अनुनाद

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जम्मू कश्मीर में हिन्दी कविता और युवा कवि : एक अवलोकन – कमल जीत चौधरी / 02



अशोक कुमार कम लिखते हैं . छपते लगभग नहीं हैं . तीन दशकों बाद 2014 में उनका दूसरा संग्रह कस्स गुमां आया है . इसमें कुछ अच्छी कविताएँ हैं . वे विचार की अपेक्षा भाव को महत्व देते हैं . इनका कहन सरल है . शीर्षक कविता के अतिरिक्त वे ज्यादातर कविताओं में सहजता से बात कह जाते हैं  . इनकी कविताओं में मध्यवर्गीय समझ देखी जा सकती है . राजनीतिक चेतना भी इसी सीमा के साथ आती है . वे जम्मू वि०वि० के हिन्दी विभाग द्वारा संस्थापित व संचालित संस्था  ‘ युहिले की वैचारिक सीमा में  प्रतिबद्ध रहे हैं . यह इनकी  पहचान और सीमा है . दोस्त शीर्षक और मृत्युबोध पर लिखी इनकी कविताएँ ख़ास ध्यान खींचती हैं . एक उदाहरण देखें –

क्या इस तरह चला जाता है आदमी
जैसे टंकी भरने पर
फालतू पानी बह कर चला जाता है …

हिमाचल मूल के डॉ० राजकुमार भी साढ़े तीन दशकों से जम्मू में हैं . उन्हें जम्मू का वरिष्ठ कवि , कहानीकार और समीक्षक माना जाता है . अपने नए कविता संग्रह में उनका स्वर बदला है . वे लिखते हैं –

कैसी सदी है
डर
आदमी
से बड़ा है  
खड़े हो रहे रौंगटे
साहस बौना पड़ा है …

यहाँ जन का दुःख दर्द और  निराशा भी है . राजनेताओं के प्रति खीझ और आक्रोश  का स्वर है . उनके साथ एक आशा भी है –

फिर भी गनीमत है  
अगली सुबह
सूरज निकल आता है .

महाराज कृष्ण संतोषी हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि हैं . उनके अभी आए संग्रह आत्मा की निगरानी में उन्होंने अपनी सीमा का अतिक्रमण किया है . इस पर हिन्दी जगत में बात हो रही है . इसमें प्रतिरोध , आत्मस्वीकार , सच्चाई और मानवीय कमजोरियां कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त हुई हैं . प्रतिरोध का एक उदारहण देखें –

इस दुनिया में
जहाँ  हर कोई
अपना गुब्बारा फुलाने की
प्रतिस्पर्धा में व्यस्त है
मैं चाहता हूँ
होना
एक छोटी सी पिन …

आत्मस्वीकार का एक उदहारण देखें –

अभी भी जिन्दा है मेरे भीतर
गुरिल्ला छापामार
बेहतर दुनिया के लिए लड़ने को तैयार
पर एक कायर से
उसकी दोस्ती है
जो उसे यही समझाता रहता है
दूसरों के लिए लड़ोगे
तो मारे जाओगे
सच कहता हूँ
यही है मेरे जीवन की व्यथा
सपना देखा उस गुरिल्ला ने
जीवन जिया इस कायर ने .

इनका यह कविता संग्रह सिर्फ विस्थापन के लिए ही नहीं जाना जाएगा .

