1. दर्द
पके-पके-से
पके-पके-से
लड़की जब भी
देखती है
काँच के पानी भरे ग्लास में पड़े
बर्फ के चौकोर टुकड़े को
उसे लगता है
एक और ज़िंदगी डूब गयी…
पिघल-पिघल कर पानी हो गयी…
देखती है
काँच के पानी भरे ग्लास में पड़े
बर्फ के चौकोर टुकड़े को
उसे लगता है
एक और ज़िंदगी डूब गयी…
पिघल-पिघल कर पानी हो गयी…
घूँट-घूँट
उतरते पानी में
फ्रीज़ होता जाता है पोर-पोर
और जीने की एक रेशमी-सी डोर
सर्रर्ररर से फिसल जाती है
बेजान उँगलियों से..
उतरते पानी में
फ्रीज़ होता जाता है पोर-पोर
और जीने की एक रेशमी-सी डोर
सर्रर्ररर से फिसल जाती है
बेजान उँगलियों से..
लड़की रात भर
सपनों में देखती रहती है
ट्यूमर की सर्जरी के कारण कटे बालों वाले
कीमोथेरेपी से झड़े बालों वाले चेहरे
जिनकी हँसी सबसे ज्यादा दर्दनाक होती है
सपनों में देखती रहती है
ट्यूमर की सर्जरी के कारण कटे बालों वाले
कीमोथेरेपी से झड़े बालों वाले चेहरे
जिनकी हँसी सबसे ज्यादा दर्दनाक होती है
वो अक्सर
आँख-मिचौली खेलती है
इस दर्द से
आँख-मिचौली खेलती है
इस दर्द से
अपनी आँखों पर
पट्टी बाँधकर
नज़रें चुराकर झाँकती है
कैंसर की गाँठों में, ट्यूमर में
और बेबस-सी देखती है
वहाँ पलते अवसाद, घुटन,
बैचेनी, प्रतिरोध, तनाव,
और आक्रोश को…
पट्टी बाँधकर
नज़रें चुराकर झाँकती है
कैंसर की गाँठों में, ट्यूमर में
और बेबस-सी देखती है
वहाँ पलते अवसाद, घुटन,
बैचेनी, प्रतिरोध, तनाव,
और आक्रोश को…
इंच-इंच छूकर
महसूसती रहती है
अपने शरीर पर उगती गाँठों को
पगली है….इतना भर नहीं जानती
कि मुट्ठी भर ज़मीन
और बित्ता भर आसमान पर भी
अपना नाम न लिख पाने की पीड़ा
कब धीरे-धीरे गाँठों में बदल जाती
है कोई नहीं जानता …..
महसूसती रहती है
अपने शरीर पर उगती गाँठों को
पगली है….इतना भर नहीं जानती
कि मुट्ठी भर ज़मीन
और बित्ता भर आसमान पर भी
अपना नाम न लिख पाने की पीड़ा
कब धीरे-धीरे गाँठों में बदल जाती
है कोई नहीं जानता …..
***
2. प्रेम खिचड़ी-सा
प्रेम के बिखरे-बिखरे रंग
लड़की को समझ नहीं आते
पहले पहर के गुलाबी प्रेम का
दिन ढलते-ढलते साँवला हो जाना
उसे पूरी रात बैचेन करता रहता
है
है
वो प्रेम में समरस होना चाहती
है
है
लड़की अक्सर सोचती है
कि ये प्रेम खिचड़ी-सा क्यों
नहीं होता..
नहीं होता..
.दाल, चावल, मिर्च-मसाले.
.किसी का अलग-अलग अस्तित्व
नहीं …
नहीं …
फिर भी थाली और मुँह
कैसे भरे-भरे लगते हैं
लड़की हर रोज़ प्रेम के
बिखरे-बिखरे स्वाद और रंग
इकट्ठे करती रहती है
इकट्ठे करती रहती है
खालिस देसी प्रेम के तड़के में
सारे रंग-स्वाद पकाती है ।
एक..दो…तीन…दिन बीतते जाते हैं
प्रेशर कुकर की सीटियों की तरह,
पर खिचड़ी जैसा प्यार नहीं पकता
लड़की बार-बार जलती है..
सहेजती है आत्मा पर पड़े
बैचेनी और इंतज़ार के फफोले ..
पर हिम्मत नहीं हारती।
अधपके प्यार में से फिर चुनती है
चावल का स्वाद … सब्जी का रंग …और
भोरे-भोरे सीले जीवन को
सुलगाती, फूँक
मारती…
मारती…
फिर पकाने में जुट जाती है
खिचड़ी जैसा प्रेम ….
