अनुनाद

मचान खाली है – अनिरुद्ध उमट

बहुत समय कवि-कथाकार अनिरुद्ध उमट से सम्पर्क हो पाया है। उमट ख़ामोशी से काम करने वाले लेखक हैं। यहां छप रहे गद्य के लिए अनुनाद उनका आभारी है। 

 
1

मचान पर जो बैठा है वह शिकार की पतीक्षा में नहीं बल्कि उस क्षण की प्रतीक्षा में है जब उसका शिकार कर लिया जाएगा।

वह जाने कब से वहाँ सांस रोके बैठा रहता है।  वह किसी का  छल से शिकार करने नहीं बैठता।  इस मचान पर उससे पहले भी कई लोग बैठे हैऔर अचूक निशाने और अपार धीरज के चलते वांछित शिकार कर ही गए हैं।
पर यह जो बैठा है उसके पास कोई हथियार नहीं है कोई बचाव का साधन नहीं है, उसके पास सिर्फ अपना आप है जिसे उसने मचान पर बैठा दिया है।  आंधी, बारिश, सर्दी, गर्मी जैसे यहाँ अपना असर खो देते हैं।

एक लेखक अपनी मेज पर इसी तरह बैठ सकता है।

अपने भीतर की हलचलों, स्वप्नों, भय,कुंठा से सना किसी के आगमन की प्रतीक्षा [या भय ] में—–किसी आहट को सूंघता वह बार-बार खुद को टटोलता है कि कहीं किसी तरह की चूक उसे उस क्षण से वंचित न कर दे।

उसकी भाषा एक पतली गली की तरह उसे अपने में पुकारती है।  उस पुकार से बंधा वह बंद दरवाजों, खिड़कियों की गली में प्रवेश कर जाता है।  जब वह सामने देखता है तब दरवाजे, खिड़कियाँ बंद नजर आते हैं पर जैसे जैसे वह आगे बढ़ता है उसकी पीठ देखती है कि दरवाजों, खिड़कियों ने खुद को खोल दिया है।  बंद दरवाजे, खिड़कियाँ उसे आगे खींचते हैं पर उसकी पीठ पर खुले दरवाजों, खिड़कियों का भार बढ़ता जाता है।

किसी क्षण शाम होते-होते वह गली के  किसी मोड़ पर मुंह के बल गिरा पाया जाता है।
उसकी पीठ पर गली भर के दरवाजों, खिड़कियों का ढेर होता है जिस पर एक चिड़िया फुदकती है।
मुंह के बल गिरा वह सांस भी नहीं ले सकता क्योंकि ऐसा करने पर वह चिड़िया भय से उड़ सकती है।

मेरा प्रिय लेखक इसी तरह उस चिड़िया के बने रहने में सांस को कसे रहता है।

मैं जब उसके सामने बैठता हूँ तब वह संकोच और संशय से अपनी नजर उन कागजों पर बैठा देता है जो कुछ कोरे हैं कुछ भरे हैं।  वह चाहता है उसकी नजर उन कागजों पर उसी तरह रह पाए जिस तरह गली में मुंह के बल पड़े व्यक्ति की पीठ पर दरवाजों, खिड़कियों के ढेर पर बैठी चिड़िया रह पा रही है। चिड़िया तो अपने मन से उड़ भी सकती है किन्तु मेरी नजर उन कागजों के ढेर पर एक बार पड़ने के बाद उड़ नहीं सकती।

अजीब सा दृश्य होता है तब, कभी वे कागज उसे खाते हैं, कभी वह कागजों को खाने लगती है।

अरसे बाद ये भी पता नहीं चलता कि कौन किसको खा रहा है।

2
वह उठता है और खिड़की से बाहर देखता है किन्तु खिड़की से बाहर उसे वही मेज और उस पर झुका कोई दिखाई देता है।  वहां भी कोई उसकी मेज के सामने बैठा है।

3
प्रिय लेखक का एकांत अपने पाठक से किसी गूंगे गान या प्रलाप या विलाप की तरह बार-बार कहता है कि वह कुछ देर के लिए उसे अकेला छोड़ दे।  अभी वह तुम से भी अधिक खाली और खोखला है।

उसकी किताबें किसी दुस्वप्न की तरह उसे हर क्षण उसके व अपने अधूरे होने का अहसास कराती —-चिडचिडी सी ——उसे चींधती रहती है।

हर दिन वह अपनी उम्र में देखता है भाषा उससे जिस लहजे में शिकायत करती है वह मरने से कम नहीं। जिसे बरसों तक इसी तरह मचान पर बैठ-बैठ उसने अपने अपने को तिल-तिल देते हुए, खुद का भक्षण कराते हुए अपनी आत्मा में मंडराने का अवसर पाया वह भाषा ही एक उम्र बाद अपने अधूरेपन के उलाहने से उसे बींधते रहती है।

मेरा प्रिय लेखक भाषा के उलाहने से बिंधा अपनी नजर में अभियुक्त सा अँधेरे में खुद से छिपता हुआ कुछ लिखता है।
उसकी लगभग समस्त चाह्नाएं सूख चुकी है।
उसकी लगभग समस्त आग बुझ चुकी है।
उसकी लगभग समस्त राख उड़ चुकी है।

अपने ऐसे अकेले प्रिय लेखक के लिए पाठक क्या करे ?