हिन्दी का नमककमल जीत चौधरी यानी मेरा अनुनाद सम्मान से समानित पहला कविता संग्रह है . इस संग्रह के साथ ही उनकी जिम्मेवारी बढ़ गई है . इसकी चर्चा यदि हुई तो कोई और करेगा।

इन संग्रहों के अतिरिक्त 2014 में संजीव भसीन का कब सुबह होगी और सतीश विमल का  ‘  काल सूर्य नामक संग्रह आए . संजीव भसीन की कविताई में जन सरोकारों के होने का प्रयास है . लड़कियाँ शीर्षक से लिखी अपनी कविताओं से उन्होंने अपनी ख़ास पहचान बनाई है . भाषा में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग के लिए भी वे जाने और क्रिटिसाइज़ किए जाते हैं . भेड़िये शीर्षक कविता में वे शोषकों को सर्वव्यापक बताते हैं . दृष्टि सम्पन्नता और भावों की स्वाभाविकता के लिए उनसे और प्रयास की अपेक्षा की जा सकती हैसतीश विमल कविता में अन्तर्मुखी हैं . वे उसी को कविता मानते हैं , जिसके रेफरेंस न ढूँढने पड़ें . राजनीतिक स्वर वाली कविताएँ उन्हें प्रभावित नहीं करती . वे बिल्कुल गैर राजनीतिक  कविताएँ लिखते हैं. वे कहते हैं कि इतनी तो राजनीति है यहाँ पर कुछ तो इससे अछूता रहे . इनकी कविताएँ भारतीय दर्शन और सांस्कृति सोपानों पर तो ले जाती हैं , पर वहां बाहरी जीवन  के ज़रूरी सवाल नहीं मिलते . वे अच्छे मगर आम पाठक के कवि नहीं हैं . वे रेडियो स्टेशन में काम करते हैं . अपनी धुन में वे कश्मीर में रहकर लिख रहे हैं . यही उनकी पहचान है .

इधर हिन्दी में छन्दबद्ध कविता लगभग खत्म हो गई . रियासत में कुछ कवि अभी भी अच्छी छन्दबद्ध कविता लिख रहे हैं . निर्मल विनोद वरिष्ठ कवि हैं . चार दशकों की उनकी काव्य यात्रा छन्दबद्ध कविता की धरोहर है . वे प्रकृति के सशक्त भावों वाले कवि हैं . गीत , दोहे और मुक्तछंद में कविताएँ लिख रहे हैं .  इनका 1996 में प्रकाशित हुआ नवगीत संग्रह टूटते क्षितिज के साए में बिल्कुल अभी पढ़ा . इनके यहाँ वैचारिक सीमा है  . इसी में रहकर वे  भूख , गरीबी , टूटते आदमी और मूल्यों की बात करते हैं . तेल के लिए धन कविता की यह पंक्तियाँ देखें –

माटी के दीपों में तेल के लिए न धन
देश है स्वतन्त्र किन्तु घुटता है कुंठित मन
कैद में अँधेरे के उत्स हैं प्रकाश के
खड़े घिरे घेरे में हम किसी विनाश में .

कपिल अनिरुद्ध भी छन्दबद्ध कविता लिखते हैं . लय गेयात्मकता और संगीतात्मकता उनकी विशेषता है . वे अच्छी गज़ल भी कहते हैं . वे अध्यात्म , दर्शन और भारतीय संस्कृति के कायल हैं . अभी कोई संग्रह नहीं आया है . सुनील कुमार का प्रेम पवन की पहली थपकी ‘ [ 2004 ] एक रोमानियत लेकर आया था  . उस रुमान से वे आगे नहीं बढ़ पाए . इनके यहाँ वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है . इधर उन्होंने कुछ गज़लें कहीं हैं. उनका एक शेर देखिये –

आग लिखता या आग सा लिखता
जल रहा शहर था मैं क्या लिखता .

जम्मू के कवि सुधीर महाजन का अभी कोई संग्रह नहीं आया है . वे अच्छे कवि माने जाते हैं . इनकी कविताओं में बाज़ार की विसंगतियां  और बदलते हुए जीवन मूल्यों की अभिव्यक्ति हुई है .  वे मिनरल वाटर से लेकर ओबिचरी तक में आदमी को देखते हैं . वे गहरा दर्शन नहीं आधुनिक मानव का फलसफा जिजीविषा के साथ व्यक्त करते हैं . वे किसी विशेष विचारधारा के नहीं हैं. इनकी  ‘ सिगरेट की आत्मकथा ‘ , ‘ दृष्टिकोण ‘  ‘ आत्मग्लानी और सार कविता को इस रूप में देखा जा सकता है . माँ पर इनकी कुछ सुन्दर कविताएँ हैं . उनका आत्मस्वीकार देखें –

 
यूँ तो 
मेरे घर के पीछे 
पगडण्डी भी है
किन्तु कभी कभार ही पहुँच पाती है
कविता मेरे घर तक ….