पगली है ….समझना नहीं चाहती
कि खिचडी पकने के लिए आँच का,
बरतन के बाहर और अंदर
एक-सा होना जरूरी होता है ।
***
3. सौ से शून्य तक
लड़की हर रोज
शुरू करती है काउंटडाउन
सौ से शून्य तक…
शुरू करती है काउंटडाउन
सौ से शून्य तक…
अंतिम दस से शून्य तक
गिनते समय
बेहद सतर्क हो जाती है
दस,नौ,आठ…..तीन,दो,एक
जैसे शून्य बोलते ही
उसके आस-पास की दुनिया
बिल्कुल बदल जायेगी….
गिनते समय
बेहद सतर्क हो जाती है
दस,नौ,आठ…..तीन,दो,एक
जैसे शून्य बोलते ही
उसके आस-पास की दुनिया
बिल्कुल बदल जायेगी….
लड़की के लिए वक़्त
हिलता हुआ पेंडुलम नहीं है
बल्कि दीवार पर टँगी सुनहरी फ्रेम है
जिसके चित्र कभी नहीं बदलते
हिलता हुआ पेंडुलम नहीं है
बल्कि दीवार पर टँगी सुनहरी फ्रेम है
जिसके चित्र कभी नहीं बदलते
लड़की नींद आने के डर से
पलकें नहीं झपकाती
उसे सपने में दिखती हैं
सफेद कपड़ों वाली…कटे पंखों वाली परियाँ
सब के सब एक जैसे चेहरों वालीं
माँ-नानी-दादी के
मिले-जुले चेहरों वाली परियाँ
जो पीठ पर अँगीठियाँ बाँधे
पकाती रहतीं हैं जिंदगी
कभी कच्ची तो कभी पक्की
पलकें नहीं झपकाती
उसे सपने में दिखती हैं
सफेद कपड़ों वाली…कटे पंखों वाली परियाँ
सब के सब एक जैसे चेहरों वालीं
माँ-नानी-दादी के
मिले-जुले चेहरों वाली परियाँ
जो पीठ पर अँगीठियाँ बाँधे
पकाती रहतीं हैं जिंदगी
कभी कच्ची तो कभी पक्की
लड़की बार-बार कोशिश करती है
पंखों को सँवारने की
अपनी पीठ के अंगारों पर
विस्मृति की एक बर्फीली सफेद चादर ढँकने की
और पुनः शुरू करती है काउंटडाउन
सब ठीक होने की उम्मीद में
पंखों को सँवारने की
अपनी पीठ के अंगारों पर
विस्मृति की एक बर्फीली सफेद चादर ढँकने की
और पुनः शुरू करती है काउंटडाउन
सब ठीक होने की उम्मीद में
पगली है …
नहीं जानती कि
लड़कियों के हिस्से में फफोले ही आते हैं
ज़िन्दगी कम पके या ज्यादा ……
नहीं जानती कि
लड़कियों के हिस्से में फफोले ही आते हैं
ज़िन्दगी कम पके या ज्यादा ……
***
4. इश्क जामुनी-सा
लड़की बगीचे में बैठकर हर रोज़
एक उचटती सी नज़र डालती है
लाल गुलाब पर…
सुर्ख़ गुलाब देखकर
अब उसके चेहरे का रंग लाल नहीं होता..
दीवारों से झड़ते पलस्तर-सा
झड़ जाता है रंग उसके चेहरे का
अतीत के अलग-अलग सिरे पकड़ कर
वह गूँथने लगती है चोटी
और आखिरी सिरे पर
बाँध देती है एक लाल रिबन कसकर
ताकि वापिस लौटने की
कोई भी सँकरी गली
खुली न रह जाये।
लड़की की पुरानी फ्रॉक की जेब में
अब भी फड़फड़ाती हैं कुछ तितलियाँ …
जिन्हें उसने चुराया था
किसी की झरने-सी चमकती हँसी से
हर दिन तितलियों को
मुक्त करने की जद्दोजहद में
वह पके घाव-सी रिसती चली जाती है
मुक्त करने और मुक्त होने के
इस निरन्तर प्रयास में
उसने तय की है यात्रा
लाल से जामुनी रंग तक की
लड़की इन दिनों
उगाना सीख रही है
वक्त की क्यारियों में
जामुनी बूगनबेलिया,
जामुनी डहलिया, जामुनी
कमल और जामुनी गुलाब….
कमल और जामुनी गुलाब….
उसे शिद्दत से है इंतज़ार
उस दरवाज़े का जिस पर
अपने दोनों हाथों की जामुनी छाप लगाकर
वह लाल रंग को अलविदा कह सके….
