अनुनाद

ग़ालिब की शाइरी पर नीलाभ की टिप्पणी



सौ पुश्त से है पेश:-ए-आबा सिपहगरी
कुछ शाइरी ज़रीय:-इज़्ज़त नहीं मुझे


ग़ालिब के दीवान को उलटते-पलटते हुए मुझे एक बात महसूस होती रही है कि वे कभी दूसरे शाइरों की तरह साहित्य को अपना मक़सद नहीं बताते. बार-बार वे यही कहते हैं कि वे शाइरी किसी और मक़सद से कर रहे हैं —

ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़ ये तेरा बयान ग़ालिब
तुझे हम वली समझते जो न बादाख़्वार होता


वे अपने कलाम के बारे में कभी मीर की तरह नहीं कहते —

सहल है मीर का समझना क्या
हर सख़ुन उसका इक मक़ाम से है

या
शेर मेरे हैं ख़वास पसन्द
गुफ़्तुगू मुझे अवाम से है

या
जाने का नहीं शोर, सुख़न का मिरे हरगिज़
ता हश्र जहां में मिरा दीवान रहेगा


इसके विपरीत ऐसा जान पड़ता है कि ग़ालिब की नज़र में न तो हुक्काम हैं, न अवाम, न उन्हें इस बात की ग़रज़ है कि जाने-माने, गण्य-मान्य जन उनके कलाम की तरफ़ आकर्षित हैं, न इस बात में कोई दिलचस्पी कि आम लोग उनके कलाम को किस रूप में लेते हैं, न ता हश्र अपने कलाम के बने रहने का दावा करने का कोई इरादा, हालांकि वे बख़ूबी जानते हैं कि उनका मक़ाम क्या है. पर ये उनका शेवा है कि वे अपने मसाइल-ए-तसव्वुफ़ पर तो गर्व कर सकते हैं, कह सकते हैं कि जो तू शराब न पीता होता तो तुझे लोग वली समझते, मगर कलाम पर ज़्यादा नहीं कहते. कहते भी हैं तो —

न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
न सही मेरे अशआर में मानी न सही


मगर वे ग़ाफ़िल सुख़नगो नहीं हैं. न ऐसा है कि वे अपने कलाम के बारे में लोगों की, साथी शोअरा की, क़दर-शनासों की राय पर नज़र नहीं रखते. इसीलिए वे बेधड़क कह सकते हैं —

यारब न वो समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको जो न दे मुझको ज़ुबां और


ग़ालिब अपने कलाम के बारे में कभी कोई दावा नहीं करते. करते भी हैं तो बहुत दबे-दबे स्वर में. मसलन
हम सख़ुन फ़हम हैं ग़ालिब के तरफ़दार नहीं
या
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए-बयान और


यहां तक कि उस मशहूर शेर में भी, जिसका हवाला देते हुए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने अपनी किताब “दस्ते सबा” का दीबाचा लिखा है और उसमें शुरू से आख़िर तक ग़ालिब ही के हवाले से अपनी बात कही है, ग़ालिब शाइरी का ज़िक्र नहीं करते —

क़तरे में दजल: दिखायी न दे और जुज़्व में कुल
खेल लड़कों का हुआ दीद:-ए-बीना न हुआ


इससे यह न समझा जाये कि ग़ालिब को अपने शाइर होने पर सन्देह है. नहीं, वे अच्छी तरह जानते हैं कि वे सिपहगर नहीं हैं, ख़्वाह उनके अजदाद सिपहगर रहे हों. वे कोई गुरु या औलिया या सूफ़ी-सन्त भी नहीं हैं, अव्वल से आख़िर तक शाइर ही हैं, मगर शाइरी से उनकी तवक़्क़ो अलग क़िस्म की है. वह आध्यात्मिक और सूफ़ियाना भी नहीं है, जैसा कि बेशतर ग़ालिब-प्रेमी मान लेते हैं. ग़ालिब अपने अहद से आगे जा कर “कला कला के लिए” के उद्देश्य और सिद्धान्त को ख़ारिज करते हैं
 

इस सिलसिले में सबसे पहले दो शेर मुलाहिज़ा हों. ग़ालिब का शेर है

हुस्न-ए-फ़रोग़-ए-शमअ-ए-सुख़न दूर है असद
पहले दिल-ए-गुदाख़्ता पैदा करे कोई
 

(कविता की शमा की ज्योति का सौन्दर्य तब तक दूर रहेगा जब तक कोई अपने अन्दर पिघल जाने वाला दिल न पैदा करे)

अब इस शेर को मीर के दीवान के पहले शेर से मिला कर देखिये जिसमें मीर कहते हैं —

उसके फ़रोग़-ए-हुस्न से झमके है सब में नूर
शमअ-ए-हरम हो या कि दिया सोमनात का


ग़ालिब के यहां मीर का “फ़रोग़-ए-हुस्न” (सौन्दर्य का प्रकाश)हुस्न-ए-फ़रोग़-ए-शमअ-ए-सुख़न” (कविता की शमा की ज्योति के सौन्दर्य) में बदल गया है. ग़ालिब की तवक़्क़ो “दिल-ए-गुदाख़्ता” से है, ऐसे दिल से है जो आदमी का दुख-दर्द महसूस कर सके. उसी से कविता की ज्योति का सौन्दर्य नज़दीक आ सकेगा. और यह तभी मुमकिन है जब शाइर भी “पहले दिल-ए-गुदाख़्ता पैदा करे.”
 

