क्या शानदार शवयात्रा थी तुम्हारी कि
जिसकी तुमने जीते जी कल्पना भी न की होगी। ऐसी कि जिस पर बादशाह और मुख्यमंत्री तक
रश्क करें। दूर-दूर के गरीब-गुरबा-गँवाड़ी। होटलों के बेयरे और नाव खेने वाले और
पनवाड़ी। और वे बदहवास कवि-रंगकर्मी, पत्रकार, क्लर्क,
शिक्षक और फटेहाल राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता जिनके दिलों की आग भी
अभी ठंडी नहीं पड़ी है। और वे स्त्रियाँ, तुम्हारी अर्थी को
कंधा देने को उतावली और इन सबके साथ ही ‘गणमान्य’ साहिबों मुसाहिबों का भी एक मुख्तसर हुजूम। मगर सबके चेहरे आँसुओं से तरबतर।
सब एक-दूसरे से लिपटकर हिचकियाँ भरते। सबके रुँधे हुए कंठों से समवेत एक के बाद एक
फूटते तुम्हारे वे अमर गीत जो पहले पहल सत्तर के दशक में ‘चिपको’
आंदोलन के दौरान सुनाई दिये थे और उसके बाद भी उत्तराखंड के हर जन
आंदोलन के आगे-आगे मशाल की तरह जलते चलते थे: ‘जैंता एक दिन तो आलो, उदिन यो दुनि में (आयेगा मेरी प्यारी जैंता वो दिन/चाहे हम न देख सकें चाहे तुम न देख
सको/फिर भी आयेगा तो प्यारी वो दिन/इसी दुनिया में’)। लेने लगता था। रोमांच, उम्मीद और हर्षारितेक
से कँपकपाते हुए वे जलूस आज भी स्मृति में एक खंडित पवित्रता की तरह बसे हुए हैं।
क्या बात थी यार गिर्दा तुम्हारी भी!
अफसोस, सख्त
अफसोस कि मैं तुम्हारी इस विदा यात्रा में शामिल नहीं हो पाया, जिसका ये आँखों देखा हाल में लिख रहा हूँ। और इस समय मुझे तुम्हारी यह
खरखरी हँसी साफ सुनाई दे रही है जिसे तुम गले से सीधे गालों में भेजते थे और
दाँतों से थोड़ा चबाकर बाहर फेंक देते थे।
कैसा विचित्र नाटक है यार! क्या तो
तुम्हारी बातें, क्या तो तुम्हारे शक। घाटियों, चोटियों, जंगलों, बियाबानों, जनाकीर्ण
मेले-ठेलों, हिमालय की श्रावण संध्याओं और पहाड़ी स्त्रियों
के गमगीन दिलों से बटोरे गये काष्ठ के अधिष्ठान जिनसे आग जलाई जाएगी और खाना
पकेगा। और तुम्हारी वो आवाज? बुलंद, सुरीली
भावों भरी सपनीली: ऋतु औनी रौली, भँवर उड़ाला बलि/हमारा
मुलुका भँवर उड़ाला बलि (चाँदनी रातों में भँवरे उड़ेंगे सुनते हैं/हमारे मुलुक में
खूब भंवरें उड़ेंगे सुनते हैं/ हरे-हरे पत्ते में रखकर खूब बढ़िया दही खायेंगे हम सुनते
हैं / अरे क्या भला लगेगा कि हमारे मुलुक में भंवरे उड़ेंगे ही!’