इसी में आगे उनका विश्वास देखने लायक है –

घर छोड़ कर कहीं जा भी नहीं सकता
 कविता कभी भी मुझ तक पहुँच सकती है
कभी भी …

जम्मू और कश्मीर को अलग अलग बांट कर अपनी -२ राजनीति चमकाई जाती है . यह और भी घातक है जब मतदाता भी जनप्रतिनिधियों को नहीं अपने -२ धर्म को प्राथमिकता दें . यहाँ अब ऐसा होने लगा है . जबकि कश्मीर समस्या को देखते हुए तीनों खित्तों में परस्पर विश्वासबहाली और संवाद ज़रूरी है . जो कि होने नहीं दिया जाता . ऐसे समय में कुमार कृष्ण जैसा कवि आश्वस्त करता है.  उनका अभी कोई संग्रह नहीं आया है .  ‘ उसका जिक्र नामक कविता में वे दोनों खितों के बीच की खाई  पर पुल बांधने का काम करते हैं. वे धार्मिक कट्टरता पर प्रहार करते हैं . जीने के सौ विकल्प में अंधी राष्ट्रभक्ति जैसे मुद्दे को मार्मिक तरीके से व्यक्त किया है . उनकी आई० डी०  कार्ड एक व्यक्ति पहचान के संघर्ष की कविता है . मैं अर्जुन
हूँ के माध्यम से पथ भटक चुके अपने गुरू के विरोध में खड़ा होने का साहस रखते हैं . वे अति आधुनिक भावबोध के कवि हैं . मुन्नी बदनाम हुई जैसी कविताओं में उन्होंने मौलिक बिंबों का इस्तेमाल किया है . इनकी ताकत राजनीतिक चेतना , प्रतिरोध और  गहरी संवेदनशीलता  है . जबकि सपाटबयानी , गद्यात्मकता और संवाद शैली इनकी विशेषता और सीमा दोनों हैं .

आज फासीवादी शक्तियों से खतरा है . पूँजीवादी ताकतें साम्प्रदायिक झुण्ड इसकी सहयोगी शक्तियां हैं . कुछ कवि साम्प्रदायिक और कट्टर ताकतों का पर्दाफाश कर रहे हैं . देश हित में ऐसे खतरों को उकेरा जाना ज़रूरी हैजम्मू कश्मीर की कविता में जनपक्षधरता और प्रबल राजनीतिक स्वर है . यह संवाद पैदा करने की क्षमता रखती है .  जम्मू कश्मीर के युवा कवि ने किसी पारम्परिक प्रभाव में आकर प्रतिरोध की संस्कृति को नहीं रचा है . वह जानता है कि कविता का मूल उधेश्य क्या है . प्रतिरोध का यह अभी उभरा तेवर आने वाले दिनों में हिन्दी में ख़ास जगह रखेगा .

सच्ची कला जीवन के पक्ष में खड़ी रहती है . किसी भी समय जीवन के पक्ष में बात करना आसान नहीं है . इस बात को कितनी ख़ूबसूरती से संतोषी अपनी एक कविता में कहते हैं –

जाल बुनना एक कला है
मकड़ी ने तितली से कहा 
तितली ने सुना
सोचा   
फिर कहा
कला से मिलती है मृत्यु  
और उड़ गई .

