***
1.
जिन्दगी की हदें हैं मौत
आंसू की हदें हंसी
खुशी की हदें गम है
और पंछी की हदें आसमान
सागर की हदें किनारे हैं
चीखें खामोशी की हद हैं
दिन की हदें रात है
और रातों की हदें दिन
2.
यहां प्रेम करने की मनाही है
फिर भी सब प्रेम में पड़ जाते हैं
3.
इस घर के दरवाजे अदृश्य हैं
ना वो बंद हैं ना खुले हैं
अदृश्य रहना व उनकी असली पहचान है
यहां हर कोई बेखौफ कमरें में जा सकता है
और टकराकर बाहर आ सकता है
बाहर कर सकता है
अनदेखे दरवाजों की पीछे घुप्प अंधेरा है
और छन-छन कर रोशनी भी आती है
ये अदृश्यता की हद है।
4.
चलो सपने बुनें
बदलाव के सपने
आंखों में पुतलियां घूमने के सपने
रूक कर ठहराव के सपने
मजबूत नींव वाली दीवारों के सपने
सफेद कबूतरों के उड़ान के सपने
वक्त की उम्मीदों के सपने
दीवारें टूटने के सपने
चलों सपने बुने।
5.
तू रोज-रोज क्या फटके री
दो बार फटकूं
अपने होने की गाली
अपना मन सहेजूं
चार बार फटकूं सपनों के छिलके
छिलके सहेजूं री
अनकहे लफ्जो की पीर फटकूं
अपना दिन फटकूं री
बार-बार फटकूं देह की निचोड़
तन फटकूं तो मन सहेजूं
वर्जित प्यार का फल सहेजूं
मन का राग सहेजूं री
आदि से अनन्त फटकू
बीजों के गीत सहेजूं री
6.
ये रास्ता ना छोटा है
ना ही अंतहीन है
इसमें जो चलेगा, वहीं जिंदा रहेगा
इस रास्ते के बीचों बीच बने दरबार के
जी हजूरे दरबारी आत्म मुग्ध हैं
दरबार की नींव
सप्त नदीयों के रेत से पूरी गई है
चिरजीवीं होने के अहसास से फूले
दरबारियांें की कुर्सियां/ कलदारों ने तराशी है
ये वक्त के गठजोड़ हैं
ये सियासतों के साथ विरासतों
का खेल है
7.
परछाइयों के स्याह अन्धेरे दौर में
बस जुगनू से चमकते हैं।
ढलते वक्त की नोकों पर
मोम की तरह जमीं
इनकी खामोश यात्राएं
सन्नाटों को थपथपा रही हैं
आवाजों का वक्त ठिठका अभी है
रास्तों की तलाश जारी है
त्रतुओं के सपनों की आंच
सप्त नदियों की रेत के नीचे
पानियों को समेट रही है।
8.
समय की धार कुन्द है
और राजनीति की धार तेज
आसमान का रंग गहरा सलेटी है
इन गहरी परछाइयों के बीच
तन्त्र दहक रहा है
लोक की रूह
दिन रात के महीन वितांन से तने अम्बर से
ग्रहों की तरह लटक रही है
डरावने चेहरें मिट्टी
के नीचे दबी
दूब की नसों को खोद रहे है
इतिहास की बस्तियां मौन हैं
उनकी प्रार्थनाएं कसमसा रही हैं
बैचेनियां बहुत निडर हैं
ये सरकते वक्त के साथ
आने वाले वक्त की
करवटें बदलने की आहट है।
9.
कमरों के ओनों कोनों में
हर सिगांर की महक विचर रही है
आसमान की सीमा पर
सांझ के बादलों से छनकर आती
चांदनी का बिछौना पसरा है
कुछ भूले बिसरे से नरम सुख
जन्म-मृत्यु की गहन
स्याह गुफाओं की आॅक में
चाँदनी भरकर पी रहें हैं
चांद अपनी परिधि के विस्तार में
नीलकंठ को बांधे है
वर्ज़ित प्रेम के स्वप्न
प्रसव पीड़ा में कराह रहे हैं
दीवारों के कान चैड़े हो गये
फिर भी असीम, गतिमान, अदृश्य चाहतें
प्रेम राग की पीड़ाओं का उत्सव मना रही है
10.