ग़ालिब ने एक और शेर में कहा है —

आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
ग़ालिब सरीर-ए-ख़ाम: नवा-ए-फ़रोश है


(ये विषय शायरी के ग़ैब से यानी आकाश से आते हैं (सच तो यह है कि ग़ालिब कहना चाहते हैं कि जाने कहां से आते हैं और इस तरह कविता की रहस्यमय प्रक्रिया की तरफ़ इशारा करना चाहते हैं) ग़ालिब तो सिर्फ़ क़लम की आवाज़ और ख़ुदा के संदेसिये जिब्रील की आवाज़ है.

यहां ग़ालिब ने साफ़ कर दिया है कि वे किसी मक़सद से कविता कर रहे हैं — चाहे वह क़लम की आवाज़ हो या ख़ुदा का पैग़ाम. इसीलिए वे एक और शेर में यह भी कह सकते हैं —

मैं जो गुस्ताख़ हूं आईन-ए-ग़ज़ल ख़्वानी में
वह भी तेरा ही करम ज़ौक़ फ़िज़ा होता है


अब यहां “तेरा ही करम” पर बहस हो सकती है कि यह तेरा कौन है. ग़ालिब को उलटने-पलटने के बाद मैं अपने तईं तो इसी नतीजे पर पहुंचा हूं कि यह “तेरा” शाइर का समाज और मआशरा और उसके ज़माने के इन्सान ही हो सकते हैं जिनके दुख-दर्द को, जिनकी उलझनों और समस्याओं को वह वाणी दे रहा है. यही वजह है कि वह क़तरे में दजला और जुज़्व में कुल को देखने की बात करता है. इसीलिए हमारा ख़याल है और यह ख़याल है कोई दावा नहीं कि ग़ालिब ने ख़ुदा और अल्लाह को चाहे हिकमत की सूरत में, काव्य-युक्ति के रूप में, चाहे इस्तेमाल किया हो, पर उनका सारा फ़ोकस इन्सान पर रहा. उसी के हर्ष-उल्लास, दुख-सुख की तस्वीरें उन्होंने उकेरीं.

अब जैसा कि कहते हैं कि इस तकरार में वह सवाल तो रह ही गया कि ग़ालिब की बनिस्बत कुछ दूसरे शाइर मेरी और मेरे बाद की पीढ़ी के पसन्दीदा शोअरा क्यों हैं. क्या इसलिए कि वे हमें उस तरह आतंकित नहीं करते जैसे ग़ालिब करते हैं ? क्या इसलिए कि वे मीर की तरह गेय और दर्द से भरे हैं ? क्या इसलिए कि वे फ़ैज़ की तरह एक ही दम में मुहब्बत और क्रान्ति की बात करते हैं ? आप भी सोचिये और मैं भी सोचता हूं. फिर देखते हैं कि क्या सूरत सामने आती है. एक सूराग़ आपको दिये जाता हूं. मेरी पीढ़ी को इक़बाल भी उतने प्रिय नहीं हैं, जितने मीर या फ़ैज़.

(और अन्त में दोस्तो, उस लफ़्ज़ “तईं” की बाबत एक सुधार. भूल-सुधार नहीं, क्योंकि यह दीदा-दानिस्ता नहीं, बल्कि हमारी जानकारी की कमी से हुआ था. हमने लिखा था कि मिर्ज़ा ने हज़रत बिलगिरामी को लिखे एक ख़त में “तईं” को पंजाबी प्रयोग क़रार देते हुए उसके इस्तेमाल को बहुत बुरा बताया था. अब देखिये, कि आगे की क़िस्तों को लिखने के लिए मीर के दीवान को उलटते-पलटते एक शेर पर एकबारगी नज़र जा कर ठहर गयी —

तुमने जो अपने दिल से भुलाया हमें, तो क्या
अपने तईं तो दिल से हमारे भुलाइये


हम यह मान नहीं सकते कि ग़ालिब जैसे बारीक़-बीं शख़्स ने मीर का यह शेर देखा न होगा. मगर उन्होंने अपने ख़त में लिख ही तो दिया — “तईं का लफ़्ज़ मतरूक और मरदूद, क़बीह और ग़ैर फ़सीह, ये पंजाब की बोली है. मुझे याद है कि मेरे लड़कपन में एक असील हमारे हां नौकर रही थीं. वो तईं बोलती थीं तो बीबियां और लौंडियां सब उस पर हंसती थीं.”
 

ख़ैर, मिर्ज़ा इस बात से भी वाक़िफ़ रहे होंगे कि मीर के कलाम पर पंजाबियत का रंग काफ़ी गाढ़ा था. मुलाहिज़ा फ़रमाइये —
 

तलवार ग़र्क़-ए-ख़ूं है, आंखें गुलाबियां हैं
देखें तो तेरी कब तक ये बद शराबियां हैं

बारहा वादों की रातें आइयां
तालेओं ने सुबह कर दिखलाइयां


तो साहेब, हम सिर्फ़ यह कहने में ग़लत थे कि यह प्रयोग बाद में रायज हुआ. दर असल ये पहले से रायज था. ग़ालिब अपनी ज़ुबानदानी के मेयार के पेशे-नज़र ऐसे प्रयोगों के हामी न थे. इसके लिए हम उन पर इस्तग़ासा दाख़िल न करेंगे जी। 
*** 
(लेखक की फेसबुक दीवार से साभार) 

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