अनुनाद

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अनुपम सिंह की तीन कविताएं



नहीं जानता कि अनुपम सिंह पहले किन पत्रिकाओं में मौजूद रही हैं और कवि के रूप में उनकी यात्रा अब तक कैसी रही है, मेरी पढ़त के हिसाब से वे नई कवि हैं। ये कविताएं उजागर करती हैं कि समकालीन जीवन की ऊपर-ऊपर मीठी बताई जाती जलधार की अन्तर्धाराओं में कितना तो क्षार है। अनुपम ऐसा करने वाली अकेली और अलग कवि नहीं हैं, लेकिन ऐसे कवियों की संख्या कोई बहुत ज़्यादा नहीं है। अभी इतना ही कहूंगा कि कविता संसार में संभावनाओं के ऐसे कुछ सिरे जब अनुनाद में खुलते हैं तो मन आश्वस्त होता है। इन कविताओं के लिए कवि का आभार।

(1)
हम औरतें हैं मुखौटे नहीं

वह अपनी भट्ठियों में मुखौटे तैयार करता है 
उन पर लेबुल लगाकर ,सूखने के लिए 
लग्गियों के सहारे टांग देता है 
सूखने के बाद उनको अनेक रासायनिक क्रियाओं से गुजारता है 
कभी सबसे तेज तापमान पर रखता है
तो कभी सबसे कम 
ऐसा लगातार करते रहने से 
उनमे अप्रत्यासित चमक आ जाती है
विस्फोटक हथियारों से लैस उनके सिपाही घर -घर घूम रहे हैं 
कभी दृश्य तो कभी अदृश्य 
घरों से उनको घसीटते हुये 
अपनी प्रयोगशालाओ कीओर ले जा रहे हैं 
वे चीख रही हैं,पेट के बल चिल्ला रही हैं 
फिर भी वे ले जायी जा रही हैं 
उनके चेहरों की नाप लेते समय खुश हैं वे 
आपस मे कह रहे हैं ,की अच्छा हुआ इनका दिमाग नहीं बढ़ा
इनके चेहरे ,लंम्बे-गोल ,छोटे- बड़े है 
लेकिन वे चाह रहे हैं की सभी चेहरे एक जैसे हो 

एक साथ मुस्कुराएं
और सिर्फ मुस्कुराएं 
तो उन्होने अपनी धारदार आरी से 
उन चेहरों को सुडौल 
एक आकार का बनाया 
अब मुखौटों को उन औरतों के चेहरों पर ठोंक रहे हैं वे 
वे चिल्ला रही है 
हम औरते हैं 
सिर्फ मुखौटे नहीं 
वह ठोंके ही जा रहे हैं
ठक-ठक लगातार
और अब हम सुडौल चेहरों वाली औरतें 
उनकी भट्ठियों से निकली 
प्रयोगशालाओं में शोधित 
आकृतियाँ हैं ।

(2)


लड़कियाँ जवान हो रही हैं

हम लड़कियाँ बड़ी हो रही थीं
अपने छोटे से गाँव में
लड़कियाँ और भी थीं
छोटी अभी ज्यादा छोटी थीं
जो बड़ी थीं वे
ब्याह दी गयी थीं सही सलामत
इस तरह हम ही लड़कियाँ थीं
जिनकी उम्र बारह-तेरह की थी
हम सड़कों के बजाय
मेड़ों के रास्ते आतीजातीं
चलती कम
उड़ते हुये अधिक दिखतीं
गाँव मे नयीनयी ब्याह कर आयीं
दुल्हन हुयी लड़कियों की भी
सहेलियाँ बन रही थीं हम
किसी के शादी-ब्याह में
हम बूढ़ी और अधेड़ उम्र की
स्त्रियों से अलग बैठतीं
और अपने जमाने के गीत गातीं
हमारी हंसी गाँव में भनभनाहट की तरह फैल जाती
गाँव के छोटेभूगोल में
हमारे जीवन के विस्तार का समय था
अब हम सब अपने देह के उभारों के अनुभव से
एक साथ झुककर चलना सीख रही थीं
कभी तो जीवन को
हरे चने के खटलुसपन से भर देती
तो कभी माँ की बातों से उकताकर
आधे पेट ही सो जाती थीं
हम उड़ना भूलकर
अब भीड़ में बैठना सीख रहीं थीं
भीड़ से उठतीं, तो कनखियों से
एक दूसरे को पीछे देखने के लिए कहतीं
जब कभी हमारे कपडों में
मासिक धर्म का दाग लग जाता
तो देह के भीतर से लपटें उठतीं
और चेहरे पर राख बन फैल जाती
हम दागदार चेहरे वाली लड़कियाँ
उम्र के कच्चेपन में सामूहिक प्रार्थनाएँ करतीं
हे ईश्वर बस हमारी इतनी-सी बात सुन लो
हम लड़कियाँ , अनेक प्रार्थनाएँ करती हुयी
जवान हो रही थीं
लड़कियाँ जवान हो रही थीं
उनके हिस्से की धूप, हवा, रात
और रोशनियाँ कम हो रहीं थीं
अब हम बाग में नहीं दिखतीं
गिट्टियाँ खेलते हुये भी नहीं
हम घरों के पिछवारे
लप्प झप्प में
एक दूसरे से मिल लेती हैं
दीवार से चिपक कर ऐसे बतियातीं
जैसे लड़कियाँ नहीं छिपकलियाँ हों हम
घरों के बड़े कहीं चले जाते
तब बूढ़ी स्त्रियाँ चौखट पर बैठ
हमारी रखवाली करतीं और
किसी राजकुमार के इंतिज़ार और अनिवार्य
हताशा मे हरे कटे पेड़ की तरह उदास होती हम
लड़कियाँ जवान हो रही हैं।