बावरी है ….
नहीं समझती कि रंग भी अभिषप्त हैं
अपनी सदियों से गढ़ी परिभाषाओं से …
इश्क का रंग
भला कब जामुनी हुआ है …
***
5. जूठे
जामुन जैसे ख़्वाब
जामुन जैसे ख़्वाब
लड़की हर रात
नींद में भी
अंजुरी भर-भर
के
के
पानी छाँटती
रहती अपनी आँखों पर
रहती अपनी आँखों पर
इस उम्मीद में
कि शायद
कि शायद
धूल-मिट्टी और
किरचों के साफ़ होने पर
किरचों के साफ़ होने पर
उसे दिखाई देने
लगेंगे
लगेंगे
वो सपने, वो लोग
जिन्हें वो
नींद में भी देखना चाहती है
नींद में भी देखना चाहती है
इंतज़ार की कच्ची डोर बार-बार टूटती
अब डोर में डोर
कम गिरहें ज्यादा थीं
कम गिरहें ज्यादा थीं
उलझे बालों की लटें भी
सुलझने के
इन्तजार में
इन्तजार में
और उलझती चली
जा रहीं थीं
जा रहीं थीं
ऐसी तमाम रातें
लम्बी-लम्बी
उम्र लिखवा कर लातीं अपने नाम ..
उम्र लिखवा कर लातीं अपने नाम ..
लड़की रात भर दम
साधे
साधे
अँधेरे के
लट्टू पर
लट्टू पर
उजालों के धागे
लपेटती
लपेटती
और जैसे ही
चहचहाती दूर कहीं.. कोई चिरैया
चहचहाती दूर कहीं.. कोई चिरैया
वो अपने सपनों
पर लगा देती
पर लगा देती
पलकों का
ताला
ताला
आईने के सामने
खड़ी होकर
खड़ी होकर
अंजुरी भर पानी
छाँटती चेहरे पर
छाँटती चेहरे पर
और गौर से
देखती
देखती
लाल-लाल, फूली-फूली
आँखों को
आँखों को
गोया पलकों के
एक किनारे पर
एक किनारे पर
कहीं कोई सपना
छूट तो नहीं
गया न
गया न
पगली है ….
इतना आसान होता
है क्या
है क्या
सुग्गे के जूठे
जामुन जैसे
जामुन जैसे
मीठे जामुनी
ख़्वाबों का नींद में आना …..
ख़्वाबों का नींद में आना …..
***
6. पीठ पर जंगल
लड़की अपनी पीठ पर
एक शहर लादे चलती है
जिसमें बेतरतीब फैले हैं यादों के जंगल..
एक शहर लादे चलती है
जिसमें बेतरतीब फैले हैं यादों के जंगल..
उम्र की हर सीढ़ी पर
उसके रोपे हुए तुलसी के बिरवे
कब कँटीले बबूल बन जाते हैं
उसे पता ही नहीं चलता,
उससे एक हाथ आगे चलती नदी
भरी बरसात में गायब हो जाती है
किसी के कमण्डल में
और वह
उदासियों की मुस्कराहट ओढ़े
पीछे बची रेत पर
काग़ज की छोटी-छोटी कश्तियाँ
तैराती रहती है..
उसके रोपे हुए तुलसी के बिरवे
कब कँटीले बबूल बन जाते हैं
उसे पता ही नहीं चलता,
उससे एक हाथ आगे चलती नदी
भरी बरसात में गायब हो जाती है
किसी के कमण्डल में
और वह
उदासियों की मुस्कराहट ओढ़े
पीछे बची रेत पर
काग़ज की छोटी-छोटी कश्तियाँ
तैराती रहती है..
छोटी-सी खिड़की वाले एक घर में
कभी उसकी हँसी फैलकर
बरगद बन गयी थी,
उसकी कुर्ती का गुलाबी रंग
किसी के होठों पर फ़ैल गया था..
लड़की अब भी शहर के
बाहर बने मन्दिर में
घण्टियाँ बजाती है,
अपनी पीठ पर चुभे काँटे
घाट पर धोती है
नींद में फूटते हैं तुलसी के बिरवे
उसकी आँखों में
बरगद पर झूले पींगें लेते हैं,
नदी समो जाती है उसके दुपट्टे में
और गुलाबी रंग गहरा कर जामुनी बन जाता है
कभी उसकी हँसी फैलकर
बरगद बन गयी थी,
उसकी कुर्ती का गुलाबी रंग
किसी के होठों पर फ़ैल गया था..
