अरुण
लेखन की शुरूआत से ही मुझे हमेशा अपनी कविताओं में बांधते रहे हैं, पर उनकी कविताओं ने इधर एक अलग स्वर
पा लिया है। यह स्वर मुखर और उतनी ही प्रतिबद्ध वैचारिकता का है। उन्होंने अपनी
भाषा में रूपकों और सपाट किंतु बेहद ज़रूरी उद्बोधनों के बीच एक अनोखा संतुलन संभव कर
लिया है – ढहते हुए समकाल में कविता को उर्वर ज़मीन देता हुआ यह
उनका अपना मुहावरा है, जिसमें पुरखों की आत्मा शामिल है। प्रशस्त
पथों पर चलने के बरअक्स यह जुदा रास्ते का चयन हमें उनकी कविता के और क़रीब ले आता
है। उनकी बहुत नहीं तो कम से कम इतनी कविताएं यहां छप रही हैं कि पाठक विचार के उस
सिलसिले की साफ़ शिनाख़्त कर सकें, जिसके अरुण कवि हैं। पुरखों की पुकारों में वह है और भविष्य की आहटों में भी सदा वह रहेगा। हममें इन पुकारों
और आहटों को सुन पाने का सामर्थ्य बचा रहे, इस कामना के साथ उन्हीं
पुकारों और आहटों से भरी अरुण की कविताओं का अनुनाद पर स्वागत है।
***
पेपर वेट
उसका
वजन
कागज़ों
को इधर –उधर बिखरने से रोकता है
अपने
भार से वह
कागज़ों
को कुचलता नहीं , कभी भी
ताकत
की यह भी एक नैतिकता है.
***
बरी कर दिए गए सभी आरोपी
दरअसल उनकी हत्या हवाओं ने की थी
पेड़ों ने उन्हें घेर कर इकट्ठा
किया
लताओं ने जकड़ लिया
पत्ते गिरने लगे
खुद- ब- खुद आग़ लग गयी
वे अफवाहों में जल मरे
थानों से चुपचाप निकल भागीं
रायफलें
घरों से बिन बुलाये आ गए रिवाल्वर
कारतूस के दबाव से अपने आप चलनें
लगे ट्रिगर
न न
अँगुलियों के निशान नहीं हैं कहीं
भी
आदमी तो वहां कोई था ही नहीं
जो थे भी उनके चेहरे नही थे
जो आवाजें थी वे समवेत थीं
उसमें से कोई एक कंठ पहचानना
मुश्किल
जिन गाड़ियों में उन्हें लादा गया
न उसका कोई ड्राइवर था न मालिक न
ही कोई नम्बर
खुद नाले तक चल कर पहुँचीं उनकी
लाशें
अधजले शव, बिलखते बच्चे, रोती
औरतें
फोटो भर थे उस दिन अख़बार के
अन्याय, आक्रोश, गुस्सा,
नारे, जुलूस
क्या करे काजी इनका
इतने लम्बे चले मुकदमें में उड़ गया
लाल रंग
जो जलने से बच गए, निशाने से रह गये
उन्हें रात ने निगल लिया
अभी भी आदमखोर उनका पीछा करते हैं
वे न कुछ देख सके थे न कुछ बोल
पाते हैं.
***
मुसलमान
आतंकवाद के बारे में आपका क्या
ख्याल है?
एक छोटी सी मुलाकात के अलविदा का
यह समय था
यह प्रश्न की शक्ल में आरोप था
जगह- जगह कठ घेरें हैं जो हर समय
मुझे घेरे रहते हैं
मुझे अब अपने को निर्दोष सिद्ध
करना था
यह सही है कि मुझे एक ईश्वर, एक पैगम्बर और एक किताब पर आस्था है
पर मैंने किसी की हत्या के बारे
में नही सोचा
मैं नमाज़ पढ़ता हूँ रोज़े रखता हूँ
पर मैंने कहीं कोई गोली नहीं चलाई
मैं माँसाहारी हूँ जैसे विश्व के
अधिकांश लोग हैं
मुझे निर्मम और क्रूर आप क्यों
समझते हैं ?