4
एक गली खुलती है जिसमें हर घर के दरवाजे, खिड़कियाँ खुले हैं।  पाठक दोपहर  की तपती धूप में एक घर में प्रवेश करता है किन्तु दूसरे  घर से निकलता है।
कहीं कोई छाया या साया नहीं।  कोई आवाज का सूखा पत्ता नहीं।  वह दिन भर इसी तरह भटकता रहता है।

एक बच्चा उसे दूर से यूं देखता है जैसे वह घरों में भटक नहीं रहा बल्कि किसी किताब को पढ़ता किसी दृश्य में स्थिर हो सूखे पत्ते सा फड़फड़ा रहा है।

वह बच्चा दौड़ कर आता है और उसके कान में कुछ बुदबुदाता है।

बच्चा देखता है उसका कहा गया किसी के कान में पथरा गया है।  वह रुआंसा-सा उलटे पाँव गली से बाहर भागता है।
गली से बाहर भागता वह किसी किताब से बाहर भागता दिखाई देता है।

भाषा उस दिखने में खुद को मरते देखती है।

5
मेरे घर में ढेरों किताबें थीं लेकिन मेरी पहुँच से परे।
मेरे घर में बहुत सी किताबों की गंध में मेरे पिता की आवाज थी।

किसी दिन उन्होंने सारी किताबो को छत पर धूप में बिछा दिया।  धूप सेकती उन किताबों के उस दृश्य को देखता एक दिन मैं देख रहा था कि दीमकों ने उन्हें कुतर डाला है।  उनकी रेत में पिता की भीगी आँखे थीं जिन्हें मैं जीवन भर फिर भूल नहीं पाया।
एक दिन जब भरी दोपहर मेरे पिता खुली आँखों इस दुनिया से चले गए तब से मैं इस चिंता में जाने क्या-क्या जतन करता रहा कि वे अपनी उदास आँखें मूँद लें।

भाषा और पिता ने अपने मरने की आवाज भी नहीं होने दी।

6
प्रिय लेखक के एकांत की गुहार अरसे बाद मेरे गले से फूटने लगी।
मैंने ईश्वर से कहा मेरा पाठक कोई न हो कम से कम इतना रहम कर दो।
ईश्वर ने बेरहमी से मेरा कहा अनसुना कर दिया।

अपने कंधे पर जल से भरा घड़ा लिए मैं जाने कहाँ खुद को जाते देखता हूँ।

मेरी मेज पर एक भी सूखा कागज नहीं बचा है।

मेरे कमरे में रखे घड़े का  सूखापन बताता है कि उसमें जल भरे जन्मों हो गए हैं।  मेरे कमरे में दीवारों पर लगे फ्रेम में कोई तस्वीर नहीं।  केलेंडरों में कोई तारीख नहीं।

फिर भी एक भय जो मरा नहीं देर रात बिना दस्तक दिए वह पाठक की शक्ल में मेरी मेज के उस तरफ आ बैठता है।
वह कहता कुछ नहीं। अपलक मुझे देखता रहता है।  उसके पास एक झोला होता है जिसमें जाने कितने मुखौटे होते हैं। वह कुछ देर बाद एक-एक कर वे  मुखौटे मेरी मेज पर रखता रहता है।  मेरी मेज पर उन मुखौटों का ढेर लग जाता है।  अब हम एक-दूसरे को नहीं देख पा रहे थे।  उस ढेर पर हमारा न देख पाना गुमसुम सा बैठा था।
उस तरफ वाले को खबर न हो मैं इस तरह से उठता और दूसरे  कमरे में चला जाता जहां मेरे न लिख पाने के सारे पिछले दिन इधर-उधर बिखरे पड़े रहते हैं।
उधर उस तरफ बैठा भी उसी तरह उठता और मुझे खबर न हो उस तरह मेरे पीछे आ खड़ा होता।
उसका खड़ा होना मेरी पीठ पर लद जाता।  और मैं उस बोझ से मुंह के बल गिर जाता।

7
कोई सुबह है ।  नहीं है।  कोई वीरान दोपहर है।  नहीं है।  कोई बोझिल शाम है।  नहीं है।  कोई मारक रात है।  नहीं है। नहीं होने में कुछ होने का भीगा सा कंपन है।  वह एक-एक परत उतर रहा है।
लेखक और पाठक एक-दूसरे के पूरक नहीं।
दोनों में से कोई एक रहेगा।  एक है कोई जो दूसरे की चाहत से सना है वह उसे मार देगा।  वह जानता है जीवित रह कर वह उसका नहीं हो पायेगा।
एक कहेगा यह सैरगाह नहीं है।
दूसरा कहेगा यह मरघट है।
एक कहेगा यह मैं नहीं हूँ।
दूसरा कहेगा वह मैं नहीं हूँ

कोई छाया का गुट्ठल  है।

8
प्रिय लेखक के तपते ललाट पर किसी की तपती हथेली है।
कोई कहेगा तुम लिख लो।
वह कहेगा तुम मुझे लिखने मत दो।

9
जब किताबों को बहुत पढ़ा जाता है तब वे अनपढ़ी रह जाती है।  कुछ को लेखक कभी नहीं चाहता कि पढ़ा जाए वही बार बार पढी जाती है।

10
हर बार प्रिय लेखक पाठक को अपना-सा होने का वहम देता है।  कोई पाठक लेखक को अपना प्रिय होने का वहम नहीं दे सकता।

11
कोई देह मात्र रह जाता है इधर से उधर धकियाता।  ठेलता।

12
भाषा बरसों में कभी किसी दुर्लभ-मारक क्षण इस दृश्य को पीती है।  उसकी अतृप्ति जन्मो की सी लगती है।  जिसे पीया जा रहा है वह बरसों का अभागा लगता है।

13
किसी घर को मुखोटों का अंधड़ अपने में लील लेता है।
सुबह वहाँ कुछ नहीं पाया जाता।

14
उस कुछ नहीं की जगह पर कुछ न होने का विस्मरण पसरा होता है।

नहीं कोई कथा नहीं।

15
किसी को कोई, किसी का हाथ थामे, कंधे पर हाथ रखे ले जाता-सा दीखता है।

16
मचान खाली है।
***

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