कृष्णा सोबती का होना हिंदी कथा जगत की उपलब्धि है। अनुनाद की साथी कवि विपिन चौधरी ने उन पर अपना आत्मीय लेख हमें सौंपा है। यह लेख फेमिना में छप चुका है। यह इसका पुन:प्रकाशन है और अनुनाद इस सहयोग के लिए विपिन का आभारी है। अगली पोस्ट में विपिन की कुछ कविताएं हम अपने पाठकों से साझा करेंगे।
दिल्ली महानगर, हिंदी साहित्यकारों का गढ़ माना जाता है.
यहाँ लगभग हररोज़ ही साहित्यिक आयोजनों की चहल-पहल होती
है, तमाम तरह की खेमेबाजी और विमर्श को यहाँ जगह
ज़मीन मिलती आयी है. कई
बड़े साहित्यकारों की पनाहगाह है दिल्ली. देश से कोने-कोने से यही आकर बसे साहित्यकार
दिल्ली की ज़मीन पर उर्वर हुए यहीं की आबो-हवा में वे सब अपनी साहित्यक काबिलियत के बल पर शीर्ष तक पहुंचे और युवा रचनाकारों की प्रेरणा स्रोत बने.
इसी दिल्ली में रहती है 91 वर्षीय कृष्णा सोबती,
जिनके लेखन का अंदाज़- ए- बयां अपनी अलहदा विशिष्टता के लिए हिंदी
साहित्य में अलग से चिन्हित किया जाता है. पकिस्तान के गुजरात
शहर में जन्मी कृष्णा जी आज भी जब अपने बचपन अपने
परिवेश को शिद्दत से याद करती हैं तो उनकी आवाज़ में गज़ब की मिठास और आँखों की चमक
देखने लायक होती है. कई बार मैं उनकी आँखों की इसी चमक से हो कर गुज़री हूँ.
गाहे-बगाहे उनकी बातों में कराची शहर, जिसे ‘रोशनियों का शहर’ माना जाता है, प्रवेश करता है. फिर बातों से बातें निकलती जाती हैं. गुज़रे समय के यादों
के शहर, वहां का खान-पान, वहां का फैशन,
बातचीत का सुगढ़ तौर-तरीका, वहां के लोगों में
खरीददारी का जुनून, वहां के
पुराने घरों और बड़ी-बड़ी हवेलियों की वास्तुकला का सौंदर्य और फिर ‘बगीचों का शहर’, लाहौर से जुडी अनगिनत यादें चली आती हैं और कृष्णा जी फिर उन्हीं यादों की हो कर
रह जाती हैं, मैं उन्हें एकटक देखती हुए सोचती हूँ इतनी
बातों और इतनी यादों को मैं अपने करीब कैसे समेट सकूंगी. उनकी स्म्रतियों में विभाजन से पहले के भारत का परिवेश, उस दौर की गहमागहमी अच्छा खासा दबदबा रखते हैं. हर बुजुर्ग की तरह पुरानी
यादों में गुम होना, गुज़रे समय को मुड- मुड कर देखना उन्हें बेहद अज़ीज़ है. लेकिन एक साहित्यकार का
मन-मस्तिक्ष होने के कारण, वे गुजरते समय के साथ बहते हुए भी
वर्तमान की विभीषिका पर नज़र रखते हुए अपनी असहमति दर्शाती हैं. फिर उनके
द्वारा ‘महामहिम के नाम’ लिखा पत्र हो,
या फिर वर्तमान सरकार की कार्यप्रणाली के प्रति नाराज़गी दर्ज करने
वाला उनका लेख हो, उनके लिखे को प्रतिष्ठत
अख़बारों में प्रमुखता से जगह दी जाती है. अपनी
अस्वस्थता के बावजूद वे आम जन के दर्द से आज भी पल
प्रतिपल गुजरती हुयी दिखती हैं, बिसरे दिनों की बेपनाह दुःख और अलगाव भरी यादें आज भी उन्हें सालती हैं. पाठकों
ने उनके लेखन में उसी विभाजन के ठहरे हुए दर्द को बार-बार अपना कद निकालते हुए
देखा है. उनके प्रतिष्ठित उपन्यास,’ जिंदगीनामा‘ में विभाजन से पहले का ग्रामीण परिवेश अपनी पूरी धूसर तबियत और स्फटिक धमक
के साथ मौजूद है. अपने लेखन में इसी बानगी के तहत वे युवा पीढी के रचनाकारों में
अपने लिए एक अलग तरह की मिठास पाती है.
