अनुनाद

अनुनाद

मुसाफ़िर बैठा की कविताएं

पहली बारब्लाग पर मुसाफ़िर बैठा की कविता से पहला परिचय हुआ। उनकी कविताओं का अपना डिक्शन है, अपनी ही एक आवाज़। उनका कवि धैर्य का सरूप उदाहरण है। समाज के अंधेरे कोनों-अंतरों से बोलती उनकी कविताएं अपने लिए भी कोई स्पाट लाइट नहीं चाहतीं – उनका अपना एक उजाला है, जो धीरे-धीरे पहचाना जा रहा है। उनके अनुभव वहां आकार लेते हैं, जहां जीवन वंचनाओं, तरह-तरह के भेदभावों और उलट सिरे पर खड़ी कुछ उम्मीदों के बीच लड़ने के लिए ज़मीन खोजता है। इस कवि की कहन में जाहिर आक्रोश उतना नहीं, भीतर की आग ज़्यादा है, उसकी आंच पढ़ते हुई लगती है – महसूस होता है कि कवि इस आग में किस क़दर झुलसा है।

अनुनाद को कविताएं सौंपने के लिए मैं कवि को शुक्रिया कहता हूं।
***
1.   

     मां का अछोर आंचल

मां की जननी नजरों में
कभी वयस्क बुद्धि नहीं होता बेटा
मां के प्यार में इतनी ठहरीबौनी
रह जाती है बेटे की उम्र कि
अपने साठसाला पुत्र को भी मां
घर से विदा करने के वक्त
लगा देती है दिठौना
लेती है बलइयां
ताकि उसे किसी की नजर न लगे
टोकरी भर हिदायतें
थमा जाती है उसे ऐसे
मानो कोई दुधपीता बच्चा हो अभी वह

कहती है ऐसी ऐसी बात कि
अन्यथा वो हंसी करने लायक बात होती
कि बेटे सावधानी से
गाड़ीघोड़े में चढ़ना उतरना
बरतना सड़क पार करने में अतिरिक्त सावधानी
आगे पीछे दायें बायें मुड़ देख कर
हो लेना इत्मीनान
खूब मेरे लाल
ताकि छू न पाए
किसी अशुभ अचाहे का
कोई कोना रेशा भी तुझे

मां की आंखों से
गर दूर जाता हो बेटा
तो आंख भर देखकर भी
नहीं भरता उसका ममता स्नात मन
और बेटे से एक पल की दूरी
उसे सौ योजन समान लगने लगती है
और ममता की सघन आंच लिए
आंखें बिछी रहती हैं उसकी लगातार
अपने जिगर के टुकड़े द्वारा तय की राहों में
बिना कोई खरोंच लगे वापस उसे पाने तक

अपने अनुभवों की
मानो सारी उम्र उलीच
झूठसच बुराभला अकर्तव्यकर्तव्य का
पूरा पाठ पढ़ा
कालिदास ही बना देना चाहती है मां
अपनी आंखों से ओझल होते
पुत्र को उसी वक्त
जबकि दुनिया से
खूब दो चार हो चुका होता है वह तब तक

नाती पोते के वैभव से
हरियर पुत्र को भी
मां की यह हिदायत होती है आयद
कि परदेस जाते हो बेटा तो
दो बातों का गठरी में बांधकर रखना खयाल
जी और जुबान पर
हमेशा लगाए रखना लगाम
कि इन्हीं दो बातों का
टंटा है सारे दुनियाजहान में
यही मुंह खिलाता है पान
यही मुंह लात

मां हो जाए
लाख बूढ़ी जर्जरकाय कार्यअक्षम
बेटे की खातिर वह
बर्तन छुए बिना नहीं रह सकती
नहीं पा सकता पुत्र
नवविवाहिता पत्नी से भी
दाल औ कढ़ी बरी में
वह अन्तस् की छौंक व महक
जो मां की जननी हाथों की
छुअन में होती है

मां चाहती है कि
उसके बेटे का दामन भरा रहे सदा
खुशियों के अघट घट से
और उसके दुख दर्द की बलइयां लें
खुद नीलकंठ बन वह
बेटे के सुख सुकून की निगहबानी कर
अपना हिय सतत जुराती रहे