अभिव्यक्ति के खतरों से चिर युवा पूर्वज कवि मुक्तिबोध ने बहुत पहले से आगाह कर दिया था . यहाँ की कविता जोखिम उठा रही है . युवा कवियों में बोल्ड राजनैतिक स्टैंड देखे जा सकते हैं . कविता लिखने के खतरे हैं . सत्ता गोली से नहीं कविता से होकर आए विचार से डरती है . अभिव्यक्ति के खतरे उठाते रहना चाहिए . एक्सपेरिमेंट करते रहना चाहिए . सत्ता से टकराते हुए हक़ , न्याय , मानवधिकारों और आम आदमी की भावनाओं को व्यक्त करती कविता सबको सुनानी चाहिए . यह भी हो सकता है कि राजा का सैनिक गोली चलाने की जगह अचानक वाह कह उठे .  ताली बजाकर इसका स्वागत करे . जी हाँ !! यह हो सकता है . कविता की यही ताकत है . देखें शक्ति सिंह के इस कवितांश पर आपकी क्या प्रतिक्रिया रहती है –
 
सरहद पर बीड़ियां बदलते
दो किसानों की खातिर  
फ़ैज़ की ग़ज़लों लाहौर की गलियों की ख़ातिर
अगर मै कह भी दूं- 
पाकिस्तान ज़िंदाबाद
तो लोगों को क्यों लगे कि मैने  
भारत को कोई गाली दी है .

शक्ति सिंह की कविताओं में विद्रोह की भावना है . वे कहीं कहीं बहुत लाउड हैं . ग्रहयुद्ध का आह्वान करते हैं . इसी तरह का स्वर कल्याण , कुमार कृष्ण और कुलबिंदर मीत के संग्रह में मिलता है . पिछले आठ साल से मीत का कुछ भी लिखा हुआ सामने नहीं है . वे विदेश चले गए हैं . बादलों में आगकविता में कल्याण लिखते हैं –

आओ तुम भी आओ 
वक्त आ गया है कि
हवा का रुख पहचान  
बादलों में आग भर दें ..

प्रेम के बिना कैसा सपना , कैसा विद्रोह  . जम्मू की युवा कविता में सिर्फ प्रतिरोध , क्रांति और राजनीतिक स्वर ही नहीं है . बल्कि यहाँ प्रेम भी पूरी शिद्धत और गहराई से उतरा है .  एक से बढ़कर एक प्रेम कविताएँ यहाँ मिल जाएँगी . नवोदित कवियों की प्रेम कविताओं में भी  के राजनीतिक चेतना है . यह सुखद है .

इधर पहाड़ी के युवा कवि अंतरनीरव ने भी हिन्दी में कुछ राजनीतिक कविताएँ लिखी हैं . इनमे व्यंग्य का पुट है . राजनीतिक हुए बिना कोई सच्चा कवि नहीं हो  सकता . कबीर , ब्रोत्लेत ब्रेख्त, लोर्का , नाजिम हिकमत , फैज़ अहमद फैज़ , गोरख पाण्डेय , धूमिल  , अवतार सिंह पाश, बाबा नागार्जुन आदि आज सबसे ज्यादा इसलिए याद आते हैं क्योंकि आज जनतांत्रिक , और मानवीय मूल्यों को खतरा है . श्रीकांत शर्मा जी के शब्दों में न बचने की चाह रखने वाला ही कुछ रच सकता है . कोई ऐसा ही कवि पूछेगा या लिखेगा कि
एक सौ तीन देशों में अमेरिका के सात सौ आठ सैनिक शिविर क्यों हैं ? लोकतंत्र में लोक कहाँ है ? स्त्री , दलित , किसान , मजदूर का क्या हाल हैं ? घोड़ा और छाती क्यों इस्तेमाल हो रहे हैं ? कश्मीर , पूर्वभारत,
नक्सलवादी क्षेत्रों में कब तक घिनोनी राजनीतिक  चालें खेली जाएँगी ? धरती का लोह छड़ों से बलात्कार कौन कर रहा है देश का खनिज कहाँ जा रहा है  साम्प्रदायिकता की जड़ें  कहाँ हैं ? दस – दस देशों की नागरिकताएँ किसके पास हैं ? अपने ही देश में नागरिकता से लोग वंचित क्यों हैं  ? सवाल और भी हैं . इनसे जूझे बिना कोई भी कवि/लेखक बड़ा भले हो जाए पर सच्चा कवि / लेखक नहीं हो सकता . ऐसे सवालों से जम्मू के युवा कवि और कविताएँ टकरा रही हैं . जम्मू कश्मीर में अपने अपने सच हैं . मनोज शर्मा की लोक नायक मियां डिडो को सम्पर्पित कविता में जबरदस्त व्यंजना है . अंतिम पंक्तियाँ देखें –