भीड़-भाड़ और तमाम तरह की चौंधयाती
रोशनियों से दूर कहीं शांत जगह में झिलमिलाता हुआ दीपक मन को असीम शांति से भर देता है ठीक उसी तरह ही दिल्ली की
भागमदौड़ और शोर शराबे से दूर मैंने, कृष्णा सोबती के सानिध्य को अपने भीतर ग्रहण किया । सच में उनका
सानिध्य मुझे,शांत और मद्धम-मद्धम आंच देते हुए दीपक जैसा ही महसूस होता है। गाँव के घरों में छोटे-छोटे से आलों में दीपक,
जिस सुंदरता से अपने प्रकाश को उजागर करते हुए दिख पड़ते हैं उनकी सहज सुंदरता की शब्दों
में व्याख्या करना सहज नहीं। जीवन में कहीं शांति से रचने- पकने की प्राकृतिक
सहूलियत है तो इन्हीं सहज चीज़ो के आज-पास है.
कई इंसान भी अपने करीब ऐसी सहज
सुंदरता को जगह देते हैं कृष्णा सोबती भी ऐसी ही शख़्सियत हैं जिनका साथ किसी भी मन
को असीम तसल्ली दे सकता है. जीवन को
जीने का सलीका और अनुशासन उनके संग रह कर सीखा जा सकता है. कई बार एक भोली सी कामना, मन में जगह बनाती है कि
उनके जीवन के उत्तरार्ध को मैं आगे बढ़ कर थाम लूँ पर निजता की घोर हिमायती,
कृष्णा जी अपने पास सिर्फ अपनी मौजूदगी ही चाहती है. यह एक लेखक का
निजत्व है, जो उन्हें हद दर्ज का प्रिय है फिर कोई क्यों
उसपर सेंध लगाये ? किसी परिचित, अपरिचित से मुलाकात के बाद वे फिर से अपनी सीपी में बंद
हो जाती हैं और दुनिया के समुन्दर में आनंदोल्लास करती लहरोँ जैसा उनका रचा हुआ साहित्य, जिसका
धरातल, लोक की बहुलता की बेहद सयंमित अभिव्यक्ति और
साफ-सुथरी रचात्मकता के सूत से बुना गया है नज़र आता है.
कृष्णा सोबती से पहली मुलाक़ात
दिल्ली महानगर की कोलाहल से दूर अपने घर में एक शांत सुकून से भरे वातावरण में कृष्णा जी
से पहली मुलाक़ात अपने एक कवि दोस्त की मार्फ़त हुयी। वरिष्ठ साहित्यकार और
अपनी विशिष्ट खूबियों के कारण किवदंती बन चुकी कृष्णा सोबती, अपनी बढ़ती वय के कारण लेखन कार्यों में हाथ बटाने के लिए वे किसी
साहित्यिक सहायिका की तलाश में थी और मैं उनकी मदद के
लिए उनके समक्ष थी। एक वरिष्ठ साहित्यकार से नजदीकी की मधुर चाह के चलते ही उम्र
की लंबे अंतर के बावजूद मेरी, कृष्णा जी की स्नेहिल दोस्ती
पनपी सकी। लगभग चार साल साल पहले का एक दिन, जब एक शाम, रात में तब्दील होने को ही थी कि ठीक उसी वक़्त के आस-पास
कवि दोस्त आर. चेतन क्रांति का फ़ोन आया उन्होंने यह
कहते हुए, ” कृष्णा जी तुमसे बात करना
चाहती हैं” फ़ोन कृष्णा जी को थमा दिया और कुछ सेकंड के अन्तराल में एक बेहद
मधुर आवाज़ मेरे कानों में उतरी, बड़ी ही मीठी आवाज़ में उन्होंने अपना पता नोट करवाया। अगले ही दिन मैं कृष्णा जी की उसी मधुर आवाज़ के आरोह अवरोह में डूबते-उतरते
हुए मयूर विहार फेज़ -1 में उनके फ़्लैट के सामने थी. उनसे मेरा यह पहला परिचय था,
पहली भेंट आज भी स्मृतियों में सबसे मुखर है.
अपनी सेविका,
विमलेश जी के साथ थोडा झुककर छोटे
छोटे क़दमों से कृष्णा जी ड्राइंग रूम में आई और अंग्रेजी में कहा, हेल्लो विपिन ‘यू आर ए स्मार्ट गर्ल’. उन दिनों कृष्णा जी मुक्तिबोध पर एक लंबा लेख लिख रही थी, उसी लेख को उनके साथ पढ़ते और टाइप करते हुए, मैंने
मुक्तिबोध को ठीक से जाना और फिर उन्हें तफ़सील से पढने की कोशिश जारी रखी.