बाकी सारे प्यार में कुछ न कुछ मांग है
मां के निर्बंध प्यार में सिर्फ दान ही दान है।
***

      मौतों से उपजी मौत

वह था इतना अकिंचन क्षुधा आकुल
कि काफी हद तक मर गई थीं
भूख की वेदनाएं उसकी
और अन्न से ज्यादा भूख से ही
अचाहा अपनापा हो गया था उसका

उसकी मज्जाहीन देह पर थे
इतने क्षीण जीर्ण-शीर्ण वस्त्र
कि उसके गुप्त अंग का भी
उनसे ढकना था नाकाफी
और मर गई थी संवेदना-तंतुएं उसकी
शर्म हया की

अंग अंग हो चले थे उसके
इतने शिथिल असक्त
मानो उसमें न हो कोई
प्राण स्पंदन बाकी

आसरा की जगह
धिक्कार दुत्कार पाई थी उसने
जमाने से इस कदर दर दर भटक
कि तमाम नसें सूख गई थीं उसके
आत्मसम्मान की आत्मवजूद की
और तमाम हो गई थीं तब तक
उसकी इच्छाएं तृष्णाएं सारी

अंततः
जब एक दिन
एक भव्य मंदिर की देहरी से लगी
भूख व्याकुल-भिक्षुओं की याचक पांत में
निश्चेत लेटे उसने
अपनी निस्तेज देह छोड़ी
तो उसकी देह से लगी
सारी मौतों को आसन्न मौतों को जैसे
एक अर्थ मिला एक मान मिला।
***

      मेरी देह बीमार मानस का गेह है 

मेरी देह बीमार मानस का गेह है!

मैं कहीं घूम भर आने का हामी नहीं
यहाँ तक कि अपनी जन्मभूमि बंगराहा
घर के पास ही स्थित
कथित सीता की जन्मस्थली सीतामढ़ी भी
(थोथी वंदना श्रद्धा नहीं होती
सम्यक् कर्म की दरकार है)
मैं विकलांग-श्रद्धा में विश्वास नहीं रखता

मेरे दोनों हाथ सलामत हैं साबुत हैं
मगर ये बेजान-से हैं
जड़ हैं इस कदर कि उठते नहीं कभी
किसी ईश-मसीह की वंदना तक में

माना
ये कमबख़्त हाथ एक नास्तिक के हैं
फिर भी क्या फ़र्क पड़ता है
भक्तजनों के बीच
झूठे-छद्म संकेत तो भर सकते थे ये
वंदना की संकेत-मुद्रा में उठकर !

मेरे आँख-कान विकलांग-से हो चले हैं
इस विकलांग विचार के दौर में
मेरी श्रवण-शक्ति का चिर लोप हो गया है शायद
मेरे कान और मेरी आँखें
गोपन गोलबंदियों-विमर्शों का
न चाहकर भी
आयोजन-प्रायोजन विलोकने को विवश हैं
क्या हमारा साहित्य हमारी संस्कृति
और फिर यह समूचा समाज ही
ऐसे ही गुह्य-गोपन संवादों से अँटा पड़ा नहीं है!
किसी के पास कई-कई अल्फाज़ हैं
और चेहरे भी
(चोली दामन का साथ!)
जिससे हासिल की जा सके
शब्दों की निरी बाजीगरी करने की
कला में महारत

होगा दिल उसके पास और दिमाग भी
और और बहुत कुछ उसमें
गढ़ने की ख़ातिर
महज खुदगर्ज़ी अपनापा

साहित्य के सोहन दरख़्तों के बीच
उग आया यह कैक्टस
चुभने-खरोंचने का अपना जातिगत भाव-स्वभाव
कैसे छोड़ सकता है भला!