और राजा तो
कट जाने पर एकदम बनवा लेते होंगे
नया पतंग
पर , उनसे पेंच कौन लड़ाता होगा .

यह कविता सवाल में चेतावनी दे रही है . सत्ता से टकराने वाले पैदा होते रहेंगे . विस्थापित अग्रज कवि श्याम बिहारी का भी एक सवाल है –

अक्सर मेरे दांतों में 
फँस जाता है कोई दाना  
न चबता है न निकलता है
जैसे … वीरप्पन 
जैसे … काबुली जहाज़ 
जैसे … कश्मीर
मेरे मुँह में यह दांत किसके हैं .

एक सवाल ऐसा भी  –

शहीद होने के जज्बे से
कहीं अच्छा होता है  
यह जान लेना कि
किसके लिए और क्यों शहीद हुआ जाए .   [ कृष्ण कुमार शर्मा ]

जम्मू कश्मीर की युवा कविता जनतांत्रिक मूल्यों की पहचान करती है . जनतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्ष करते हुए यह सत्ता का कालर भी पकड़ लेती है . आज देशभक्ति और देशद्रोह के प्रमाणपत्र बांटे जा रहे हैं  . एक बड़े वर्ग को रिजेक्ट किया जा रहा  है .  घृणा की यह वृत्ति घातक है . मीडिया की भूमिका इसमें सबसे अधिक घिनोनी है . राष्ट्रीयता के झंडेवाद में सबसे अधिक हनन राष्ट्रीयता का ही हुआ है . राष्ट्रवाद का परचम फहराने वाले यह बताएँ कि राष्ट्रभाषा का क्या हाल है ? मोर कहाँ नाच रहा है ? जंगल कहाँ गए ? कमल कहाँ पर खिले ? तालाब किसने भर दिए हैं ? वाघ कहाँ जा रहे हैं ? हाकी से कौन खेल रहा है . ऐसा क्यों है कि केवल राष्ट्रगीत अथवा राष्ट्रध्वज के लिए शोर मचाया जाता है . राष्ट्रीय पर्व मज़ाक बनकर रह गए हैं . यहाँ की कलम ऐसे ज़रूरी विषयों को छू रही है .

कविता में कटाक्ष और अच्छा व्यंग्य जनता की कविता को ताकत देता है . यहाँ इधर राजनीतिक स्वर वाली कविता में गढ़े हुए ईश्वर , साम्राज्यवादी अमेरिका के अतिरिक्त दिल्ली पर जबरदस्त व्यंग्य मिलते हैं . अधिकतर व्यंग्य कविताएँ प्रतीकात्मक हैं . इनमें व्यंग्य  एक बिट / चुटीले अंदाज़ में आता है .  यहाँ की कविता हर तरह की सत्ता का प्रतिपक्ष रचती है . यह मठाधीश आलोचकों और कवियों को भी कठघरे में खड़ा करती है .  व्यंग्यकार कवि माने जाने वाले पवन खजुरिया लिखते हैं –

सुबह वे गाँधीवादी होते हैं
रात को क्लब में रोमियो बने होते हैं .
**
 
धँसी हुई आँखें 
ढोती परम्परा 
पिचके हुए गाल  
बजाते ताल /
चरमराती हड्डियाँ  
जैसे 
होली और बैसाखी का  
डांडिया
बिल्ला लगा है –
वीर भोग्या वसुन्धरा .
 
