अनुनाद

वीरेन के साथ पूरी आधी सदी – बटरोही

वीरेन डंगवाल पर उनके आत्मीय मित्र कथाकार बटरोही की लम्बी टिप्पणी मैं फेसबुक से साभार ले रहा हूं। बटरोही से वीरेन डंगवाल की संबंधों की दास्तान आधी सदी लम्बी है। लगभग दो दशकों तक मैं ख़ुद इन संबंधों का साक्षी रहा हूं। ये वैसा ही अजब-गज़ब रिश्ता है, जैसा वीरेन दा के साथ किसी का हो सकता है।  

वर्ष 1965 का मार्च या अप्रेल का महीना था. डी. एस. बी. कॉलेज तब एक सरकारी
महाविद्यालय था. हम विद्यार्थियों ने एक ग्रुप बनाया था
, ‘द क्रैंक्स’.
शुरू में इसमें मेरे अलावा बॉटनी के देवेन्द्र मेवाड़ी थे, मगर धीरे-धीरे दूसरे विषयों के लड़के-लडकियाँ जुड़ते चले गए. साहित्य,
संस्कृति और कलाओं से जुड़े कुछ सिरफिरे लड़के-लड़कियों का समूह था यह.
हर-किसी विद्यार्थी को इसमें शामिल होने की अनुमति नहीं थी. जो भी इसमें आना चाहता
था
, उसे किसी भी रूप में यह सिद्ध करना होता था कि वह दूसरों
से अलग हटकर है. (पहले इस संस्था का नाम
द क्रैक्सरखा गया था, बाद में कुछ लोगों के ऐतराज के बाद नाम
बदला गया. इसका उद्घाटन उस वक्त के सबसे अधिक चर्चित
क्रैंक
आचार्य कृपलानी ने किया था, जिन्होंने अपने
उद्घाटन भाषण में कहा था
, ‘भारत में कवल दो ही क्रैंक हुए
हैं एक गाँधी और दूसरा मैं
‘.)



उन्हीं
दिनों बी. ए. के पहले वर्ष में आया था वीरेंद्र कुमार डंगवाल
, जिसका नामकरण हमने किया, वीरेन डंगवाल. छोटे कद का,
आँखों में भरपूर शरारत भरे हुए, एकदम बच्चों
के-से व्यवहार वाला वह लड़का अपने खुले व्यवहार की वजह से हम लोगों में फ़ौरन
घुल-मिल गया. एक दिन जब वीरेन ने हमसे कहा कि वह भी क्रैंक्स का सदस्य बनना चाहता
है
, हमने उससे कहा कि वह इस बात को साबित करे कि वह बाकी
लोगों से फर्क है. जवाब देने की जगह उसने हमसे सवाल पूछा
, हममें
ही ऐसी कौन-सी चीज है
? उस वक्त ग्रुप में अंग्रेजी के श्याम
टंडन और डी. एस. लॉयल
, बॉटनी के देवेन्द्र मेवाड़ी (जो तब देवेन एकाकीबन चुके थे) के अलावा रमेश थपलियाल,
फिजिक्स के वेदश्रवा विद्यार्थी और सुबोध दुबे, बी. ए. के ओम प्रकाश साह, मिताली गांगुली और वसंती
बोरा सदस्य थे
, जिनमें एक-दूसरे को जोड़ने वाली विशेषता थी
उनकी साहित्यिक अभिरुचि. हमने पूछा
, क्या तुम कहानी लिख सकते
हो
? उसने फ़ौरन जवाब दिया की वह दूसरे दिन कहानी लेकर हमारे
दरबार में हाजिर हो जायेगा. दूसरे दिन करीब ग्यारह बजे वह कहानी लेकर आ गया और
क्रैंक्स का सदस्य बन गया. (इस पोस्ट के साथ जो रेखाचित्र लगाया गया है
, उसमें वीरेन को चुपके-से पाँवों के बीच-से झाँकते हुए दिखाया गया है जो
उसके शरारती व्यक्तित्व को दर्शाने के लिए जानबूझकर चित्रित किया गया है. दरअसल
हमारे दोस्तों में एम. एस-सी (बॉटनी) फाइनल का एक लड़का था
, रमेश
थपलियाल (चित्र में दायें से पहला) जिसमें ऐसी अद्भुत प्रतिभा थी कि वह एक बार देख
लेने के बाद कभी भी उसका चित्र बना सकता था. उन्हीं दिनों उसके व्यंग्यचित्र
अंग्रेजी साप्ताहिक
इलस्ट्रेटेड वीकलीऔर हिंदी साप्ताहिक धर्मयुगमें
प्रकाशित होने लगे थे. चित्र में रमेश थपलियाल के बाद देवेन्द्र मेवाड़ी खड़े हैं
,
फिर छोटे कद का मैं, फिर चित्रकार सईद,
उसके बाद ओमप्रकाश साह और श्याम टंडन और पीछे से हैं सुबोध दुबे.)