इन चेहरों की चमक और चहक की मात्रा
इनके भीतर कुल जमा खोखलेपन का समानुपातिक है

बेशक
अच्छे-बुरे की पहचान रखना
सबके बस का रोग नहीं
पर कुछ में यह काबिलियत है!
(ये क्योंकर मानने लगे
कि परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम्ही
अच्छे-बुरे का मानदंड है)

मैं नहीं जानता
अच्छे-बुरे की पहचान रखने के ये उद्घोषक
खुद कितने पानी में हैं !
***

4     अछूत का इनार
1
जब धनुखी हलवाई का इनार था
केवल टोले में और
सिर्फ और सिर्फ इनार था
पीने के पानी का इकलौता स्रोत
तो दादी उसी इनार से
पानी लाया करती थी
और धोबी घर की बाकी औरतें भी
और घरों की जनानियां भी
पानी भरती थीं वहां
पर धोबनियों से सुविधाजनक छूत
बरता करती थीं
ये गैर धोबी गैर दलित शूद्र स्त्रियां
जबकि खुद भी अस्पृश्य जात थीं ये
सवर्णों के चैखटे में

2
अलबत्ता उनके बदन पर
जो धवल साड़ी लिपटी होती थीं
उनमें धोबीघर से धुलकर भी
रत्तीभर छूत नहीं चिपकती थी

3
पर इन गैर सवर्ण स्पृश्यों की
बाल्टी की उगहन के साथ
नहीं गिर सकती थी
धोबनियों की बाल्टी की डोर
साथ भरे पानी को
छूत जो लग जाती
जाने कैसे
संग साथ रहे पानी का
अलग अलग डोर से
बंधकर खिंच आने पर
जात स्वभाव बदल जाता था

4
यह इनार ऐसा वैसा नहीं था
दलित आत्मसम्मान आत्माभिमान का
एक अछूता रूपक बन गया था यह
अभावों से ताजिन्दगी जंग लड़ती
आई दादी के अहं को
गहरे छुआ था कहीं
बस इत्ती सी बात ने
इसी सब बात ने
इनार की जगत पर हमारे दादा का नाम
नागा बैठा खुदवाया और
खुद रह गयीं नेपथ्य में
कि औरत होकर अपना नाम
सरेआम कैसे करतीं दादी
कि कितनी परंपराएं अकेले तोड़तीं दादी

5
दादा को अपनी भरी जवानी में खो देने वाली
दादा के संग साथ के बहुतेरे सपनों को
दूर तलक न सहला पाने वाली दादी ने
धोबी घाट पर घंटों
अपने पसीने बहा बहा कर
कपड़ा धोने के पुश्तैनी धंधे से
(जो कि जीवनयापन का एकमात्र
पारिवारिक कामचलाऊ जरिया था)
कुछ कुछ करके पाई पाई जोड़कर
बड़े जतन से अलग कर रखा था
अपने दरवाजे पर
एक इनार बनवाने की खातिर
और इस पेटकाट धन से
लगवाया था अपना ईंटभट्ठा
क्योंकि बाजू के गांव के सोनफी मिसिर ने
अपनी चिमनी से ईंट देने से
साफ इंकार कर दिया था
ताकि एक अछूत का
आत्मसम्मान समृद्ध न हो सके कभी
और हत सम्मान करने की
सामंती परंपरा बनी रहे अक्षुण्ण

7
अभी दादी की परिपक्व उम्र में पहुंची मां
कहा करतीं हैं कि
दादी के इनार की बरकत के कल्पित किस्से
इस कदर फैले गांव जवार में
कि इस पानी के
रोगहर प्रताप के लाभ लोभ में
गांव के दूर दराज टोले
यहां तक कि
आस परोस के गांव कस्बों से भी
खिंचे चले आते थे लोगबाग
घेघा रोग चर्मरोग और
और बहुत सी उदर व्याधियों का
सहज चामत्कारिक इलाज पाने को

8
संभव है
वह आज की तरह का
सर्वभक्षी मीडिया संक्रामक युग होता
तो दादी के इस प्रतापी इनार के
सच और दादी के यश से बेसी
जनकल्पित गढ़त किस्से ही
अंधप्रसाद भोगियों के दिल दिमाग पर
खूब खूब मादकतापूर्वक
दिनों तक राज करते होते