इनके यहाँ जनपक्ष वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है . कहीं कहीं वे प्रभावित करते हैं पर आमतोर पर उनका व्यंग्य सतही होकर हास्य और मनोरंजन बन जाता है .

लेखक का कार्यक्षेत्र , परिवेश और व्यक्तित्व उसके लेखन में दिखना एक अतिरिक्त विशेषता है . इससे विश्वसनीयता बढ़ती है . जम्मू के कुछ कवियों के लेखन में इनका कार्यक्षेत्र झलकता है . कुछ कवियों की कविताओं में उनकी आजीविका का कार्यक्षेत्र नहीं भी दीखता . इसे दो तरह से देखा जाना चाहिए . एक तो यह कि कविता ही उनका कार्यक्षेत्र है [ जो कि कम है ] . दूसरा यह कि कवि अपने पेशे और कविता का घालमेल नहीं करते हैं [ यह कला है ] . कार्यक्षेत्र भले न दिखे पर अपने लोक , परिवेश , भूगोल और बोली के प्रभाव से जम्मू कश्मीर की कविता पहचानी जा सकती है .

भाषाएँ किसी भी समाज की पहचान होती हैं .  ये संस्कृति की सरंक्षक होती हैं . जन भाषाओं  के प्रति दायित्व निभाये जाने चाहिए . आज अंग्रेजी भाषा सत्ता की सरंक्षक बनकर खड़ी है . यह वर्ग भेद भाव को बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभा रही है . आर्थिक प्रगति और अंग्रेजी के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है . रोजगार संसाधनों के उचित उपयोग से पैदा होता है न कि किसी भाषा विशेष से . स्विटज़लैंड , नीदरलैंड , जर्मनी , जापान , स्वीडन , स्पेन , दक्षिण कोरिया , कनाडा , इटली , ग्रीस , अमेरिका , ब्रिटेन , इस्रायल आदि समृद्ध देश शिक्षा और सरकारी कामों के लिए देसी भाषा को प्राथमिकता देते हैं . जबकि अंगोला , यूगांडा , तंजानिया , माली , नाइजीरिया आदि उपनिवेश रह चुके अति गरीब देश औपनिवेशिक भाषा में अपने सरकारी काम काज करते हैं . आम भारतीय ने भी औपनिवेशिक भाषा अंग्रेजी को तरक्की का पर्याय मान लिया है . इसके पीछे हीन भावना भी है . यहाँ अंग्रेजी बोलने वाले को बुद्धिमान और पढ़ा लिखा समझा जाता है . किसी के पास इतना अवकाश नहीं कि इतना समझ सके कि  शोध , ज्ञान , विज्ञान और विचारों का भाषा से कितनाभर सम्बन्ध होता है . ऐसे में कवि / लेखकों का दायित्व है कि वे शोषकों की पोल खोलें . कोलोनियल एजेंडे के सामने डटी यह पंक्तियाँ देखें –

मिठास के व्यापारी
मेरी जीभ
तुम्हारा उपनिवेश नहीं हो सकती
यह हिन्दी का नमक चाटती है .   [  कमल जीत चौधरी ]

कुमार कृष्ण शर्मा इन दिनों अंग्रेजी के पत्रकार हो गए हैं , पर वे मजबूती से हिंदी के पक्ष में खड़े हैं . इसका एक उदाहरण देखें –

वह अंग्रेजी बोलता है  
मैं नहीं डरता
वह अंग्रेजी खाता पीता है  
मैं नही डरता
मैं डर जाता हूँ
जब वह हिन्दी के हाथी पर
अंग्रेजी का महावत चाहता है .