मैं परिश्रम से अपनी आजीविका चलाता
हूँ
और ईमानदारी से रहता हूँ
अगर आपको मेरी टोपी ,मस्ज़िदों और मदरसों से दिक्कत है
तो दरअसल आपको हिंदुस्तान के
संविधान से समस्या है
अरब और इस्लामी मुल्क जो कर रहे
हैं उसमें मेरा क्या कसूर
आइसिस, तालिबान और अलकायदा से मेरा कोई लेना
देना नही
हो सकता है वे मुझे मुसलमान ही न
मानें
मैं वही इस्लाम हूँ जो ताजमहल
बनवाता है, पद्मावत लिखता है,
शेर सुनाता है और लज़ीज़ बिरयानी
खिलाता है
मैं शेरशाह हूँ,अकबर हूँ ,अब्दुल
कलाम हूँ
मैंने इस महाद्वीप को रज़िया
सुल्तान दिया
ख़ुसरो मीर ग़ालिब दिए
सूफी इसी धरती पर खिल सकते थे
मैं एक भारतीय मुस्लिम हूँ
सहिष्णुता और उदारता मेरे भी विरसे
में है.
***
पटरी पार करती स्त्री कट गयी
चूल्हे पर दाल चढ़ा नमक लेने पटरी
के उस पार गयी थी वह
स्त्रियों के ही जिम्मे है नमक
हालाकिं उनका जीवन खारा ही रहता है
अक्सर
उनके चेहरे का नमक
उनके लिए कभी-कभी तो तेज़ाब बन जाता
है
नमक होना हमेशा दूसरों के लिए होना
होता है
वह भी चुटकी भर
जब तक दाल पकती
उसके कच्चेपन में ही वह धीरे से रख
देगी उसका स्वाद
उसने ऐसा सोचा
बिन नमक खुद दाल भी पकने में न-
नुकुर कर रही थी
उसके होते स्कूल से लौटने को हो
रही उसकी बेटी
बिन खायी रह जाए
ऐसा कैसे हो सकता था
जब वह लौट रही थी
पटरी पर आ गयी ट्रेन
जैसे अकेली स्त्री के सामने एकाएक
आ जाए आताताई
उसे कहाँ पता था मशीनें नमक का
लिहाज़ नहीं करतीं.
***
गेहूं का उचित मूल्य
थाली में परसे गर्म रोटी को तोड़ते हुए
क्या तुम्हें उस किसान की याद आती है
जो इस उम्मीद में था कि इस वर्ष फसल अच्छी होगी
कौर और मुंह के बीच के अन्तराल में
क्या तुम्हें उस खेतिहर का जरा भी ख्याल आया
जो शीत में भीगते और धूप में जलते हुए दे रहा था जड़ों को पानी
उसके साथ ही मुरझाती हुई उसकी पत्नी
कुम्लाते हुए उसके बच्चे
तुम्हारे सपनों में क्यों आयेंगे
भला
वह पानी जिसे पहुंचना था खेत तक
पर जिसे वह किराये के पंपिंगसेट और डीजल की मदद से
ले आया है वहां तक
उगाता है फसलें, बालियों में उसका पसीना ही दूध बनता है
उसकी उनीदी रातें तुम्हारी नीद में तो नहीं ही टकराती होंगी कभी भी
बढ़ रहे हैं उदर
बढ़ रही है सेहत की बेशर्मी
स्वाद की निर्लज्जता के लिए बीमार हुए जमीन को चाहिए खाद,
कीटनाशक
तुम्हारी रोटी के लिए बैंक के उस कर्ज़दार का क्या
कोई कर्ज़ है तुम पर ?
कभी सूखा, कभी बाढ़,
कभी पाला
अभी भी वह आसमान के नीचे है अपनी फसलों के साथ
अपनी मवेशियों और अपने परिवार के साथ
कभी दह जाता है कभी बह जाता है
कभी टूट कर नगरों में बिखर जाता है
जितने में तुम पीते हो एक लीटर पानी
उतने में अब भी आ जाता है एक किलों गेहूं
अब कभी तोडना रोटी तो सोचना क्या तुमने चुकायी है
गेहूं की वाज़िब कीमत
किसान चुकाता है इसका मूल्य
कभी सल्फास खाकर, कभी लटकर पेड़ से.