ओ सखी, मैं तेरे घने पेड़ों की छांह में
नन्हें अंकुर की तरह पलना चाहती हूँ
तुझसे गलभइयां भरने के लिए
तेरी धूल-मिट्टी में लोटना चाहती हूं
अपने हिस्से की बारिश का पानी
तेरी जड़ों को पिलाना चाहती हूँ
तेरे पहाड़ तो झपकियां ले रहे हैं
नीला अम्बर तुझ पर औंधा पड़ा है
ओह! तेरी बेबसी पल-पल क्षरित हो रही है
भेड़ों के झुंड के बीच वन-वन डोलती
जौंल्या मुरूली की धुन
तुझे बजानी होगी।
11.
सागर की उत्ताल तरंगें
अकूत पानी को चन्द्रमा की देन हैं
तरंगों के पार
जहां सागर आसमान से मिलता है
सुबह-शाम नारंगी सूरज
शिशुओं की तरह अठखेलियां करता है
धरती प्रसव पीड़ा के बाद मुस्कराती है
सागर के छोर पर तैरते नारंगी गोले का रंग
धरती को अपनी बाँहों में भर लेता है
और सांझ को रूपहला चांद
तभी पानी के साथ, धरती को
चांदी से लीप देता है
मैं वजू़ करती हूंँ
और सागर के दोनों रंग
मेरी नमाज को
प्रेम और द्वन्द के रेशों में पिरोकर
थपकियां देते हैं।
12.
तुम्हारा प्रेम गाहे-बगाहे चला आता है
कभी यूं ही
राह चलते तुम्हारी अंगुलियों की टकराहट से
यूं ही याद दिलाता हैं
अब कोई गलन नहीं होती
प्रेम की अभिव्यक्तियों से
कोई प्रतीक्षा भी नहीं रहती
मैं अपने ही ताने-बानों में मस्त हूंँ
तुम्हारा प्रेम
मेरे तानों-बानों में कोई दखल नहीं देता
मेरे मन की आकाश-गंगा अब पिघलती नहीं इस प्रेम से
चुप्पी सी बहती है
आकाश में पंछी गाते हैं
भूला बिसरा सा प्रेम का राग
समय के किनारों पर उग आई है झिझक
समय के वेग में उड़ गया है प्रेम कपूर सा
प्रेम जुगनू सा चमकता है अब
मरा नहीं है, मौजूद है यहीं कहीं
अब मुझे प्रेम का चखना मत देना
मैं रोजे से हूंँ
और मेरे सपने बे-गुनाह है
मेरी गुनाह से तौबा है
13.
टोंस जो नदी है
उसकी दो सखियां रूपिन-सुपिन
पानी की निरन्तरता को बनाए हुए हैं
जमुना में मिला है
जमुना के पानी में बहता तिलाड़ी का खून
जमुना और टांेस तिलाड़ी में बहे खून के
इतिहास की गवाह है
टोंस के उद्गम की गवाही
मोनाल देती है
पर तुम क्यों दुबला गयी हो?
रूपिन-सुपिन तो अभी हरी है
उसकी मिट्टी बहते पानी के साथ
इतिहास ढो रही है
इतिहासों का कभी उपसंहार नहीं होता
ये तुम्हारे अपने वक्त हैं
तुम्हारी फसलें उगनी बाकी हैं
जमुना में क्रान्ति बह रही है
लोहे के दरवाजों से टकराती
तुम्हारी टकराहट
बर्दाश्त से बाहर कब होगी।
14.
लो खिला बुरांश
धरती पर काँच सी जमी
बर्फ के पिघलते ही
ऊंचे पहाड़ों की गहनतम
हरियाली के बीच
खुद के काटे जाने से बेखबर
सुवाओं के मन को रंगता
बसंत के आने की आहट से भरा
ठिठुरते पेड़ों के दरमियान
जंगल की सर्दीली खामोश उदासी को झटककर
लो खिला बुरांश
15.