देशी भाषाओं की पैरवी करता हुआ भी यह कहूँगा कि जिस अंग्रेजी में आम आदमी का पक्ष हो , जो सत्ता की पोल खोले , जिसमें सवाल उठ रहे हों , उससे कोई विरोध नहीं . मेरे लिए भाषा नहीं अधिकाधिक समता ज़रूरी है . इधर के सालों में शिक्षा के अंग्रेजीकरण , बाजारीकरण और निजीकरण ने आम आदमी की दिक्कतें बढ़ाई हैं . बच्चों के खेल छीनकर प्ले वे स्कूल आ गए हैं . सरकारी स्कूल बंद हो रहे हैं . रियासत में शिक्षा व्यवस्था का बुरा हाल है . इस समस्या पर कुछ अच्छी कविताएँ मिल जाएँगी .

यह रोक लिए जाने का समय है . किसको कहाँ रोक लिया जाएगा कुछ पता नहीं . विश्व बन्धुत्व और वासुदेव कुटुम्बकम के बीच बीज़े को तरसते लोग हैं . आदमी का फिर भी कभी लग जाता है पर जानवरों के लिए सारे रास्ते रोक दिए गए हैं . जम्मू कश्मीर की कविताओं में भारत पाक सीमावर्ती लोक दिखाई देता है. यह कविता नक्शे की सीमा  पार कर जाती है .

डॉ० अग्निशेखर लिखते हैं कि सिर्फ दीवारों पर लिख देने से भारत कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक नहीं हो जाता . अखण्डता दिखाने भर को रह गई है . तरह तरह के इज्म हम पर हावी हो रहे हैं .  जाति और धर्म शोषकों का सबसे अचूक हथियार हैं . 
 
ब्राह्मण प्रतिनिधि सभा की रैली  
राजपूत सम्मलेन
दलित महासभा 
महाजन समाज की कॉन्फ्रेंस 
मुस्लिम जमात की बैठक …
शहर का मुख्य चौराहा   
इन सभी बैनरों से भरा पड़ा है –
इन्हीं बैनरों की छाँव तले
दूध और निम्बू  
तरबूज और चाकू  
एक साथ बिक रहे हैं . [ कुमार कृष्ण शर्मा ]

सत्ता विभिन्न माध्यमों से अन्धविश्वास और धार्मिक उन्माद फैला रही है . पूरी दुनिया में वैज्ञानिक और तार्किक जीवन का प्रचार प्रसार करने वाले कत्ल किए जा रहे हैं  . नरेन्द्र दाभोलकर , अभिजित रॉय आदि इसका उदहारण हैं  . ब्राह्मणवाद की बली चढ़े रोहित बेमुला की त्रासदी को भी सभी जानते ही हैं . ऐसे हो चले परिदृश्य में जम्मू कश्मीर की हिन्दी कविता से और अपेक्षा की जा सकती है .

पिछले दस सालों में डेढ़ लाख किसानों ने आत्महत्या की है .  अभी भी इस देश को कृषिप्रधान ही कहा जाता है . यह शर्मनाक है . बीस करोड़ लोगों के पास घर नहीं है . धर्मस्थान बढ़ते जा रहे हैं . प्रदेश को भी मंदिरों का शहर कहा जाता है . मजदूरों को हर सुबह साम्बा , बड़ी ब्रह्मणा गंग्याल आदि जगहों पर दिनभर के लिए बिकने को तैयार खड़ा देखा जा सकता है . अफ़सोस कि सभी को दिहाड़ी नहीं मिलती . इसी तरह से आए दिन हड़ताल और बंद से जनजीवन प्रभावित होता है . बंद पर यहाँ कुछ अच्छी कविताएँ मिल जाएँगी . एक बानगी देखें –

शहर में बंद है …
वे गुब्बारे रामदीन नहीं बेच पाया  
भरे थे जो उसने
उस फूँक से  
जिसने सामने दिखती उसकी पसलियों में /
रबर – सा – खिंचाव ला दिया था . ‘ [ कल्याण के समय के धागे कविता संग्रह से  ]

……. शेष तीसरे हिस्से में

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