अनुनाद

अदनान कफ़ील दरवेश की दस कविताएं

अदनान कफ़ील दरवेश हिंदी कविता के इलाक़े में नया नाम है। मैंने सोशल मीडिया पर उनकी दो-तीन कविताएं पढ़ीं और उनसे कविताओं के लिए अनुरोध किया। राख हो चुकी बहनों का उल्लेख असद ज़ैदी की बहुचर्चित कविता ‘बहनें’ के बाद उसी तड़प और मर्म के साथ दुबारा देखना एक कवि-प्रभाव के साथ-साथ समाज के उन्हीं कोनों-अंतरों को देखना भी है, जो अब तक कमोबेश वैसे ही रहे आए हैं। आज़ादी के बाद की कविता के पूरे सिलसिले को याद करें तो एक मुकम्मल दृश्य बनता है, जहां हिंदी कविता में दोआबे की वही आंच भरी ज़ुबान बार-बार लौटती है – यह केवल भाषा का सिलसिला नहीं, बच रही मनुष्यता का सिलसिला भी है, हमारे कितने ही कवियों के नाम इस सिलसिले में शामिल हैं। अदनान कफ़ीर दरवेश के रचनाकर्म को लेकर मैं उत्सुक हूं, हमेशा उन पर निगाह टिकी रहेगी। 
अनुनाद पर आपका स्वागत है मेरे नौ उम्र साथी।
*** 
 
पुन्नू मिस्त्री
मेरे कमरे की बालकनी से दिख जाती है
पुन्नू मिस्त्री की दुकान
जहाँ एक घिसी पुरानी मेज़ पर
पुन्नू ख़राब पंखे ठीक करता है
जब सुबह मैं
चाय के साथ अख़बार पढ़ता हूँ
वो पंखे ठीक करता है
और जब मैं शाम की चाय
अपनी बालकनी के पास खड़े होकर पीता हूँ
पुन्नू तब भी पंखे ठीक करता दिख जाता है
मुझे नहीं मालूम कि उसे पंखे ठीक करने के अलावा भी
कोई और काम आता है या नहीं
या उसे किसी और काम में कोई दिलचस्पी भी होगी
पुन्नू मिस्त्री की केलिन्डर में कोई इतवार नहीं आता
मुझे नहीं पता जबसे ये कॉलोनी बसी है
तबसे पुन्नू पंखे ही ठीक कर रहा है या नहीं
लेकिन फिर भी मुझे पता नहीं ऐसा क्यूँ लगता है कि
सृष्टि की शुरुवात से ही पुन्नू पंखे ठीक कर रहा है..
मेरे पड़ोसी कहते हैं कि, “पुन्नू एक सरदार है
कोई कल कह रहा था कि, “पुन्नू एक बोरिंग आदमी है
मुझे नहीं मालूम कि बाकि और लोगों की क्या राय होगी
इस दाढ़ी वाले अधेढ़ पुन्नू मेकेनिक के बारे में
लेकिन मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि कोई दिन मैं अपनी गली भूल
जाऊँ

और पुन्नू भी कहीं और चला जाये
तो मैं अपने घर कैसे पहुँचूँगा ?
मुझे पुन्नू इस गली का साइनबोर्ड लगता है
जिसका पेंट जगह-जगह से उखड़ गया है
लेकिन फिर भी अपनी जगह पर वैसे ही गड़ा है
जैसे इसे यहाँ गाड़ा गया होगा
पुन्नू की अहमियत इस गली के लोगों के लिए क्या है
ये शायद मुझे नहीं मालूम
लेकिन मुझे लगता है कि
पुन्नू की दुकान इस गली की घड़ी है
जो इस गली के मुहाने पर टंगी है…
(रचनाकाल: 2016)
गमछा
पिता जब कभी शहर को जाते
माँ झट से अलमारी से गमछा निकालकर
पिता के कंधो पर धर देती
जैसे अपनी शुभकामनाएँ लपेट कर दे रही हो
कि सकुशल घर लौट आना
मुन्हार होने से पहले.
जब माँ अपने यौवन में ही ब्याह कर आई
थी पिता के घर

तब भी शायद उसने अपने सारे स्वप्नों को एक गमछे में लपेटकर
पिता को सौंप दिया था
पिता
जो दुनियादारी के कामों में अक्सर चूक जाते
गच्चा खा जाते
कई बार भूल जाते अपना चश्मा
अपनी कलम
दुकान की चाबी और तमाम चीज़ें
शायद उसी तरह माँ के स्वप्नों की पोटली भी
कहीं खो आए
शहर जाते हुए किसी दिन.
माँ
जिसे मैंने टीवी और फिल्मों में दिखने वाली
पत्नियों की तरह व्यवहार करते हुए कभी नहीं देखा
कभी कुछ खुल कर माँगते-मनवाते नहीं देखा
माँ जो सिर्फ़ माँ ही थी
शायद पिता के लिए भी
कभी न पूछ सकी पिता से कि वे कहाँ उसके
स्वप्नों की पोटली छोड़ आए…
जब एक दिन ट्रेन पकड़ने के लिए घर से
निकला