मां खरीद रही है साड़ी-गहनें
और जाने कौन-कौन सी चीजें
नमी लिए आंखों से मुस्कुराती है मां
चंदन की चौकी पर
पूरती है गणेश का चौक
और कच्ची हल्दी के
महकतें उबटन में मिलाती है
उदास खिल-खिलाहट
मां पूजा के दिए के पास बने एपण में
अपने मन की रेत से
लिखती है बार-बार
आज मैं निर्धन हुई
झरती आंखों की सीली-सी हंसी से मां चुनती है
सेहरे की कलियां
मन ही मन मंत्रों सी दोहराती है
मैं तुम्हें प्यार करती हूं
बस तुम ही मेरा विश्राम स्थल हो।
16.
उसे छूने के लिए
हाथ बढ़ाया ही था कि
वो सर्र से सरक गई भीड़ में कही
वहीं हाँ वही तो है
ओह! उसकी वासन्ती दहकती
आभा नीली झक्क आंखें
जिन्दगी की बस्ती में गुम गई हैं
उसकी सहेलीपने वाले वो
सभी दिन जिंदा है अभी भी
वो खिलन्दड़े दिन
एक घन्टा पहले स्कूल में
पहुँच कर चारों सखियां
उगते सूरज के गीत गाती थी
स्कूल की ऊंची दीवार से
लगे हर सिंगार के पेड़ों के नीचे
रात भर झरे
फूलों को बीन कर
अपनी छलछलाती हंसी में पिरो कर/ ब्रह्म मूहूर्त
के अगले पहर
राग भैरवी गाती थी
दीवार के दूसरी तरफ
अपने गाये राग भैरवी और
हर सिगांर की महक से
झुण्ड में जुड़े पक्षियों के वृन्दगान से
अपनी उम्र की टहनी पर बैठे
सपनों की बातें करते थे
बस अभी तो थोड़ा ही सरका है वक्त का पाखी
तुम्हारी वासन्ती दहकती आभा ने
कैसे दम तोड़ दिया
हर सिगांर की महक
और झुण्डों वाले
पाखियों का वृन्दगान
सपनों के आकाशों में अभी तक कुलाचें भर रहा है
नीली आंखों की गहराई में
अंकुरित हर सिगांर की महक दबी है कहीं
वक्त ही तो सरका है
जीवन अभी बाकी है
हर सिगांर भी है
और रातें उतनी ही गीली है
जुगनू अपने पंखों से छू कर
हर सिंगार को आज भी गिराते हैं
गीली रातों में झरे
हर सिंगार को फिर से
पिरो कर
एक उदद पल रोक लो।
17.
वही रास्ते वही हरियायें पहाड़ों की कतारें
दिन कुछ उदास अनमने से
बारिश की बौछारों से भीगे- भीगे
सरक रहे हैं धीरे-धीरे
सर्पीली काली सड़कों पर दौड़ती हैं
इक्की दुक्की बसें गदेरे का
काँच सा पानी थम-थम के बह रहा है
धुएँ से काली पड़ी टीन की छतों वाले
ढाबे में धुएं की एक लकीर
निरन्तर बह रही है
चाय की चुस्कियां लेने बैठे हम राज जात्री।
थकी हुई पिण्डलियों को सहलाते हैं
चौपड़ों के पीछे वाली पहाड़ी में
अटका है दूज का चाँद
जिंदगी कुछ अटकी कुछ भटकी सी
सरकती जा रही है
पर एक पल ठहरे हैं
चौपड़ों के उसी ढाबे में।
18.
इस वक्त जब उम्र
गुजरती जा रही है
प्रेम चुपचाप गहरा रहा है।
मृत्यु पाखी के सफेद नरम
परों के साथ
लीसे की तरह पिघल रहा है प्रेम
वक्त के धागे रोशनियों की
चादर बुन रहे हैं
चांद की खिलखिलाती किरणें
सरकते वक्त कि पन्नों पर
प्रेमराग लिख रही है
गुनगनाती हवायें इबादत में
वक्त के पंछी को रोक रही हैं
सूरज अपनी सुनहरी स्याही से
समूची कायनात में
सुबह लिख रहा है
ये सही वक्त है
जब प्रेम जिंदगी से
पीड़ाओं को फटक रहा है
जिंदगी वनफशा सी महक रही है।
19.
