेय |
हम बदलेँगे
जीवन
सुनो !
हम बदलेँगे जीवन को
ठीक वैसे ही
जैसे बदलता है पलाश
पतझड़ के बाद पत्तियाँ ।
ठीक वैसे ही
जैसे बदलतीँ हैँ
नदियाँ रास्ता
समुद्र की खोज मेँ ।
ठीक वैसे , जैसे जेठ की तपती दुपहरी के बाद
आता है सावन ।
सुनो !
हम बदलेँगे बोल गीतोँ का
जैसे बदलती है फसलेँ
और आती हैँ बालियाँ धान , जौ , गेहूँ की
जैसे आती हैँ नैहर बेटियाँ
सावन मेँ
जैसे गाती हैँ कजरी सखियाँ
झूले पर ।
सुनो !
हम बदलेँगे कविता की भाषा
और लिखेँगे अपनी बोली मेँ
मन की बात
ठीक वैसे ही .
जैसे धरती पर होता है उत्थान -पतन
और जनमती है फिरसे नयी सभ्यता
पल्लवित होती है नयी संस्कृति ।
सुनोँ !
हम बचालेँगे बचपन की थोड़ी सी मासुमियत
थोड़ा सा यौवन का प्रेम
थोड़ी सी जीवन की संवेदना
और समय के चाक पर
गढ़ेँगे फिरसे
फगुवा और चैता
बिखेरेँगे दिशाओँ मेँ मनुष्यता के पुष्प ।
***
छोड कर आ गयी
छोड़ कर आ गयी
अम्मा ! तुम्हारा आँचल
पिता ! आपका आकाश
छोड़ आई अपने बचपन की
निश्चिँत मधुर मुस्कान
तितली के पर
नीँद भर इन्द्रधनुष
सखियोँ का संग
भाई की मनुहार
भतिजोँ का नेह
भावज का मान
बहनोँ संग रात भर
जागती आँखोँ की बेखबर बरसात ।
छोड़ आई अपने कमरे की
खिड़की से लेकर चौखट तक
फैला नेह का गुलाबी रंग
तुम्हारे लिए
सुनो !
याद रखना , मेरे घर से लेकर तुम्हारे चौखट तक बरसती आँखोँ ने देखे थे कुछ
सपने और रखा था तुम्हारी देहरी पर पांव
काट कर पीठ पर सजा
इन्द्रधनुषी पंख
तुम याद रखना
मैँ छोड़ती हूँ बार – बार
अपना घर . आँगन
सिर्फ तुम्हारे लिए
रंग कर तुम्हारे नेह के गुलाबी रंग मेँ ।
***
बची रहेँगी उम्मीदेँ
बची रहेँगी उम्मीदेँ जीवन शेष रहेगा
रहेगी बची गौरैया
कि , अम्मा ने बचा रखा है
आज भी बाग
अपने दरवाजे का
उम्मीदेँ जीवन की ।
प्रति दिन बिखेरती है
मुट्ठी भर चावल आँगन मेँ
और फुदकते हुए आती हैँ
ढेरोँ गौरैया , गिलहरी , मैना
तोता . कौआ और कोयल
कभी – कभी
तोता और मैना भी
आते हैँ मुंडेर पर
इस लिए अम्मा पानी की हांडी
रखती है छत पर
मिट्टी के कोहे मेँ सतमेझड़ा अनाज
इन बिन बुलाए अतिथियोँ के लिए
बुहार आती है छत
भिनसहरे ,कि न हो हंगामा घर मेँ
पक्षियोँ के बीट को साफ कर
उसका चेहरा कुछ ऐसे खिलता है
जैसे नहा आई हो गंगा या
घूम आई हो नैहर
अम्मा और उसके अतिथियोँ से गुलजार
मेरा घर ,आँगन , दुवार
खिलता है बारहोमास बसंत सा
महकता है हरसिँगार सा
इस लिए आज भी बची है
मेरे नैहर मेँ
जीवन की उम्मीदेँ
क्योँ की दुवार का बाग गाता है सावन
बरसता है भादोँ , उमड़ -घुमड़ मेघ सा ।
***
सोनी पाण्डेय
आज़मगढ
उत्तर प्रदेश
सुनो !
हम बदलेँगे जीवन को
ठीक वैसे ही
जैसे बदलता है पलाश
पतझड़ के बाद पत्तियाँ ।
ठीक वैसे ही
जैसे बदलतीँ हैँ
नदियाँ रास्ता
समुद्र की खोज मेँ ।
ठीक वैसे , जैसे जेठ की तपती दुपहरी के बाद
आता है सावन ।
सुनो !