माँ ने मेरे कंधो पर भी गमछा डाल दिया
और मैंने सहसा अपने कन्धों पर काफी वज़न महसूस किया
जब स्टेशन पर अकेले किसी कोने में बैठा
ट्रेन का इंतजार कर रहा था
कंधे पर पड़े गमछे की तरफ मेरी नज़र गई
जिसका मुँह मेरी ही तरह लटका हुआ था
और मैंने महसूस किया माँ के हाथ का दबाव
जो वैसे का वैसा ही अब भी गमछे में लिपटा पड़ा था
माँ का विदा में उठा हाथ याद आया मुझे
और पिता का थका कंधा भी
जो अब गमछे के वज़न से भी अक्सर झुक जाता था…
गमछा जो अब पूरे रास्ते मेरा साथी बनने
वाला था

मैंने उसपर हाथ फेरा
और उसे देखकर शुक्रिया अदा करने की मुद्रा में मुस्कुराया.
गाँव से हज़ारों मीलों दूर
इस महानगर में जब कभी बाहर धूप में निकलता हूँ
तो अपने उदास और कड़े दिनों के साथी
अपने गमछे को उठाता हूँ और उसे ओढ़ लेता हूँ
क्यूँकि मुझे यक़ीन है इस गमछे पर
इसके एक-एक रेशे पर
जिसमें मेरा ही नमक जज़्ब है !
और
सच कहूँ तो
एक पुरबिहा के लिए गमछा
महज़ एक कपड़े का टुकड़ा भर ही नहीं है
बल्कि उसके कन्धों पर बर्फ़ की तरह
जमा उसका समय भी है !
(रचनाकाल: 2016)
जगहें-1
माँ कहती थी-
“…जगहें बोतल की तरह होती हैं
वो भरतीं हैं
और ख़ाली भी होती रहती हैं”
माँ ये भी कहती थी-
“…जगहें कभी पूरी नहीं भरतीं
और न ही कभी पूरी रिक्त होती हैं
हम थोड़ी मशक्कत करके
थोड़ी और जगह बनाते हैं….”
मैंने भी
अपने प्रेम के लिए
थोड़ी जगह बनायी थी
लेकिन अब सिर्फ जगह बची है
प्रेम नहीं
अब प्रेम
उस जगह के खाली होने
और भरने के बीच का
एकांत है…..
(रचनाकाल: 2015)
– – –
राखी
बहनें नहीं आईं इस बार भी
आतीं भी तो किस रास्ते
जबकि रास्ते भूल चुके थे मंज़िल
भाईयों की कलाइयाँ सूनी
थीं

राखियाँ
राख में धँस गयी थीं
बहनें राख बन चुकी थीं…
(रचनाकाल: 2016)
 – –
बारिश में एक पैर का जूता
गुरूद्वारे के बाहर
एक कार के ठीक सामने
बारिश में एक पैर का जूता भीग रहा है
पानी पर मचलता हुआ
उत्सव मना रहा है
मैं रिक्शे से गुज़रते हुए
उसे देख रहा हूँ

सब ने छतरियाँ ओढ़ ली हैं
या छज्जों की ओट में आ गए
हैं

सब कुछ धीमा-सा पड़ गया है
बारिश का संगीत जूते को
मस्त किये हुए है

इन हाँफते हुए लोगों में
मुझे जूता ज़्यादा आकृष्ट कर रहा है

जूता
जिसे अपने पाँव के खो जाने
का शायद कोई दुःख नहीं है !
(रचनाकाल: 2016)
बीमार दोस्त
मैं अपना हाथ बढ़ाता हूँ
उसके ख़त की तरफ़
और फिर वापिस खींच लेता हूँ
उसका ख़त तप रहा है
ठीक उसके माथे की तरह !
(रचनाकाल: 2016)
धूप मुक्की से वैसे ही झाँकेगी 
धूप मुक्की से वैसे ही झाँकेगी रोज़ सुबह,
पछुवा वैसे ही बहेगी और धूल झोंक जायेगी
कमरे में

पंखा अपनी रफ़्तार नहीं बदलेगा
मैं वैसे ही चारपाई के पायताने घुटनों पर
सिर रख के बैठूंगा

हाँ खूंटी से कुछ कपड़े कम हो जाएँगे
बरसात
में पूरब की दीवाल भीगेगी लेकिन उसे देखकर कोई चिंतित नहीं होगा अब

मेज़ पर
पाकीज़ा आँचल अब शायद कभी नहीं दिखेगा

बस रोज़
रात को पच्छिम की दीवाल गिरेगी मुझपर

घड़ी की
हर टिक-टिक के साथ किसी की याद बहुत आएगी

जो अब इस
कमरे में कभी उपस्थित नहीं होगा !
(रचनाकाल: 2016)
पहचान 
बचपन
में मुझे
माँ
और पिता के बीच में
सुलाया जाता
मेरी
नींद कभी-कभार बीच रात में ही
टूट
जाती
और
मैं उठते ही
माँ को ढूँढता.
घुप्प
अँधेरे में
एक
जैसे दो शरीरों में
मैं
अंतर नहीं कर पाता
इसलिए
मैं

