कवि मित्र अशोक को पिछले दिनों पंकज सिंह स्मृति सम्मान प्रदान किए जाने की घोषणा हुई है और कल मुझे ईमेल में ये नई कविता मिली। कवि को और मित्र को बधाई के साथ इन कविताओं के लिए शुक्रिया भी कहता हूं।
(एक)
उलटे साँप सी सड़क पर चींटियों सी
रेंगती भीड़ में चलता कहाँ चला आया हूँ
रुकिए – एक पेड़ कहता है जिसकी पत्तियाँ
लुट चुकी हैं
पीले फूल जिनमें न ख़ुशबू न
छाँव कोई
देवताओं से बहिष्कृत, मनुष्यों
के सर पर गिर रहे हैं
कितना कम हो गया पानी धरती पर.
रुकना
चलने का व्यवधान है या व्यतिक्रम लौटना तो चलने का ही विस्तार है एक उदास
सूरज एकांत की आग में जलता चला जाता है
एक कवि एकांत ढूंढता खिड़कियाँ बंद करता
है सारी
और फिर मोबाईल की स्क्रीन में खोजता है
कविता
कोई अपनी ही तस्वीर खींच देखता है मुग्ध
पेड़ अपना आख़िरी फूल गिरा चिड़ियों को
सुनाता है किस्से
मैंने वह फूल तुम्हारे लिए रखा तो था
जाने कहाँ गया…
जिस
दरवाज़े पर लिखा है मनुष्य डरें कुत्तों से वहाँ एक बच्चा खड़ा है भीतर चली गई गेंद
के बारे में सोचते
सुनिए – रुकता नहीं कहता चला जाता है
कोई
चलता हूँ और आवाज़ चलती है आगे
आगे
तुमने कहा था करना प्रतीक्षा
रुकना था मुझे
पर यह आवाज़…चलता चला जाता
हूँ और तेज़
मोज़े पसीने से भीगे हैं कमीज़
चिपकती जाती है देह से
गले में कांटे उग रहे हैं कान
सुन्न होते जाते आवाज़ों से
एकांत की आग है यह!
देह
जलती है आत्मा को देखा ही किसने है आवाज़ है एक जो जलती नहीं चलती जाती है लगातार
यहाँ कुछ नहीं हाशिये पर जो
शून्य दिखता है वह भी नहीं
गुज़रा हुआ जीवन है एक बेमानी
भविष्य की कहाँ होती है कोई शक्ल
और जो है अधर में लटका उसके
गिरने की प्रतीक्षा में चाँद-सूरज सब
रुकता हूँ वहाँ जहाँ आधे कपड़ों
वाला एक बूढ़ा मरने के बाद सफ़ेद संगमरमर बन गया
उफ़ दाहिने हाशिये की ओर बढ़ता
जाता हूँ
उस ओर जिधर एक दलदल है
गहरा दलदल
शान्ति
.
शान्तियाँ
श्मशानों के कितने क़रीब होती हैं मंदिर टूटे मस्ज़िद टूटी अब श्मशानों की बारी है?
(दो)
पानी
बहुत कम बचा है धरती पर आसमान थक गया रो रो के समन्दर पी गईं मछलियाँ
चिड़ियों की सामूहिक आत्महत्या पर बहाने
के लिए दो बूँद आँसू भी नहीं बचा
सड़क सूखी पतझड़ में गिरी पत्तियों से
लिपट रोती लगातार अश्रुहीन
आहिस्ता रखता हूँ पाँव संभल संभल कर
कांटे चूमते हैं पत्तियाँ धन्यवाद की
मुद्रा में देखती हैं लाचार
क़दमों के निशान दरअसल खून के निशान हैं
जो बचा नहीं अब आसुओं की तरह
आगे का रास्ता तुम्हें ख़ुद ही तय करना
है…
रास्ते
पहाड़ से फिसल गए पत्थर हैं मंज़िलें स्वर्ग से बहिष्कृत आदम सपने हव्वा हैं निरुपाय
इकलौती खुली खिड़की से बढ़ता है एक हाथ
जिसमें ख़ाली बर्तन है
उसमें भरती है धूप और धूल मैं उँगलियों
से एक चित्र बना देता हूँ उस पर
बंद होती है खिड़की तो उसमें से एक सूराख
झांकता है
मुझे भीतर जाना था शायद मैं दूर निकल
आया हूँ लेकिन
यहाँ दीवार पर लिखे हैं सारे पवित्र
शब्द
जहाँ एक बच्चा खड़िया से विकेट बना रहा
है
और एक औरत गोबर लिए बैठी है कि ख़त्म हो
खेल तो थापे चिपरी
उसने आग के बारे में पूछा है मुझसे
पानी ख़त्म हुआ है और तुम्हें आग की
चिंता है?
सब्र करो बाबू कहा उसने तो सुना कब्र
में रहो बाबू
क़ब्रों
को आग की नहीं पानी की ज़रुरत है और मुझे आग की ज़रुरत पानी तक पहुँचने के लिए
(तीन)
उदास
क्यों हो देखो सब तो हँस रहे हैं मत चलो इतना थक जाओगे कुछ पी ही लो कम से कम
उसी वक़्त समाचार देखते कह रहा था कोई
है तो इतना पानी वाटर पार्क में आएगी
होली तो देखना रंग भी होंगे
उसी वक़्त पढ़ रहा था अखबार कोई ट्रेन का
सफ़र कर रहा है पानी
चलती कार से उछाली किसी ने बोतल तो तेज़
संगीत गूँजा उसी वक़्त
तीन बच्चे लपक पड़े हैं बोतल पर जिसमें
पानी नहीं है
प्लास्टिक के खोखे पर जिसमें ज़रा सा नमक
है
पानी बिना मर गया जो उसकी लाश भीग रही
थी बर्फ में उसी वक़्त
साँप सीधा हो रहा है धीरे धीरे
सूरज
थक गया चीखते चीखते कौन आता उसके पास?
आसमान
में उदासी की कालिख छाई तो लोग निकल पड़े हैं बाहर
पहाड़
पर बर्फ़ बेचकर लौटते लोगों की बोतलों में पानी नहीं शराब है और उँगलियों में
आग.
उदास कर देती है ,बेचैन कर देती है ,शब्द गूंज रहे हैं भीतर ।शानदार ।