लड़की अब भी शहर के
बाहर बने मन्दिर में
घण्टियाँ बजाती है,
अपनी पीठ पर चुभे काँटे
घाट पर धोती है
नींद में फूटते हैं तुलसी के बिरवे
उसकी आँखों में
बरगद पर झूले पींगें लेते हैं,
नदी समो जाती है उसके दुपट्टे में
और गुलाबी रंग गहरा कर जामुनी बन जाता है
बावरी है लड़की
फूलों की चाहत में पीठ पर
काँटे उठाये चलती जा रही है…
फूलों की चाहत में पीठ पर
काँटे उठाये चलती जा रही है…
***
7. अक्कड़-बक्कड़ बम्बे-बो
लड़की
घुटनो में चेहरा छिपाये
जार-जार रोती है
रोने के अनेकों कारण
पतझर के पीले पात-से
हौले-हौले उड़े चले आते हैं
लड़की..अक्कड-बक्कड़ बम्बे बो
अस्सी- नब्बे पूरे सौ ..गिनकर
कारण और आँसुओं को मैच करती रहती है
कलेजे से उठती हूक का
असली कारण इमली के पेड़ पर
फंदा लगाकर झूल जाता है…
घुटनो में चेहरा छिपाये
जार-जार रोती है
रोने के अनेकों कारण
पतझर के पीले पात-से
हौले-हौले उड़े चले आते हैं
लड़की..अक्कड-बक्कड़ बम्बे बो
अस्सी- नब्बे पूरे सौ ..गिनकर
कारण और आँसुओं को मैच करती रहती है
कलेजे से उठती हूक का
असली कारण इमली के पेड़ पर
फंदा लगाकर झूल जाता है…
वो
चारपाई-सी चरमराती रहती है
कैलेंडर के बदलते पन्नों
और तारीखों के शोर में
गुजरते वक्त से
बार-बार गुजरने की चाहत में
ढलते बरस की आख़िरी सीढ़ियों पर खड़ी
वो बेबस-सी तलाशती है
वापिस लौटने वाली सीढ़ियाँ
लड़की सहमते-सहमते
पहनती है इन दिनों
यादों के स्वेटर
कि डरती है अब वो
स्वेटर की तरह उधड़ जाने से,
फंदों को बुनना-उधेड़ना
उठाना-गिराना आया ही नहीं उसे,
वो तो कड़कड़ाती ठण्ड में भी
खुरपी लिए करती रहती है
यादों की गुड़ाई-निराई
सींचती है उन्हें आँसुओ से
और देखती है उनका घावों को चीरकर
अँखुआना, फूटना, पल्लवित
होना
चारपाई-सी चरमराती रहती है
कैलेंडर के बदलते पन्नों
और तारीखों के शोर में
गुजरते वक्त से
बार-बार गुजरने की चाहत में
ढलते बरस की आख़िरी सीढ़ियों पर खड़ी
वो बेबस-सी तलाशती है
वापिस लौटने वाली सीढ़ियाँ
लड़की सहमते-सहमते
पहनती है इन दिनों
यादों के स्वेटर
कि डरती है अब वो
स्वेटर की तरह उधड़ जाने से,
फंदों को बुनना-उधेड़ना
उठाना-गिराना आया ही नहीं उसे,
वो तो कड़कड़ाती ठण्ड में भी
खुरपी लिए करती रहती है
यादों की गुड़ाई-निराई
सींचती है उन्हें आँसुओ से
और देखती है उनका घावों को चीरकर
अँखुआना, फूटना, पल्लवित
होना
बावरी
है लड़की
नहीं जानती कि
जब-जब यादों पर फूल खिलेंगे
वह फिर से रोयेगी जार जार
और फिर एक हूक
लटक जायेगी इमली के पेड़ पर …
है लड़की
नहीं जानती कि
जब-जब यादों पर फूल खिलेंगे
वह फिर से रोयेगी जार जार
और फिर एक हूक
लटक जायेगी इमली के पेड़ पर …
***
8. एक बदरंग कोलाज
लड़की रोज़ आँखों में
काजल आँजती है
उसे लगता है कि
काजल लगाने से उसकी आँखे
बड़ी-बड़ी हो जायेंगी
और वो नींद में देख सकेगी
बड़े-बड़े सपने,
उदास नींद,खारे
आँसू, जिद्दी सपने
सब काजल के साथ मिलकर बनाते
एक बदरंग-सा कोलाज
हर सुबह लड़की के चेहरे पर,
परछाइयों पर परछाईयाँ जमती चली जातीं
और खिली धूप-सी लड़की
साँवली होती चली जाती
काजल आँजती है
उसे लगता है कि
काजल लगाने से उसकी आँखे