कभी वो पुकार होती थी तुम्हारी, पुरकशिश क्षुब्ध
आंदोलनों की हिरावल ललकार: ‘आज हिमाल तुम्हें बुलाता है।
जागो-जागो हे मेरे लाल / जागो कि हम तो हिल भी नहीं सकते / स्वर्ग में है हमारी
चोटियाँ और जड़ें पाताल / अरी मानुस जात, जरा सुन तो लेना/हम
पेड़ों की भी विपत का हाल / हमारी हड्डियों से ही बनी कुर्सियाँ हैं इनकी/जिन पर
बैठे ये हमारा कर रहे ये हाल/देखना-देखना एक दिन हम भी क्या करते हैं इनका हाल।’
ये केवल पेड़ नहीं जिनकी हड्डियों से उनकी कुर्सियाँ बनी हैं। ये
केवल आत्मरक्षा की फरियाद भी नहीं, परस्पर सहयोग की माँग है।
ये केवल हिमालय भी नहीं है जो अपने बच्चों से जागने को कह रहा है। इतिहास प्रकृति
लोक और वर्तमान का ये अनूठा जद्दोजेहद भरा रिश्ता है जो लोकगीतों की मर्मस्पर्शी
दुनिया के रास्ते गिर्दा ने अपनी कविता में हासिल किया है और जिस रिश्ते वह सब
बेईमानी, अत्याचार, ढोंग और अन्याय के
खिलाफ अपना मोर्चा बाँधता है: पानी बिच मीन पियासी/खेतों में भूख उदासी/यह
उलटबाँसियाँ नहीं कबीरा/खालिस चाल सियासी।’ किसान
आत्महत्याओं के इस दुर्दान्त दौर के बीस-पच्चीस बरस पहले लिखी उसकी यह ‘कबीर’ ही नहीं, उसकी समूची
कविता, उसके गीत, उसके नाटक, उसका रंगकर्म उसका समूचा जीवन सनातन प्रतिपक्ष और प्रतिरोध का है। जैसा कि
मौजूदा हालात में किसी भी सच्चे मनुष्य और कवि का होगा ही।
तीस-पैंतीस साल के मुतवातिर और अत्यंत
प्रेमपूर्ण संबंध के बावजूद मुझे यह मालूम ही नहीं था कि गिर्दा की उम्र कितनी है।
दोस्तों, हमखयालों-हमराहों
के बीच कभी वह बड़ा समान लगता और कभी खिलखिलाते हुए सपनों और शरारत से भरा एकदम
नौजवान। ये तो उसके मरने के बाद पता चला कि उसकी पैदाइश 10 सितंबर
1943 की थी, अल्मोड़ा जिले के गाँव
ज्योली की। वरना वो तो पूरे पहाड़ का लागत था और हरेक का कुछ न कुछ रिश्तेदार। जब
उसने काफी देर से ब्याह किया और प्यार से साज-सँभाल करने वाली हीरा भाभी उस जैसे
कापालिक के जीवन में आई तो लंबे अरसे तक हम निठल्ले छोकड़ों की तरह दूर से देखा
करते थे कि ‘देखो, गिर्दा घरैतिन के
साथ जा रहा है।’ कभी थोड़ा आगे और अक्सर थोड़ा पीछे हमारी
सुमुखी भाभी, और साथ में लजाये से, भीगी
बिल्ली से ठुनकते हुए गिरदा। दाढ़ी अलबत्ता चमक कर बनी हुई, मगर
कुर्ता वही मोटा-मोटा और पतलून, और कंधे पर झोला जिसमें
बीड़ी-माचिस, एकाध किताब-पत्रिका, मफलर
और दवाइयाँ। यदा-कदा कोई कैसेट और कुछ अन्य वर्जित सामग्री भी। आखिर तक उसकी यह
धजा बनी रही। अलबत्ता दिल का दौरा पड़ने के बाद पिछले कुछेक बरस से यह फुर्तीली चाल
मंद हो चली थी। चेहरे पर छिपी हुई उदासी की छाया थी जिसमें पीले रंग का एक जुज था-
सन् सतहत्तर-अठहत्तर, उन्यासी या अस्सी साल के जो भी रहा हो।
उससे पहली मुलाकात मुझे साफ-साफ और मय
संवाद और मंच्चसज्जा के पूरम्पूर याद है। नैनीताल में ऐसे ही बरसातों के दिन थे और
दोपहर तीन बजे उड़ता हुआ नम कोहरा डीएसबी के ढँके हुए गलियारों-सीढ़ियों -बजरी और
पेड़ों से भरे हसीन मायावी परिसर में। हम कई दोस्त किसी चर्च की सी ऊँची सलेटी
दीवारों वाले भव्य एएन सिंह हाल के बाहर खड़े थे जहाँ कोई आयोजन था। शायद कोई
प्रदर्शनी। रूसी पृष्ठभूमि वाली किसी अंग्रेजी फिल्म के इस दृश्य के बीचोंबीच
स्लेटी ही रंग के ओवरकोट की जेबों में हाथ डाले, तीखे, लगभग ग्रीक