आसमान के बींचो बीच
पैर रोप दिये हैं
हथेली से जकड़ी है, सूरज के रथ की तीलियां
उंगलियों को ठोंक दिया है
धरती की परिधि पर पाताल लोक तक
मेरी हथेलियों के चारों तरफ
अपनी हथेलियों से
धूप के घेरों को रोक कर
सांझ की छाया फैला दो
अपने हाथों की ओक में
अम्बर का अंश भर कर
गोधूलि के तारे को
प्यार की गीत सुनाओं
और ख्वाबों के विरूद्ध
पनपाए षडयन्त्रों को
सपनों की आंच देकर
विस्तार दे दो।
20.
भूगोल के किसी कोने पर
जहां सीमाओं का अंत होता है
बसती है एक ढाणी
नागोदर फकीर की ढाणी
ढाणी के आखिरी
किनारे से हो जाती है
दूसरी सीमायें शुरू
एक काली सर्पीली सड़क
एक सीमा के अन्त
और दूसरी सीमा की शुरूआत करती है
हालांकि वो सड़क का आखिरी सिरा
जहां सीमा का अंत है
वहीं से उनकी सीमा का प्रारम्भ होता है।
ये ठीक दो विरोधी बातें हैं
पर है एकदम यथार्थ
सड़क के किनारे बसी
कच्ची रेतीली मिट्टी से बनी
ढाणियों के आकाश में
अक्सर गोला-बारूद की राख
उड़ा करती है
उसे सीमा के अन्त होने वाले
वो राख दाणी के ऊपर ही उड़ती है।
हरी वार्दियां और बन्दूकों से भरी गाडियां
काली सर्पीली सड़क पर
सीमा के अन्त तक
हमेशा दौड़ा करती हैं
रेतीले समन्दर में उगी
खेजड़ी के पेड़ों वाली
नागोदर फकीर की ढाणी
डर, भूख और प्यास के आतंक
से घिरी रहती हैं
वर्दी और गोलियां
दाणी की सरहदों के वासी हैं
सरहदों की दोनों सीमायें
ढा़णी के वाशिन्दों की
पीड़ाओं से मुक्त हैं
उन खेतों के आकाश में
दोनों सरहदों की
गोलियां का शंखनाद गूंजता रहता है
इस पार से उस पार तक
आकाश में दाणी की अपनी कोई
कन्दील नहीं जलती,
सरहदें उनके विरूद्ध
लगातार फुसफुसाती हैं
ये फुसफुसाहट दोनों ओर की राजधानियों तक जाती है
दाणी के वासी इससे अनजाने रखे जाते हैं।
रेतीले सैलाबों की आंधियों में
बहती आवाजों के सवाल
रकावत की देहरियों पर
सिसकते रहते हैं
नागोदर फकीर की ढाणी
के वशंज दोनों तरफ
अपने खोए रिश्ते ढूंढते रहते हैं
उनकी आवाजें हमेशा रेत में दबा दी जाती हैं
रेत में दबी जितनी आवाजों के
कत्ल किए गए हैं
मौजूद रहते हैं हमेशा उनके अवशेष
रहस्य भरी खामोश सरगोशियां
फिजा में हर समय मौजूद रहती हैं
रेतीले सन्नाटों से भरी
सरहदें मुल्कों को बांटती है
पर लोगों को जोड़ती है
वो आहटों को समेटती हैं।
21.
कोई किसी का
दरवाजा नहीं होता
सब अपना रास्ता
बनते हैं
और हां
औरतें आकाश बेल
नहीं होती
22.
चलो कुछ बातें करें
इधर की बातें उधर की बातें
फिज़ूल-सी बातें
आसान-सी बातें
वक्त काटने के लिए
बिना हबड़-तबड़ के
बिना हिसाब लगाए
खुद को छिपाते हुए
बस सांसों को चलाते रहने के लिए
कुछ कहने की
कुछ भी ना कहने की
चलो कोई बातें करें
23.
