मन में ‘लोक‘ शब्द आते ही स्मृति में भी ‘तीन प्रसंग‘ आ जाते हैं
एक में कबूतरी देवी गा रही हैं;
“भात पकैये बासमती को, भुख लागि खैल्यूला”
फिर इसी का विस्तार ठुमके लगाते ‘ताऊ कव्वाल‘ ;
“विराना देशमां मैं मरि ज्यूला,
रोनिया कोई छईनां”
और अब भानुराम सुकौटी के गीत की यह पंक्तियाँ;
” हिमाल को डफ्या पंछी, अगास में रिट्यो”
क्या है लोक?
चुस्त दुरुस्त तामझामों के बीच अपने अमल/ भूख
को महसूस करने की ठसक,
या जिसमें संवेदना शेष नहीं रह गई है उस जगह को ही विराना/
पराया कह देने की कसक,
या यह कि सुन्दर डफ्या / मोनाल पंछी पर्वतों से
घिरी नदी-घाटी ऊपर आकाश की ऊंचाई से गोल गोल चक्कर लगा रहा है। यह स्वछंद, उन्मुक्त नहीं है बंधी हुई,
कसी हुई उडान है पराणि की / पंछी की या प्राण की भी कह सकते
हैं।
यही तो है लोक।
हाल ही में ‘पहाड़‘ ने अनिल कार्की द्वारा संकलित व संपादित किताब ‘ एक तारो दूर
चलक्यो‘ का प्रथम संस्करण प्रकाशित किया है। यह किताब लोक
गीतकार, गायक और संगीतकार स्वर्गीय श्री भानुराम सुकौटी के
जीवन परिचय एवं उनकी उपलब्ध प्रमुख रचनाओं का एक गम्भीर व महत्वपूर्ण
संकलन है। ‘पहाड़‘ के द्वारा इसका
प्रकाशन इस समर्पण की पुष्टि करता है।
एक रचनाकार के रूप में अनिल कार्की के बारे
में संक्षिप्त रूप से इतना ही कहा जा सकता है कि उनकी रचनाओं में जो पहाड़
परिलक्षित होता है, वह स्मृति का
नहीं है जो अतीत में लेकर जाता है। अनिल का लेखन प्रवासी नहीं है, यह आपको प्रभावित करता है, जोडता है, और करीब लाता है अपनी दूध बोली के।
किताब के बारे में कहा जा सकता है कि यह दो
हिस्सों में लिखी गई है।
प्रथम में ‘ एक तारो दूर चलक्यो‘ शीर्षक, यही किताब का नाम भी है, दलित और अन्य लोक कलाकारों की तरह ही हमेशा हाशिये में
रहे भानुराम सुकौटी का जीवन वृतांत है। इसमें सामाजिक, पारिवारिक
और एक कलाकार के रूप में सुकौटी का चित्रण है। शिष्यों के साथ, साथी कलाकारों के साथ,अपने दो परिवारों के साथ,
नौकरी व दलित जाति के साथ भी सामंजस्य बिठाते, मान देते भानुराम सुकौटी हैं। यही दलित भानुराम सुकौटी ‘पतित भानु‘ बनकर भी अपने हिन्दी भजनों में आता है
राग और ताल के साथ।
दूसरे भाग ‘हिमाल को डफ्या पंछी‘ में भानू राम
सुकौटी का रचना पक्ष है, उनके बेहतरीन गीत हैं। झुसिया दमाई,
गोपीदास, कबूतरी देवी, रीठागाडी,
ताऊ कव्वाल की जमात के कवि, गायक, संगीतकार भानुराम सुकौटी काली वार व काली पार
की साझा विरासत के वाहक हैं। उनके गीतों में हिमाल की उतरती हुई बर्फ – ग्लेशियर –
नदी है तो वहीं ऊंची चोटी – पेड़ – घाटी भी।यह सब एक साथ उपस्थित हैं।एक समग्र रूप
में प्रकृति है, उससे जुडे हुए नाम हैं पूरी समग्रता के साथ
समरस।वार – पार फाट हैं नदी के, डाणाँ – काँणा, तल्लागाडा – मल्लागाडा, धुरे हैं तो सिरे भी।
अनिल लिखते हैं कि भानुराम सुकौटी लोक के
उत्सवधर्मी कवि हैं। खुद उनके रचना संसार की प्रस्तावना लिखते हुए अनिल अपनी दूध
बोली का ही प्रयोग करते हैं।
‘दिन ढलिक्या‘, भिटौलिया
दिन, सबकी सब रचनाओं में सम्बन्धों की मार्मिक तारतम्यता है। भानुराम सुकौटी का यह पक्ष जो रचनाधर्मिता का पक्ष है इसमें दरिद्रता का