***
मिनरल वाटर
मेरे सामने स्टील के ग्लास में पानी
मेरे लिए असमंजस है अब
मेरी प्यास ने उसे पहचान लिया था
नदियों – तालाबों – कुओं – से होता हुआ
हैण्डपाइप और नलके से बहता यह वही जल था
जो मेरी थाली के साथ हमेशा इसी तरह स्टील के ग्लास में मिला
सबसे पहले पानी ही आपके स्वागत में हिलता है
अपने जरूरी घुलनशील तत्वों के साथ
पानी साफ था
हाँ उसमें एक कच्ची सी गंध थी जो कुओं के पास बिखरी रहती है
इसे नल से बुलाया गया होगा
जिसकी जड़ें किसी कुँए से मिलती होंगी
वहीँ कुआं जिसे स्त्रियाँ मांगलिक गीतों में मनाती हैं
कि उसका जल बहता रहे उनके जीवन में
गीली रहे मिट्टी
मिट्टी में लोच है तभी तो वह गढ़ेगी
जिंदगी
जब कुँए से रूठ जाता है जल
उड़ने लगती है धूल
जल ने मोड़ दी है सभ्यताओं की धार
मेरी प्यास और जल के बीच
अब पीतल, कांसा, शीशा
नहीं
फिल्टर है
मिनरल वाटर का बाज़ार
अब तो गरीब के घर का पानी भी
आप नहीं पीते साहब
***
मेरे बच्चे
मौसम
बदलते ही
ये
कच्ची पौध तपने लगती है बुखार से
जलने
लगते हैं इनके आरक्त तलवें
दहकने
लगता है इनका निर्दोष माथा
कभी
गरीबी कभी कुपोषण कभी हिंसा
न
जाने कहाँ कहाँ से चले आते हैं रोगाणु
न
जाने कहाँ से चलने लगती हैं उलटी हवाएं
अस्पताल
भरे पड़े हैं इनके रुदन से
गलियों
में चप्पल घसीटते कूड़ा बीनते यह नहीं दिखाई देते
चाय
का प्याला पहुंचाते
रिक्शा
खींचते
गाड़ी
पर पोचा मारते
भीख
मांगते अगर ये दिख भी जाते हैं तो ठहरते नहीं स्मृतियों में
जो
घरों में हमारी आँखों
के सामने हँसते हैं
उनके
सिरहाने खिलौनों की जगह आ गयी हैं लाल – पीली कड़वी
दवाईयां
हिचकी
भर से डरने वाली माँ
देखती
है सुइयों की नोक से खींचा जाता मासूम रक्त
सांसों
पर भारी हैं विषैले
धुंए
चाकलेट की जगह जेबों में स्ट्रायड है
क्या
सारा विज्ञान हथियारों पर ही सुलग कर बुझ जाएगा
स्वप्निल
आँखों पर मोटा चश्मा
तय
किताबें, प्रायोजित कार्यक्रम
फार्म
के चूजों की तरह गढ़े जाते हैं इस समय के बच्चे
जो
घरों से बाहर हैं उनका आखेट कर लेते हैं जंगली बिल्ले
उनके
जिस्मों पर घाव के निशान हैं
कोमल
मन पर गुटखों और धुंए की मोटी काली पर्त है
बचपन
की हिंसाग्रस्त यादें हैं
अवसादग्रस्त
उम्र को पार कर धीरे–धीरे बड़ी होती यह बीमार पीढ़ी
महूसस
करती है अपनी गर्दनपर
किसी
अदृश्य छुरे को जीवन भर
***
उफ्फ्फ्फ़ ! भीतर तक झकझोर गईं कविताएँ ! कुछ भी वैसा नहीं रहा जैसा पढ़ने से पहले था ! आज कुछ और अच्छा नहीं लगेगा !