मैं निकली डेरा छोड़
मैं प्रेम में हूँ
मेरे समय का नहीं है कोई छोर
मैं प्रेम में हूँ
मैं चली अनहद की ओर
मैं प्रेम में हूँ
मैंने ओढ़ी फकीरी दस ओर
मैं प्रेम में हूँ
मैं निकली पिंजरे तोड़
मैं प्रेम में हूँ।
24.
नीलाएं अंबर में छितराई हैं
बादलों की रूई चंदा मामा वाली
नानी कातेगी सूत बादलों की रूई से
बनाएगी चांद के लिए ढीला सा झंगोला
सूरज के लिए झिर्री वाला ओढ़ना
और तारों के लिए नन्हे- नन्हे कनटोप
कन टोपों के नीचे से
झिप- झिपाई आँखों से
तारे धरती को निहारेगें
वक्त के उलझे धागे को सुलझा कर
आसमान में बनाएगी
एक छोटा सा झरोखा
सूरज के सुनहरे तार,
चांद की रूपहली ओढ़नी
और तारों की झिम-झिम
नानी के बनाए झरोखे से
छन-छन कर धरती को लीप देगी।
25.
मैंने एक सपना देखा
परिवर्तन का सपना
आँखों की पुतलियां
सपने से चरपरा रही है
पुतलियों की चरपराहर
तोड़ रही है
महलों की ईंट-ईंट
ईटों की खचपचाहते से ही
नींव हिलने लगी है
मेरे सपनों से
निकलकर, उड़ने लगे सफेद कबूतर
मेरे उम्मीदों के कबूतर वक्त से मेरा विद्रोह हैं।
26.
घर बनाती, चिनती
घरों के सपने देखती हैं औरतें
उम्र के चूक जाने के बाद बने
इसी घर में रहती औरतों की कहानियां
घर की नींव में दब जाती है।
27.
खिड़कियों की एक-एक दरार के साथ
दरवाजों के सारे बंद खुलें हैं
खिड़कियों की दरारों से
झाँकती रोशनी की लकीरें
और दरवाजों की दरारों से आती
पूस की सुरसुरी हवा
गवाही देती है यहां मैं हूँ
यहां मेरी नींदें जागती है
और दिन कविता लिखते हैं
दरारों से छनती धूप की लकीरें
मेरी ख्वाहिशों में खाद डालती हैं
मैं इस घर की नींव में
अपना इतिहास ढूढँती हूँ
दरवाजे और खिड़कियां मेरे हाशिये बनाती है
और पैरों की सरहदंे तप करती है,
मेरा वक्त हाशियां और सरहदों से निर्लिप्त
बसंत की प्रतीक्षा में है।
28.
जब वक्त अच्छा बीत रहा हो
आसमानी रंगते खिड़की दरवाजों से
ढिढोली करती घुसी चली आती है।
काली घनेरी रात में चमकता है
जादुई चांद
तनहाई के रहस्यमई अंधरे कोने
जुगनू से चमकते हैं, गुलमोहर
मेरे हिस्से की तपती जमीन में
चटक चादर बिछातें हैं।
मेरा मौन बीथोवेन. की सिम्फनी सा थिरकता है
29.
ठिठके बादलों के झुरमुट
के पार उड़ती
हवाओं के धागों को।
बिजली के कणों के साथ
जिंदगी में पिरोना है।
30.
पहाड़ मेरे लिए
सिर्फ पहाड़ नहीं है
चिलकती लू में ठन्डक देने वाला।
या सिर्फ घूमने
और चंद दिन बिताने की जगह
पहाड़ मेरे लिए पिता है।
सिर सहलाने वाला नरम हाथ
और पीठ टिकाने का आधार
वो मुझे कभी खाली
हाथ नहीं लौटाता
वो सहलाता है मन्द-मन्द मुझे
और मेरे ताप वाले दिनों को
हौले से गुजर जाने को रास्ता देता है
पहाड़ अपने बदलते मौसमों
में मेरे लिए लिखता है
प्रेम पत्र
और जीवन मेें उगते रेगिस्तान
को विश्वास से भर देता है।
पहाड़ मुझे अंत के विरूद्ध
अनन्त की लय से जोड़ता है।
पहाड़ केवल पहाड़ नहीं होता
वो मुझे कभी खाली हाथ नहीं रहने देता।
पहाड़ मेरे लिए जिंदगी की तरफ झांकता
आकाश दीप है।
पहाड़ मेरा मायका है और मायके का मतलब
केवल बेटियां ही जानती है।
31.
