जिस दौर
में कवि होने को एक तमगे की तरह इस्तेमाल कर लोग किसी भी तरह खुद को स्थापित करने
की होड़ में हैं आश्चर्य होता है जब आपके बीच लम्बे समय से सक्रिय किसी मित्र के
कवि होने की ख़बर वर्षों बाद मिले. अक्षत सेठ एक बेहद सक्रिय युवा हैं, एस ऍफ़ आई के साथ साथ दख़ल
से जुड़े हुए हैं, आग़ाज़ में लगातार लिखते हैं और सड़क से लेकर
मंच तक पर अपनी प्रतिरोधी आवाज़ के साथ उपस्थित रहते हैं, उनकी
यह कविता उनकी वाल से (शीर्षक मैंने दिया है) और उन्हें ढेरों शुभकामनाएँ.
– अशोक कुमार पांडेय
कहीं कोई नजरुल
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सुनो!
चलते हैं न वहां
वहां जहाँ से आ रही है गिलास में कुछ उड़ेले जाने की आवाज़
किसी टैगोर ने बस पानी में चीनी मिला रख छोड़ी थी
कोई नज़रुल उसमें अपने बिद्रोह की लाली से शरबत बना गया है।
दोनों पिएंगे!
और हाँ, तुम करोगी न मेरा इलाज?
सन 47 और सन 71 के घावों पर
कुछ नारंगी-हरे कीड़े चलने लगे हैं
मुझसे ज़्यादा
मेरी अंतड़ियों में कहीं फंसी
नज़रुल की रूह इनसे परेशान है
मुझे यक़ीन है
उस रुह का एक टुकड़ा तुममें भी कहीं होगा
चलो दोनों तलाशेंगे एक दूसरे में
और दोनों टुकड़ों को ढूंढ लाएंगे
देखेंगे मिलाकर नज़रुल फिर खड़ा किया जा सकता है क्या?
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