अपनी
तरफ़ ढुलक आये
दोनों चेहरों को टटोलता.
पिता
की नाक काफ़ी बड़ी थी
सो
मैं उन्हें पहचान जाता
मेरे
लिए जो पिता नहीं थे
वो ही माँ थी
इस
तरह मैंने अँधेरे में
माँ को पहचानना सीखा।
(रचनाकाल: 2016)
बीमारी के दौरान
तुम्हारी याद ने इन दिनों
बिल्ली के करतब सीख लिए हैं
वो चली आती है दबे पाँव हर रोज़
समय, काल औए मुंडेरों को छकाती हुयी
एकसाथ.
कितने-कितने
दिन बीत गए

तुम्हें
छुए
; तुमसे मिले हुए
मेरे
रोएँ भी जानते हैं तुम्हारा मुलायम स्पर्श

तुम्हारी
गंध को मैं नींद में भी पहचान सकता हूँ

आजकल मैं
धीरे-धीरे खाँसना सीख गया हूँ

वक़्त पे
दवाएँ भी ले लेता हूँ

बेवजह
बाहर भी नहीं निकलता

देखो
तुम्हारे अनुरूप कितना ढल गया हूँ

कोई दिन
तुम आ जाओ मुझसे मिलने

जीवन और
मृत्यु के संधिकाल में

आजकल मैं
नींद में भी

एक
दरवाज़ा खोल के सोता हूँ !

(रचनाकाल: 2016)

जब दिन लौट रहा था
जब दिन पश्चिम के आकाश में
तेज़ी से लौट रहा था
मैं हज़ारों मीलों दूर
तुम में लौट रहा था
तुम जो मेरा घोंसला थीं
एक थके पक्षी का घोंसला
मेरा लिबास थीं तुम
जिसमें मैं समा रहा था
दक्षिण के मलिन आकाश में
मेरी प्रार्थनाएं गुत्थम-गुत्था
हुयी जाती थीं

ईश्वर का मुख विस्मय में
खुला था

क्योंकि वो पश्चिम के आकाश
में बैठा था

और मेरा रुख़ उसके मुताबिक
नहीं था !

(रचनाकाल:2016)

अचानक
वो अचानक नहीं आता
बता कर ही आता है
क्योंकि उसे मालूम है
कि मुझे किसी चीज़ का अचानक
होना

कोई ख़ास पसंद नहीं
मुझे वो सुख ज़्यादा प्रिय
है जो अपनी

ख़बर पहले भिजवा दे
और दुःख
जो धीरे-धीरे अंधकार में
उतरते हों

और जब मैं उससे कहता हूँ
कि-

“..
सुनो !
मुझे मृत्यु भी धीरे-धीरे ही
चाहिए..”

तो वो कई-कई रोज़ मेरे घर
नहीं आता

अचानक भी नहीं !

(रचनाकाल: 2016)

ठूँठ की तरह
आसमान को कुछ याद नहीं
कि वो किसके सिर पर फट पड़ा था एक दिन
ज़मीन को भी कुछ याद नहीं कि उसने किस-किस की
पसलियाँ तोड़ के रख दी थीं
उन खरोंचों और चोटों को
भूल चुके हैं लोग

और शायद हम भी
अब कहाँ याद है कुछ..
एक दिन तुम भी मुझे भूल
जाओगे

लेकिन मैं बड़ा ही ज़िद्दी
पेड़ हूँ

तुम्हारी स्मृतियों में
ठूँठ की तरह
बचा रह जाऊँगा…
(रचनाकाल: 2016)
कवि परिचय:
नाम: अदनान कफ़ील दरवेश
जन्म: 30 जुलाई 1994
जन्म स्थान: ग्राम-गड़वार, ज़िला-बलिया,
उत्तर प्रदेश
शिक्षा: कंप्यूटर साइंस आनर्स (स्नातक), दिल्ली विश्वविद्यालय
स्थायी पता: S/O एहतशाम
ज़फर जावेद, ग्राम/पोस्ट- गड़वार
ज़िला- बलिया, उत्तर प्रदेश
पिन: 277121
प्रकाशन: पत्र-पत्रिकाओं तथा ब्लॉग्स पर
छिटपुट प्रकाशित
संपर्क:
ईमेल: thisadnan@gmail.com
फ़ोन: 9990225150

0 thoughts on “अदनान कफ़ील दरवेश की दस कविताएं”

  1. गमछा कविता मुझे सबसे अच्छी लगी. अदनान को बधाई. शिरीष सर ! बहुत बहुत शुक्रिया कि आपने यहाँ अदनान को एक मुक़ाम दिया है.

  2. गमछा और पुन्नू बहुत ही बेहतरीन कविताएं लगी।भाव-संवेदनाओं को समेटे दिल पर गहरा प्रभाव छोड़ने वाली कविताएं।जन्मदिन की बधाई कवि को और आभार अनुनाद का।

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