1966 में जब मैं शोधकार्य के सिलसिले में इलाहाबाद गया, वीरेन
एम. ए. (हिंदी) करने के लिए वहाँ पहुँच चुका था. अपनी आदत के अनुसार वह थोड़े ही
वक़्त में ठेठ इलाहाबादी बन चुका था
, जैसे कि नैनीताल आने के
कुछ ही समय बाद वह ठेठ कुमाऊँनी बन गया था. नैनीताल में जिस लहजे में वह कुमाऊँनी
बोलता था
, ऐसा हो ही नहीं सकता था कि कोई धोखे से भी यह
अंदाज लगा सके कि उसकी मातृभाषा कुमाऊँनी नहीं है. यही बात उसकी इलाहाबादी हिंदी
और बरेली जाने के बाद पश्चिमी हिंदी के लहजे और शब्दावली के बारे में कही जा सकती
है. यह कहावत कि
प्रतिभाएं जन्मजात होती हैंबिना किसी अतिरंजना के वीरेन पर लागू होती है. जिंदगी का हर व्यवहार उसका
स्वाभाविक होता था
, चाहे खाना हो, कपड़े
पहनना हो
, कविता लिखना हो, दोस्तों के
प्रति प्रेम प्रदर्शित करना हो या अख़बार के शीर्षक लगाना. किसी बात पर अपनी
प्रतिक्रिया व्यक्त करने में वह पल-भर से अधिक का वक़्त नहीं लगाता था. अपनी शब्दावली
और वाक्यों में संशोधन करते हुए तो वह देखा ही नहीं गया था. तमाम कवियों के बारे
में मैंने सुना है कि वे लोग अपनी कविताओं में छंद
, मात्रा
और लय लाने के लिए खूब मशक्कत करते हैं
, वीरेन की कविता कलम
या मुँह से ही तैयार बाहर निकलती थी
, मानो तैयार माल की तरह.
इसीलिए किसी के औपचारिक व्यवहार से वह परेशान हो जाता था और अपना पिंड छुड़ाने के
बहाने खोजने लगता था. साहित्य अकादेमी के लिए जब उसका नामांकन होना था
, कितनी ही बार मुझे उसे फोन करना पड़ा था. तीसरे या चौथे दिन उसके प्रकाशनों
का विवरण मैंने उससे फोन से ही लिया था. वह भी उसने मरे मन से दिया था. रामगढ़ में
अकादेमी सम्मान मिलने के बाद मैंने उसकी कविताओं पर करीब दस मिनट का आलेख पढ़ा था
,
उसने मंच पर ही मानो एक राहत की साँस लेते हुए कहा, ‘कैसी-कैसी बातें कह गए यार तुम मेरे बारे में, उन्हें
सुनते हुए मेरी छाती में अजीब-अजीब-सा होता रहा… ये सब कहने की क्या जरूरत थी
यार.