“मुसलमान” अरुणदेव की नई लीक की कविता है और वर्तमान में बन रहीं नई स्थितियों में कविता के माध्यम से सीधे कारगर राजनीतिक हस्तक्षेप की कविता है । अभी तक राजनीति और राजनीतिज्ञों के कर्म का यह धर्म था कि वह अपनी बात का मूलतः और अंततः जनता को तात्कालिक तौर पर अपने पक्ष में राजी करने को मानते रहे । बाद में उसका क्या होगा इसकी न चाह रही, न परवाह । कवि और कविता इससे भिन्न और दूरगामी और जटिल मार्ग अपनाते रहे । हालांकि अवांतर के रूप में “चना जोर गरम” शैली में तत्काल दखल का काम आपद्धर्म के रूप में करते रहे , पर यह कविता का आंतरिक स्वभाव कभी नहीं बना ।
इन मार्गों का एक दूसरे के करीब होते जाना जमाने और हालात के सिर पर चढ़ बोलने का ही प्रमाण है । साथ ही इस बात का भी कि कविता भी अन्य माध्यमों की तरह अपने अनंत के धैर्य पर नहीं, सामयिक हस्तक्षेप पर भरोसा करने को बाध्य है । अरुणदेव और उन जैसे अनेक कवि ऐसा करने लगे हैं तो इसके महत्व को मानना होगा ।
कविता पढ़ते हुए यह बराबर लगता रहा कि जिस तरह एक जमाने में दुनिया भर के कवियों और कविताओं को दबावों के सामने अपनी अस्मिता, जरूरीपन, अवश्यंभाव्यता की सुरक्षा के तर्क साहित्य की अदालतों में देने पड़ते थे, कुछ वैसा ही “डिफेंस मैकेनिज्म” इस कविता में है । वक्ती तौर पर जनमानस को अपने पक्ष में जीतने का बहुत सफल प्रयास होने के बावजूद कविता के उद्देश्य के पक्ष को इससे अधिक मदद नहीं मिलती । यह डिफेंस, यह फरियाद, यह सफाई अंततः वैचारिक स्तर पर विमर्श और कविता की संरचना की मूलभूत कमजोरी को और और पढ़ने पर उजागर करेगा ।
किसी कवि या उसकी नई कविता के लिए यह बड़ी बात है कि वह पढ़ने, सोचने और कुछ कहने को मजबूर करे । अरुण की अनेक कविताएं ऐसा करती हैं । यह कविता भी कर रही है तो अच्छी बात है ।
यह स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि बिना विश्लेषण के ऐसी निर्णयात्मक सी लगती प्राथमिक टिप्पणियां अनेक प्रकार की वैचारिक रिक्तियों, भ्रमों, प्रतिक्रियाओं को जन्म दे सकती हैं । बात आगे बढ़ने पर इनपर अधिक विचार, विस्तार, पुनर्विचार और प्रमाण की आवश्यकता हो सकती है ।
कविताओं के लिए आभार.
बेहतरीन। जो सवाल मन को सालते रहते हों उन्हे कविता रूप में देखना कुछ और बढ़ जाती है टीस…. ।
अरूण देव अलग रंग के कवि है .फैजाबाद में उनकी कविता का पाठ सुनाने को मिला ..और लगा कि ये कविताएं हमारे समय में सार्थक हस्ताक्षेप करती है .अरूण धैर्य के साथ लिखनेवाले कवि है .उनके यहाँ हडबडी नहीं है .यह किसी कवि का दुर्लभ गुण है ..
वास्तव में काफी मर्मस्पर्शी हैं ये रचनाएँ। गेहूं का उचित मूल्य।शायद कभी तय नहीं होगा लेकिन यह कविता उस दर्द तक जाती है, झकझोरती है । दलालों/घोटालों के दौर में किसान होना शायद आत्महत्या की ही कोशिश है। आखिर कैसे वो जो अपना सब कुछ खुले आसमान के नीचे फैला कर भीतर सो सकता है मजबूर कर दिया गया है कि आत्महत्या कर ले।
इन कविताओं को इतने प्यार से प्रस्तुत करने के लिए शिरीष जी का आभार. आप सभी ने इसे पढ़ा और अपने विचार भी दर्ज़ किये, यह मेरे लिए सुखद है और ज़िम्मेदारी का बोध जगाता है.