शाम धुंधली है
बादल चहलकदमी पर है
दिन की देह
शाम की गोद में दुबकी है
पक्षी बसेरे की उड़ान पर हैं
पगडंडी की छोर पर खड़ा
बूढ़ा पीपल का पेड़
सदियों से एक दुनिया को समेटे है
गाँव की बस्तियों की
चहल-पहल में
मौन छिपा है
उदास धुएं की लकीरें
आसमानों के अनन्त विस्तार में
सोने जा रही है
धुंधलाई शाम दोपहरी के
पैंरों के निशानों को सहलाती है
रात की काली बिल्ली
भोर की प्रतीक्षा में है।
32.
वे इतिहास, भूगोल और शब्दों से भरे
पूरे- मकान मालिक हैं
घोड़े की चालाक दुलत्तियाँ
भी उन्हीं के पास है
हमारे पास बस दुलत्तियों को पहचानने
की परख है
और उन्हें मुखौटे लगा कर
अभिनय करना खूब भी आता है
पर वो नहीं जानते
बहुत निर्मम होती है
हवा और पानी की
इकट्ठी मार।
33.
आदम और हव्वा ने
जो फल खाया
उसके बीज से उगे पेड़
विशाल हो गए हैं
औंरतें पेंड़ के फूलों को बालों में गूंथ देती हैं
वे फलों की चोरी करती हैं
उन सबने पेड़ की टहनियों से छतें बना ली हैं।
और वर्नित पत्तों से अल्पना पूरती हैं।
वे फलों को खाती है
चुपके से बीज रोप देती हैं।
और पौधे उगने की
प्रतीक्षा करती हैं।
34.
हरसिगांर की महक पसरी है
कमरों के ओनो कोनो में
धरती के ओर छोर में
सांझ के बादलों से छन कर चांदनी बिछौना
बिछाये है
कुछ भूले बिसरे से नरम सुख
जन्म मृत्यु की गहन
दुरूह गुफाओं की ओक
में चांदनी भर कर पी रहे हैं
चांद अपनी परिधि के पिंजरे में
नील कंठ को बांधे है
ऋतुओं के स्वप्न वर्जित प्रेम
की प्रसव पीड़ा में कराह रहे हैं
दीवारों के कान चैड़े हो गए
सीमाओं से असीमता के बीच
खिचें अदृश्य धागे
प्रेम राग की चाह में
पीड़ाओं का उत्सव मना रहे हैं।
35.
मैं दुनिया की उन तमाम औरतों की कथा लिखना चाहती हूँ।
जो बेबस है, लाचार है, भूखी है, नंगी है।
जो शिकंजों में जकड़ी है
जिन्होंने शिकंजों की अपनी सीमाएं बना लिया हैं।
मैं उन शिकंजों के नापना चाहती हूँ
जिनके अन्दर रिश्तों के रेशों में उलझी
वो अपना छप्पर बुनती हैं।
मैं दुनिया की उन सारी औंरतों की
गूँगी आवाजों की बगावत को
क्राँति की लय में गूँथ देना चाहती हूँ
उन सारी औरतों का
इतिहास लिखना चाहती हूँ
जो अनेक खाँचों में बंटी
अपनी अदम्य जीवन शक्ति से
धरती के अन्तिम छोर तक
अपनी जन्म कथा लिखने को बैचेन है
तिनका-तिनका बिखरी उनकी सांझी
संवेदनाओं को सफेद कबूतरों की नस्लों में
बदल देना चाहती हूँ।
उन तमाम औरतों की सांझी चेतना को
आदिम षड़यन्त्र के
सनातन रहस्य लोक के
विरूद्ध खड़ा करना चाहती हूँ
36-
पहाड़ जब तक रहेंगें
तब तक रहूँगी मैं
जब तक रहूँगी मैं
तब तक रहेंगे पहाड़
पहाड़ में रहते हैं पेड़, पौधे, पशु, पक्षी
मिट्टी पत्थर आद पानी, आग और प्रेम
मुझमें रहता है खून, हड्डियां
राख, पानी, नफरत और पे्रम
हम दोनों एक हैं
पर हमें
एक दूसरे के विरूद्ध कर
दिया गया है
मैं पहाड़ को जलाती हूँ
काटती हूँ
खोदती हूँ
और पहाड़ मुझे
पहाड़ फिर-फिर उग आते हैं
और मैं भी बार-बार जन्म लेती हूँ
जब तक रहेगा काटने, कटते जाने का रिवाज
पहाड़ और मैं
एक दूसरे के सामने खड़े रहेगें।
ना पहाड़ खत्म होगें
और ना ही मैं
इस खुले हुए युद्ध क्षेत्र में
हम दोनों एक दूसरे को
जिन्दा रखने का युद्ध
एक साथ लडे़गें।
37.