नाक-नक्शों और घनी-घुँघराली जुल्फों वाला एक शख्स भारी आवाज में कह रहा था: ‘‘ये हॉल तो मुझे जैसा चबाने को आता है। मेरा बड़ा ही जी होता है यार इसके
इर्दगिर्द ‘अंधायुग’ खेलने का।’
मैंने चिहुँक कर देखा- डीएसबी कालेज में अंधायुग ? वहाँ या तो अंग्रेजी के क्लासिक नाटक होते आये थे या रामकुमार वर्मा,
विष्णु प्रभाकर के एकांकी। राजीव लोचन साह ने आगे बढ़कर मुझे
मिलवाया: ‘‘ये गिरीश तिवाड़ी हैं वीरेन जी, ‘चिपको’ के गायक नेता और जबर्दस्त रंगकर्मी। वैसे
सौंग एंड ड्रामा डिवीजन में काम करते हैं। बड़े भाई हैं सबके गिर्दा।’’ गिर्दा ने अपना चौड़ा हाथ बढ़ाया। किसी अंग्रेजी फिल्म के दयालु रूसी पात्र जैसा
भारी चौड़ा हाथ। देखते-देखते हम दोस्त बन गए। देश-दुनिया में तरह-तरह की हलचलों से
भरे उस क्रांतिकारी दौर में शुरू हुई वह दोस्ती 22 अगस्त 2010
को हुई उसकी मौत तक, बगैर खरोंच कायम रही।
उसके बाद तो वह एक ऐसी दास्तान का हिस्सा बन गई है जिसे अभी पूरा होना है। जिसके पूरा होने में अभी देर है।
गिर्दा को याद करते हुए ही इस बात पर ध्यान जाता है कि यह शख्स अपने और अपने भीषण
जीवन संघर्ष के बारे में कितना कम बोलता था। वरना कहाँ तो उसका हवलबाग ब्लॉक का
छोटा सा गाँव और कहाँ पीलीभीत-लखीमपुर खीरी में तराई के कस्बे-देहातों और शहर लखनऊ
के गली-कूचों में बेतरतीब मशक्कत और गुरबत भरे वे दिन। गरीबी से गरीबी की इस
खानाबदोश यात्रा के दौरान ही गिरीश ने अपने सामाजिक यथार्थ के कठोर पाठ पढ़े और साथ
ही साहित्य, लोक रंगमंच और वाम राजनीति की बारीकियाँ भी समझीं। संगीत तो जनम से उसके
भीतर बसा हुआ था। 1967 में उसे सौंग एवं ड्रामा डीविजन में नौकरी
मिली जो उत्तराखण्ड के सीमावर्ती इलाकों में सरकारी प्रचार का माध्यम होने के
बावजूद ब्रजेंद्र लाल शाह, मोहन उप्रेती और लेनिन पंत सरीखे दिग्गजों
के संस्पर्श से दीपित था। यहाँ गिरदा खराद पर चढ़ा, रंगमंच
में विधिवत दीक्षित हुआ और उसकी प्रतिभा को नए आयाम मिले। कालांतर में यहीं वह क्रांतिकारी
वामपंथ के भी नजदीक आया। खासतौर पर पहाड़ के दुर्गम गाँवों की जटिल जीवन स्थितियों
से निकट के संपर्क, द्वंद्वात्मक राजनीतिक चेतना, और मानवीयता पर अटूट विश्वास ने ही इस अवधि में गिरीश चंद्र तिवाड़ी को
‘गिर्दा’ बनने में मदद दी है।‘चिपको’ के इन जुझारू नौजवानों का भी इस रूपांतरण में
कुछ हाथ रहा ही है, जो अब अधेड़, और कई
बार एक-दूसरे से काफी दूर भी हो चुके हैं, पर जो अब परिवर्तन
के साझा सपनों के चश्मदीद और एकजुट थे। वे पढ़ते थे, सैद्धांतिक
बहसें करते और लड़ते भी थे। एक-दूसरे को सिखाते थे। नुक्कड़ नाटक करते, सड़कों पर जनगीत गाते थे। साथ-साथ मार खाते और जूझते थे। शमशेर सिंह बिष्ट,
शेखर पाठक, राजीव लोचन साह, प्रदीप टम्टा, गोविंद राजू, निर्मल
जोशी, हरीश पंत, पीसी तिवारी, जहूर आलम, महेश जोशी…. एक लंबी
लिस्ट है। गिर्दा ने जब भी बात की इन्हीं, और इन्हीं जैसी
युवतर प्रतिभाओं के बाबत ही की। या ‘नैनीताल समाचार’ और ‘पहाड़’ और ‘युगमंच’ के भविष्य की। अपने और अपनी तकलीफों के बारे
में उसने कभी मुख नहीं खोला। मुझे याद है मल्लीताल में कोरोनेशन होटल में नाली के
पास नेपाली कुलियों की झोपड़पट्टी में टाट और गूदड़ से भरा उसका झुग्गीनुमा कमरा,