हिंदी साहित्य, कृष्णा सोबती की बेबाक और संयमित अभिव्यक्ति और कलात्मक रचनात्मकता से
बखूबी परिचित है. उन्होंने हिंदी की कथा भाषा को
विलक्षण ताज़ग़ी से नवाजा हैं. कृष्णा जी ने पचास के दशक
में अपने लेखन की शुरुआत की और उनकी पहली कहानी, ‘लामा‘ में 1950 में प्रकाशित हुई। मुख्यत: उपन्यास, कहानी, संस्मरण विधाओं में लिखने वाली कथाकार की दिलचस्पी कविताओं में भी हैं इस
बात को शायद इस बात को कम ही लोग जानते होंगे.
कृष्णा जी हिंदी की स्टार लेखिका हैं,
लेकिन ऐसी स्टार लेखिका जिनके यहाँ किसी तरह की शोशेबाजी कभी दिखाई
नहीं दी. हमेशा लंबी ड्रेस में नज़र आने वाली और ‘हशमत’ नाम से खुद को संबोधित करने वाली कृष्णा जी की हिंदी साहित्य में जो पैठ है उसका कोई सानी नहीं।
उनके साथ इतने अरसे सोहबत में मैं जान
पायी हूँ कि भीड़ और जमवाड़ा उन्हें बिलकुल नहीं
सुहाता, आयोजनो से वे दूर ही रहती हैं. सीधे-सीधे इंटरव्यू देना उन्हें
पसंद नहीं, उन्हें कागज़ पर प्रश्न लिख कर दे दो समय
मिलने पर वे उनका उत्तर लिख
देंगी, काम समय पर हो जाएगा पर उनकी शर्तें अडिग हैं. उनकी
ये सारी स्वभावगत आदतें मुझे उनसे दैनिक व्यवहार और बातचीत में साफ दिखी। आँखों
में तकलीफ के कारण वे काफी बड़े -बड़े सुंदर शब्दों में लिखती हैं । हशमत, यानी खुद कृष्णा सोबती, अपने आप को एक अर्धनारीश्वर में प्रस्तुत करती हैं यह मानते हुए कि एक स्त्री में आधा
पुरुष है और आधी स्त्री और ठीक इसी तरह एक पुरुष में भी आधी स्त्री का समावेश है
और इसी तरह दोनों को मिला कर एक पूरा व्यक्तित्व बनता है.
कृष्णा जी,
रात का समय को अपने लेखन के लिए निश्चित करती हैं. रोज़ दोपहर 12 के आसपास उनका दिन शुरू होता है उर्दू, पंजाबी,
अंग्रेज़ी, हिंदी के अखबारों के साथ.
किसी नजदीक के इंसान पर लिखने में हमेशा असमंजसता महसूस होती है मुझे. इरादे से कभी ऐसा सोचा होता की कृष्णा जी पर लिखूंगी तो उनसे की गयी ढेर सारी बातों को सिलसिलेवार से नोट या रिकॉर्ड कर लेती.
किसी नजदीक के इंसान पर लिखने में हमेशा असमंजसता महसूस होती है मुझे. इरादे से कभी ऐसा सोचा होता की कृष्णा जी पर लिखूंगी तो उनसे की गयी ढेर सारी बातों को सिलसिलेवार से नोट या रिकॉर्ड कर लेती.
फिर भी इस लेख को लिखते हुए बहुत सारी
चीज़े टुकड़ों में याद आ रहीं हैं, उनके साथ उनके
टेलीविज़न पर देखी गयी फिल्म, जिसमे उनकी रिश्तेदार
युवती ने किरदार अदा किया है. बातों बातों में कई बार कहा गया उनका यह वाक्य कि ‘शरीर अब पुराना हो गया है’. कृष्णा जी को
इकाबल बानो की ग़ज़लें सुनना बहुत अज़ीज़ हैं कई बार खाना खाते हुए वे विमलेश से
कहकर इकबाल बानो की सी. डी. लगवाती हैं और फिर देर तक, इकबाल
बानों की बुलंद आवाज़ से उनका घर गूंजता है, साथ ही कृष्णा जी
का मेज़ पर थपथापना ज़ारी रहता है और फिर शुरू हो जाती हैं इकबाल बानों के गायन की
चर्चा. बीच-बीच में अपनी मौज़ में कृष्णा जी कभी कराची की गलियों से गुज़र जाती हैं
तो कभी दिल्ली के बनने बिगड़ने की कहानी बयां कहती हैं और मैं उनकी बातों के साथ उनके स्वभाव की नरमी को अपने भीतर ज़ज्ब करती जाती
हूँ.