9
सोचता हूं बरबस यह
कि इस इनार से
अपने उद्घाटक हाथों से
पूरे समाज की गवाही-बीच
जब भरा होगा पहली दफा
दादी ने सर्जक उत्साह से पानी
और चखा होगा उसका विजयोन्मादी स्वाद
तो कितना अनिर्वचनीय सुख तोष मिला होगा
दादी की जिह्वा की उन स्वादग्रंथियों को
जो बारंबार जले थे
धनुखी हलवाई के इनार का
पी मजबूर पानी
और अब आत्मसम्मान खुदवजूद की
मिठास के परिपाक की कैसी महक
तुरत तुरत मिल रही होगी इसमें दादी को

10
इस अनूठे इनार के पानी का स्वाद
उस वक्त कितना गुनित फलित हो गया होगा
जब शूद्र हलवाइयों का सवर्णी अहं
दादी के अछूत पानी का
पहला घूंट निगलते ही
भरभरा कर गिर गया होगा
अब इस इनार के
रोगहर प्रताप की बाबत जब
पुरा-मन हलवाइयों को
अपना अहं इनार छोड़
दादी के अछूत इनार में
दलितों के संग संग
अपनी बाल्टी की डोर
उतारनी खींचनी पड़ती होगी
तो इससे बंधकर आए जल का आस्वाद
कितना अलग अलग होता होगा
दादी जैसों के लिए
और उन पानी पानी हुए
हलवाइयों के लिए 

11
चापाकल के इस जमाने में
अब अवशेष भर रह गया है इनार
दादी के इस आत्मरक्षक इनार का भी
न कोई रहा पूछनहार देखनहार
कब से सूखा पेट इसका
भर गया है अब
अनुपयोगी खर पतवार झाड़न बुहारन से
कुछ भी रहा नहीं अब शेष
दादा दादी की काया समेत
निःशेष है तो बस
इनार की जगत पर खुदा दादा का नाम
और उसके जरिए याद आता
दादी का पूंजीभूत क्रांतिदर्शी यश काम।
***
 
      राजेन्द्र यादव, राम और रावण

घटना:
साहित्यिक राजेन्द्र यादव ने
सांस्कृतिक मुहावरे में लपेट
हनुमान को रावण की लंका में
घुस आया एक आतंकवादी बताया

गृहीत धर्म अर्थ:
और प्रकारांतर से राम को
आतंकी सरगना

फौरी प्रतिक्रिया:
राम! राम !
साहित्यिकों का
बुद्धिजीवियों का
ऐसा धृष्ट! कर्म धत्कर्म!!

प्रतिक्रिया विशेषः
हे महावीर राम (भक्त) !
उन्हें बख्शना (मत) !
***

      जनेऊ-तोड़ लेखक

लेखक महोदय बामन हैं
और हो गये हैं बहत्तर के
विप्र कुल में जन्म लेने में
कोई कुसूर नहीं है उनका
वे खुद कहते हैं और हम भी

लेखक ने अपने विप्रपना को
इस बड़ी उम्र में आकर परिपक्व वय में पहुंचकर
धोने की एक बड़ी कर्रवाई की है
तोड़ दिया है अपने जनेऊ को
और पोंछ डाला है अपने द्विजपन को
अपने लेखे
कहिये कि जग के लेखे
बल्कि जग के लेखे ही

बावजूद
लोग उन्हें
मान बख़्शते हैं सतत विप्र का ही
सतत घटती इस घटना में भी
उनका क्या रोल
वे किसको किसको कहाँ कहाँ
अपने जनेऊ तोड़ लेने का
वास्ता देते फिरे

हर एक्सक्ल्यूसिव सवर्ण मंच पर
बदस्तूर अब भी मिल रहा है उन्हें बुलावा
और उनके जनेऊ-तोड़
डी-कास्ट होने के करतब को
रखते हैं ठेंगे पर सब अपने पराये
सवर्ण-मान पर ही रखकर
उन्हें हर हमेशा

वे गुरेज करें भी तो करें
कैसे
क्यों
मिलते अधिमान को

इन मानों से
जनेऊ तोड़ना आसान है
क्योंकि यह टूटता है बाहर बाहर ही
भले ही रहता हो सात बसनों के अन्दर

गो
बाहर बाहर टूटकर भी
उसके टूटने का बाहर कोई असर आये ही
कतई जरूरी नहीं
असर के लिए
पुरअसर पाने के लिए
धागा के साथ बहुत कुछ तोड़ा जाना जरूरी है

