हिंदी में बहुत सारी रॉ एनर्जी है। वह उतनी अनगढ़ है, जितना एक मनुष्य को होना चाहिए। उसे बाहर से साधना हिंसा की तरह होगा। वह ख़ुद सधेगी विचार की राह पर उसके पथ आगे कभी प्रशस्त होंगे। जैसे बच्चा देखता है अचंभे से दुनिया को, वैसे ही युवतर कवि देखते हैं – ऐसे देखना ही सहज है, बाक़ी तो कला है, सामाजिक-राजनीतिक भटकावों के बीच जनपक्ष में उसे ख़ुद ही सधना है। यहां ऐसी ही उम्मीदों के साथ हर्षिल पाटीदार की कुछ कविताएं साझा कर रहा हूं।
अनुनाद उस्तादों का नहीं, जीवन में फंसे और उसे गरिमा के साथ जीने की राह पर संघर्ष कर रहे अनगिन लोगों का शहर है।
***
हत्याओं
का दौर और राजनीतिक अपंगता
का दौर और राजनीतिक अपंगता
मैं एक वाक्य
लिखता हूँ कि
लिखता हूँ कि
“आप अंधे
हो.”
हो.”
और आप मुक्त
हो जाते हो
हो जाते हो
उन समस्त उत्तरदायित्वों
से
से
जो जनता ने
अपना सबकुछ
दांव पर रख
दांव पर रख
आपको दिए थे।
हत्याएं
एक हो या हज़ार
आप नही देख
सकते.
सकते.
कल ही
न्याय
उन हत्यारों
से भागते-भागते
से भागते-भागते
अपने प्राण
गँवा बैठा था.
गँवा बैठा था.
आज सुबह
कालिख की फैक्ट्री
के पीछे वाले नाले में
के पीछे वाले नाले में
काली वर्दी
वाले
वाले
पुलिसवालों
ने
ने
उसकी लाश बरामद
की है.
की है.
और पोस्टमार्टम
के लिए
के लिए
मुर्दाघर में
रखवा दी है
रखवा दी है
जिसपर ताला
लगाकर
लगाकर
चाबी आपकी कुर्सी
के नीचे चिपका दी गई है.
के नीचे चिपका दी गई है.
मैं एक दूसरा
वाक्य लिखता हूँ.
वाक्य लिखता हूँ.
“आप बहरे
हो.”
हो.”
अब
घटनाओं से
आपका कोई सरोकार
नहीं है.
नहीं है.
वहीं करो,
जो पूर्वनियोजित
है.
है.
***
ऐसे लिखता
हूँ मैं कविता
हूँ मैं कविता
पूछता है बुड़बक-
कहां से
सीखी तुमने
सीखी तुमने
ये कविता-वविता?
कहता हूँ
पिता की मूंछों
पर ताव दे,
पर ताव दे,
मैंने सीखी
है कविता
है कविता
धान के पौधों
पर खिलती कोंपलों से
पर खिलती कोंपलों से
दूध भरते हुए
संक्रमण कालीन समय से
संक्रमण कालीन समय से
हरी पहाडियों
के पीछे
के पीछे
ढलते हुए सूरज
की आखिरी किरण को सहेजते हुए
की आखिरी किरण को सहेजते हुए
उभरते हैं मेरे
भीतर से शब्द।
भीतर से शब्द।
पिता के हाथों
से
से
खलिहानों पर
झरती हैं
झरती हैं
चाँदनी में
दूधियाती
दूधियाती
कविताएँ।
टोकरों में
भरभर कर
भरभर कर
ढो देता हूँ
घर तक
घर तक
और भर देता
हूँ
हूँ
काग़ज़ों में
ढेर सारी कविताएँ।
बुड़बक,
ऐसे लिखता हूं
मैं कविता।
मैं कविता।
…. और हाँ,
ये वविता कुछ नहीं होती।
ये वविता कुछ नहीं होती।
***
एक रहस्य
दोनों में से
एक
एक
महुआ रहा होगा
या आम।
या आम।
(रहा होगा कि
दोनों की शक्लें एक जैसी थी)
दोनों की शक्लें एक जैसी थी)
महुए पर
फूल भी उगता
था और फल भी,
था और फल भी,
पर आम पर सिर्फ
फल उगता था
फल उगता था
और उस फल में
हजारों फल एक
रहस्य की तरह रहते थे।
रहस्य की तरह रहते थे।
उन्हें ज्यादा
चाहिए था
चाहिए था
इसलिए उन्होंने
महुआ चुना।
महुआ चुना।
मुझे अच्छा
चाहिए था
चाहिए था
सों मैं आम
चूस रहा हूँ।
चूस रहा हूँ।
***
हर्षिल पाटीदार
‘नव’
‘नव’
महादेव मंदिर
के पास,
के पास,
गांव विकासनगर
जिला डूंगरपुर(राज.)
पिनकोड
314404
314404
मो.न.
9660869991
9660869991
ईमेल harshil.nav@gmail.com
धन्यवाद आदरणीय। हृदय से आपका आभारी हूँ।
अपनी माटी की खुशबू से लबरेज बेहतरीन कविताएँ…
'एक रहस्य' कविता अच्छी लगी. बाकी कवितायेँ मुझे गद्यात्मक लगीं. शायद ये मेरी दृष्टि और पाठ का दोष हो. फिर भी युवा हर्षिल को अनुनाद का मंच देकर आपने ताज़ा स्वर को सामने लाने का काम किया है शिरीष सर. हर्षिल को शुभकामनाएं.
धन्यवाद प्रेम नंदन जी।
भाषा सहज है
हो सकता है मेरे लिए कहानियों में संभावनाएं हो। जल्द ही इस पर कार्य करूँगा। धन्य यह इंटरनेट की दुनिया जिसने आप जैसे लोगों का सान्निध्य मुझ अकिंचन को दिया। आपका बहुत बहुत आभार। शिरीष जी को पुनश्च धन्यवाद।
शायद यह मेरे ठेठ देहात में गांव की धरती से होने के कारण हो। पर यह मेरा विचार है पूर्णतया व्यक्तिगत कि भाषा जितनी सहज हो वह उतनी ज्यादा लोगों तक पहुँच पायेगी। आपका मत इस दृष्टिकोण से क्या है जरूर बताये।
बहुत सुंदर
Haardik svaagt !! Achchha lga padhkar…Shubhkaamna!!
– Kamal Jeet Choudhary
हो सकता है मेरे लिए कहानियों में
संभावनाएं हो आप।र
जल्द ही इस पर करूँगा।कार्य
धन्य यह इंटरनेट की दुनिया जिसने
आप जैसे का सान्निध्य दिया अकिंचन
आपका बहुत बहुत आभार।
kavita aap likh rahe hai ki laffabaji
धन्यवाद भाई साब।