उनकी मेहनावाजी भी गज़ब की है. खूबसूरत
चाय टिकोजी के साथ और
ढेर सारे खाने के माल-असबाब, विपिन को केक भी खिलाओ,
कुकीज़ भी, मिठाई भी. खाने की मेज़ पर बार-बार
पूछना और यह कहना की जो भी पसंद हो विमलेश से बनवा लो. लेकिन मेरी नज़र उनकी थाली
पर रहती है वे बहुत कम खा पाती हैं. ” अब इससे ज्यादा नहीं खा पाती” वे
कहती हैं. एक बार सर्दियों के दिनों में कृष्णा जी के लिए बाजरे की रोटी बना कर ले
गयी जिसे उन्होंने गुड के साथ बड़े चाव से खाया और कहा – “अरसे बाद बाजरे का स्वाद चखा है”. दो साल पहले जब मैंने पी. जी
होस्टल को छोड़कर फ़्लैट में शिफ्ट किया तो लगातार उनका अनुरोध बना रहा कि “विपिन
तुम अपनी जरुरत के सामानों की लिस्ट बना कर मुझे दो”. अपने घर से दूर
दिल्ली में एक वरिष्ठ का ऐसा स्नेहिल आग्रह भला कितने लोगों को नसीब होता है ?
उनका घर एक खूबसूरत संग्राहलय जैसा
दिखता हैं, ड्राइंग रूम में इतिहासकार प्रेम चौधरी द्वारा बनायीं गयी एक बड़ी सी पेंटिंग और श्वेत-श्याम
फोटोग्राफस, छोटे बड़े कई बुक शेल्फ्स में सजी किताबें,
सोफे, कई छोटे बड़े कालीन, सभी पर सादगी तारी है. याद हैं मेरे यह कहने पर
आपके घर की सारी चीज़े काफी पुरानी हैं ऐसी चीज़े अब नहीं मिलती. इसपर उनका यह कहना, “भई हम भी तो पुराने हैं”. मुझसे
परिचय के बाद जाने कितनी बार उन्होंने कहा – “विपिन
पुरानी पत्रिकाओं को पलटते हुए तुम्हारी कवितायेँ सामने आयी”. एक बार
उन्होंने कहा “कवितायें भी अच्छी हैं और इसके साथ छपी तुम्हारी तस्वीर
भी”. तब मैंने कहा – “तस्वीर तो चाहे कैसी भी
हो उसका क्या “? इसपर उन्होंने कहा –“नहीं हमारे प्रकाशको को इस पक्ष पर भी ध्यान देना चाहिए हम हिंदी
वाले इतने गए गुज़रे नहीं हैं “. मैं कुछ बोली नहीं सिर्फ मुस्कुराई। अपनी खुद
की बीमार स्थिति के बावजूद बार-बार फ़ोन कर, सर्दी
जैसी आम व्याधि पर भी फ़ोन पर कई हिदायतें देने की उनकी आदत हमेशा
मेरे भीतर गहरे में घर कर जाती है. उनसे मुलाकात से कई साल पहले मैंने सिर्फ उनकी
एक ही चर्चित कृति ‘मित्रो मरजानी‘,उनके
परिचय के बाद ही उनके विपुल लेखन से भी परिचय हुआ. साहित्य चर्चा में भी उनका उदार
स्वभाव प्रकट होता है, सत्येन कुमार, शिवनाथ,
पद्मा सचदेव, मुक्तिबोध, कृष्ण बलदेव वैद्य से जुडी अनेकों बातें आपको एक खूबसूरत दुनिया में ले
जाती हैं.
अपनी साहित्यिक अभिरुचि के चलते जल्द
ही मैं उनसे जुड़ती चली गयी और मेरा मैं हमेशा यह मानती रही हूँ कि कृष्णा सोबती एक
ऐसे ज़ज्बे का नाम है, एक ऐसा नाम जो हिंदी
साहित्य के स्तम्भ को मजबूत आधार देता है. लेखन उनके लिए जीवन का पर्याय और एक
कठोर अनुशासन है जिसको उन्होंने बरसो ओढा-बिछाया है.