पर्वत पुरुष दशरथ मांझी के बाइस बरस सा लगाना
किसी बड़ी कार्रवाई के साथ होने के लिए जरूरी है

जनेऊ द्विजत्व है
दो मनुष्य होना है
एक माता उदर से
दूसरे खुद को अलग से जन्मा
मान लेने से
जन्म-दर्प का दर्पण है यह
और यह सतत घटित होती एक कार्रवाई है
चाहे यह आपके मन से घटे अथवा मन के विरुद्ध

बताया पूछा लेखक से
जनेऊ तोड़ा ठीक किया
इसके अलावा अपनी जात-जनेऊ का
क्या क्या तोड़ा आपने
 
लेखक अभी याद करने में लगा है!
***

      शुद्धता का नया पाठ

वह विकलांग है
शुद्धताच्युत वाक्य!
वह दिव्यांग है
भगवाशुद्ध वाक्य!
***

8   शोर की जुबान और मौन का शोर

जो गरजता है हरदम
बरसता है बात बेबात बेजगह
हिन्दू और हिंदी स्वाभिमान की दुकान लगाते हुए
वाइब्रेंट, इनक्रेडिबल जैसे स्वाभिमान-सोख
विलायती शब्दों पर रहता है
पूरी दयनीयता से निर्भर
स्वदेश में निर्माण की सीख देते
जब वह अंग्रेजी में करता है
मेक इन इण्डिया का ऐलान
तो यकीन मानिए
उसका हिसाबी स्वदेश प्रेम भी
खुद उसे चिकोटी काट कर
मसखरी करता होगा

और जब वह
चाय बेचने और हिंदी सीखने के
गढ़ता है फूहड़ फुसुक इतिहास अपना
गर्जन तर्जन करते बरजोर
तो असली इतिहास भी कितना कूढ़ता होगा

ज्यों करता है वह मन की बात
विषैली जिह्वा के अपनी नर्म प्रयोग से
तो जिह्वा भी हैरान रहती होगी
अपनी स्वादग्रंथियों के बदले मिज़ाज़ पर
इस आदमी से डर
विष जज्ब कर लेने के इकरार पर 

मार जाता है काठ उनके
छप्पन इंच सीने को
जब बाइस बरसा पटेल जैसे खिच्चे और
भागवत जैसे भग्नबुद्धि वृद्धकाय से
आरक्षण का उठता है मामला
और साधना पड़ता है उसे बेसाख्ता
नंगा होकर मौन
तब सीने और जुबान की जुगलबंदी उसकी
हो जाती है साफ़ विस्मयकारी और अबूझ।
***

     वीर्य और विचित्रताओं पर कुछ बात

डाला जाता है वीर्य
और उग आता है उससे
पौधा, जीव जन्तु
वीर्य के स्वभावानुसार
वैसे उगना बिना वीर्य के भी संभव होता है
और अनेरे वीर्य से भी
मगर कहना मुझे इन विचित्रताओं पर नहीं है
कहना यह है कि की-पैड पर दाबता हूँ “k’
और उग आता है , अंग्रेजी का k और हिंदी के का की
का अर्द्धदर्जन विकल्प हमारी खातिर
जैसे एक वीर्य ही
छह अलग अलग स्वभाव के अंकुरण को
सिरजने का रखता हो सामर्थ्य
है न कमाल की सृष्टि है यह
विचित्र जैसी!
***
         
     मुम्बइया छठ और बाल ठाकरे

पहला छठ
बिन बाल ठाकरे आया
मुम्बइया जी
अजी वाह जी
खरा नास्तिक इस एम बैठा की
गर मान बिहारी मुम्बइया तू
मांग ले अपनी छठी मइया से
गल जाए सब
स्व-भाव मराठी विगलित
सब ही अकड़े मराठियों की
अबकी जी….
     ***

           ब्रह्मेश्वर मुखिया
(कुख्यात सवर्ण जातीय गिरोह, रणवीर सेना सरगना)