हम बदलेँगे बोल गीतोँ का
जैसे बदलती है फसलेँ
और आती हैँ बालियाँ धान , जौ , गेहूँ की
जैसे आती हैँ नैहर बेटियाँ
सावन मेँ
जैसे गाती हैँ कजरी सखियाँ
झूले पर ।
सुनो !
हम बदलेँगे कविता की भाषा
और लिखेँगे अपनी बोली मेँ
मन की बात
ठीक वैसे ही .
जैसे धरती पर होता है उत्थान -पतन
और जनमती है फिरसे नयी सभ्यता
पल्लवित होती है नयी संस्कृति ।
सुनोँ !
हम बचालेँगे बचपन की थोड़ी सी मासुमियत
थोड़ा सा यौवन का प्रेम
थोड़ी सी जीवन की संवेदना
और समय के चाक पर
गढ़ेँगे फिरसे
फगुवा और चैता
बिखेरेँगे दिशाओँ मेँ मनुष्यता के पुष्प ।
***
छोड कर आ गयी
छोड़ कर आ गयी
अम्मा ! तुम्हारा आँचल
पिता ! आपका आकाश
छोड़ आई अपने बचपन की
निश्चिँत मधुर मुस्कान
तितली के पर
नीँद भर इन्द्रधनुष
सखियोँ का संग
भाई की मनुहार
भतिजोँ का नेह
भावज का मान
बहनोँ संग रात भर
जागती आँखोँ की बेखबर बरसात ।
छोड़ आई अपने कमरे की
खिड़की से लेकर चौखट तक
फैला नेह का गुलाबी रंग
तुम्हारे लिए
सुनो !
याद रखना , मेरे घर से लेकर तुम्हारे चौखट तक बरसती आँखोँ ने देखे थे कुछ
सपने और रखा था तुम्हारी देहरी पर पांव
काट कर पीठ पर सजा
इन्द्रधनुषी पंख
तुम याद रखना
मैँ छोड़ती हूँ बार – बार
अपना घर . आँगन
सिर्फ तुम्हारे लिए
रंग कर तुम्हारे नेह के गुलाबी रंग मेँ ।
***
बची रहेँगी उम्मीदेँ
बची रहेँगी उम्मीदेँ जीवन शेष रहेगा
रहेगी बची गौरैया
कि , अम्मा ने बचा रखा है
आज भी बाग
अपने दरवाजे का
उम्मीदेँ जीवन की ।
प्रति दिन बिखेरती है
मुट्ठी भर चावल आँगन मेँ
और फुदकते हुए आती हैँ
ढेरोँ गौरैया , गिलहरी , मैना
तोता . कौआ और कोयल
कभी – कभी
तोता और मैना भी
आते हैँ मुंडेर पर
इस लिए अम्मा पानी की हांडी
रखती है छत पर
मिट्टी के कोहे मेँ सतमेझड़ा अनाज
इन बिन बुलाए अतिथियोँ के लिए
बुहार आती है छत
भिनसहरे ,कि न हो हंगामा घर मेँ
पक्षियोँ के बीट को साफ कर
उसका चेहरा कुछ ऐसे खिलता है
जैसे नहा आई हो गंगा या
घूम आई हो नैहर
अम्मा और उसके अतिथियोँ से गुलजार
मेरा घर ,आँगन , दुवार
खिलता है बारहोमास बसंत सा
महकता है हरसिँगार सा
इस लिए आज भी बची है
मेरे नैहर मेँ
जीवन की उम्मीदेँ
क्योँ की दुवार का बाग गाता है सावन
बरसता है भादोँ , उमड़ -घुमड़ मेघ सा ।
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सोनी पाण्डेय
आज़मगढ
उत्तर प्रदेश
सुंदर आत्मीय स्वाद वाली कवितायें।
कविताये बहुत पसन्द आयी….लंबे समय तक सोनी मैम को पढ़ने का अनुभव मिला है और यह एक पूंजी की तरह ही है
बहुत बधाई शिरीष सर को…..क्योंकि ऐसी कविताओ का चयन करना भी एक पारखी और जिम्मेदारी का काम है
'छोड़ कर आ गई' हृदयस्पर्शी है।बाकी सब भी प्रकृति के आंगन में घूमती सुंदर कविता का अहसास दिलाती हैं।