बड़ी-बड़ी हो जायेंगी
और वो नींद में देख सकेगी
बड़े-बड़े सपने,
उदास नींद,खारे
आँसू, जिद्दी सपने
सब काजल के साथ मिलकर बनाते
एक बदरंग-सा कोलाज
हर सुबह लड़की के चेहरे पर,
परछाइयों पर परछाईयाँ जमती चली जातीं
और खिली धूप-सी लड़की
साँवली होती चली जाती
लड़की भटकती है
जंगल-जंगल,पहाड़-पहाड़
अपनी मुट्ठी में दबाये सपनों के बीज,
अपनी आँखों पर भरोसा नहीं उसे
वो तलाशती है उन आँखों को
जो उसके सपनों का गर्भ पाल सकें
आँखें मिलतीं…लड़की हौले से रोपती
उन आँखों में अपने सपनों के बीज
दिन चढ़ते…पात टूटते….फूल झरते
मौसम बदलते
और न जाने कब आँखें भी बदल जातीं
सपने सड़ जाते
पकने के पहले ही…
जंगल-जंगल,पहाड़-पहाड़
अपनी मुट्ठी में दबाये सपनों के बीज,
अपनी आँखों पर भरोसा नहीं उसे
वो तलाशती है उन आँखों को
जो उसके सपनों का गर्भ पाल सकें
आँखें मिलतीं…लड़की हौले से रोपती
उन आँखों में अपने सपनों के बीज
दिन चढ़ते…पात टूटते….फूल झरते
मौसम बदलते
और न जाने कब आँखें भी बदल जातीं
सपने सड़ जाते
पकने के पहले ही…
लड़की इन दिनों आईना नहीं देखती
डरती है वो अपनी आँखों से
अपनी आँखों में बसी आँखों से
लड़की आजकल
अपनी टूटी कलम से
काग़ज पर सपने लिखती है
बावरी है …नहीं जानती
कि काग़जी सपने कभी सच नहीं होते ।
डरती है वो अपनी आँखों से
अपनी आँखों में बसी आँखों से
लड़की आजकल
अपनी टूटी कलम से
काग़ज पर सपने लिखती है
बावरी है …नहीं जानती
कि काग़जी सपने कभी सच नहीं होते ।
***
मालिनी गौतम
574, मंगल
ज्योत सोसाइटी
ज्योत सोसाइटी
संतरामपुर-389260
जिला-महीसागर
गुजरात
मो. 9427078711
सुन्दर कविताएँ
मालिनी जी की कविताओं में ताज़गी है. हालांकि इस विषय पर अनगिनत कविताएँ लिखी गई हैं पर नये बिंबाें एवं प्रतीकाें के सहज सरल प्रयोगाें से मालिनी जी कि कविताएँ अलग नज़र आती हैं एवं और भी अधिक प्रभावी प्रतीत हाे रही हैं. इन कविताओं से गुज़रते हुए मुझे एन्ने फ्रैंक की डायरी याद आ रही है जिसमें वह माता-पिता और बहन के अलावा चार-पाँच और पुरुष सदस्यों के साथ नाज़ियाें के डर लगभग दाे बरस Annex या उपभवन में गुप्त रूप से रहती है एवं तमाम विषम परिस्थितियों का बखूबी सामना करती है. निराशा के अनगिनत क्षणाें के बावजूद वह एनेक्स में रह रहे लाेगाें विशेषकर पुरुषों काे जीने का सलीका सिखाती है ..मुझे उम्मीद है कि तमाम नाउम्मीदी के बावजूद भी मालिनी जी की कविताआें की लड़कियाँ भी अंततोगत्वा जीने की राह में मजबूती से आगे बढ़ेंगी.. मालिनी जी काे हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ
शिरीष मौर्य जी ने मालिनी गौतम की जिन कविताओं को यहाँ लगाया है , वह स्त्री संवेदना की बेहतरीन कविताएँ हैं। उनमें समकालीन कवयित्रियों की अपेक्षा स्त्री सम्वेदना का शिल्प अधिक धार लिए हुए, अधिक मार्मिक बन पड़ी है । मालिनी ने इन आठ कविताओं में एक लड़की की मनोदशाएं , उसके जीवन के द्वंद्व के बीच बड़े सलीके से खोल कर रख दिया है जो पाठकों को एक बार पढ़ने के लिए मजबूर करती है। यह उनके कवि के उत्तरोत्तर कथ्य और काव्यात्मकता में आगे जाने का विलक्षण संकेत है।