अपराध का चेहरा यह
उर्फ ऐसे ताज़े चेहरे की बात कीजिये तो
यह ब्रह्मेश्वर मुखिया या और
किसी का भी हो सकता है
जिसे देख समझना मुश्किल
सहज शांत चेहरा गुरु-गंभीर बहुधा
जो कुछ इस चेहरे को समझ लो आप
पर इस सौम्य चेहरे को असल चेहरे से जोड़ना
महज चेहरा देख बड़ा मुश्किल काम
चेहरों से लगे सारे मुहावरों के
अच्छे बुरे अर्थ आप
इस मुखिया के चेहरों को नाप गह सकते हैं
गर माप सको आप!
बोली-बानी धीर-गंभीर मगर असहज उकसाऊ सवालों के संयत जवाब
प्रतिप्रशन भी यदा कदा लाजवाब
कि मैं क्या बाईस बाईस नरसंहारों का
सरगना नियोजक
और तीन सौ के नजदीक निरीह सिरों का क़त्ल करने वाला
हो सकूंगा मेरे माई-बाप
जो एक मक्खी तक मार न सका अबतक
ऐलान किया नहीं कि किसी अतिवादी संगठन का
रणवीर सेना का मुखिया तुखिया है वह
रहा करता वकालत सकल किसानों मजदूरों के हितचिन्तक होने की
किसी जाति विशेष से राग द्वेष रखने का
नहीं किया सार्वजनिक स्वीकार या कि ऐलान
अपनी हत्या पाने के दिन तक भी
जबकि जीवन का मूल ध्येय और एजेंडा ही रहा
भू, भू-भूपति और भू-जाति समेत द्विजत्व रक्षा का
कि जैसे, दलितों वंचितों के प्रति पैदा होते ही
पाल लिया था डाह और नफरतों का अथाह हाहाकारी सामंती विकार
चतुर सुजान सयाना इतना कि
लाख आतंक मचा रख छोड़ा उसने
पंचलखिया इनाम टांक डाले उसके सर चाहे शासन सरकार ने
कोई लख नही सका उसका चेहरा तबतक
जबतक चढ़ा नहीं वह पुलिस के हत्थे
और पकड़ा गया भी वह तब जाकर
उसी पुलिस की मदद ली शासन ने जो कभी
लाख लिया था उसका चेहरा रख नज़र सतर्क
कुछ मीडियाघराने ने तो
गजब की मुखिया भक्ति दिखाई
उसकी हत्या की खबर बाँचते
मानो उसकी शहीदी मनाई
मुखिया जी कहकर पुकारा और
इस अपराधी के लिए आप, वे, उनके
जैसे सम्मानबोधक शब्द खरचे
मुखिया अब खुद नहीं है जिंदा
जिंदा कहावत है मगर वह
आज गब्बर की कथा सुना बच्चों को
डराने की नहीं जरूरत कम से कम बिहार में
गहें नए समय में मुहावरे नए डराने के
बच्चे क्या सयानों का भी मुंह सुखाइए
बस, उन्हें मुखिया की इस रणवीरसेनाई
कोई ऊहात्मक दास्तान सुनाइये!
***
 
     ऊ वंशवाद हाँ ई वाला ना

ललुआका बेटा राजनीति में जाय
वंशवाद जी, घोर कलयुग हाय हाय
!
पंडिज्जीगावस्कर औ’ तेंदुलकर का बेटा
बजरिए अगड़म बगड़म तीन तेरह कर्तव्यम्
बेईमानी की योग्यता से नहाय चुभलाय
तब भी योग्य कहलाये न्याय से आये

ऊ वंशवाद हाँ ई वाला ना, ना जी ना !
***

1   ब्राह्मणवाद की विष-नाभि की थाह में

मैं गह्वर में उतरना चाहता हूँ
ब्राह्मणवाद की गहराई नापने
पाना चाहता हूँ उसकी विष-नाभि का पता
और तोड़ना चाहता हूँ
उसकी घृणा के आँत के मनु-दाँत
तुम साथ हो तो सुझाओ मुझे
लक्ष्य संधान के सर्वोत्तम उपाय
बताओ क्या क्या हो
प्रत्याक्रमण में सुरक्षा के सरंजाम
लखाओ मुझे वह दृष्टि कि
गुप्त-सुप्त ब्रह्म-बिछुओं की शिनाख्त कर सकूँ
मेरा हाथ पूरते कोई मुझे अनंत डोर दो
जिसके नाप सकूँ नाथ सकूँ
इस शैतान की आँत को
बाँधो मेरी अंटी में अक्षय रेडीमेड खाना दाना
दो ऐसी तेज शफ्फाफ रौशनी वाली टॉर्च मुझे
तहकीकात काल के अंत निभा सके जो
मेरे अनथक अनंत हौसले का अविकल साथ!
***