(3)


आसान है हमें मनोरोगी कहना 

रात अनेक सपनों का कोलाज होती है
कई रातों के सपने अभी भी याद हैं
बचपन में पढ़ी कविताओं की तरह
सपने के एक सिरे से दूसरे सिरे का मतलब
अभी भी पूछतीं हूँ सबसे ।
आखिर! पश्चिम दिशा में साँप उगने का क्या मतलब होता है ?
कुछ सपने ,जो गाँव में आते थे
अब शहर की अनिद्रा में भी आने लगे हैं
एक आदमकाय ,सींगवाला जानवर
धुन्धभरी रातों में दौड़ता है
मेरे पैरों में बड़े-बड़े पत्थर बांध देता है कोई उसी क्षण
पैर घसीटे हुये, घुस गयी हूँ अडूस और ढाख के जंगलों में
अब वह जंगल ,जंगल नहीं एक सूनी सड़क है
उस साँय-साँय करती सड़क पर मैं भाग रही हूँ ।
रात को सोने से पहले ही
दिन चक्र की तरह घूम जाता है
आज फिर दूर वाले फूफा जी आए हुये हैं
वे आंखो से ,मेरे शरीर की नाप लेते हुये
अभिनय की मुद्रा मे कहते हैं
अरे ! तुम इतनी बड़ी हो गयी
मेरे बायें स्तन को दायें हाथ से दबा देते हैं ।
वह डॉक्टरनुमा व्यक्ति फिर आया हुआ है
जो मेरे गाँव की सभी स्त्रियॉं का इलाज करता है
पूछता है पेशाब में जलन तो नहीं होती
एक प्रश्न हम सभी की तरफ उछालकर
जाड़े की रात में भी ग्लूकोज चढाता है
और रात भर उन औरतों का हाथ
अपने शिश्न पर रखे रहता है
फिर सपने में आते हैं कुछ मुंह नोचवे
जो स्कूल जाती लड़कियों को बस में भर ले जाते हैं
छटपटाहट में नीद खुलती है
मुझे अपना चिपचिपाया हुआ बिस्तर देखकर घिन्न आती है
बीच की छूटी तमाम रातों में डरी हूँ
जिस रात, मैं उन देवताओं से गिड़गिड़ाती हूँ
की अब कोई और सपना मत दों मेरी नीद में
उसी रात ,पता नहीं कब ,कहाँ ,कैसे निर्वस्त्र ही चली गयी हूँ ।
सभी दिशाओं से आती हुयी आंखे मुझे चीर रही हैं
वे मेरी देह पर अनेक धारदार हथियारों से वार करते हैं
मुझे सबसे गहरी खायीं में फेक देते हैं वे
मेरी सांस फूल रही है ,मेरी देह मेरे विस्तार से थोड़ा उठी हुयी है
मैं सबसे पहले अपने कपड़े देखती हूँ ।
बगल में सोयी माँ पूछ रही है क्या कोई बुरा सपना देखा तुमने
मैं कहती, नही, अम्मा तुम सो जाओ
मैं सोच रही हूँ की, फ्रायड तुम जिंदा होते
तो इन सपनों को पढ़ कर कहते
की यह मनोरोगी है

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