कृष्णा जी अपने लेखन में शिल्प और
कथ्य के सुन्दर और नए प्रतिमान रचती हैं. उनके शांत और स्थिर लेखन के पीछे उनके
स्वाभाव की जीवंतता साफ़ झलकती है. उन्होंने अपने शर्तों पर जीवन जिया और एक बादशाह
की विराटता की तरह लेखन में अपनी अभूतपूर्व ऊँचाई को स्थापित किया. अपने जीवन की
लम्बी साहित्य यात्रा में उन्होंने जो लकीरे खींची वे आने वाली पीढ़ी में एक आदर्श
लेखन की तरह मील का पत्थर साबित होंगी. अपने समकालीनों में वे अलग से पहचानी जा
सकती हैं. उनके पास शिल्प की असीम गहराई, भाषा
का घनत्व, संप्रेक्षण की जीवंत सजलता है, जिसे वे लगातार मांजती आई है इसलिए उनकी हर नई कृति नए
प्रतिमान रचती है. वे जीवन की मैल को अपने लेखन के धोबी पटके से इस तरह धोती है
सारी तथाकथित पाखंडता, नैतिक आडम्बर धरे के धरे रह जाते हैं.
अपने अस्तित्व को लेकर वे सदा सचेत रही शायद यही कारण है कि उनके किरदार अपनी पूरी
ठसक के साथ सामने द्रष्टिगोचर होते हैं.
अपने पूरे लेखन काल में उन्होंने कभी
गुटबंदी का साथ नहीं दिया. वे किसी खेमे विशेष में शामिल नहीं हुयी. उन्होंने सिर्फ
और सिर्फ अपनी लेखनी पर विश्वास किया और ताउम्र एक सच्चे शिल्पकार की तरह अपने
पात्रो को तराशा. उनके पात्र जीवन की तलझट से कई ऐसे मोती निकाल के सामने लाते हैं
जिन्हें अक्सर हम अनदेखा कर देते हैं. उनकी लंबी साहित्यिक यात्रा में रची गयी
कृतियों के पात्र हमेशा पाठक की जीवन यात्रा में हस्तक्षेप करते रहते हैं क्योंकि
उनके पास अपनी अस्मिता की आवाज़ है और जो आज के निपट अलोकतांत्रिक समय में सबसे
जरुरी चीज़ है. ‘डार से बिछुड़ी’,
‘मित्रो मरजानी’, ‘यारों के यार’, ‘तिन पहाड़’, ‘बादलों के घेरे’, ‘सूरजमुखी अँधेरे में’, ‘जिन्दगीनामा’, ‘ए लड़की’, ‘दिलो दानिश’, हम
हशमत, ‘समय सरगम’, ‘शब्दों के आलोक में’
और ‘जैनी मेहबान सिंह’ ने
बौद्धिक विमर्श को जन्म दिया और समय के साथ हर बार उनके द्वारा रचित पात्रो पर
चर्चा करना जरुरी समझा गया. सर्वसाधारण लोक की
उजास उनके लेखन की महत्वपूर्ण कड़ी है. उनकी कृतियों के पात्रों का इतिहास कभी न
मृत होने वाले इतिहास है क्योंकि वर्तमान में आते ही वे पात्र फिर से जीवत हो अपने
दैनिक कर्मो में निवृत हो जाते हैं और पाठक को वे अपने करीब का जीवन का आभास देते
हैं. कहते हैं जितना बड़ा इंसान होगा उसके साथ उतने ही बड़े विवाद जुड़े होंगे.
कृष्णा जी का जीवन भी विवादों से घिरा रहा और उन्होंने हमेशा उससे डट कर सामना
किया. कभी अपनी किताबों के शीर्षकों पर अधिकार के लिए लड़ी तो कभी आज की उम्र
में भी वे वकील केस बहस आदि के झगड़ों से अलग नहीं हुयी हैं अपनी ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा
उन्हें इन विवादों में खर्च करना पड़ा है. पर जो थक कर हाथ खड़े कर दे वो खिलाड़ी ही
क्या. वे सच के साथ रहती है इसलिए पीछे हटने का सवाल ही नहीं अपने निज की अस्मिता
को गहरे से समझने की वकालत करने वाली कृष्णा जी अपने लेखन की तरह ही अपने जीवन में
अनोखी और अद्भुद हैं. बिना किसी लाग लपेट के जीवन के पत्तों को दुनिया के सामने
रखने वाली कृष्णा जी कभी सनसनीखेज़ और दिखावटी जीवन में नहीं पड़ी. कृष्णा सोबती जी
के साथ बिताया गया समय मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.
***