     थर्मामीटर

कहते हो-
बदल रहा है गाँव।
तो बतलाओ तो-
गाँवों में बदला कितना वर्ण-दबंग?
कौन सामंत?
कौन बलवंत?

सेहत पाया
पा हरियाया
कौन हाशिया?
कौन हलंत?
***
 
मुसाफ़िर बैठा
जन्म 05 जून 1968 [शैक्षणिक प्रमाण-पत्रों में दर्ज; यकीनी बिलकुल नहीं]
शिक्षादि-*हिंदी साहित्य से ‘हिंदी दलित आत्मकथाओं में अभिव्यक्त क्रूर यथार्थ का संसार’ विषय में पटना विश्वविद्यालय से पीएच-डी
*हिंदी साहित्य, अंग्रेज़ी साहित्य, लोक प्रशासन विषयों में स्नातकोत्तर
*पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
*अनुवाद (हिंदी-अंग्रेज़ी) में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
*सिविल इंजीनियरी में त्रिवर्षीय डिप्लोमा
*उर्दू में डिप्लोमा
नौकरी- फ़िलहाल, बिहार सरकार की एक स्वायत्तशासी संस्था के प्रकाशन विभाग में। पूर्व में कोई छह सरकारी नौकरियां कीं और ठुकराई।
प्रकाशित रचना आदि –
*प्रकाशित काव्य पुस्तक – बीमार मानस का गेह
*कविता, हाइकू, कहानी, लघुकथा, आलेख/निबन्ध, आलोचना, पुस्तक समीक्षा विधाओं में रचनाएं (पत्र पत्रिकाओं में) प्रकाशित।
*आद्री एवं दीपयतन नामक संस्थाओं की कार्यशालाओं में भाग लेकर नवसाक्षरों के लिए एवं अन्य विषयों पर पुस्तिका लेखन।
*पटना दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से कविता, आलेख (वार्ता) एवं कहानी प्रसारित। पटना दूरदर्शन पर साहित्यिक, वैचारिक कार्यक्रमों-बहसों में भी शिरकत।
*डा ए के विश्वास (पूर्व नौकरशाह, ias, vc) की अंग्रेजी वैचारिक पुस्तक अंडरस्टैंडिंग बिहारका हिंदी अनुवाद (प्रकाश्य)
*कुछ कविता, कहानी, आलेख की पुस्तक-पांडुलिपियाँ प्रकाशक की बाट जोह रही!
*प्रतियोगिता दर्पण पत्रिका द्वारा आयोजित “21 वीं सदी के सपने” शीर्षक अखिल भारतीय निबन्ध प्रतियोगिता में सन 2001 में एवं कादम्बनी पत्रिका के एक विचार-लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान/पुरस्कार प्राप्त।
*बिहार सरकार के राष्ट्रभाषा परिषद का नवोदित साहित्य सम्मान।
भारतीय दलित साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा डा अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान।
संपर्क : बसंती निवास, प्रेम भवन के पीछे, दुर्गा आश्रम गली, शेखपुरा, पटना (बिहार) – 800014
इमेल : musafirpatna@gmail.com
मोबाइल : 9835045947
स्थायी पता : ग्राम एवं डाकघर – बंगराहा, थाना & प्रखंड – बाजपट्टी, जिला – सीतामढ़ी (बिहार)

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  1. मुसाफिर बैठा सामाजिक विडम्बनाओ के विशेषज्ञ और अनूठे कवि हैं।उनकी जनेउ तोड़ लेखक और ब्रह्मेश्वर मुखिया जैसी कविताएँ कोई दूसरा नहीं लिख सकता।सिर्फ इसी अाधार पर समझा जा सकता है कि वे कितने महत्वपूर्ण हैं।

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