जिसमें वह एक स्टोव, तीन डिब्बों, अपने नेपाली मूल के दत्तक पुत्र प्रेम और पूरे ठसके साथ रहता था। प्रेम अब
एक सुदृढ़ सचेत विवाहित नौजवान है। अलबत्ता खुद गिर्दा का बेटा तुहिन अभी छोटा है
और ग्रेजुएशन के बाद के भ्रम से भरा आगे की राह टटोल रहा है।
एक बात थोड़ा परेशान करती है। एक लंबे
समय से गिर्दा काफी हद तक अवर्गीकृत हो चुका संस्कृतिकर्मी था। उसकी सामाजिक
आर्थिक महत्वकांक्षायें अंत तक बहुत सीमित थीं। जनता के लिए उसके प्रेम में
लेशमात्र कमी नहीं आई थी। उसका स्वप्न कहीं खंडित नहीं हुआ था। यही वजह है कि उसके
निर्देशित नाटकों, खासतौर पर संगीतमय ‘अंधेरनगरी’, जिसे ‘युगमंच’ अभी तक
सफलतापूर्वक प्रस्तुत करता है- ‘अंधायुग’ और ‘थैंक्यू मिस्टर ग्लाड’ ने
तो हिंदी की प्रगतिशील रंगभाषा को काफी स्फूर्तवान तरीके से बदल डाला था। इस सबके बावजूद
क्या कारण था कि जन-सांस्कृतिक आंदोलन उसके साथ कोई समुचित रिश्ता नहीं बना पा रहे
थे। उसके काम के मूल्यांकन और प्रकाशन की कोई सांगठनिक पहल नहीं हो पाई थी। ये बात
अलग कि वह इसका तलबगार या मोहताज भी न था। अगर होता तो उसकी बीड़ी भी उसे भी जे.
स्वामीनाथन बना देती। आखिर कभी श्याम बेनेगल ने उसके साथ एक फिल्म करने की सोची थी,
कहते हैं।
अपनी आत्मा से गिर्दा नाटकों
और कविता की दुनिया का एक चेतनासंपन्न नागरिक था। उसके लिखे दोनों नाटक ‘नगाड़े खामोश हैं’
और ‘धनुष यज्ञ’ जनता ने
हाथों हाथ लिये थे। लेकिन जानकार और ताकतवर लोगों की निर्मम उदासीनता और चुप्पी
उसे लौटाकर लोक संगीत की उस परिचित, आत्मीय और भावपूर्ण दुनिया
में ले गई, जहाँ वह पहले ही स्वीकृति पा चुका था और जो उसे
प्यार करती थी।
मगर गिर्दा था सचमुच नाटक और नाटकीयता
की दुनिया का बाशिंदा। हर समय नाट्य रचता एक दक्ष, पारंगत अभिनेता और निर्देशक। चाहे वह
जलूसों के आगे हुड़का लेकर गीत गाता चलता हो या मंच पर बाँहें फैलाये कविता पढ़ते
समय हर शब्द के सही उच्चारण और अर्थ पर जोर देने के लिये अपनी भौंहों को भी फरकाता।
चाहे वह नैनीताल समाचार की रंगारंग होली की तरंग में डूबा कुछ करतब करता रहा हो या
कमरे में बैठकर कोई गंभीर मंत्रणा…. हमेशा परिस्थिति के अनुरूप
सहज अभिनय करता चला था वो। दरअसल लगभग हर समय वह खुद को ही देखता-जाँचता-परखता सा
होता था। खुद की ही परछाई बने, हमेशा खुद के साथ चलते गिर्दा
का द्वैध नहीं था यह। शायद उसके एक नितांत निजी अवसाद और अकेलेपन की थी यह परछाई।
खुद से पूरा न किये कुछ वायदों की। खंडित सपनों, अपनी
असमर्थताओं, जर्जर होती देह के साथ चलती अपनी ही आत्मा के
यौवन की परछाई थी यह। लोग, उसके अपने लोग, इस परछाई को भी उतनी ही पहचानते और प्यार करते थे जितना श्लथ देह गिर्दा
को।
सो ही तो, दौड़ते चले आए थे
दूर-दूर से बगटुट वे गरीब – गुरबा -गँवाड़ी नाव खेने वाले।
पनवाड़ी होटलों के बेयरे। छात्र-नौजवान, शिक्षक पत्रकार। वे लड़कियाँ
और गिरस्थिन महिलायें- गणमान्यों के साथ बेधड़क उस शव यात्रा में जिसमें मैं ही
शामिल नहीं था। मरदूद!
वीरेन दा ने जिस आत्मीयता और वैचारिक तटस्थता के साथ गिर्दा को याद किया है यह हिंदी की अमूल्य रचना तो है ही,दशकों लम्बी दोस्ती को धार देने वाला स्मृतिपत्र भी है।वीरेन दा के मिजाज़ की आत्मीयता हर शब्द में उपस्थित है।अनुनाद के माध्यम से हमारे साथ यह रचना साझा करने के लिए आभार शिरीष!!