उस दिन
नैनीताल से मैं
,
शेखर पाठक, उमा और राजीवलोचन साह एक टैक्सी
करके वीरेन को देखने बरेली गए
, पहली नजर देखने के बाद ही मुझे
लगा कि मैं गश खाकर गिर पडूंगा. हालाँकि पहले सुन चुका था कि उसका जबड़ा निकला जा
चुका है
, मगर ऐसा बिम्ब तो दिमाग में कतई था हीनहीं. वीरेन हम
लोगों के बीच
, कम-से-कम मेरे तो निश्चय ही, जिन्दादिली उन्मुक्तता का जीता-जागता प्रतीक था. शरीर के किसी अंग तो
छोडिये
, किसी मनोभाव की अनुपस्थिति को भी मैं उसमें सहन नहीं
कर सकता था. मैं शायद जमीन पर गिर ही पड़ता
, शेखर ने सहारा
देकर मुझे थामा
, फिर भी मुझे सामान्य होने में बहुत वक़्त
लगा. हालाँकि खाने की मेज पर उसने आग्रह कर-कर के खाना खिलाया
, बेटे को भेजकर आधा लीटर दही मंगाया, मगर दहशत तो
उसके बाद लगातार बनी ही रही. सच कहूं
, उसके बाद मिलने जाने
की हिम्मत मेरी कभी नहीं हुई. फोन पर अनेक बार बातें हुईं
, मगर
वह भी डरते-डरते. उसकी तकलीफों के बारे में छोटे भाई टाटा से बातें होती रहती थीं
,
वैसी अदम्य जिजीविषा मैंने सचमुच किसी और में नहीं देखी… खासकर
आखिरी वक़्त तक लिखते रहने के लिए उसकी जिजीविषा
,
 
इसीलिए, सच बात तो यह है कि उसके न रहने की
सूचना से दुःख कम राहत-सी ही अधिक मिली. लगभग वैसी-ही अनुभूति जैसी मटियानी जी के
निधन का समाचार पाकर हुई थी. ये दोनों ही मेरे खुद के जितने ही अन्तरंग थे
,
इसलिए उनकी देह के न रहने का मेरे लिए कोई खास अर्थ नहीं था. शब्द
से ही वह तब भी मेरे भीतर जीवित थे
, शब्द से ही आज भी हैं.
 
अपने किशोर दिनों को याद करता हूँ तो इस अनुभूति को साझा करना चाहता
हूँ कि वीरेन का महत्व हम जैसे आर्थिक दृष्टि से कमजोर लड़कों के लिए यह भी था कि न
जाने कितनी बार हम लोगों में से अनेकों को उसने आर्थिक मदद की थी. बड़े लोगों के
बच्चे हमारी मित्र-मंडली में और भी थे
, मगर वीरेन कभी भी
हमें न बड़े घर का बेटा लगा
, न अपने आर्थिक और सामाजिक स्तर
से अलग. आज यह बात सुनने-कहने में अटपटी और अविश्वसनीय लगती है
, क्योंकि हममें से अधिकांश की स्थिति लगभग सामान हो चुकी है, मगर उस स्थिति का अंदाज वही व्यक्ति लगा सकता है, जिसने
कुछ दिनों से पेट में कुछ न डाला हो और वीरेन ने खाना खिलाकर लौटने का जुगाड़ भी कर
दिया हो और यह अहसास भी न दिलाया हो कि कहीं कुछ मदद की गयी है. ये भावुक बातें
नहीं हैं. हाँ
, भावुकता का बिम्ब उसके दिमाग में कुछ और था. वह
दूसरों के सीने पर सिर रखकर मिनटों तक रो सकता था
, मगर दूसरे
के दुःख सुनकर मजाक करने से भी बाज नहीं आता था. महादेवी वर्मा सृजन पीठ में जिस
अपमानजनक तरीके से मुझे अलग किया गया था
, मैंने फोन पर उसके
सामने अपना दुखड़ा रोया. मैं समझ रहा था कि वह
अमर उजाला
में इस सन्दर्भ में लिखकर मेरा मनोबल बढ़ाएगा, मगर
सारी बात सुनने के बाद वह अपने उसी पुराने अंदाज में बोला
, ‘दद्दा,
पीठ का डायरेक्टर मुझे बना दे यार!

0 thoughts on “वीरेन के साथ पूरी आधी सदी – बटरोही”

  1. वीरेन जी की अद्भुत जिजीविषा और उनका जीवन उनकी कविताओं की तरह पठनीय और प्रेरणादायक है । उनकी स्मृति को नमन ।।। आदरणीय बटरोही जी और शिरीष जी को धन्यवाद

    डॉ नूतन गैरोला

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