कौन कहता है
मुझे कविता लिखनी नहीं आती
जब मैं घर के ओने-कोने
में पोछा लगा रही होती हूँ
पोछे से धूल साफ करते ही फर्श पर
कविता की पंक्तियां बिखर जाती हंै।
जब मैं आंगन को
रगड़ -रगड़ कर धोती हूँ
झाडू की हर सींक के साथ
मेरे मन में छिपी ढेरों कहानियां
शब्द-शब्द आंगन में बिछ जाती हैं
जब मैं रोटी बेलती हूँ
बेलन की हर गोलाई के साथ
धरती से आकाश की गोलाई नाप देती हूँ
जब मैं बर्तन मांजती हूँ
जूने की हर रगड़ के साथ
जीवन की रागनियां बजती रहती है
जब मैं छाती उघाड़ कर अपने बच्चे को दूध पिलाती हूँ
ब्रह्माण्ड की अनन्त गतियों को सहलाती हूँ
गर्भावस्था के दौरान जब मैं
अपने शिशु को गर्भनाल से अपना
खून पिला कर पाल रही होती हूँ
तो मेरे चेहरे का वात्सल्य
आसमान पर संगीत लिख रहा होता है
मैं आदि लोरियां बना रही होती हूँ
जब मैं कपड़े धो रही होती हूँ।
और पानी में छाल-छाल कर
निचोड़ रही होती हूँ
तो जीवन के सारे दुख छटक रही होती हूँ।
झाडू, जूना, थपकी, पौछा,
करछी, बेलन, पतीली, कढ़ाही
ये सब मेरे रचना संसार
की निधियां हैं
कोई नहीं मानता पर
इस सृष्टि चक्र में समस्त
रचनाओं की रचनाकार मैं हूँ।
***
तुम मुझे जिलाना चाहते हो।मेरी जिजीवविष के खाद पानी में अमृत घोलना चाहते हो न।मैंने अमृत चख लिया और ताक़त के साथ चल दी
बहुत सुन्दर कविताएँ
बेहद संवेदनशील कवितायें……, जीतने की और इशारा करती…..,
एक जीवट स्त्री का संघर्षशील महिलाओं के साथ संघर्षरत रहना गीता दीदी की खासियत रही है. उनकी कवितायें यथार्थ की भूमि से जुडी कवितायें है, तो कभी सुप्त मन की चेतना को जगाती, तो कभी चेतावनी के शब्द भी हैं, उनकी कविता में प्रेम गाहेबगाहे चले आता है……
मुझे यह कविता सब कविताओं में अलग सी लगी और खुश भी हूँ कि दीदी ऐसा लिख लेती हैं, गीता गैरोला की मारक कलम स्त्री विमर्श की बुलंद आवाज रही है…
तू रोज-रोज क्या फटके री
दो बार फटकूं
अपने होने की गाली
अपना मन सहेजूं
चार बार फटकूं सपनों के छिलके
छिलके सहेजूं री……………………..
धन्यवाद शिरीष जी… गीता जी की इन कविताओं को साझा किया| गीता दीदी को सलाम
डॉ नूतन गैरोला
वाह गीता दी. कमाल हो आप! खूब प्यारआपको.