लेशमात्र भी नहीं है। जातिगत भेदभाव नहीं है। बस नाम हैं जैसे बरूँश, न्यौली, धौला बल्द, भैंसी को
परान हैं वैसे ही पंत ज्यू का सेरा। लोक के ऐसे समृद्ध शब्द हैं कि हौंस लगने लगती
है।
अलग तरह की माया / लगाव और वैसी ही उदासी भी
जैसा कि ‘ऐगे बसन्त
बहार‘ गीत की यह पंक्तियाँ;
“काली खाइछ कालसिनि ले,
गोरी पिचास ले।
मैं त सुवा मरी जाँछू, तेरा निसास ले ।।”
तुकबंदी सी लगने वाली यह पंक्तियाँ वास्तव में
बहुत ही नाजुक ढंग से बुनी हुई उत्कृष्ट रचनाएं हैं।जो लोक की विशिष्टता भी है और
समृद्धि भी।जैसे:-
“अस्कोट पानी का नौला, रूमाल भिजाया।
उदासियों मन मैरो, गीत गाई भुलाया।।
उमर काटूँ कै संग।।”
इसी गीत में अस्कोट के साथ ही दैलेख जगह का भी
नाम है। यह दोनों अलग अलग देशों में बटे हुए नाम इस गीत में साझा विरासत काली वार
व काली पार को समेटे हुए हैं। यह लगाव यह विराटता केवल लोक में ही संभव है।
इसी क्रम में भानुराम सुकौटी और उनकी दुसरी
पत्नी शान्ति सुकोटी के गीत हैं। अनिल ने इन्हें बहुत ही मधुर माना है।
यह वाकई अलग हैं। हेव लगाने की परम्परा के
विपरीत दोनों का अलग सम्बन्ध दिखता है।समाज का दलित, भजनों का पतित और लोक गीतकार भानू
राम सुकौटी को जितना मैंने इस किताब के माध्यम से जाना ।उस सब को हाजिर नाजिर
जानकर मैं कहूँगा कि यह रचनाएँ एकदम अलग हैं।मेरे लिए इसे एक प्रेमी युगल का
वैचारिक धरातल में सहवास कहना बेहतर होगा या बेहतर होगा कि आप स्वंय ही इन
गीतों को पढकर देखें। जैसा कि ‘ माया ले, पाले को, यो जीबन तेरो‘ गीत की
यह पंक्तियाँ;
“सरग में बजर पड्यो, सरकारी बाग में।
ज्यू झुराया क्या हुन्यां हो, जेहोलो भाग में।”
आह! विद्रोह की यह क्षमता, यह लड़ाकापन अलग है एकदम अलग।
एक अलग दृष्टिकोण भी है समझ का जो एकतरफा सम्भव ही नहीं है, बिना
शक्ति-शिव तत्व के एकसात् हुए।
इसी रचना क्रम में उनके लिखे स्थानीय देवी
देवताओं के कुमाउंनी भजन हैं, फिर हिन्दी में भजन हैं। भानुराम सुकौटी ने कुमाउंनी भजनों
को लोकगीत माना है अनिल ने उनके हिन्दी भजनों में नाथमत का प्रभाव। मैं अपनी समझ
से इन्हें सुकौटी जी के मैदानी व पहाडी क्षेत्रों में प्रवास व सामान्य जन मानस
में कलाकार की पैठ के रूप में भी देखता हूं।
एक संगीतकार के रूप में भानुराम सुकौटी अपने
गीतकार का नाम डायरी में लिखना नहीं भूले। जैसा कि आम देखा गया है, परिपाटी है कि रचनाकार को
गुमनाम कर पूरी रचनाएँ डकार जाना। भानुराम सुकौटी एक अलग परिपाटी के रचनाकार हैं
हेव लगाने वाले नहीं उनके साथी साथ में खडे हैं बराबर कदकाठी लिये।
साधुवाद है अनिल को। उनके साथियों महेश बराल, विक्रम नेगी व उमेश पुजारी का
भी जिनका सहयोग लिया व बकायदा लिखा भी। आभार है पहाड़ का प्रकाशन के लिए।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (21-05-2016) को "अगर तू है, तो कहाँ है" (चर्चा अंक-2349) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही सुन्दर अवलोकन "पृथ्वी दा"। शीघ्र अति शीघ्र मै भी इस पुस्तक को पढ़ूंगा।
बेहतरीन पुस्तक